Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २५
[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता वरुण।छन्द गायत्री।]
२६९.यच्चिद्धि ते विशो यथा प्र देव वरुण व्रतम्। मिनीमसि द्यविद्यवि॥१॥
हे वरुणदेव! जैसे अन्य मनुष्य आपके व्रत अनुष्ठान मे प्रमाद करते है,वैसे ही हमसे भी आपके नियमो मे कभी कभी प्रमाद हो जाता है।(कृपया इसे क्षमा करें)॥१॥
२७०.मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः। मा हृणानस्य मन्यवे॥२॥
हे वरुणदेव! आपने अपने निरादर करने वाले का वध करने के लिये धारण किये गये शस्त्र के सम्मुख हमे प्रस्तुत न करें। अपनी क्रुद्ध अवस्था मे भी हम पर कृपा कर क्रोध ना करें॥२॥
२७१.वि मृळीकाय ते मनो रथीरश्वं न संदितम्। गीर्भिर्वरुण सीमहि॥३॥
हे वरुणदेव! जिस प्रकार रथी अपने थके घोड़ो की परिचर्या करते हैं, उसी प्रकार आपके मन को हर्षित करने के लिये हम स्तुतियो का गान करते हैं॥३॥
२७२.परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये। वयो न वसतीरुप॥४॥
हे वरुणदेव! जिस प्रकार पक्षी अपने घोसलो की ओर दौड़ते हुये गमन करते है,उसी प्रकार हमारी चंचल बुद्धियाँ धन प्राप्ति के लिये दूर दूर तक दौड़ती है॥४॥
२७३.कदा क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे। मृळीकायोरुचक्षसम्॥५॥
बल ऐश्वर्य के अधिपति सर्वद्रष्टा वरुणदेव को कल्याण के निमित्त हम यहाँ (यज्ञस्थल मे) कब बुलायेंगे?(अर्थात यह अवसर कब मिलेगा?)॥५॥
२७४.तदित्समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छतः। धृतव्रताय दाशुषे॥६॥
व्रत धारण करने वाले(हविष्यमान)दाता यजमान के मंगल के निमित्त ये मित्र और वरुण देव हविष्यान की इच्छा करते है, वे कभी उसका त्याग नही करते। वे हमे बन्धन से मुक्त करें॥६॥
२७५.वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्। वेद नावः समुद्रियः॥७॥
हे वरुण देव! आकाश मे उड़ने वाले पक्षियो के मार्ग को और समुद्र मे संचार करने वाली नौकाओ के मार्ग को भी आप जानते है॥७॥
२७६.वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः। वेदा य उपजायते॥८॥
नियम धारक वरुणदेव प्रजा के उपयोगी बारह महिनो को जानते है और तेरहवे मास(पुरुषोत्तम मास) को भी जानते है॥८॥
२७७.वेद वातस्य वर्तनिमुरोरृष्वस्य बृहतः। वेदा ये अध्यासते॥९॥
वे वरुणदेव अत्यन्त विस्तृत,दर्शनिय और अधिक गुणवान वायु के मार्ग को जानते है। वे उपर द्युलोक मे रहने वाले देवो को भी जानते हैं॥९॥
२७८.नि षसाद धृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा। साम्राज्याय सुक्रतुः॥१०॥
प्रकृति के नियमो का विधिवत पालन कराने वाले,श्रेष्ठ कर्मो मे सदैव निरत रहने वाले वरुणदेव प्रजाओ मे साम्राज्य स्थापित करने के लिये बैठते है॥१०॥
२७९.अतो विश्वान्यद्भुता चिकित्वाँ अभि पश्यति। कृतानि या च कर्त्वा॥११॥
सब अद्भुत कर्मो की क्रिया विधि जानने वाले वरुणदेव, जो मर्म संपादित हो चुके है और जो किये जाने वाले है, उन सबको भली-भांति देखते है॥११॥
२८०.स नो विश्वाहा सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत्। प्र ण आयूंषि तारिषत्॥१२॥
वे उत्तम कर्मशील अदिति पुत्र वरुणदेव हमे सदा श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करें और हमारी आयु को बढा़यें॥१२॥
२८१.बिभ्रद्द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्। परि स्पशो नि षेदिरे॥१३॥
सुवर्णमय कवच धारण करके वरुणदेव अपने हस्ट-पुष्ट शरीर को सुसज्जित करते है। शुभ्र प्रकाश किरणे उनके चारो ओर विस्तीर्ण होती है॥१३॥
२८२.न यं दिप्सन्ति दिप्सवो न द्रुह्वाणो जनानाम्। न देवमभिमातयः॥१४॥
हिंसा करने की इच्छा वाले शत्रु-जन(भयाक्रान्त होकर) जिनकी हिंसा नही कर पाते, लोगो के प्रति द्वेष रखने वाले , जिनसे द्वेष नही कर पाते ऐसे वरुणदेव को पापीजन स्पर्श तक नही कर पाते॥१४॥
२८३.उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या। अस्माकमुदरेष्वा॥१५॥
जिन वरुणदेव ने मनुष्यो के लिये विपुल अन्न भंडार उत्पन्न किया है;उन्होने ही हमारे उदर मे पाचन सामर्थ्य भी स्थापित की है॥१५॥
२८४.परा मे यन्ति धीतयो गावो न गव्यूतीरनु। इच्छन्तीरुरुचक्षसम्॥१६॥
उस सर्वद्रष्टा वरुणदेव की कामना करने वाली हमारी बुद्धीयाँ, वैसे ही उन तक पहुंचती है जैसे गौएँ श्रेष्ठ बाड़े की ओर जाती है॥१६॥
२८५.सं नु वोचावहै पुनर्यतो मे मध्वाभृतम्। होतेव क्षदसे प्रियम्॥१७॥
होता (अग्निदेव) के समान हमारे द्वारे लाकर समर्पित की गई हवियो का आप अग्निदेव के समान भक्षण करे, फिर हम दोनो वार्ता करेंगे॥१७॥
२८६.दर्शं नु विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि। एता जुषत मे गिरः॥१८॥
दर्शनिय वरुण को उनके रथ के साथ हमने भूमि पर देखा है। उन्होने हमारी स्तुतियाँ स्वीकारी हैं॥१८॥
२८७.इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय। त्वामवस्युरा चके॥१९॥
हे वरुणदेव! आप हमारी प्रार्थना पर ध्यान दें, हमे सुखी बनायें। अपनी रक्षा के लिये हम आपकी स्तुति करते है॥१९॥
२८८.त्वं विश्वस्य मेधिर दिवश्च ग्मश्च राजसि। स यामनि प्रति श्रुधि॥२०॥
हे मेधावी वरुणदेव ! आप द्युलोक, भूलोक और सारे विश्व पर आधिपत्य रखते है, आप हमारे आवाहन को स्वीकार कर ’ हम रक्षा करेंगे’ ऐसा प्रत्युत्तर दे॥२०॥
२८९.उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे॥२१॥
हे वरुणदेव! हमारे उत्तम(उपर के) पाश को खोल दे, हमारे मध्यम पाश काट दे और हमारे नीचे के पाश को हटाकर हमे उत्तम जीवन प्रदान करें॥२१॥
२६९.यच्चिद्धि ते विशो यथा प्र देव वरुण व्रतम्। मिनीमसि द्यविद्यवि॥१॥
हे वरुणदेव! जैसे अन्य मनुष्य आपके व्रत अनुष्ठान मे प्रमाद करते है,वैसे ही हमसे भी आपके नियमो मे कभी कभी प्रमाद हो जाता है।(कृपया इसे क्षमा करें)॥१॥
