ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १
[ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता अग्नि । छंद गायत्री।]
१. ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम होतारं रत्नधातमम ॥१॥हम अग्निदेव की स्तुती करते है (कैसे अग्निदेव?) जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले ), देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज( समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले ),होता (देवो का आवाहन करनेवाले) और याचको को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से ) विभूषित करने वाले है ॥१॥
२. अग्नि पूर्वेभिॠषिभिरिड्यो नूतनैरुत । स देवाँ एह वक्षति ॥२॥
जो अग्निदेव पूर्वकालिन ऋषियो (भृगु, अंगिरादि ) द्वारा प्रशंसित है। जो आधुनिक काल मे भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानो द्वारा स्तुत्य है , वे अग्निदेव इस यज्ञ मे देवो का आवाहन करे ॥२॥
३. अग्निना रयिमश्न्वत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम् ॥३॥
(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढा़ने वाले अग्निदेव मनुष्यो (यजमानो) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर् पुरूष प्रदान करनेवाले हैं ॥३॥
४. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति ॥४॥
हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुंचता है ॥४॥
५. अग्निहोर्ता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: । देवि देवेभिरा गमत् ॥५॥
हे अग्निदेव। आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप् युक्त है। आप देवो के साथ इस यज्ञ मे पधारें ॥५॥
६. यदग्ङ दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत्तत् सत्यमग्ङिर: ॥६॥
हे अग्निदेव। आप यज्ञकरने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओ की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञो के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है॥६॥
७. उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि॥७॥
हे जाज्वलयमान अग्निदेव । हम आपके सच्चे उपासक है। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते है और दिन् रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो ॥७॥
८.राजन्तमध्वराणां गोपांमृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे ॥८॥
हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञो के रक्षक, सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञस्थल मे वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं ॥८॥
९. स न: पितेव सूनवेग्ने सूपायनो भव । सचस्वा न: स्वस्तये ॥९॥हे गाहर्पत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार् आप भी (हम यजमानो के लिये) बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे ॥९॥
१. ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम होतारं रत्नधातमम ॥१॥हम अग्निदेव की स्तुती करते है (कैसे अग्निदेव?) जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले ), देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज( समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले ),होता (देवो का आवाहन करनेवाले) और याचको को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से ) विभूषित करने वाले है ॥१॥
२. अग्नि पूर्वेभिॠषिभिरिड्यो नूतनैरुत । स देवाँ एह वक्षति ॥२॥
जो अग्निदेव पूर्वकालिन ऋषियो (भृगु, अंगिरादि ) द्वारा प्रशंसित है। जो आधुनिक काल मे भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानो द्वारा स्तुत्य है , वे अग्निदेव इस यज्ञ मे देवो का आवाहन करे ॥२॥
३. अग्निना रयिमश्न्वत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम् ॥३॥
(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढा़ने वाले अग्निदेव मनुष्यो (यजमानो) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर् पुरूष प्रदान करनेवाले हैं ॥३॥
४. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति ॥४॥
हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुंचता है ॥४॥
५. अग्निहोर्ता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: । देवि देवेभिरा गमत् ॥५॥
हे अग्निदेव। आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप् युक्त है। आप देवो के साथ इस यज्ञ मे पधारें ॥५॥
६. यदग्ङ दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत्तत् सत्यमग्ङिर: ॥६॥
हे अग्निदेव। आप यज्ञकरने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओ की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञो के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है॥६॥
७. उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि॥७॥
हे जाज्वलयमान अग्निदेव । हम आपके सच्चे उपासक है। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते है और दिन् रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो ॥७॥
८.राजन्तमध्वराणां गोपांमृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे ॥८॥
हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञो के रक्षक, सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञस्थल मे वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं ॥८॥
९. स न: पितेव सूनवेग्ने सूपायनो भव । सचस्वा न: स्वस्तये ॥९॥हे गाहर्पत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार् आप भी (हम यजमानो के लिये) बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे ॥९॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २
[ऋषि - मधुच्छन्दा वैश्वामित्र। देवता १-३ वायु, ४-६ इन्द्र-वायु,७-९ मित्रावरुण। छन्द गायत्री]
१०. वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृता:। तेषां पाहि श्रुधी हवम् ॥१॥
हे प्रियदर्शी वायुदेव। हमारी प्रार्थना को सुनकर यज्ञस्थल पर आयें। आपके निमित्त सोमरस प्रस्तुत है, इसका पान करें ॥१॥
११. वाय उक्वेथेभिर्जरन्ते त्वामच्छा जरितार: । सुतसोमा अहर्विद: ॥२॥
हे वायुदेव ! सोमरस तैयार करके रखनेवाले, उसके गुणो को जानने वाले स्तोतागण स्तोत्रो से आपकी उत्तम प्रकार से स्तुति करते हैं ॥२॥
१२. वायो तव प्रपृञ्चती धेना जिगाति दाशुषे। उरूची सोमपीतये ॥३॥
हे वायुदेव ! आपकी प्रभावोत्पादक वाणी, सोमयाग करने वाले सभी यजमानो की प्रशंसा करती हुई एवं सोमरस का विशेष गुणगान करती हुई, सोमरस पान करने की अभिलाषा से दाता (यजमान) के पास पहुंचती है ॥३॥
१३. इन्द्रवायू उमे सुता उप प्रयोभिरा गतम् । इन्दवो वामुशान्ति हि ॥४॥
हे इन्द्रदेव! हे वायुदेव! यह सोमरस आपके लिये अभिषुत किया (निचोड़ा) गया है। आप अन्नादि पदार्थो से साथ यहां पधारे, क्योंकि यह सोमरस आप दोनो की कामना करता हौ ।४॥
१४. वायविन्द्रश्च चेतथ: सुतानां वाजिनीवसू। तावा यातमुप द्रवत् ॥५॥
हे वायुदेव! हे इन्द्रदेव! आप दोनो अन्नादि पदार्थो और धन से परिपुर्ण है एवं अभिषुत सोमरस की विशेषता को जानते है। अत: आप दोनो शिघ्र ही इस यज्ञ मे पदार्पण करें।
