अग्नि पुराण - चौथा अध्याय - वराह, नरसिंह, वामन और परशुराम-अवतार कथा
अग्नि पुराण - चौथा अध्याय - वराह, नरसिंह, वामन और परशुराम-अवतार कथा
अग्निदेव कहते हैं - वशिष्ठ! अब मैं वराहावतार की पापनाशिनी कथा का वर्णन करता हूँ। पूर्वकाल में 'हिरण्याक्ष' नामक दैत्य असुरों का राजा था। वह देवताओं को जीत कर स्वर्ग में रहने लगा। देवताओं ने भगवान् विष्णु के पास जाकर उनकी स्तुति की। तब उन्होंने यज्ञवराहरूप धारण किया और देवताओं के लिये कंटकरूप उस दानव को दैत्यों सहित मरकर धर्म एवं देवताओं आदि की रक्षा की। इसके बाद वे भगवान् श्रीहरि अंतर्धान हो गए। हिरण्याक्ष के एक भाई था, जो 'हिरण्यकशिपू' के नाम से विख्यात था। उसने देवताओं के यज्ञभाग अपने अधीन कर लिये और उन सबके अधिकार छीनकर वह स्वयं ही उनका उपभोग करने लगा। भगवान् ने नरसिंहरूप धारण करके उसके सहायक असुरों सहित उस दैत्य का वध किया। तत्पश्चात सम्पूर्ण देवताओं को अपने-अपने पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। उस समय देवताओं ने उन नरसिंह का स्तवन किया।
पूर्वकाल में देवता और असुरों में युद्ध हुआ। उस युद्ध में बलि आदि दैत्यों ने देवताओं को परास्त करके उन्हें स्वर्ग से निकल दिया। तब वे श्रीहरि की शरण में गए। भगवान् ने उन्हें अभयदान दिया और कश्यप तथा अदिति की स्तुति से प्रसन्न हो, वे अदिति के गर्भ से वामनरूप में प्रकट हुए। उस समय दैत्यराज बलि गंगाद्वार में यज्ञ कर रहे थे। भगवान् उनके यज्ञ में गए और वहां यजमान का स्तुतिगान करने लगे।
वामन के मुख से वेदों का पाठ सुनकर राजा बलि उन्हें वर देने को उद्यत हो गए और शुक्राचार्य के मना करने पर भी बोले - 'ब्रह्मन! आपको जो इच्छा हो, मुझसे मांग लो। मैं आपको वह वस्तु अवश्य दूंगा।' वामन ने बलि से कहा - 'मुझे अपने गुरु के लिये तीन पग भूमि की आवश्यकता है; वही दीजिये। बलि ने कहा - 'अवश्य दूंगा।' तब संकल्प का जल हाथ में पड़ते ही भगवान् वामन 'अवामन' हो गए। उन्होंने विराटरूप धारण कर लिया और भूर्लोक, भुवर्लोक, एवं स्वर्गलोक को अपने तीन पग से नाप दिया। श्रीहरि ने बलि को सुतललोक में भेज दिया और त्रिलोकी का राज्य इंद्र को दे डाला। इंद्र ने देवताओं के साथ श्रीहरि का स्तवन किया। वे तीनो लोकों के स्वामी होकर सुख से रहने लगे।
ब्रह्मन! अब मैं परशुरामावतार का वर्णन करूँगा, सुनो। देवता और ब्राह्मण आदि का पालन करने वाले श्रीहरि ने जब देखा कि भूमंडल के क्षत्रिय उद्धत स्वभाव के हो गए हैं, तो वे उन्हें मारकर पृथ्वी का भार उतरने और सर्वत्र शांति स्थापित करने के लिये जमदग्नि के अंश द्वारा रेणुका के गर्भ से अवतीर्ण हुए। भृगुनंदन परशुराम शस्त्र-विद्या के पारंगत विद्वान थे। उन दिनों कृतवीर्य का पुत्र राजा अर्जुन भगवन दत्तातेय जी कृपा से हजार बाहें पाकर समस्त भूमंडल पर राज्य करता था। एक दिन वह वन में शिकार खेलने गया।
वहां वह बहुत थक गया। उस समय जमदग्नि मुनि ने उसे सेना सहित अपने आश्रम पर निमंत्रित किया और कामधेनु के प्रभाव से सबको भोजन कराया। राजा ने मुने से कामधेनु को अपने लिये माँगा; किन्तु उन्होंने देने से मना कर दिया। तब उसने बलपूर्वक उस धेनु को छीन लिया। यह समाचार पाकर परशुराम जी ने हैहयपुरी में जाकर उसके साथ युद्ध किया और अपने फरसे से उसका मस्तक कात्कार्र रणभूमि में उसे मार गिराया। फिर वे कामधेनु को साथ लेकर अपने आश्रम पर लौट आये। एक दिन परशुराम जी जब वन में गए हुए थे, कृतवीर्य के पुत्रों ने आकर अपने पिता के वैर का बदला लेने के लिये जमदग्नि मुनि को मार डाला। जब परशुराम जी लौट कर आये तो अपने पिता को मारा गया देख उनके मन में बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने इक्कीस बार समस्त भूमंडल के क्षत्रियों का संहार किया। फिर कुरुक्षेत्र में पांच कुंड बनाकर वहीँ उन्होंने अपने पितरों का तर्पण किया और सारी पृथ्वी कश्यप-मुनि को दान देकर वे महेंद्र पर्वत पर रहने लगे। इस प्रकार कुर्म, वराह, नरसिंह, वामन तथा परशुराम अवतार की कथा सुनकर मनुष्य स्वर्गलोक को जाता है।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'वराह, नरसिंह, वामन तथा परशुरामावतार की कथा का वर्णन' नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ।
