Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३१
[ऋषि -हिरण्यस्तूप अंङ्गिरस। देवता- अग्नि। छन्द जगती ८,१६,१८ त्रिष्टुप।]
३५१.त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरा ऋषिर्देवो देवानामभवः शिवः सखा । तव व्रते कवयो विद्मनापसोऽजायन्त मरुतो भ्राजदृष्टयः ॥१॥
हे अग्निदेव! आप सर्वप्रथम अंगिरा ऋषि के रूप मे प्रकट हुये, तदनन्तर सर्वद्रष्टा, दिव्यतायुक्त, कल्याणकारी और देवो के सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप मे प्रतिष्ठित हुए। आप के व्रतानुशासन से मरूद गण क्रान्तदर्शी कर्मो के ज्ञाता और श्रेष्ठ तेज आयुधो से युक्त हुये है॥१॥
३५२.त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरस्तमः कविर्देवानां परि भूषसि व्रतम् । विभुर्विश्वस्मै भुवनाय मेधिरो द्विमाता शयुः कतिधा चिदायवे ॥२॥
हे अग्निदेव! आप अंगिराओ मे आद्य और शिरोमणि है। आप देवताओ के नियमो को सुशोभित करते है। आप संसार मे व्याप्त तथा दो माताओ वाले दो अरणियो से समुद्भूत होने से बुद्धिमान है। आप मनुष्यों के हितार्थ सर्वत्र विद्यमान रहते हैं॥२॥
३५३.त्वमग्ने प्रथमो मातरिश्वन आविर्भव सुक्रतूया विवस्वते । अरेजेतां रोदसी होतृवूर्येऽसघ्नोर्भारमयजो महो वसो ॥३॥
हे अग्निदेव! आप ज्योतिर्मय सूर्यदेव के पूर्व और वायु के भी पूर्व आविर्भूत हुए। आपके बल से आकाश और पृथ्वी कांप गये। होता रूप मे वरण किये जाने पर आपने यज्ञ के कार्य का संपादन किया। देवो का यजनकार्य पूर्ण करने के लिये आप यज्ञ वेदी पर स्थापित हुए ॥३॥
३५४.त्वमग्ने मनवे द्यामवाशयः पुरूरवसे सुकृते सुकृत्तरः । श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः ॥४॥
हे अग्निदेव! आप अत्यन्त श्रेष्ठ कर्म वाले है। आपने मनु और सुकर्मा-पुरूरवा को स्वर्ग के आशय से अवगत कराया। जब आप मातृ पितृ रूप दो काष्ठो के मंथन से उत्पन्न हुये, तो सूर्यदेव की तरह पूर्व से पश्चिम तक व्याप्त हो गये॥४॥
३५५.त्वमग्ने वृषभः पुष्टिवर्धन उद्यतस्रुचे भवसि श्रवाय्यः । य आहुतिं परि वेदा वषट्कृतिमेकायुरग्रे विश आविवाससि ॥५॥
हे अग्निदेव! आप बड़े बलिष्ठ और पुष्टिवर्धक है। हविदाता, स्त्रुवा हाथ मे लिये स्तुति को उद्यत है, जो वषटकार युक्त आहुति देता है, उस याजक को आप अग्रणी पुरुष के रूप मे प्रतिष्ठित करते है॥५॥
३५६.त्वमग्ने वृजिनवर्तनिं नरं सक्मन्पिपर्षि विदथे विचर्षणे । यः शूरसाता परितक्म्ये धने दभ्रेभिश्चित्समृता हंसि भूयसः ॥६॥
हे विशिष्ट द्रष्टा अग्निदेव! आप पापकर्मियो का भी उद्धार करते है। बहुसंख्यक शत्रुओ का सब ओर से आक्रमण होने पर भी थोड़े से वीर पुरुषो को लेकर सब शत्रुओ को मार गिराते है॥६॥
३५७.त्वं तमग्ने अमृतत्व उत्तमे मर्तं दधासि श्रवसे दिवेदिवे । यस्तातृषाण उभयाय जन्मने मयः कृणोषि प्रय आ च सूरये ॥७॥
हे अग्निदेव! आप अपने अनुचर मनुष्यो को दिनप्रतिदिन अमरपद का अधिकारी बनाते है, जिसे पाने की उत्कट अभिलाषा देवगण और मनुष्य दोनो की करते रहते है। वीर पुरुषो को अन्न और धन द्वारा सुखी बनाते हैं॥७॥
३५८.त्वं नो अग्ने सनये धनानां यशसं कारुं कृणुहि स्तवानः । ऋध्याम कर्मापसा नवेन देवैर्द्यावापृथिवी प्रावतं नः ॥८॥
हे अग्निदेव! प्रशंसित होने वाले आप हमे धन प्राप्त करने की सामर्थ्य दें। हमे यशस्वी पुत्र प्रदान करें। नये उत्साह के साथ हम यज्ञादि कर्म करें। द्यावा, पृथ्वी और देवगण सब प्रकार से रक्षा करें॥८॥
३५९.त्वं नो अग्ने पित्रोरुपस्थ आ देवो देवेष्वनवद्य जागृविः । तनूकृद्बोधि प्रमतिश्च कारवे त्वं कल्याण वसु विश्वमोपिषे ॥९॥
हे निर्दोष अग्निदेव! सब देवो मे चैतन्य रूप आप हमारे मातृ पितृ (उत्पन्न करने वाले) हैं। आप ने हमे बोध प्राप्त करने की सामर्थ्य दी, कर्म को प्रेरित करने वाली बुद्धि विकसित की। हे कल्याणरूप अग्निदेव ! हमे आप सम्पूर्ण ऐश्वर्य भी प्रदान करें॥९॥
३६०.त्वमग्ने प्रमतिस्त्वं पितासि नस्त्वं वयस्कृत्तव जामयो वयम् । सं त्वा रायः शतिनः सं सहस्रिणः सुवीरं यन्ति व्रतपामदाभ्य ॥१०॥
हे अग्निदेव! आप विशिष्ट बुद्धि-सम्पन्न, हमारे पिता रूप, आयु प्रदाता और बन्धु रूप है। आप उत्तमवीर, अटलगुण सम्पन्न, नियम-पालक और असंख्यो धनो से सम्पन्न है॥१०॥
३६१.त्वामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषस्य विश्पतिम् । इळामकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जायते ॥११॥
हे अग्निदेव! देवताओ ने सर्वप्रथम आपको मनुष्यो के हित के लिये राजा रूप मे स्थापित किया। तपश्चात जब हमारे (हिरण्यस्तूप ऋषि) पिता अंगिरा ऋषि ने आपको पुत्र रूप मे आविर्भूत किया, तब देवतओ ने मनु की पुत्री इळा को शासन-अनुशासन(धर्मोपदेश) कर्त्री बनाया॥११॥
३६२.त्वं नो अग्ने तव देव पायुभिर्मघोनो रक्ष तन्वश्च वन्द्य । त्राता तोकस्य तनये गवामस्यनिमेषं रक्षमाणस्तव व्रते ॥१२॥