१५. वायविन्द्रश्च सुन्वत आ यातमुप निष्कृतम् । मक्ष्वि१त्था धिया नरा ।६॥
हे वायुदेव! हे इन्द्रदेव ! आप दोनो बड़े सामर्थ्यशाली है। आप यजमान द्वारा बुद्धिपूर्वक निष्पादित सोम के पास अति शीघ्र पधारें ॥६॥
१६. मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम् । धियं घृताचीं साधन्ता ॥७॥
घृत के समान प्राणप्रद वृष्टि सम्पन्न कराने वाले मित्र और वरुण देवो का हम आवाहन करते है। मित्र हमे बलशाली बनायें तथा वरुणदेव हमारे हिंसक शत्रुओ का नाश करें ।७॥
१७. ऋतेन मित्रावरुणावृतावृधारुतस्पृशा । क्रतुं बृहन्तमाशाथे ॥८॥
सत्य को फलितार्थ करने वाले सत्ययज्ञ के पुष्टिकारज देव मित्रावरुणो ! आप दोनो हमारे पुण्यदायी कार्यो (प्रवर्तमान सोमयाग) को सत्य से परिपूर्ण करें ॥८॥
१८. कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया । दक्षं दधाते अपसम् ॥९॥
अनेक कर्मो को सम्पन्न कराने वाले विवेकशील तथा अनेक स्थलो मे निवास करने वाले मित्रावरुण् हमारी क्षमताओ और कार्यो को पुष्ट बनाते हैं ॥९॥
१०. वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृता:। तेषां पाहि श्रुधी हवम् ॥१॥
हे प्रियदर्शी वायुदेव। हमारी प्रार्थना को सुनकर यज्ञस्थल पर आयें। आपके निमित्त सोमरस प्रस्तुत है, इसका पान करें ॥१॥
११. वाय उक्वेथेभिर्जरन्ते त्वामच्छा जरितार: । सुतसोमा अहर्विद: ॥२॥
हे वायुदेव ! सोमरस तैयार करके रखनेवाले, उसके गुणो को जानने वाले स्तोतागण स्तोत्रो से आपकी उत्तम प्रकार से स्तुति करते हैं ॥२॥
१२. वायो तव प्रपृञ्चती धेना जिगाति दाशुषे। उरूची सोमपीतये ॥३॥
हे वायुदेव ! आपकी प्रभावोत्पादक वाणी, सोमयाग करने वाले सभी यजमानो की प्रशंसा करती हुई एवं सोमरस का विशेष गुणगान करती हुई, सोमरस पान करने की अभिलाषा से दाता (यजमान) के पास पहुंचती है ॥३॥
१३. इन्द्रवायू उमे सुता उप प्रयोभिरा गतम् । इन्दवो वामुशान्ति हि ॥४॥
हे इन्द्रदेव! हे वायुदेव! यह सोमरस आपके लिये अभिषुत किया (निचोड़ा) गया है। आप अन्नादि पदार्थो से साथ यहां पधारे, क्योंकि यह सोमरस आप दोनो की कामना करता हौ ।४॥
१४. वायविन्द्रश्च चेतथ: सुतानां वाजिनीवसू। तावा यातमुप द्रवत् ॥५॥
हे वायुदेव! हे इन्द्रदेव! आप दोनो अन्नादि पदार्थो और धन से परिपुर्ण है एवं अभिषुत सोमरस की विशेषता को जानते है। अत: आप दोनो शिघ्र ही इस यज्ञ मे पदार्पण करें।
१५. वायविन्द्रश्च सुन्वत आ यातमुप निष्कृतम् । मक्ष्वि१त्था धिया नरा ।६॥
हे वायुदेव! हे इन्द्रदेव ! आप दोनो बड़े सामर्थ्यशाली है। आप यजमान द्वारा बुद्धिपूर्वक निष्पादित सोम के पास अति शीघ्र पधारें ॥६॥
१६. मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम् । धियं घृताचीं साधन्ता ॥७॥
घृत के समान प्राणप्रद वृष्टि सम्पन्न कराने वाले मित्र और वरुण देवो का हम आवाहन करते है। मित्र हमे बलशाली बनायें तथा वरुणदेव हमारे हिंसक शत्रुओ का नाश करें ।७॥
१७. ऋतेन मित्रावरुणावृतावृधारुतस्पृशा । क्रतुं बृहन्तमाशाथे ॥८॥
सत्य को फलितार्थ करने वाले सत्ययज्ञ के पुष्टिकारज देव मित्रावरुणो ! आप दोनो हमारे पुण्यदायी कार्यो (प्रवर्तमान सोमयाग) को सत्य से परिपूर्ण करें ॥८॥
१८. कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया । दक्षं दधाते अपसम् ॥९॥
अनेक कर्मो को सम्पन्न कराने वाले विवेकशील तथा अनेक स्थलो मे निवास करने वाले मित्रावरुण् हमारी क्षमताओ और कार्यो को पुष्ट बनाते हैं ॥९॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३
[ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र। देवता १-३ अश्विनीकुमार, ४-६ इन्द्र,७-९ विश्वेदेवा,१०-१२ सरश्वती। छन्द गायत्री]
१९. अश्विना यज्वरीरिषो द्रवपाणी शुभस्पती। पुरुभुजा चनस्यतम् ॥१॥
हे विशालबाहो ! शुभ कर्मपालक,द्रुतगति से कार्य सम्पन्न करने वाले अश्विनी कुमारो ! हमारे द्वारा समर्पित् हविष्यान्नो से आप भली प्रकार सन्तुष्ट हों ॥१॥
२०. अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरता धिया । धिष्ण्या वनतं गिर:॥२॥
असंख्य कर्मो को संपादित करनेवाले धैर्य धारण करने वाले बुद्धिमान हे अश्विनीकुमारो ! आप अपनी उत्तम बुद्धि से हमारी वाणियों (प्रार्थनाओ को स्वीकार् करे ॥२॥
२१. दस्ना युवाकव: सुता नासत्या वृक्तबर्हिष: । आ यातं रुद्रवर्तनी॥३॥
रोगो को विनष्ट करने वाले, सदा सत्य बोलने वाले रूद्रदेव के समान (शत्रु संहारक) प्रवृत्ति वाले, दर्शनीय हे अश्विनीकुमारो ! आप यहां आये और् बिछी हुई कुशाओ पर् विराजमान होकर प्रस्तुत संस्कारित सोमरस का पान करें॥३॥
२२. इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायव: । अण्वीभिस्तना पूतास:॥४॥
हे अद्भूत् दीप्तिमान् इन्द्रदेव ! अंगुलियों द्वारा स्रवित्, श्रेष्ठ पवित्ररायुक्त यह सोमरस आपके निमित्त् है। आप आये और सोमरस का पान करें ॥४॥
२३. इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावत: । उपब्रम्हाणि वाघत:॥५॥
हे इन्द्रदेव ! श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा जानने योग्य आप,सोमरस प्रस्तुत करते हुये ऋत्विजो के द्वारा बुलाये गये है। उनकी स्तुति के आधार पर् आप यज्ञशाला मे पधारें ॥५॥
२४. इन्द्रा याहि तूतुजान उप ब्रम्हाणि हरिव: । सुते दधिष्व नश्चन:॥६॥
हे अश्वयुक्त इन्द्रदेव ! आप स्तवनो के श्रवणार्थ एवं इस यज्ञ मे हमारे द्वारा प्रदत्त हवियो का सेवन करने के लिये यज्ञशाला मे शीघ्र ही पधारें ॥६॥
२५ . ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास् आ गत। दाश्वांसो दाशुष: सुतम्॥७॥
हे विश्वदेवो ! आप सबकी रक्षा करने वाले, सभी प्राणीयो के आधारभूत और् सभी को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले है। अत आप इस सोमयुक्त हवि देने वाले यजमान के यज्ञमे पधारे ॥७॥
२६. विश्वे देवासो अप्तुर: सुत्मा गन्त तूर्णय: । उस्ना इव स्वसराणि॥८॥
समय समय पर् वर्षा करने वाले हे विश्वदेवो ! आप कर्म कुशल और् द्रुतगति से कार्य करने वाले है। आप सूर्य-रश्मियो के सदृश गतिशील होकर हमे प्राप्त हो ॥८॥
२७. विश्वे देवासो अस्निध एहिमायासो अद्रुह: मेधं जुषण्त वह्रय:॥९॥
हे विश्वदेवो ! आप किसी के द्वारा वध ब किये जाने वाले, कर्म कुशल, द्रोह रहित और् सुखप्रद है। आप हमारे यज्ञ मे उपस्थित होकर हवि का सेवन करें ॥९॥
२८. पावका न: सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टु धियावसु:॥१०॥
पवित्र बनाने वाकी, पोषण देने वाली, बुद्धीमत्तापूर्वक ऐश्वर्य प्रदान करने वाकी सरश्वती ज्ञान और कर्म से हमारे यज्ञ को सफल बनायें ॥१०॥
२९. चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् यज्ञं दधे सरस्वती॥११॥
सत्यप्रिय (वचन) बोलने की प्रेरणा देने वाली, मेधावी जनो को यज्ञानुष्ठान की प्रेरणा (मति) प्रदान करने वाली देवी सरस्वती हमारे इस यज्ञ को स्वीकार करके हमे अभीष्ट वैभव प्रदान करे ॥११॥
३०. महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना॥ धियो विश्वां वि राजति॥१२॥