२७०.मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः। मा हृणानस्य मन्यवे॥२॥
हे वरुणदेव! आपने अपने निरादर करने वाले का वध करने के लिये धारण किये गये शस्त्र के सम्मुख हमे प्रस्तुत न करें। अपनी क्रुद्ध अवस्था मे भी हम पर कृपा कर क्रोध ना करें॥२॥
२७१.वि मृळीकाय ते मनो रथीरश्वं न संदितम्। गीर्भिर्वरुण सीमहि॥३॥
हे वरुणदेव! जिस प्रकार रथी अपने थके घोड़ो की परिचर्या करते हैं, उसी प्रकार आपके मन को हर्षित करने के लिये हम स्तुतियो का गान करते हैं॥३॥
२७२.परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये। वयो न वसतीरुप॥४॥
हे वरुणदेव! जिस प्रकार पक्षी अपने घोसलो की ओर दौड़ते हुये गमन करते है,उसी प्रकार हमारी चंचल बुद्धियाँ धन प्राप्ति के लिये दूर दूर तक दौड़ती है॥४॥
२७३.कदा क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे। मृळीकायोरुचक्षसम्॥५॥
बल ऐश्वर्य के अधिपति सर्वद्रष्टा वरुणदेव को कल्याण के निमित्त हम यहाँ (यज्ञस्थल मे) कब बुलायेंगे?(अर्थात यह अवसर कब मिलेगा?)॥५॥
२७४.तदित्समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छतः। धृतव्रताय दाशुषे॥६॥
व्रत धारण करने वाले(हविष्यमान)दाता यजमान के मंगल के निमित्त ये मित्र और वरुण देव हविष्यान की इच्छा करते है, वे कभी उसका त्याग नही करते। वे हमे बन्धन से मुक्त करें॥६॥
२७५.वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्। वेद नावः समुद्रियः॥७॥
हे वरुण देव! आकाश मे उड़ने वाले पक्षियो के मार्ग को और समुद्र मे संचार करने वाली नौकाओ के मार्ग को भी आप जानते है॥७॥
२७६.वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः। वेदा य उपजायते॥८॥
नियम धारक वरुणदेव प्रजा के उपयोगी बारह महिनो को जानते है और तेरहवे मास(पुरुषोत्तम मास) को भी जानते है॥८॥
२७७.वेद वातस्य वर्तनिमुरोरृष्वस्य बृहतः। वेदा ये अध्यासते॥९॥
वे वरुणदेव अत्यन्त विस्तृत,दर्शनिय और अधिक गुणवान वायु के मार्ग को जानते है। वे उपर द्युलोक मे रहने वाले देवो को भी जानते हैं॥९॥
२७८.नि षसाद धृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा। साम्राज्याय सुक्रतुः॥१०॥
प्रकृति के नियमो का विधिवत पालन कराने वाले,श्रेष्ठ कर्मो मे सदैव निरत रहने वाले वरुणदेव प्रजाओ मे साम्राज्य स्थापित करने के लिये बैठते है॥१०॥
२७९.अतो विश्वान्यद्भुता चिकित्वाँ अभि पश्यति। कृतानि या च कर्त्वा॥११॥
सब अद्भुत कर्मो की क्रिया विधि जानने वाले वरुणदेव, जो मर्म संपादित हो चुके है और जो किये जाने वाले है, उन सबको भली-भांति देखते है॥११॥
२८०.स नो विश्वाहा सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत्। प्र ण आयूंषि तारिषत्॥१२॥