हे अग्निदेव! आप वन्दना के योग्य है। आप रक्षण साधनो से धनयुक्त हमारी रक्षा करें। हमारी शारीरिक क्षमता को अपनी सामर्थ्य से पोषित करें। शीघ्रतापूर्वक संरक्षित करने वाले आप हमारे पुत्र-पौत्रादि और गवादि पशुओं के संरक्षक हों॥१२॥
३६३.त्वमग्ने यज्यवे पायुरन्तरोऽनिषङ्गाय चतुरक्ष इध्यसे । यो रातहव्योऽवृकाय धायसे कीरेश्चिन्मन्त्रं मनसा वनोषि तम् ॥१३॥
हे अग्निदेव आप याजको के पोषक है, जो सज्जन हविदाता आपको श्रेष्ठ, पोषक हविष्यान्न देते है, आप उनकी सभी प्रकार से रक्षा करते हैं। आप साधको(उपासको) की स्तुति हृदय से स्वीकार करते है॥१३॥
३६४.त्वमग्न उरुशंसाय वाघते स्पार्हं यद्रेक्णः परमं वनोषि तत् । आध्रस्य चित्प्रमतिरुच्यसे पिता प्र पाकं शास्सि प्र दिशो विदुष्टरः ॥१४॥
हे अग्निदेव! आप स्तुति करने वाले ऋत्विजो को धन प्रदान करते गौ। आप दुर्बलो को पिता रूप मे पोषण देनेवाले और अज्ञानी जनो को विशिष्ट ज्ञान प्रदान करने वाले मेधावी है॥१४॥
३६५.त्वमग्ने प्रयतदक्षिणं नरं वर्मेव स्यूतं परि पासि विश्वतः । स्वादुक्षद्मा यो वसतौ स्योनकृज्जीवयाजं यजते सोपमा दिवः ॥१५॥
हे अग्निदेव! आप पुरुषार्थी यजमानो की कवच रूप मे सुरक्षा करते है। जो अपने घर मे मधुर हविष्यान्न देकर सुखप्रद यज्ञ करता है वह घर स्वर्ग की उपमा के योग्य होता है॥१५॥
३६६.इमामग्ने शरणिं मीमृषो न इममध्वानं यमगाम दूरात् । आपिः पिता प्रमतिः सोम्यानां भृमिरस्यृषिकृन्मर्त्यानाम् ॥१६॥
हे अग्निदेव! आप यज्ञ कर्म करते समय हुई हमारी भूलों को क्षमा करे, जो लोग यज्ञ मार्ग से भटक गये है, उन्हे भी क्षमा करें। आप सोमयाग करने वाले याजको के बन्धु और पिता है। सद्बुद्धि प्रदान करनेवाले ऐर ऋषिकर्म के कुशल प्रणेता है॥१६॥
३६७.मनुष्वदग्ने अङ्गिरस्वदङ्गिरो ययातिवत्सदने पूर्ववच्छुचे । अच्छ याह्या वहा दैव्यं जनमा सादय बर्हिषि यक्षि च प्रियम् ॥१७॥
हे पवित्र अंगिरा अग्निदेव! (अंगो मे व्याप्त अग्नि) आप मनु, अंगिरा(ऋषि), ययाति जैसे पुरुषो के साथ देवो को ले जाकर यज्ञ स्थल पर सुशोभित हों। उन्हे कुश के आसन पर प्रतिष्ठित करते हुये सम्मानित करें॥१७॥
३६८.एतेनाग्ने ब्रह्मणा वावृधस्व शक्ती वा यत्ते चकृमा विदा वा । उत प्र णेष्यभि वस्यो अस्मान्सं नः सृज सुमत्या वाजवत्या ॥१८॥
हे अग्निदेव! इन मंत्र रूप स्तुतियों से आप वृद्धि को प्राप्त करें। अपनी शक्ति या ज्ञान से हमने जो यजन किया है, उससे हमे ऐश्वर्य प्रदान करें। बल बढाने वाले अन्नो के साथ शुभ मति से हमे सम्पन्न करें॥१८॥
३५१.त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरा ऋषिर्देवो देवानामभवः शिवः सखा । तव व्रते कवयो विद्मनापसोऽजायन्त मरुतो भ्राजदृष्टयः ॥१॥
हे अग्निदेव! आप सर्वप्रथम अंगिरा ऋषि के रूप मे प्रकट हुये, तदनन्तर सर्वद्रष्टा, दिव्यतायुक्त, कल्याणकारी और देवो के सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप मे प्रतिष्ठित हुए। आप के व्रतानुशासन से मरूद गण क्रान्तदर्शी कर्मो के ज्ञाता और श्रेष्ठ तेज आयुधो से युक्त हुये है॥१॥
३५२.त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरस्तमः कविर्देवानां परि भूषसि व्रतम् । विभुर्विश्वस्मै भुवनाय मेधिरो द्विमाता शयुः कतिधा चिदायवे ॥२॥
हे अग्निदेव! आप अंगिराओ मे आद्य और शिरोमणि है। आप देवताओ के नियमो को सुशोभित करते है। आप संसार मे व्याप्त तथा दो माताओ वाले दो अरणियो से समुद्भूत होने से बुद्धिमान है। आप मनुष्यों के हितार्थ सर्वत्र विद्यमान रहते हैं॥२॥
३५३.त्वमग्ने प्रथमो मातरिश्वन आविर्भव सुक्रतूया विवस्वते । अरेजेतां रोदसी होतृवूर्येऽसघ्नोर्भारमयजो महो वसो ॥३॥
हे अग्निदेव! आप ज्योतिर्मय सूर्यदेव के पूर्व और वायु के भी पूर्व आविर्भूत हुए। आपके बल से आकाश और पृथ्वी कांप गये। होता रूप मे वरण किये जाने पर आपने यज्ञ के कार्य का संपादन किया। देवो का यजनकार्य पूर्ण करने के लिये आप यज्ञ वेदी पर स्थापित हुए ॥३॥
३५४.त्वमग्ने मनवे द्यामवाशयः पुरूरवसे सुकृते सुकृत्तरः । श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः ॥४॥
हे अग्निदेव! आप अत्यन्त श्रेष्ठ कर्म वाले है। आपने मनु और सुकर्मा-पुरूरवा को स्वर्ग के आशय से अवगत कराया। जब आप मातृ पितृ रूप दो काष्ठो के मंथन से उत्पन्न हुये, तो सूर्यदेव की तरह पूर्व से पश्चिम तक व्याप्त हो गये॥४॥
३५५.त्वमग्ने वृषभः पुष्टिवर्धन उद्यतस्रुचे भवसि श्रवाय्यः । य आहुतिं परि वेदा वषट्कृतिमेकायुरग्रे विश आविवाससि ॥५॥
हे अग्निदेव! आप बड़े बलिष्ठ और पुष्टिवर्धक है। हविदाता, स्त्रुवा हाथ मे लिये स्तुति को उद्यत है, जो वषटकार युक्त आहुति देता है, उस याजक को आप अग्रणी पुरुष के रूप मे प्रतिष्ठित करते है॥५॥
३५६.त्वमग्ने वृजिनवर्तनिं नरं सक्मन्पिपर्षि विदथे विचर्षणे । यः शूरसाता परितक्म्ये धने दभ्रेभिश्चित्समृता हंसि भूयसः ॥६॥
हे विशिष्ट द्रष्टा अग्निदेव! आप पापकर्मियो का भी उद्धार करते है। बहुसंख्यक शत्रुओ का सब ओर से आक्रमण होने पर भी थोड़े से वीर पुरुषो को लेकर सब शत्रुओ को मार गिराते है॥६॥