जो देवी सरस्वती नदी रूप् मे प्रभूत जल को प्रवाहित करती है। वे सुमति को जगाने वाली देवी सरस्वती सभी याजको की प्रज्ञा को प्रखर बनाती है ॥१२॥
१९. अश्विना यज्वरीरिषो द्रवपाणी शुभस्पती। पुरुभुजा चनस्यतम् ॥१॥
हे विशालबाहो ! शुभ कर्मपालक,द्रुतगति से कार्य सम्पन्न करने वाले अश्विनी कुमारो ! हमारे द्वारा समर्पित् हविष्यान्नो से आप भली प्रकार सन्तुष्ट हों ॥१॥
२०. अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरता धिया । धिष्ण्या वनतं गिर:॥२॥
असंख्य कर्मो को संपादित करनेवाले धैर्य धारण करने वाले बुद्धिमान हे अश्विनीकुमारो ! आप अपनी उत्तम बुद्धि से हमारी वाणियों (प्रार्थनाओ को स्वीकार् करे ॥२॥
२१. दस्ना युवाकव: सुता नासत्या वृक्तबर्हिष: । आ यातं रुद्रवर्तनी॥३॥
रोगो को विनष्ट करने वाले, सदा सत्य बोलने वाले रूद्रदेव के समान (शत्रु संहारक) प्रवृत्ति वाले, दर्शनीय हे अश्विनीकुमारो ! आप यहां आये और् बिछी हुई कुशाओ पर् विराजमान होकर प्रस्तुत संस्कारित सोमरस का पान करें॥३॥
२२. इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायव: । अण्वीभिस्तना पूतास:॥४॥
हे अद्भूत् दीप्तिमान् इन्द्रदेव ! अंगुलियों द्वारा स्रवित्, श्रेष्ठ पवित्ररायुक्त यह सोमरस आपके निमित्त् है। आप आये और सोमरस का पान करें ॥४॥
२३. इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावत: । उपब्रम्हाणि वाघत:॥५॥
हे इन्द्रदेव ! श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा जानने योग्य आप,सोमरस प्रस्तुत करते हुये ऋत्विजो के द्वारा बुलाये गये है। उनकी स्तुति के आधार पर् आप यज्ञशाला मे पधारें ॥५॥
२४. इन्द्रा याहि तूतुजान उप ब्रम्हाणि हरिव: । सुते दधिष्व नश्चन:॥६॥
हे अश्वयुक्त इन्द्रदेव ! आप स्तवनो के श्रवणार्थ एवं इस यज्ञ मे हमारे द्वारा प्रदत्त हवियो का सेवन करने के लिये यज्ञशाला मे शीघ्र ही पधारें ॥६॥
२५ . ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास् आ गत। दाश्वांसो दाशुष: सुतम्॥७॥
हे विश्वदेवो ! आप सबकी रक्षा करने वाले, सभी प्राणीयो के आधारभूत और् सभी को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले है। अत आप इस सोमयुक्त हवि देने वाले यजमान के यज्ञमे पधारे ॥७॥
२६. विश्वे देवासो अप्तुर: सुत्मा गन्त तूर्णय: । उस्ना इव स्वसराणि॥८॥
समय समय पर् वर्षा करने वाले हे विश्वदेवो ! आप कर्म कुशल और् द्रुतगति से कार्य करने वाले है। आप सूर्य-रश्मियो के सदृश गतिशील होकर हमे प्राप्त हो ॥८॥
२७. विश्वे देवासो अस्निध एहिमायासो अद्रुह: मेधं जुषण्त वह्रय:॥९॥
हे विश्वदेवो ! आप किसी के द्वारा वध ब किये जाने वाले, कर्म कुशल, द्रोह रहित और् सुखप्रद है। आप हमारे यज्ञ मे उपस्थित होकर हवि का सेवन करें ॥९॥
२८. पावका न: सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वष्टु धियावसु:॥१०॥
पवित्र बनाने वाकी, पोषण देने वाली, बुद्धीमत्तापूर्वक ऐश्वर्य प्रदान करने वाकी सरश्वती ज्ञान और कर्म से हमारे यज्ञ को सफल बनायें ॥१०॥
२९. चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् यज्ञं दधे सरस्वती॥११॥
सत्यप्रिय (वचन) बोलने की प्रेरणा देने वाली, मेधावी जनो को यज्ञानुष्ठान की प्रेरणा (मति) प्रदान करने वाली देवी सरस्वती हमारे इस यज्ञ को स्वीकार करके हमे अभीष्ट वैभव प्रदान करे ॥११॥
३०. महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना॥ धियो विश्वां वि राजति॥१२॥
जो देवी सरस्वती नदी रूप् मे प्रभूत जल को प्रवाहित करती है। वे सुमति को जगाने वाली देवी सरस्वती सभी याजको की प्रज्ञा को प्रखर बनाती है ॥१२॥