वे उत्तम कर्मशील अदिति पुत्र वरुणदेव हमे सदा श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करें और हमारी आयु को बढा़यें॥१२॥
२८१.बिभ्रद्द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्। परि स्पशो नि षेदिरे॥१३॥
सुवर्णमय कवच धारण करके वरुणदेव अपने हस्ट-पुष्ट शरीर को सुसज्जित करते है। शुभ्र प्रकाश किरणे उनके चारो ओर विस्तीर्ण होती है॥१३॥
२८२.न यं दिप्सन्ति दिप्सवो न द्रुह्वाणो जनानाम्। न देवमभिमातयः॥१४॥
हिंसा करने की इच्छा वाले शत्रु-जन(भयाक्रान्त होकर) जिनकी हिंसा नही कर पाते, लोगो के प्रति द्वेष रखने वाले , जिनसे द्वेष नही कर पाते ऐसे वरुणदेव को पापीजन स्पर्श तक नही कर पाते॥१४॥
२८३.उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या। अस्माकमुदरेष्वा॥१५॥
जिन वरुणदेव ने मनुष्यो के लिये विपुल अन्न भंडार उत्पन्न किया है;उन्होने ही हमारे उदर मे पाचन सामर्थ्य भी स्थापित की है॥१५॥
२८४.परा मे यन्ति धीतयो गावो न गव्यूतीरनु। इच्छन्तीरुरुचक्षसम्॥१६॥
उस सर्वद्रष्टा वरुणदेव की कामना करने वाली हमारी बुद्धीयाँ, वैसे ही उन तक पहुंचती है जैसे गौएँ श्रेष्ठ बाड़े की ओर जाती है॥१६॥
२८५.सं नु वोचावहै पुनर्यतो मे मध्वाभृतम्। होतेव क्षदसे प्रियम्॥१७॥
होता (अग्निदेव) के समान हमारे द्वारे लाकर समर्पित की गई हवियो का आप अग्निदेव के समान भक्षण करे, फिर हम दोनो वार्ता करेंगे॥१७॥
२८६.दर्शं नु विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि। एता जुषत मे गिरः॥१८॥
दर्शनिय वरुण को उनके रथ के साथ हमने भूमि पर देखा है। उन्होने हमारी स्तुतियाँ स्वीकारी हैं॥१८॥
२८७.इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय। त्वामवस्युरा चके॥१९॥
हे वरुणदेव! आप हमारी प्रार्थना पर ध्यान दें, हमे सुखी बनायें। अपनी रक्षा के लिये हम आपकी स्तुति करते है॥१९॥
२८८.त्वं विश्वस्य मेधिर दिवश्च ग्मश्च राजसि। स यामनि प्रति श्रुधि॥२०॥
हे मेधावी वरुणदेव ! आप द्युलोक, भूलोक और सारे विश्व पर आधिपत्य रखते है, आप हमारे आवाहन को स्वीकार कर ’ हम रक्षा करेंगे’ ऐसा प्रत्युत्तर दे॥२०॥
२८९.उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे॥२१॥
हे वरुणदेव! हमारे उत्तम(उपर के) पाश को खोल दे, हमारे मध्यम पाश काट दे और हमारे नीचे के पाश को हटाकर हमे उत्तम जीवन प्रदान करें॥२१॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २६
[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता अग्नि।छन्द गायत्री।]
वसिष्वा हि मियेध्य वस्त्राण्यूर्जां पते। सेमं नो अध्वरं यज॥१॥
हे यज्ञ योग्य अन्नो के पालक अग्निदेव! आप अपने तेजरूप वस्त्रो को पहनकर हमारे यज्ञ को सम्पादित करें॥१॥
नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः। अग्ने दिवित्मता वचः॥२॥
सदा तरुण रहने वाले हे अग्निदेव! आप सर्वोत्तम होता(यज्ञ सम्पन्न कर्ता) के रूप मे यज्ञकुण्ड मे स्थापित होकर स्तुति वचनो का श्रवण करें॥२॥
आ हि ष्मा सूनवे पितापिर्यजत्यापये। सखा सख्ये वरेण्यः॥३॥
हे वरण करने योग्य अग्निदेव! जैसे पिता अपने पुत्र के,भाई अपने भाई के और मित्र अपने मित्र के सहायक होते है, वैसे ही आप हमारी सहायता करें॥३॥
आ नो बर्ही रिशादसो वरुणो मित्रो अर्यमा। सीदन्तु मनुषो यथा॥४॥
जिस प्रकार प्रजापति के यज्ञ मे "मनु " आकर शोभा बढा़ते हैं, उसी प्रकार शत्रुनाशक वरुणदेव, मित्र-देव एवं अर्यमादेव हमारे यज्ञ मे आकर विराजमान हो॥४॥
पूर्व्य होतरस्य नो मन्दस्व सख्यस्य च। इमा उ षु श्रुधी गिरः॥५॥
पुरातन होता हे अग्निदेव! आप हमारे इस यज्ञ से और हमारे मित्रभाव से प्रसन्न हों और हमारी स्तुतियों को भली प्रकार से सुने॥५॥
यच्चिद्धि शश्वता तना देवंदेवं यजामहे। त्वे इद्धूयते हविः॥६॥
हे अग्निदेव! इन्द्र, वरुण आदि अन्य देवताओ के लिये प्रतिदिन विस्तृत आहुतियाँ अर्पित करने पर भी सभी हविष्यमान आपको ही प्राप्त होते है॥६॥
प्रियो नो अस्तु विश्पतिर्होता मन्द्रो वरेण्यः। प्रियाः स्वग्नयो वयम्॥७॥
यज्ञ समपन्न करने वाले प्रजापालक, आनदवर्धक,वरण करने योग्य हे अग्निदेव आप हमे प्रिय हो तथा श्रेष्ठ विधि से यज्ञाग्नि की रक्षा करते हुये हम सदैव आपके प्रिय रहें॥७॥
स्वग्नयो हि वार्यं देवासो दधिरे च नः। स्वग्नयो मनामहे॥८॥
उत्तम अग्नि से युक्त हो कर दैदीप्यमान ऋत्विजो के हमारे लिये ऐश्वर्य को धारण किया है, वैसे जी हम उत्तम अग्नि से युक्त होकर इनका (ऋत्विज) का स्वागत करते है॥८॥
अथा न उभयेषाममृत मर्त्यानाम्। मिथः सन्तु प्रशस्तयः॥९॥
अमरत्व को धारण करने वाले हे अग्निदेव! आपके और हम मरणशील मनुष्यो के बीच स्नेहयुक्त और प्रशंसनीय वाणियो का आदान प्रदान होता रहे॥९॥
विश्वेभिरग्ने अग्निभिरिमं यज्ञमिदं वचः। चनो धाः सहसो यहो॥१०॥
बल के पुत्र(अरणि मन्थन के रूप शक्ति से उत्पन्न) भे अग्निदेव! आप(आहवनीयादि) अग्नियो के साथ यज्ञ मे पधारें और स्तुतियों को सुनते हुये अन्न(पोषण) प्रदान करें॥१०॥
वसिष्वा हि मियेध्य वस्त्राण्यूर्जां पते। सेमं नो अध्वरं यज॥१॥
हे यज्ञ योग्य अन्नो के पालक अग्निदेव! आप अपने तेजरूप वस्त्रो को पहनकर हमारे यज्ञ को सम्पादित करें॥१॥
नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः। अग्ने दिवित्मता वचः॥२॥
सदा तरुण रहने वाले हे अग्निदेव! आप सर्वोत्तम होता(यज्ञ सम्पन्न कर्ता) के रूप मे यज्ञकुण्ड मे स्थापित होकर स्तुति वचनो का श्रवण करें॥२॥
आ हि ष्मा सूनवे पितापिर्यजत्यापये। सखा सख्ये वरेण्यः॥३॥
हे वरण करने योग्य अग्निदेव! जैसे पिता अपने पुत्र के,भाई अपने भाई के और मित्र अपने मित्र के सहायक होते है, वैसे ही आप हमारी सहायता करें॥३॥
आ नो बर्ही रिशादसो वरुणो मित्रो अर्यमा। सीदन्तु मनुषो यथा॥४॥
जिस प्रकार प्रजापति के यज्ञ मे "मनु " आकर शोभा बढा़ते हैं, उसी प्रकार शत्रुनाशक वरुणदेव, मित्र-देव एवं अर्यमादेव हमारे यज्ञ मे आकर विराजमान हो॥४॥
पूर्व्य होतरस्य नो मन्दस्व सख्यस्य च। इमा उ षु श्रुधी गिरः॥५॥
पुरातन होता हे अग्निदेव! आप हमारे इस यज्ञ से और हमारे मित्रभाव से प्रसन्न हों और हमारी स्तुतियों को भली प्रकार से सुने॥५॥
यच्चिद्धि शश्वता तना देवंदेवं यजामहे। त्वे इद्धूयते हविः॥६॥
हे अग्निदेव! इन्द्र, वरुण आदि अन्य देवताओ के लिये प्रतिदिन विस्तृत आहुतियाँ अर्पित करने पर भी सभी हविष्यमान आपको ही प्राप्त होते है॥६॥
प्रियो नो अस्तु विश्पतिर्होता मन्द्रो वरेण्यः। प्रियाः स्वग्नयो वयम्॥७॥
यज्ञ समपन्न करने वाले प्रजापालक, आनदवर्धक,वरण करने योग्य हे अग्निदेव आप हमे प्रिय हो तथा श्रेष्ठ विधि से यज्ञाग्नि की रक्षा करते हुये हम सदैव आपके प्रिय रहें॥७॥
स्वग्नयो हि वार्यं देवासो दधिरे च नः। स्वग्नयो मनामहे॥८॥
उत्तम अग्नि से युक्त हो कर दैदीप्यमान ऋत्विजो के हमारे लिये ऐश्वर्य को धारण किया है, वैसे जी हम उत्तम अग्नि से युक्त होकर इनका (ऋत्विज) का स्वागत करते है॥८॥
अथा न उभयेषाममृत मर्त्यानाम्। मिथः सन्तु प्रशस्तयः॥९॥
अमरत्व को धारण करने वाले हे अग्निदेव! आपके और हम मरणशील मनुष्यो के बीच स्नेहयुक्त और प्रशंसनीय वाणियो का आदान प्रदान होता रहे॥९॥
विश्वेभिरग्ने अग्निभिरिमं यज्ञमिदं वचः। चनो धाः सहसो यहो॥१०॥
बल के पुत्र(अरणि मन्थन के रूप शक्ति से उत्पन्न) भे अग्निदेव! आप(आहवनीयादि) अग्नियो के साथ यज्ञ मे पधारें और स्तुतियों को सुनते हुये अन्न(पोषण) प्रदान करें॥१०॥
[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता १-१२अग्नि, १३ देवतागण। छन्द १-१२ गायत्री,१३ त्रिष्टुप।]
३००.अश्वं न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निं नमोभिः। सम्राजन्तमध्वराणाम्॥१॥
तमोनाशक, यज्ञो के सम्राट स्वरूप हे अग्निदेव! हम स्तुतियो ले द्वारा आपकी वंदना करते है। जिस प्रकार अश्व अपनी पूँछ के बालो से मक्खी मच्छर दूर भगाता है, उसी प्रकार आप भी ज्वालाओ से हमारे विरोधियों को दूर भगायें॥१॥
३०१.स घा नः सूनुः शवसा पृथुप्रगामा सुशेवः। मीढ्वाँ अस्माकं बभूयात्॥२॥
हम इन अग्निदेव की उत्तम विधि से उपासना करते है। वे बल से उत्पन्न, शीघ्र गतिशील अग्निदेव हमे अभिष्ट सुखो को प्रदान करें॥२॥
३०२.स नो दूराच्चासाच्च नि मर्त्यादघायोः। पाहि सदमिद्विश्वायुः॥३॥
हे अग्निदेव! सब मनुष्यो के हितचिंतक आप दूर से और निकट से, अनिष्ट चिंतको से सदैव हमारी रक्षा करें॥३॥
३०३.इममू षु त्वमस्माकं सनिं गायत्रं नव्यांसम्। अग्ने देवेषु प्र वोचः॥४॥
हे अग्निदेव! आप हमारे गायत्री परक प्राण पोषक स्तोत्रो एवं नवीन अन्न(हव्य) को देवो रक (देव वृत्तियों के पोषण हेतु) पहुँचाये॥४॥
३०४.आ नो भज परमेष्वा वाजेषु मध्यमेषु। शिक्षा वस्वो अन्तमस्य॥५॥