अग्निदेव कहते हैं - वशिष्ठ! अब मैं वराहावतार की पापनाशिनी कथा का वर्णन करता हूँ। पूर्वकाल में 'हिरण्याक्ष' नामक दैत्य असुरों का राजा था। वह देवताओं को जीत कर स्वर्ग में रहने लगा। देवताओं ने भगवान् विष्णु के पास जाकर उनकी स्तुति की। तब उन्होंने यज्ञवराहरूप धारण किया और देवताओं के लिये कंटकरूप उस दानव को दैत्यों सहित मरकर धर्म एवं देवताओं आदि की रक्षा की। इसके बाद वे भगवान् श्रीहरि अंतर्धान हो गए। हिरण्याक्ष के एक भाई था, जो 'हिरण्यकशिपू' के नाम से विख्यात था। उसने देवताओं के यज्ञभाग अपने अधीन कर लिये और उन सबके अधिकार छीनकर वह स्वयं ही उनका उपभोग करने लगा। भगवान् ने नरसिंहरूप धारण करके उसके सहायक असुरों सहित उस दैत्य का वध किया। तत्पश्चात सम्पूर्ण देवताओं को अपने-अपने पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। उस समय देवताओं ने उन नरसिंह का स्तवन किया।
पूर्वकाल में देवता और असुरों में युद्ध हुआ। उस युद्ध में बलि आदि दैत्यों ने देवताओं को परास्त करके उन्हें स्वर्ग से निकल दिया। तब वे श्रीहरि की शरण में गए। भगवान् ने उन्हें अभयदान दिया और कश्यप तथा अदिति की स्तुति से प्रसन्न हो, वे अदिति के गर्भ से वामनरूप में प्रकट हुए। उस समय दैत्यराज बलि गंगाद्वार में यज्ञ कर रहे थे। भगवान् उनके यज्ञ में गए और वहां यजमान का स्तुतिगान करने लगे।
वामन के मुख से वेदों का पाठ सुनकर राजा बलि उन्हें वर देने को उद्यत हो गए और शुक्राचार्य के मना करने पर भी बोले - 'ब्रह्मन! आपको जो इच्छा हो, मुझसे मांग लो। मैं आपको वह वस्तु अवश्य दूंगा।' वामन ने बलि से कहा - 'मुझे अपने गुरु के लिये तीन पग भूमि की आवश्यकता है; वही दीजिये। बलि ने कहा - 'अवश्य दूंगा।' तब संकल्प का जल हाथ में पड़ते ही भगवान् वामन 'अवामन' हो गए। उन्होंने विराटरूप धारण कर लिया और भूर्लोक, भुवर्लोक, एवं स्वर्गलोक को अपने तीन पग से नाप दिया। श्रीहरि ने बलि को सुतललोक में भेज दिया और त्रिलोकी का राज्य इंद्र को दे डाला। इंद्र ने देवताओं के साथ श्रीहरि का स्तवन किया। वे तीनो लोकों के स्वामी होकर सुख से रहने लगे।
ब्रह्मन! अब मैं परशुरामावतार का वर्णन करूँगा, सुनो। देवता और ब्राह्मण आदि का पालन करने वाले श्रीहरि ने जब देखा कि भूमंडल के क्षत्रिय उद्धत स्वभाव के हो गए हैं, तो वे उन्हें मारकर पृथ्वी का भार उतरने और सर्वत्र शांति स्थापित करने के लिये जमदग्नि के अंश द्वारा रेणुका के गर्भ से अवतीर्ण हुए। भृगुनंदन परशुराम शस्त्र-विद्या के पारंगत विद्वान थे। उन दिनों कृतवीर्य का पुत्र राजा अर्जुन भगवन दत्तातेय जी कृपा से हजार बाहें पाकर समस्त भूमंडल पर राज्य करता था। एक दिन वह वन में शिकार खेलने गया।
वहां वह बहुत थक गया। उस समय जमदग्नि मुनि ने उसे सेना सहित अपने आश्रम पर निमंत्रित किया और कामधेनु के प्रभाव से सबको भोजन कराया। राजा ने मुने से कामधेनु को अपने लिये माँगा; किन्तु उन्होंने देने से मना कर दिया। तब उसने बलपूर्वक उस धेनु को छीन लिया। यह समाचार पाकर परशुराम जी ने हैहयपुरी में जाकर उसके साथ युद्ध किया और अपने फरसे से उसका मस्तक कात्कार्र रणभूमि में उसे मार गिराया। फिर वे कामधेनु को साथ लेकर अपने आश्रम पर लौट आये। एक दिन परशुराम जी जब वन में गए हुए थे, कृतवीर्य के पुत्रों ने आकर अपने पिता के वैर का बदला लेने के लिये जमदग्नि मुनि को मार डाला। जब परशुराम जी लौट कर आये तो अपने पिता को मारा गया देख उनके मन में बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने इक्कीस बार समस्त भूमंडल के क्षत्रियों का संहार किया। फिर कुरुक्षेत्र में पांच कुंड बनाकर वहीँ उन्होंने अपने पितरों का तर्पण किया और सारी पृथ्वी कश्यप-मुनि को दान देकर वे महेंद्र पर्वत पर रहने लगे। इस प्रकार कुर्म, वराह, नरसिंह, वामन तथा परशुराम अवतार की कथा सुनकर मनुष्य स्वर्गलोक को जाता है।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'वराह, नरसिंह, वामन तथा परशुरामावतार की कथा का वर्णन' नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ।