चतुर्थ प्रश्न
२८ गार्ग्य का प्रश्न - सुषुप्ति में कौन सोता है और कौन जागता है
गार्ग्य ऋषि-' हे भगवन! इस पुरुष देह में कौन-सी इन्द्री शयन करती है और कौन-सी जाग्रत रहती है? कौन-सी इन्द्री स्वप्न देखती है और कौन-सी सुख अनुभव करती है? ये सब किसमें स्थित है?'
२९ इन्द्रियों का लयस्थान आत्मा है
तब उस से आचार्य ने कहा - 'हे गार्ग्य! जिस प्रकार सूर्य के अस्त होने पर सम्पूर्ण किरणें उस तेजोमंडल में ही एकत्रित हो जाती है और उसका उदय होने पर फ़ैल जाती है। उसी प्रकार वे सब (इन्द्रियां) परमदेव मन में एकीभाव्व को प्राप्त हो जाती है। इस से तब वह पुरुष न सुनता है, न देखता है, न सूंघता है, न चखता है, न स्पर्श करता है, न बोलता है, न ग्रहण करता है, न आनंद भोगता है, न मलोत्सर्ग करता है और न कोई चेष्टा करता है। तब उसे 'सोता है' ऐसा कहते हैं।
३० सुषुप्ति में जागने वाले प्राण-भेद गार्हपत्यादी अग्निरूप है
[सुषुप्तिकाल में] इस शरीर रूप पुर में प्राणाग्नि ही जागते हैं। यह अपान ही गार्हपत्य अग्नि है, व्यं अन्वाहार्यपचन है तथा जो गार्हपत्य अग्नि है, व्यान अन्वाहार्यपचन है तथा जो गार्हपत्य से ले जाया जाता है वह प्राण ही प्रणयन (ले जाये जाने) के कारण आहवनीय अग्नि है।
३१ प्राणाग्नि के ऋत्विक
क्योंकि उच्छ्वास और निःश्वास ये मानो अग्निहोत्र की आहुतियाँ है, उन्हें जो [शरीर की स्थिति के लिए] समभाव से विभक्त करता है वह समान (ऋत्विक है) मन ही निश्चल यजमान है, और इष्टफल ही उदान है; वह उदान इस मनरूप यजमान को नित्यप्रति ब्रह्म के पास पहुंचा देता है।
३२ स्वप्नदर्शन का विवरण
इस स्वप्नावस्था में यह देव अपनी विभूति का अनुभव करता है। इसके द्वारा (जाग्रत-अवस्था में) जो देखा हुआ होता है उस देखे हुए को ही यह देखता है, सुनी-सुनी बैटन को ही सुनता है तथा दिशा-विदिशाओं में अनुभव किये हुए को ही पुनः-पुनः अनुभव करता है। यह देखे, बिना देखे, सुने, बिना अनुभव किये तथा सत और असत सभी प्रकार के पदार्थों को देखता है और स्वयं भी सर्वरूप होकर देखता है।
३३ सुषुप्ति निरूपण
जिस समय यह मन तेज से आक्रांत होता हिया उस समय वह आत्मदेव स्वप्न नहीं देखता। उस समय इस शरीर में यह सुख होता है।
हे सोम्य! जिस प्रकार पक्षी अपने बसेरे के वृक्ष पर जाकर बैठ जाते है उसी प्रकार वह सब (कार्यकरण संघात) सबसे उत्कृष्ट आत्मा में जाकर स्थित हो जाता है।
पृथिवी और पृथिवीमात्रा (गंधतन्मात्रा), जल और रसतन्मात्रा, तेज और रूपतन्मात्रा, वायु और स्पर्शतन्मात्रा, आकाश और शब्द तन्मात्रा, नेत्र और द्रष्टव्य(रूप), श्रोत और श्रोतव्य (शब्द), घ्राण और घ्रातव्य (गंध), रसना और रसयितव्य, पायु और विसर्जनीय, पाद और गंतव्य स्थान, मन और मनन करने योग्य, बुद्धि और बोद्धव्य, अहंकार और अहंकार का विषय, चित्त और चेतनीय, तेज और प्रकाशमय पदार्थ तथा प्राण और धारण करने योग्य वास्तु (ये सभी आत्मा में लीन हो जाते हैं)।
३४ सुषुप्ति में जीव की परमात्म प्राप्ति
यही द्रष्टा, स्प्रष्ट, श्रोता, घ्राता, रसयिता, मन्ता(मनन करने वाला), बोद्धा और कर्ता विज्ञानात्मा पुरुष है। वह पर अक्षर आत्मा में सम्यक प्रकार से स्थित हो जाता है।
हे सोम्य! इस छायाहीन, अशरीरी, अलोहित, शुभ्र अक्षर को जो पुरुष जनता है वह पर अक्षर को ही प्राप्त हो जाता है। वह सर्वज्ञ और सर्वरूप हो जाता है।
३५ अक्षरब्रह्म के ज्ञान का फल
हे सोम्य! जिस अक्षर में समस्त देवों के सहित विज्ञानात्मा प्राण और भूत सम्यक प्रकार से स्थित होते है उसे जो जानता है वह सर्वज्ञ सभी में प्रवेश कर जाता है।
गार्ग्य ऋषि-' हे भगवन! इस पुरुष देह में कौन-सी इन्द्री शयन करती है और कौन-सी जाग्रत रहती है? कौन-सी इन्द्री स्वप्न देखती है और कौन-सी सुख अनुभव करती है? ये सब किसमें स्थित है?'