३५७.त्वं तमग्ने अमृतत्व उत्तमे मर्तं दधासि श्रवसे दिवेदिवे । यस्तातृषाण उभयाय जन्मने मयः कृणोषि प्रय आ च सूरये ॥७॥
हे अग्निदेव! आप अपने अनुचर मनुष्यो को दिनप्रतिदिन अमरपद का अधिकारी बनाते है, जिसे पाने की उत्कट अभिलाषा देवगण और मनुष्य दोनो की करते रहते है। वीर पुरुषो को अन्न और धन द्वारा सुखी बनाते हैं॥७॥
३५८.त्वं नो अग्ने सनये धनानां यशसं कारुं कृणुहि स्तवानः । ऋध्याम कर्मापसा नवेन देवैर्द्यावापृथिवी प्रावतं नः ॥८॥
हे अग्निदेव! प्रशंसित होने वाले आप हमे धन प्राप्त करने की सामर्थ्य दें। हमे यशस्वी पुत्र प्रदान करें। नये उत्साह के साथ हम यज्ञादि कर्म करें। द्यावा, पृथ्वी और देवगण सब प्रकार से रक्षा करें॥८॥
३५९.त्वं नो अग्ने पित्रोरुपस्थ आ देवो देवेष्वनवद्य जागृविः । तनूकृद्बोधि प्रमतिश्च कारवे त्वं कल्याण वसु विश्वमोपिषे ॥९॥
हे निर्दोष अग्निदेव! सब देवो मे चैतन्य रूप आप हमारे मातृ पितृ (उत्पन्न करने वाले) हैं। आप ने हमे बोध प्राप्त करने की सामर्थ्य दी, कर्म को प्रेरित करने वाली बुद्धि विकसित की। हे कल्याणरूप अग्निदेव ! हमे आप सम्पूर्ण ऐश्वर्य भी प्रदान करें॥९॥
३६०.त्वमग्ने प्रमतिस्त्वं पितासि नस्त्वं वयस्कृत्तव जामयो वयम् । सं त्वा रायः शतिनः सं सहस्रिणः सुवीरं यन्ति व्रतपामदाभ्य ॥१०॥
हे अग्निदेव! आप विशिष्ट बुद्धि-सम्पन्न, हमारे पिता रूप, आयु प्रदाता और बन्धु रूप है। आप उत्तमवीर, अटलगुण सम्पन्न, नियम-पालक और असंख्यो धनो से सम्पन्न है॥१०॥
३६१.त्वामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषस्य विश्पतिम् । इळामकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जायते ॥११॥
हे अग्निदेव! देवताओ ने सर्वप्रथम आपको मनुष्यो के हित के लिये राजा रूप मे स्थापित किया। तपश्चात जब हमारे (हिरण्यस्तूप ऋषि) पिता अंगिरा ऋषि ने आपको पुत्र रूप मे आविर्भूत किया, तब देवतओ ने मनु की पुत्री इळा को शासन-अनुशासन(धर्मोपदेश) कर्त्री बनाया॥११॥
३६२.त्वं नो अग्ने तव देव पायुभिर्मघोनो रक्ष तन्वश्च वन्द्य । त्राता तोकस्य तनये गवामस्यनिमेषं रक्षमाणस्तव व्रते ॥१२॥
हे अग्निदेव! आप वन्दना के योग्य है। आप रक्षण साधनो से धनयुक्त हमारी रक्षा करें। हमारी शारीरिक क्षमता को अपनी सामर्थ्य से पोषित करें। शीघ्रतापूर्वक संरक्षित करने वाले आप हमारे पुत्र-पौत्रादि और गवादि पशुओं के संरक्षक हों॥१२॥
३६३.त्वमग्ने यज्यवे पायुरन्तरोऽनिषङ्गाय चतुरक्ष इध्यसे । यो रातहव्योऽवृकाय धायसे कीरेश्चिन्मन्त्रं मनसा वनोषि तम् ॥१३॥
हे अग्निदेव आप याजको के पोषक है, जो सज्जन हविदाता आपको श्रेष्ठ, पोषक हविष्यान्न देते है, आप उनकी सभी प्रकार से रक्षा करते हैं। आप साधको(उपासको) की स्तुति हृदय से स्वीकार करते है॥१३॥
३६४.त्वमग्न उरुशंसाय वाघते स्पार्हं यद्रेक्णः परमं वनोषि तत् । आध्रस्य चित्प्रमतिरुच्यसे पिता प्र पाकं शास्सि प्र दिशो विदुष्टरः ॥१४॥
हे अग्निदेव! आप स्तुति करने वाले ऋत्विजो को धन प्रदान करते गौ। आप दुर्बलो को पिता रूप मे पोषण देनेवाले और अज्ञानी जनो को विशिष्ट ज्ञान प्रदान करने वाले मेधावी है॥१४॥
३६५.त्वमग्ने प्रयतदक्षिणं नरं वर्मेव स्यूतं परि पासि विश्वतः । स्वादुक्षद्मा यो वसतौ स्योनकृज्जीवयाजं यजते सोपमा दिवः ॥१५॥
हे अग्निदेव! आप पुरुषार्थी यजमानो की कवच रूप मे सुरक्षा करते है। जो अपने घर मे मधुर हविष्यान्न देकर सुखप्रद यज्ञ करता है वह घर स्वर्ग की उपमा के योग्य होता है॥१५॥
३६६.इमामग्ने शरणिं मीमृषो न इममध्वानं यमगाम दूरात् । आपिः पिता प्रमतिः सोम्यानां भृमिरस्यृषिकृन्मर्त्यानाम् ॥१६॥
हे अग्निदेव! आप यज्ञ कर्म करते समय हुई हमारी भूलों को क्षमा करे, जो लोग यज्ञ मार्ग से भटक गये है, उन्हे भी क्षमा करें। आप सोमयाग करने वाले याजको के बन्धु और पिता है। सद्बुद्धि प्रदान करनेवाले ऐर ऋषिकर्म के कुशल प्रणेता है॥१६॥
३६७.मनुष्वदग्ने अङ्गिरस्वदङ्गिरो ययातिवत्सदने पूर्ववच्छुचे । अच्छ याह्या वहा दैव्यं जनमा सादय बर्हिषि यक्षि च प्रियम् ॥१७॥
हे पवित्र अंगिरा अग्निदेव! (अंगो मे व्याप्त अग्नि) आप मनु, अंगिरा(ऋषि), ययाति जैसे पुरुषो के साथ देवो को ले जाकर यज्ञ स्थल पर सुशोभित हों। उन्हे कुश के आसन पर प्रतिष्ठित करते हुये सम्मानित करें॥१७॥
३६८.एतेनाग्ने ब्रह्मणा वावृधस्व शक्ती वा यत्ते चकृमा विदा वा । उत प्र णेष्यभि वस्यो अस्मान्सं नः सृज सुमत्या वाजवत्या ॥१८॥
हे अग्निदेव! इन मंत्र रूप स्तुतियों से आप वृद्धि को प्राप्त करें। अपनी शक्ति या ज्ञान से हमने जो यजन किया है, उससे हमे ऐश्वर्य प्रदान करें। बल बढाने वाले अन्नो के साथ शुभ मति से हमे सम्पन्न करें॥१८॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३२
[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता - इन्द्र। छन्द - त्रिष्टुप]
३६९.इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री । अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम् ॥१॥
मेघो को विदिर्ण कर पानी बरसाने वाले, पर्वतिय नदियो ले तटो को निर्मित करने वाले वज्रधारी, पराक्रमी इन्द्रदेव के कार्य वर्णनीय है। उन्होने जो प्रमुख वीरतापूरण कार्य किये , वे ये ही हैं॥१॥
३७०.अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष । वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः ॥२॥
इन्द्रदेव के लिये त्वष्टादेव ने शब्द चालित वज्र का निर्माण किया, उसी से इन्द्रदेव ने मेघो को विदिर्ण कर जल बरसाया। रंभाती हुयी गौओ के समान वे जलप्रवाह वेग से समुद्र की ओर चले गये॥२॥
३७१.वृषायमाणोऽवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेष्वपिबत्सुतस्य । आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् ॥३॥
अतिबलशाली इन्द्रदेव ने सोम को ग्रहण किया। यज्ञ मे तीन विशिष्ट पात्रो मे अभिषव किये हुये सोम का पान किया। ऐश्वर्यवान इन्द्रदेव ने बाण और वज्र को धारण कर मेघो मे प्रमुख मेघ को विदीर्ण किया॥३॥
३७२.यदिन्द्राहन्प्रथमजामहीनामान्मायिनाममिनाः प्रोत मायाः । आत्सूर्यं जनयन्द्यामुषासं तादीत्ना शत्रुं न किला विवित्से ॥४॥
हे इन्द्रदेव ! आपने मेघो मे प्रथम उत्पन्न मेघ को वेध दिया। मेघरूप मे छाये धुन्ध(मायावियो) को दूर किया, फिर आकाश मे उषा और सूर्य को प्रकट किया। अब कोई भी अवरोधक शत्रु शेष न रहा॥४॥
३७३.अहन्वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन । स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाहिः शयत उपपृक्पृथिव्याः ॥५॥
इन्द्रदेव ने घातक दिव्य वज्र से वृत्रासुर का वध किया। वृक्ष की शाखाओ को कुल्हाड़े से काटने के समान उसकी भुजाओ को काटा ऐर तने की तरह इसे काटकर भूमि पर गिरा दिया॥५॥
३७४.अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम् । नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजानाः पिपिष इन्द्रशत्रुः ॥६॥
अपने को अप्रतिम योद्धा मानने वाले मिथ्या अभिमानी वृत्र ने महाबली, शत्रुवेधक, शत्रुनाशक इन्द्रदेव को ललकारा और इन्द्रदेव के आघातो को सहन न कर गिरते हुये नदियो के किनारो को तोड़ दिया॥६॥
३७५.अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान । वृष्णो वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन्पुरुत्रा वृत्रो अशयद्व्यस्तः ॥७॥
हाथ और पांव के कट जाने पर भी वृत्र ने इन्द्रदेव से युद्ध करने का प्रयास किया। इन्द्रदेव ने उसके पर्वत सदृश कन्धो पर वज्र का प्रहार किया। इतने पर भी वह वर्षा करने मे समर्थ इन्द्रदेव के सम्मुख वह डटा रहा। अन्ततः इन्द्रदेव के आघातो से ध्वस्त होकर भूमि पर गिर पड़ा॥७॥
३७६.नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः । याश्चिद्वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत्तासामहिः पत्सुतःशीर्बभूव ॥८॥
जैसे नदी की बाढ़ तटो को लांघ जाती है है, वैसे ही मन को प्रसन्न करने वाले जल(जल अवरोधक) वृत्र को लांघ जाते है। जिन जलो को ’वृत्र’ ने अपने बल से आबद्ध किया था, उन्ही के नीचे ’वृत्र’ मृत्युशय्या पर पड़ा सो रहा है॥८॥
३७७.नीचावया अभवद्वृत्रपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार । उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दानुः शये सहवत्सा न धेनुः ॥९॥
वृत्र की माता शुककर वृत्र का संरक्षण करने लगी, इन्द्रदेव के प्रहार से बचाव के लिये वह वृत्र पर सो गयी. फिर भी इन्द्रदेव ने नीचे से उस पर प्रहार किया। उससमय माता ऊपर और पुत्र नीचे था, जैसे गाय अपने बछड़े के साथ सोती है॥९॥
३७८.अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम् । वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घं तम आशयदिन्द्रशत्रुः ॥१०॥
एक स्थान पर न रुकने वाले अविश्रांत (मेघरुप) जल-प्रवाहो के मध्य वृत्र का अनाम शरीर छिपा रहता है। वह दिर्घ निद्रा मे पड़ा रहता है, उसके ऊपर जल प्रवाह बना रहता है॥१०॥
३७९.दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः । अपां बिलमपिहितं यदासीद्वृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार ॥११॥
’पणि’ नामक असुर ने जिस प्रकार गौओ अथवा किरणो को अवरूद्ध कर रखा था, उसी प्रकार जल-प्रवाहो को अगतिशील वृत्र ने रोक रखा था। वृत्र का वध कर वे प्रवाह खोल दिये गये॥११॥
३८०.अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्त्वा प्रत्यहन्देव एकः । अजयो गा अजयः शूर सोममवासृजः सर्तवे सप्त सिन्धून् ॥१२॥
हे इन्द्रदेव! जब कुशल योद्धा वृत्र ने वज्र पर प्रहार किया, तब घोड़े की पूंछ हिलाने के तरह , बहुत आसानी से आपने अविचलित भाव से उसे दूर कर दिया। हे महाबली इन्द्रदेव ! सोम और गौओ को जीतकर आपने (वृत्र के अवरोध को नष्ट कर) गंगादि सरिताओ को प्रवाहित किया॥१२॥
३८१.नास्मै विद्युन्न तन्यतुः सिषेध न यां मिहमकिरद्ध्रादुनिं च । इन्द्रश्च यद्युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये ॥१३॥
युद्ध मे वृत्रद्वारा प्रेरित भीषण विद्युत, भयंकर मेघ गर्जन, जल और हिम वर्षा भी इन्द्रदेव को रोक नही सके। वृत्र के प्रचण्ड घातक प्रयोग भी निरर्थक हुए। उस युद्ध मे असुर के कर प्रहार को इन्द्रदेव ने निरस्त करके उसे जीत लिया॥१३॥
३८२.अहेर्यातारं कमपश्य इन्द्र हृदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत् । नव च यन्नवतिं च स्रवन्तीः श्येनो न भीतो अतरो रजांसि ॥१४॥
हे इन्द्रदेव! वृत्र का वध करते समय यदि आपके हृदय मे भय उत्पन्न होता तो किस दूसरे वीर को असुर वध के लिये देखते ? ऐसा करके आपने निन्यानबे (लगभग सम्पूर्ण) जल प्रवाहो को बाज पक्षी की तरह सहज ही पार कर लिया॥१४॥
३८३.इन्द्रो यातोऽवसितस्य राजा शमस्य च शृङ्गिणो वज्रबाहुः । सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान्न नेमिः परि ता बभूव ॥१५॥
हाथो मे वज्रधारण करने वाले इन्द्रदेव मनुष्य, पधु आदि सभी स्थावर-जंगम प्राणियो के राजा है। शान्त एवं क्रूर प्रकृति के सभी प्राणी उनके चारो ओर उसी प्रकार रहते है, जैसे चक्र की नेमि के चारो ओर उससे ’अरे’ होते है॥१५॥
३६९.इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री । अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम् ॥१॥
मेघो को विदिर्ण कर पानी बरसाने वाले, पर्वतिय नदियो ले तटो को निर्मित करने वाले वज्रधारी, पराक्रमी इन्द्रदेव के कार्य वर्णनीय है। उन्होने जो प्रमुख वीरतापूरण कार्य किये , वे ये ही हैं॥१॥
३७०.अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष । वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः ॥२॥
इन्द्रदेव के लिये त्वष्टादेव ने शब्द चालित वज्र का निर्माण किया, उसी से इन्द्रदेव ने मेघो को विदिर्ण कर जल बरसाया। रंभाती हुयी गौओ के समान वे जलप्रवाह वेग से समुद्र की ओर चले गये॥२॥
३७१.वृषायमाणोऽवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेष्वपिबत्सुतस्य । आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् ॥३॥
अतिबलशाली इन्द्रदेव ने सोम को ग्रहण किया। यज्ञ मे तीन विशिष्ट पात्रो मे अभिषव किये हुये सोम का पान किया। ऐश्वर्यवान इन्द्रदेव ने बाण और वज्र को धारण कर मेघो मे प्रमुख मेघ को विदीर्ण किया॥३॥
३७२.यदिन्द्राहन्प्रथमजामहीनामान्मायिनाममिनाः प्रोत मायाः । आत्सूर्यं जनयन्द्यामुषासं तादीत्ना शत्रुं न किला विवित्से ॥४॥
हे इन्द्रदेव ! आपने मेघो मे प्रथम उत्पन्न मेघ को वेध दिया। मेघरूप मे छाये धुन्ध(मायावियो) को दूर किया, फिर आकाश मे उषा और सूर्य को प्रकट किया। अब कोई भी अवरोधक शत्रु शेष न रहा॥४॥
३७३.अहन्वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन । स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाहिः शयत उपपृक्पृथिव्याः ॥५॥
इन्द्रदेव ने घातक दिव्य वज्र से वृत्रासुर का वध किया। वृक्ष की शाखाओ को कुल्हाड़े से काटने के समान उसकी भुजाओ को काटा ऐर तने की तरह इसे काटकर भूमि पर गिरा दिया॥५॥
३७४.अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम् । नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजानाः पिपिष इन्द्रशत्रुः ॥६॥
अपने को अप्रतिम योद्धा मानने वाले मिथ्या अभिमानी वृत्र ने महाबली, शत्रुवेधक, शत्रुनाशक इन्द्रदेव को ललकारा और इन्द्रदेव के आघातो को सहन न कर गिरते हुये नदियो के किनारो को तोड़ दिया॥६॥
३७५.अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान । वृष्णो वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन्पुरुत्रा वृत्रो अशयद्व्यस्तः ॥७॥
हाथ और पांव के कट जाने पर भी वृत्र ने इन्द्रदेव से युद्ध करने का प्रयास किया। इन्द्रदेव ने उसके पर्वत सदृश कन्धो पर वज्र का प्रहार किया। इतने पर भी वह वर्षा करने मे समर्थ इन्द्रदेव के सम्मुख वह डटा रहा। अन्ततः इन्द्रदेव के आघातो से ध्वस्त होकर भूमि पर गिर पड़ा॥७॥
३७६.नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः । याश्चिद्वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत्तासामहिः पत्सुतःशीर्बभूव ॥८॥
जैसे नदी की बाढ़ तटो को लांघ जाती है है, वैसे ही मन को प्रसन्न करने वाले जल(जल अवरोधक) वृत्र को लांघ जाते है। जिन जलो को ’वृत्र’ ने अपने बल से आबद्ध किया था, उन्ही के नीचे ’वृत्र’ मृत्युशय्या पर पड़ा सो रहा है॥८॥
३७७.नीचावया अभवद्वृत्रपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार । उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दानुः शये सहवत्सा न धेनुः ॥९॥
वृत्र की माता शुककर वृत्र का संरक्षण करने लगी, इन्द्रदेव के प्रहार से बचाव के लिये वह वृत्र पर सो गयी. फिर भी इन्द्रदेव ने नीचे से उस पर प्रहार किया। उससमय माता ऊपर और पुत्र नीचे था, जैसे गाय अपने बछड़े के साथ सोती है॥९॥
३७८.अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम् । वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घं तम आशयदिन्द्रशत्रुः ॥१०॥
एक स्थान पर न रुकने वाले अविश्रांत (मेघरुप) जल-प्रवाहो के मध्य वृत्र का अनाम शरीर छिपा रहता है। वह दिर्घ निद्रा मे पड़ा रहता है, उसके ऊपर जल प्रवाह बना रहता है॥१०॥
३७९.दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः । अपां बिलमपिहितं यदासीद्वृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार ॥११॥
’पणि’ नामक असुर ने जिस प्रकार गौओ अथवा किरणो को अवरूद्ध कर रखा था, उसी प्रकार जल-प्रवाहो को अगतिशील वृत्र ने रोक रखा था। वृत्र का वध कर वे प्रवाह खोल दिये गये॥११॥
३८०.अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्त्वा प्रत्यहन्देव एकः । अजयो गा अजयः शूर सोममवासृजः सर्तवे सप्त सिन्धून् ॥१२॥
हे इन्द्रदेव! जब कुशल योद्धा वृत्र ने वज्र पर प्रहार किया, तब घोड़े की पूंछ हिलाने के तरह , बहुत आसानी से आपने अविचलित भाव से उसे दूर कर दिया। हे महाबली इन्द्रदेव ! सोम और गौओ को जीतकर आपने (वृत्र के अवरोध को नष्ट कर) गंगादि सरिताओ को प्रवाहित किया॥१२॥
३८१.नास्मै विद्युन्न तन्यतुः सिषेध न यां मिहमकिरद्ध्रादुनिं च । इन्द्रश्च यद्युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये ॥१३॥
युद्ध मे वृत्रद्वारा प्रेरित भीषण विद्युत, भयंकर मेघ गर्जन, जल और हिम वर्षा भी इन्द्रदेव को रोक नही सके। वृत्र के प्रचण्ड घातक प्रयोग भी निरर्थक हुए। उस युद्ध मे असुर के कर प्रहार को इन्द्रदेव ने निरस्त करके उसे जीत लिया॥१३॥
३८२.अहेर्यातारं कमपश्य इन्द्र हृदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत् । नव च यन्नवतिं च स्रवन्तीः श्येनो न भीतो अतरो रजांसि ॥१४॥
हे इन्द्रदेव! वृत्र का वध करते समय यदि आपके हृदय मे भय उत्पन्न होता तो किस दूसरे वीर को असुर वध के लिये देखते ? ऐसा करके आपने निन्यानबे (लगभग सम्पूर्ण) जल प्रवाहो को बाज पक्षी की तरह सहज ही पार कर लिया॥१४॥
३८३.इन्द्रो यातोऽवसितस्य राजा शमस्य च शृङ्गिणो वज्रबाहुः । सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान्न नेमिः परि ता बभूव ॥१५॥
हाथो मे वज्रधारण करने वाले इन्द्रदेव मनुष्य, पधु आदि सभी स्थावर-जंगम प्राणियो के राजा है। शान्त एवं क्रूर प्रकृति के सभी प्राणी उनके चारो ओर उसी प्रकार रहते है, जैसे चक्र की नेमि के चारो ओर उससे ’अरे’ होते है॥१५॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३३
[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता - इन्द्र। छन्द - त्रिष्टुप]
३८४.एतायामोप गव्यन्त इन्द्रमस्माकं सु प्रमतिं वावृधाति । अनामृणः कुविदादस्य रायो गवां केतं परमावर्जते नः ॥१॥
गौऔ को प्राप्त करने की कामना से युक्त मनुष्य इन्द्रदेव के पास जायें। ये अपराजेय इन्द्रदेव हमारे लिए गोरूप धनो को बढा़ने की उत्तम बुद्धि देंगे। वे गौओ की प्राप्ति का उत्तम उपाय करेंगें॥१॥
३८५.उपेदहं धनदामप्रतीतं जुष्टां न श्येनो वसतिं पतामि । इन्द्रं नमस्यन्नुपमेभिरर्कैर्य स्तोतृभ्यो हव्यो अस्ति यामन् ॥२॥
श्येन पक्षी के वेगपूर्वक घोंसले मे जाने के समान हम उन धन दाता इन्द्रदेव के समीप पहुंचकर स्तोत्रो से उनका पूजन करते है। युद्ध मे सहायता के लिए स्तोताओ द्वारा बुलाये जाने पर अपराजेय इन्द्रदेव अविलम्ब पहुंचते है॥२॥
३८६.नि सर्वसेन इषुधीँरसक्त समर्यो गा अजति यस्य वष्टि । चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ॥३॥
सब सेनाओ के सेनापति इन्द्रदेव तरकसो को धारण कर गौओ एवं धन को जीतते हैं। हे स्वामी इन्द्रदेव! हमारी धन-प्राप्ति की इच्छा पूरी करने मे आप वैश्य की तरह विनिमय जैसा व्यवहार न करें॥३॥
३८७.वधीर्हि दस्युं धनिनं घनेनँ एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र । धनोरधि विषुणक्ते व्यायन्नयज्वानः सनकाः प्रेतिमीयुः ॥४॥
हे इन्द्रदेव! आपने अकेले ही अपने प्रचण्ड वज्र से धनवान दस्यु वृत्र का वध किया। जब उसके अनुचरो ने आपके उपर आक्रमण किया, तब यज्ञ विरोधी उन दानवो को आपने दृढ़तापूरवक नष्ट कर दिया ॥४॥
३८८.परा चिच्छीर्षा ववृजुस्त इन्द्रायज्वानो यज्वभि स्पर्धमानाः । प्र यद्दिवो हरिव स्थातरुग्र निरव्रताँ अधमो रोदस्योः ॥५॥
हे इन्द्रदेव! याजको से स्पर्धा करनेवाले अयाज्ञिक मुंह छिपाकर भाग गये। हे अश्व-अधिष्ठित इन्द्रदेव! आप युद्ध मे अटल और प्रचण्ड सामर्थ्य वाले है। आपने आकाश, अंतरिक्ष और पृथ्वी से धर्म-व्रतहीनो को हटा दिया है॥५॥
३८९.अयुयुत्सन्ननवद्यस्य सेनामयातयन्त क्षितयो नवग्वाः । वृषायुधो न वध्रयो निरष्टाः प्रवद्भिरिन्द्राच्चितयन्त आयन् ॥६॥
उन शत्रुओ ने इन्द्रदेव की निर्दोष सेना पर पूरी शक्ति से प्रहार किया, फिर भी हार गये। उनकी वही स्थिति हो गयी, जो शक्तिशाली वीर से युद्ध करने पर नपुंसक की होती है। अपनी निर्बलता स्वीकार करते हुये वे सब इन्द्रदेव से दूर चले गये॥६॥
