तृतीय प्रश्न
१९ कौसल्य का प्रश्न-प्राण के उत्पत्ति, स्थित और लय आदि
तदन्तर, उन (पिप्पलाद मुनि) से अश्वल के पुत्र कौसल्य ने पूछा - 'भगवन! यह प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है? किस प्रकार इस शरीर में आता है? तथा अपना विभाग करके किस प्रकार स्थित होता है? फिर किस कारण शरीर से उत्क्रमण करता है और किस तरह बाह्य एवं आभ्यंतर शरीर को धारण करता है? २० पिप्पलाद मुनि का उत्तर उससे पिप्पलाद आचार्य ने कहा - 'तू बड़े कठिन प्रश्न पूछता है। परन्तु तू (बड़ा) ब्रह्मवेत्ता है; अतः मैं तेरे प्रश्नों के उत्तर देता हूँ। २१ प्राण की उत्पत्ति यह प्राण आत्मा से उत्पन्न होता है। जिस प्रकार मनुष्य-शरीर से यह छाया उत्पन्न होती है उसी प्रकार इस आत्मा में प्राण व्याप्त है तथा यह मनोकृत संकल्पादि से इस शरीर में आ जाता है। २२ प्राण का इन्द्रियाधिष्ठातृत्व जिस प्रकार सम्राट ही 'तुम इन-इन ग्रामों मर रहो' इस प्रकार अधिकारियों को नियुक्त करता है उसी प्रकार यह मुख्य प्राण ही अन्य प्राणों (इन्द्रियों) को अलग-अलग नियुक्त करता है। २३ पञ्च प्राणों की स्थिति वह(प्राण) पायु और उपस्थ में अपां को (नियुक्त करता है) और मुख तथा नासिका से निकलता हुआ नेत्र एवं श्रोत्र में स्वयं स्थित होता है तथा मध्य में समान रहता है। यह (समानवायु) ही खाए हुए अन्न को समभाव से (शरीर में सर्वत्र) ले जाता है। उस [प्राणाग्नि] से ही [दो नेत्र], दो कर्ण, दो नासारंध्र और एक रसना] ये सात ज्वालायें उत्पन्न होती है। २४ लिंगदेह की स्थिति यह आत्मा ह्रदय में है। इस ह्रदय देश में एक सौ एक नदियाँ है। उनमें से एक-एक की सौ-सौ शाखाएं हैं और उनमें से प्रत्येक की बहत्तर-बहत्तर हजार प्रतिशाखा नाडिया हैं। इन सबमें व्यं संचार करता है। |
२५ प्राणोंत्क्रमण का प्रकार
तथा [इन सब नदियों में से सुषुम्ना नाम की] एक नाडी द्वारा ऊपर की ओर गमन करने वाला उदानवायु (जीव को) पुण्य-कर्म के द्वारा पुण्यलोक को और पाप कर्म के द्वारा पापमय लोक को ले जाता है तथा पूण्य-पाप दोनों प्रकार के (मिश्रित) कर्मों द्वारा उसे मनुष्यलोक को प्राप्त करता है।\ २६ बाह्य प्राणादि का निरूपण निश्चय आदित्य ही बाह्य प्राण है। यह इस चाक्षुक (नेत्रेंद्रियस्थित) प्राण पर अनुग्रह करता हुआ उदित होता है। पृथिवी में जो देवता है वह पुरुष के अपानवायु को आकर्षण किये हुए है। इन दोनों के मध्य में जो आकाश है वह समान है और वायु ही व्यान है। लोकप्रसिद्ध (आदित्यरूप) तेज ही उड़ान है। अतः जिसका तेज (शारीरिक ऊष्मा) शांत हो जाता है वह मन में लीं हुई इन्द्रियों के सहित पुर्जन्म को (अथवा पुनर्जन्म के हेतुभूत मृत्यु को) प्राप्त हो जाता है। २७ मरणकालिक संकल्प का फल इसका जैसा चित्त होता है उसके सहित यह प्राण को प्राप्त होता है। तथा प्राण तेज से (उदानवृत्ति से) संयुक्त हो [उस भोक्ता को] आत्मा के सहित संकल्प किये हुए लोक को ले जाता है। जो विद्वान् प्राण को इस प्रकार जानता है उसकी प्रजा नष्ट नहीं होती। वह अमर हो जाता है इस विषय में यह श्लोक है। उत्पत्तिमायन्ति स्थानं विभुत्वं चैव पञ्चधा। अध्यातमं चैव प्राणस्य विज्ञायामृतमश्नुते। विज्ञायामृतमश्नुत इति॥ प्राण उत्पत्ति, आगमन, स्थान, व्यापकता एवं बाह्य और आध्यात्मिक भेद से पांच प्रकार की स्थिति जानकार मनुष्य अमरत्व प्राप्त कर लेता है - अमरत्व प्राप्त कर लेता है। |