हे अग्निदेव! आप हमे श्रेष्ठ (आध्यात्मिक), मध्यम(आधिदैविक) एवं कनिष्ठ(आधिभौतिक) अर्थात सभी प्रकार की धन सम्पदा प्रदान करें॥५॥
३०५.विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ। सद्यो दाशुषे क्षरसि॥६॥
सात ज्वालाओ से दीप्तिमान हे अग्निदेव! आप धनदायक है। नदी के पास आने वाली जल तरंगो ले सदृश आप हविष्यान्न दाता को तत्क्षण (श्रेष्ठ) कर्म फल प्रदान करतें है॥६॥
३०६.यमग्ने पृत्सु मर्त्यमवा वाजेषु यं जुनाः। स यन्ता शश्वतीरिषः॥७॥
हे अग्निदेव ! आप जीवन संग्राम मे जिस पुरुष को प्रेरित करते हैं, उनकी रक्षा आप स्व्यं करते हैं। साथ ही उसके लिये पोषक अन्नो की पूर्ति भी करते हैं॥७॥
३०७.नकिरस्य सहन्त्य पर्येता कयस्य चित्। वाजो अस्ति श्रवाय्यः॥८॥
हे शत्रु विजेता अग्निदेव! आपके उपासक को कोई पराजित नही कर सकता, क्योंकि उसकी(आपके द्वारा प्रदत्त) तेजस्विता प्रसिद्ध है॥८॥
३०८.स वाजं विश्वचर्षणिरर्वद्भिरस्तु तरुता। विप्रेभिरस्तु सनिता॥९॥
सब मनुष्यो के कल्याणकारक वे अग्निदेव जीवन-संग्राम मे अश्व रूपी इन्द्रियो द्वारा विजयी बनाने वाले हो। मेधावी पुरुषो द्वारा प्रशंसित वे अग्निदेव हमे अभीष्ट फल प्रदान करें॥९॥
३०९.जराबोध तद्विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय। स्तोमं रुद्राय दृशीकम्॥१०॥
स्तुतियो से देवो को प्रबोधित करने वाले हे अग्निदेव! ये यजमान, पुनीत यज्ञ स्थल पर दुष्टता विनाश हेतु आपका आवाहन करते है॥१०॥
३१०.स नो महाँ अनिमानो धूमकेतुः पुरुश्चन्द्रः। धिये वाजाय हिन्वतु॥११॥
अपरिमिर्त धूम्र-ध्वजा से युक्त, आनन्दप्रदम महान वे अग्निदेव हमे ज्ञान और वैभव की ओर प्रेरित करें॥११॥
३११.स रेवाँ इव विश्पतिर्दैव्यः केतुः शृणोतु नः। उक्थैरग्निर्बृहद्भानुः॥१२॥
विश्वपालक, अत्यन्त तेजस्वी और ध्वजा सदृश गुणो से युक्त दूरदर्शी वे अग्निदेव वैभवशाली राजा के समान हमारी स्तवन रूपी वाणियो को ग्रहण करें॥१२॥
३१२.नमो महद्भ्यो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यः। यजाम देवान्यदि शक्नवाम मा ज्यायसः शंसमा वृक्षि देवाः॥१३॥
बड़ो, छोटोम युवको और वृद्धो को हम नमस्कार करते है। सामर्थ्य के अनुसार हम देवो का यजन करें। हे देवो! अपने से बड़ो के सम्मान मे हमारे द्वारा कोई त्रुटी न हो॥१३॥
३००.अश्वं न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निं नमोभिः। सम्राजन्तमध्वराणाम्॥१॥
तमोनाशक, यज्ञो के सम्राट स्वरूप हे अग्निदेव! हम स्तुतियो ले द्वारा आपकी वंदना करते है। जिस प्रकार अश्व अपनी पूँछ के बालो से मक्खी मच्छर दूर भगाता है, उसी प्रकार आप भी ज्वालाओ से हमारे विरोधियों को दूर भगायें॥१॥
३०१.स घा नः सूनुः शवसा पृथुप्रगामा सुशेवः। मीढ्वाँ अस्माकं बभूयात्॥२॥
हम इन अग्निदेव की उत्तम विधि से उपासना करते है। वे बल से उत्पन्न, शीघ्र गतिशील अग्निदेव हमे अभिष्ट सुखो को प्रदान करें॥२॥
३०२.स नो दूराच्चासाच्च नि मर्त्यादघायोः। पाहि सदमिद्विश्वायुः॥३॥
हे अग्निदेव! सब मनुष्यो के हितचिंतक आप दूर से और निकट से, अनिष्ट चिंतको से सदैव हमारी रक्षा करें॥३॥
३०३.इममू षु त्वमस्माकं सनिं गायत्रं नव्यांसम्। अग्ने देवेषु प्र वोचः॥४॥
हे अग्निदेव! आप हमारे गायत्री परक प्राण पोषक स्तोत्रो एवं नवीन अन्न(हव्य) को देवो रक (देव वृत्तियों के पोषण हेतु) पहुँचाये॥४॥
३०४.आ नो भज परमेष्वा वाजेषु मध्यमेषु। शिक्षा वस्वो अन्तमस्य॥५॥
हे अग्निदेव! आप हमे श्रेष्ठ (आध्यात्मिक), मध्यम(आधिदैविक) एवं कनिष्ठ(आधिभौतिक) अर्थात सभी प्रकार की धन सम्पदा प्रदान करें॥५॥
३०५.विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ। सद्यो दाशुषे क्षरसि॥६॥
सात ज्वालाओ से दीप्तिमान हे अग्निदेव! आप धनदायक है। नदी के पास आने वाली जल तरंगो ले सदृश आप हविष्यान्न दाता को तत्क्षण (श्रेष्ठ) कर्म फल प्रदान करतें है॥६॥
३०६.यमग्ने पृत्सु मर्त्यमवा वाजेषु यं जुनाः। स यन्ता शश्वतीरिषः॥७॥
हे अग्निदेव ! आप जीवन संग्राम मे जिस पुरुष को प्रेरित करते हैं, उनकी रक्षा आप स्व्यं करते हैं। साथ ही उसके लिये पोषक अन्नो की पूर्ति भी करते हैं॥७॥
३०७.नकिरस्य सहन्त्य पर्येता कयस्य चित्। वाजो अस्ति श्रवाय्यः॥८॥
हे शत्रु विजेता अग्निदेव! आपके उपासक को कोई पराजित नही कर सकता, क्योंकि उसकी(आपके द्वारा प्रदत्त) तेजस्विता प्रसिद्ध है॥८॥
३०८.स वाजं विश्वचर्षणिरर्वद्भिरस्तु तरुता। विप्रेभिरस्तु सनिता॥९॥
सब मनुष्यो के कल्याणकारक वे अग्निदेव जीवन-संग्राम मे अश्व रूपी इन्द्रियो द्वारा विजयी बनाने वाले हो। मेधावी पुरुषो द्वारा प्रशंसित वे अग्निदेव हमे अभीष्ट फल प्रदान करें॥९॥
३०९.जराबोध तद्विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय। स्तोमं रुद्राय दृशीकम्॥१०॥
स्तुतियो से देवो को प्रबोधित करने वाले हे अग्निदेव! ये यजमान, पुनीत यज्ञ स्थल पर दुष्टता विनाश हेतु आपका आवाहन करते है॥१०॥
३१०.स नो महाँ अनिमानो धूमकेतुः पुरुश्चन्द्रः। धिये वाजाय हिन्वतु॥११॥
अपरिमिर्त धूम्र-ध्वजा से युक्त, आनन्दप्रदम महान वे अग्निदेव हमे ज्ञान और वैभव की ओर प्रेरित करें॥११॥
३११.स रेवाँ इव विश्पतिर्दैव्यः केतुः शृणोतु नः। उक्थैरग्निर्बृहद्भानुः॥१२॥
विश्वपालक, अत्यन्त तेजस्वी और ध्वजा सदृश गुणो से युक्त दूरदर्शी वे अग्निदेव वैभवशाली राजा के समान हमारी स्तवन रूपी वाणियो को ग्रहण करें॥१२॥
३१२.नमो महद्भ्यो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यः। यजाम देवान्यदि शक्नवाम मा ज्यायसः शंसमा वृक्षि देवाः॥१३॥
बड़ो, छोटोम युवको और वृद्धो को हम नमस्कार करते है। सामर्थ्य के अनुसार हम देवो का यजन करें। हे देवो! अपने से बड़ो के सम्मान मे हमारे द्वारा कोई त्रुटी न हो॥१३॥