३९०.त्वमेतान्रुदतो जक्षतश्चायोधयो रजस इन्द्र पारे । अवादहो दिव आ दस्युमुच्चा प्र सुन्वत स्तुवतः शंसमावः ॥७॥
हे इन्द्रदेव! आपने रोने या हंसने वाले इन शत्रुओ को युद्ध करके मार दिया, दस्यु वृत्र को ऊंचा उठाकर आकाश से नीचे गिराकर जला दिया। आपने सोमयज्ञ करनेवालो और प्रशंसक स्तोताओ की रक्षा की॥७॥
३९१.चक्राणासः परीणहं पृथिव्या हिरण्येन मणिना शुम्भमानाः । न हिन्वानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परि स्पशो अदधात्सूर्येण ॥८॥
उन शत्रुओ ने पृथ्वी के उपर पना आधिपत्य स्थापित किता और स्वार्ण-रत्नादि से सम्पन्न हो गये, परन्तु वे इन्द्रदेव के साथ युद्ध मे ठहर ना सके। सूर्यदेव के द्वारा उन्हे दूर कर दिया गया॥८॥
३९२.परि यदिन्द्र रोदसी उभे अबुभोजीर्महिना विश्वतः सीम् । अमन्यमानाँ अभि मन्यमानैर्निर्ब्रह्मभिरधमो दस्युमिन्द्र ॥९॥
हे इन्द्रदेव! आपने अपनी सामर्थ्य से द्युलोक और भूलोक का चारो ओर से उपयोह किया। हे इन्द्रदेव~ आपने अपने अनुचरो द्वारा विरोधियों पर विजय प्राप्त की। आपने मन्त्र शक्ति से(ज्ञान पूर्वक किये गये प्रयासो से) शत्रु पर विजय प्राप्त की॥९॥
३९३.न ये दिवः पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन् । युजं वज्रं वृषभश्चक्र इन्द्रो निर्ज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत् ॥१०॥
मेघ रूप वृत्र के द्वारा रोक लिये जाने के कारण जो जल द्युलोक से पृथ्वी पर नहीं बरस सके एवं जलो के अभाव से भूमी श्स्यश्यामला न हो सकी, तब इन्द्रदेव ने अपने जाज्वल्यमान वज्र से अन्धकार रूपी मेघ को भेदकर गौ के समान जल का दोहन किया॥१०॥
३९४.अनु स्वधामक्षरन्नापो अस्यावर्धत मध्य आ नाव्यानाम् । सध्रीचीनेन मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन हन्मनाहन्नभि द्यून् ॥११॥
जल इन ब्रीहि यवादि रूप अन्न वृद्धि के लिये (मेघो से) बरसने लगे। उस समय नौकाओ के मार्ग पर (जलो मे) वृत्र बढ़ता रहा। इन्द्रदेव ने अपने शक्ति साधनो द्वारा एकाग्र मन से अल्प समयावधि मे ही उस वृत्र को मार गिराया॥११॥
३९५.न्याविध्यदिलीबिशस्य दृळ्हा वि शृङ्गिणमभिनच्छुष्णमिन्द्रः । यावत्तरो मघवन्यावदोजो वज्रेण शत्रुमवधीः पृतन्युम् ॥१२॥
इन्द्रदेव ने गुफा मे सोये हुए वृत्र के किलो को ध्वस्त करके उस सींगवाले शोषक वृत्र को क्षत-विक्षत कर दिया। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! आपने सम्पूर्ण वेग और बल से शत्रु सेना का विनाश किया॥१२॥
३९६.अभि सिध्मो अजिगादस्य शत्रून्वि तिग्मेन वृषभेणा पुरोऽभेत् । सं वज्रेणासृजद्वृत्रमिन्द्रः प्र स्वां मतिमतिरच्छाशदानः ॥१३॥
इन्द्रदेव का तीक्ष्ण और शक्तिशाली वज्र शत्रुओ को लक्ष्य बनाकर उनके किलों को ध्वस्त करता है। शत्रुओ को वज्र से मारकर इन्द्रदेव स्वयं अतीव उत्साहित हुए॥१३॥
३९७.आवः कुत्समिन्द्र यस्मिञ्चाकन्प्रावो युध्यन्तं वृषभं दशद्युम् । शफच्युतो रेणुर्नक्षत द्यामुच्छ्वैत्रेयो नृषाह्याय तस्थौ ॥१४॥
हे इन्द्रदेव! ’कुत्स’ ऋषि के प्रति सेन्ह होने से आपने उनकी रक्षा की और अपने शत्रुओ के साथ युद्ध करबे वाले श्रेष्ठ गुणवान ’दशद्यु’ ऋषि की भी आपने रक्षा की। उस सहमय अश्वो के खुरो से धूल आकाश तक फैल गई, तब शत्रुभय से जल मे छिपने वाले ’श्वैत्रेय’ नामक पुरुष की रक्षाकर आपने उसे जल से बाहर निकाला॥१४॥
३९८.आवः शमं वृषभं तुग्र्यासु क्षेत्रजेषे मघवञ्छ्वित्र्यं गाम् । ज्योक्चिदत्र तस्थिवांसो अक्रञ्छत्रूयतामधरा वेदनाकः ॥१५॥
हे धनवान इन्द्रदेव ! क्षेत्र प्राप्ति की इच्छा से सशक्त जल-प्रवाहो मे घिरने वाले ’श्वित्र्य’(व्यक्तिविशेष) की आपने रक्षा की। वहीं जलो मे ठहरकर अधिक समय तक आप शत्रुओ से युद्ध करते रहे। उन शत्रुओ को जलो के नीचे गिराकर आपने मार्मिक पीड़ा पहुंचायी॥१५॥
३८४.एतायामोप गव्यन्त इन्द्रमस्माकं सु प्रमतिं वावृधाति । अनामृणः कुविदादस्य रायो गवां केतं परमावर्जते नः ॥१॥
गौऔ को प्राप्त करने की कामना से युक्त मनुष्य इन्द्रदेव के पास जायें। ये अपराजेय इन्द्रदेव हमारे लिए गोरूप धनो को बढा़ने की उत्तम बुद्धि देंगे। वे गौओ की प्राप्ति का उत्तम उपाय करेंगें॥१॥
३८५.उपेदहं धनदामप्रतीतं जुष्टां न श्येनो वसतिं पतामि । इन्द्रं नमस्यन्नुपमेभिरर्कैर्य स्तोतृभ्यो हव्यो अस्ति यामन् ॥२॥
श्येन पक्षी के वेगपूर्वक घोंसले मे जाने के समान हम उन धन दाता इन्द्रदेव के समीप पहुंचकर स्तोत्रो से उनका पूजन करते है। युद्ध मे सहायता के लिए स्तोताओ द्वारा बुलाये जाने पर अपराजेय इन्द्रदेव अविलम्ब पहुंचते है॥२॥
३८६.नि सर्वसेन इषुधीँरसक्त समर्यो गा अजति यस्य वष्टि । चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ॥३॥
सब सेनाओ के सेनापति इन्द्रदेव तरकसो को धारण कर गौओ एवं धन को जीतते हैं। हे स्वामी इन्द्रदेव! हमारी धन-प्राप्ति की इच्छा पूरी करने मे आप वैश्य की तरह विनिमय जैसा व्यवहार न करें॥३॥