२९ इन्द्रियों का लयस्थान आत्मा है
तब उस से आचार्य ने कहा - 'हे गार्ग्य! जिस प्रकार सूर्य के अस्त होने पर सम्पूर्ण किरणें उस तेजोमंडल में ही एकत्रित हो जाती है और उसका उदय होने पर फ़ैल जाती है। उसी प्रकार वे सब (इन्द्रियां) परमदेव मन में एकीभाव्व को प्राप्त हो जाती है। इस से तब वह पुरुष न सुनता है, न देखता है, न सूंघता है, न चखता है, न स्पर्श करता है, न बोलता है, न ग्रहण करता है, न आनंद भोगता है, न मलोत्सर्ग करता है और न कोई चेष्टा करता है। तब उसे 'सोता है' ऐसा कहते हैं।
३० सुषुप्ति में जागने वाले प्राण-भेद गार्हपत्यादी अग्निरूप है
[सुषुप्तिकाल में] इस शरीर रूप पुर में प्राणाग्नि ही जागते हैं। यह अपान ही गार्हपत्य अग्नि है, व्यं अन्वाहार्यपचन है तथा जो गार्हपत्य अग्नि है, व्यान अन्वाहार्यपचन है तथा जो गार्हपत्य से ले जाया जाता है वह प्राण ही प्रणयन (ले जाये जाने) के कारण आहवनीय अग्नि है।
३१ प्राणाग्नि के ऋत्विक
क्योंकि उच्छ्वास और निःश्वास ये मानो अग्निहोत्र की आहुतियाँ है, उन्हें जो [शरीर की स्थिति के लिए] समभाव से विभक्त करता है वह समान (ऋत्विक है) मन ही निश्चल यजमान है, और इष्टफल ही उदान है; वह उदान इस मनरूप यजमान को नित्यप्रति ब्रह्म के पास पहुंचा देता है।
३२ स्वप्नदर्शन का विवरण
इस स्वप्नावस्था में यह देव अपनी विभूति का अनुभव करता है। इसके द्वारा (जाग्रत-अवस्था में) जो देखा हुआ होता है उस देखे हुए को ही यह देखता है, सुनी-सुनी बैटन को ही सुनता है तथा दिशा-विदिशाओं में अनुभव किये हुए को ही पुनः-पुनः अनुभव करता है। यह देखे, बिना देखे, सुने, बिना अनुभव किये तथा सत और असत सभी प्रकार के पदार्थों को देखता है और स्वयं भी सर्वरूप होकर देखता है।
३३ सुषुप्ति निरूपण
जिस समय यह मन तेज से आक्रांत होता हिया उस समय वह आत्मदेव स्वप्न नहीं देखता। उस समय इस शरीर में यह सुख होता है।
हे सोम्य! जिस प्रकार पक्षी अपने बसेरे के वृक्ष पर जाकर बैठ जाते है उसी प्रकार वह सब (कार्यकरण संघात) सबसे उत्कृष्ट आत्मा में जाकर स्थित हो जाता है।
पृथिवी और पृथिवीमात्रा (गंधतन्मात्रा), जल और रसतन्मात्रा, तेज और रूपतन्मात्रा, वायु और स्पर्शतन्मात्रा, आकाश और शब्द तन्मात्रा, नेत्र और द्रष्टव्य(रूप), श्रोत और श्रोतव्य (शब्द), घ्राण और घ्रातव्य (गंध), रसना और रसयितव्य, पायु और विसर्जनीय, पाद और गंतव्य स्थान, मन और मनन करने योग्य, बुद्धि और बोद्धव्य, अहंकार और अहंकार का विषय, चित्त और चेतनीय, तेज और प्रकाशमय पदार्थ तथा प्राण और धारण करने योग्य वास्तु (ये सभी आत्मा में लीन हो जाते हैं)।
३४ सुषुप्ति में जीव की परमात्म प्राप्ति
यही द्रष्टा, स्प्रष्ट, श्रोता, घ्राता, रसयिता, मन्ता(मनन करने वाला), बोद्धा और कर्ता विज्ञानात्मा पुरुष है। वह पर अक्षर आत्मा में सम्यक प्रकार से स्थित हो जाता है।
हे सोम्य! इस छायाहीन, अशरीरी, अलोहित, शुभ्र अक्षर को जो पुरुष जनता है वह पर अक्षर को ही प्राप्त हो जाता है। वह सर्वज्ञ और सर्वरूप हो जाता है।
३५ अक्षरब्रह्म के ज्ञान का फल
हे सोम्य! जिस अक्षर में समस्त देवों के सहित विज्ञानात्मा प्राण और भूत सम्यक प्रकार से स्थित होते है उसे जो जानता है वह सर्वज्ञ सभी में प्रवेश कर जाता है।