३८७.वधीर्हि दस्युं धनिनं घनेनँ एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र । धनोरधि विषुणक्ते व्यायन्नयज्वानः सनकाः प्रेतिमीयुः ॥४॥
हे इन्द्रदेव! आपने अकेले ही अपने प्रचण्ड वज्र से धनवान दस्यु वृत्र का वध किया। जब उसके अनुचरो ने आपके उपर आक्रमण किया, तब यज्ञ विरोधी उन दानवो को आपने दृढ़तापूरवक नष्ट कर दिया ॥४॥
३८८.परा चिच्छीर्षा ववृजुस्त इन्द्रायज्वानो यज्वभि स्पर्धमानाः । प्र यद्दिवो हरिव स्थातरुग्र निरव्रताँ अधमो रोदस्योः ॥५॥
हे इन्द्रदेव! याजको से स्पर्धा करनेवाले अयाज्ञिक मुंह छिपाकर भाग गये। हे अश्व-अधिष्ठित इन्द्रदेव! आप युद्ध मे अटल और प्रचण्ड सामर्थ्य वाले है। आपने आकाश, अंतरिक्ष और पृथ्वी से धर्म-व्रतहीनो को हटा दिया है॥५॥
३८९.अयुयुत्सन्ननवद्यस्य सेनामयातयन्त क्षितयो नवग्वाः । वृषायुधो न वध्रयो निरष्टाः प्रवद्भिरिन्द्राच्चितयन्त आयन् ॥६॥
उन शत्रुओ ने इन्द्रदेव की निर्दोष सेना पर पूरी शक्ति से प्रहार किया, फिर भी हार गये। उनकी वही स्थिति हो गयी, जो शक्तिशाली वीर से युद्ध करने पर नपुंसक की होती है। अपनी निर्बलता स्वीकार करते हुये वे सब इन्द्रदेव से दूर चले गये॥६॥
३९०.त्वमेतान्रुदतो जक्षतश्चायोधयो रजस इन्द्र पारे । अवादहो दिव आ दस्युमुच्चा प्र सुन्वत स्तुवतः शंसमावः ॥७॥
हे इन्द्रदेव! आपने रोने या हंसने वाले इन शत्रुओ को युद्ध करके मार दिया, दस्यु वृत्र को ऊंचा उठाकर आकाश से नीचे गिराकर जला दिया। आपने सोमयज्ञ करनेवालो और प्रशंसक स्तोताओ की रक्षा की॥७॥
३९१.चक्राणासः परीणहं पृथिव्या हिरण्येन मणिना शुम्भमानाः । न हिन्वानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परि स्पशो अदधात्सूर्येण ॥८॥
उन शत्रुओ ने पृथ्वी के उपर पना आधिपत्य स्थापित किता और स्वार्ण-रत्नादि से सम्पन्न हो गये, परन्तु वे इन्द्रदेव के साथ युद्ध मे ठहर ना सके। सूर्यदेव के द्वारा उन्हे दूर कर दिया गया॥८॥
३९२.परि यदिन्द्र रोदसी उभे अबुभोजीर्महिना विश्वतः सीम् । अमन्यमानाँ अभि मन्यमानैर्निर्ब्रह्मभिरधमो दस्युमिन्द्र ॥९॥
हे इन्द्रदेव! आपने अपनी सामर्थ्य से द्युलोक और भूलोक का चारो ओर से उपयोह किया। हे इन्द्रदेव~ आपने अपने अनुचरो द्वारा विरोधियों पर विजय प्राप्त की। आपने मन्त्र शक्ति से(ज्ञान पूर्वक किये गये प्रयासो से) शत्रु पर विजय प्राप्त की॥९॥
३९३.न ये दिवः पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन् । युजं वज्रं वृषभश्चक्र इन्द्रो निर्ज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत् ॥१०॥
मेघ रूप वृत्र के द्वारा रोक लिये जाने के कारण जो जल द्युलोक से पृथ्वी पर नहीं बरस सके एवं जलो के अभाव से भूमी श्स्यश्यामला न हो सकी, तब इन्द्रदेव ने अपने जाज्वल्यमान वज्र से अन्धकार रूपी मेघ को भेदकर गौ के समान जल का दोहन किया॥१०॥
३९४.अनु स्वधामक्षरन्नापो अस्यावर्धत मध्य आ नाव्यानाम् । सध्रीचीनेन मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन हन्मनाहन्नभि द्यून् ॥११॥
जल इन ब्रीहि यवादि रूप अन्न वृद्धि के लिये (मेघो से) बरसने लगे। उस समय नौकाओ के मार्ग पर (जलो मे) वृत्र बढ़ता रहा। इन्द्रदेव ने अपने शक्ति साधनो द्वारा एकाग्र मन से अल्प समयावधि मे ही उस वृत्र को मार गिराया॥११॥
३९५.न्याविध्यदिलीबिशस्य दृळ्हा वि शृङ्गिणमभिनच्छुष्णमिन्द्रः । यावत्तरो मघवन्यावदोजो वज्रेण शत्रुमवधीः पृतन्युम् ॥१२॥
इन्द्रदेव ने गुफा मे सोये हुए वृत्र के किलो को ध्वस्त करके उस सींगवाले शोषक वृत्र को क्षत-विक्षत कर दिया। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! आपने सम्पूर्ण वेग और बल से शत्रु सेना का विनाश किया॥१२॥
३९६.अभि सिध्मो अजिगादस्य शत्रून्वि तिग्मेन वृषभेणा पुरोऽभेत् । सं वज्रेणासृजद्वृत्रमिन्द्रः प्र स्वां मतिमतिरच्छाशदानः ॥१३॥
इन्द्रदेव का तीक्ष्ण और शक्तिशाली वज्र शत्रुओ को लक्ष्य बनाकर उनके किलों को ध्वस्त करता है। शत्रुओ को वज्र से मारकर इन्द्रदेव स्वयं अतीव उत्साहित हुए॥१३॥
३९७.आवः कुत्समिन्द्र यस्मिञ्चाकन्प्रावो युध्यन्तं वृषभं दशद्युम् । शफच्युतो रेणुर्नक्षत द्यामुच्छ्वैत्रेयो नृषाह्याय तस्थौ ॥१४॥
हे इन्द्रदेव! ’कुत्स’ ऋषि के प्रति सेन्ह होने से आपने उनकी रक्षा की और अपने शत्रुओ के साथ युद्ध करबे वाले श्रेष्ठ गुणवान ’दशद्यु’ ऋषि की भी आपने रक्षा की। उस सहमय अश्वो के खुरो से धूल आकाश तक फैल गई, तब शत्रुभय से जल मे छिपने वाले ’श्वैत्रेय’ नामक पुरुष की रक्षाकर आपने उसे जल से बाहर निकाला॥१४॥
३९८.आवः शमं वृषभं तुग्र्यासु क्षेत्रजेषे मघवञ्छ्वित्र्यं गाम् । ज्योक्चिदत्र तस्थिवांसो अक्रञ्छत्रूयतामधरा वेदनाकः ॥१५॥
हे धनवान इन्द्रदेव ! क्षेत्र प्राप्ति की इच्छा से सशक्त जल-प्रवाहो मे घिरने वाले ’श्वित्र्य’(व्यक्तिविशेष) की आपने रक्षा की। वहीं जलो मे ठहरकर अधिक समय तक आप शत्रुओ से युद्ध करते रहे। उन शत्रुओ को जलो के नीचे गिराकर आपने मार्मिक पीड़ा पहुंचायी॥१५॥