यजुर्वेद - द्वितीय अध्याय
हे यज्ञीय कार्य में प्रयुक्त होने वाली समिधाओं! यज्ञ के निमित्त हम आपको पवित्र करते हैं। हे यज्ञवेदिके! यज्ञ कार्य की सफलता के लिए आपको पवित्र करते हैं। स्त्रुचाओं के प्रयोग की प्रेरणा देने वाले आधार रूप हे बर्हि! हम आपको पवित्र करते हैं। (1)
हे यज्ञावशेष जल! यज्ञ, पृथ्वी तथा विविध ओषधिगुण युक्त पदार्थों को आप सींचने वाले हैं। हे स्तूप आकार कुशाओं! देवों के लिए ऊन जैसे कोमल आसन रूप में आपको फैलाते हैं। हे याजको! आप पृथ्वी के पालनकर्त्ता, सब लोकों के पलक तथा प्राणिमात्र के पालनकर्त्ता के लिए सर्वस्व समर्पण करें। (2)
संसार के अनिष्ट-निवारण के लिए अग्नि की स्तुति करते हैं। आप याजकों कि सुरक्षा करने वाली हैं, विश्वासु गन्धर्व आपको चरों और से संभालें। आप याजकों की रक्षक, इन्द्रदेव कि दाहिनी भुजा है। हे यजमानों! मित्रावरुण धर्मपूर्वक उत्तम साधनों से आपको धारण करें। (3)
भूत-भविष्य के ज्ञाता हे क्रांतदर्शी अग्निदेव! एश्वर्य प्राप्ति कि कामना करने वाले तेजस्वी, महान याजक यज्ञ में आपको प्रज्वलित करते हैं। (4)
हे समिधे! आप अग्नि को प्रदीप्त करने वाली हैं। सविता देवता आपकी रक्षा करें। हे तृणयुगल! आप दोनों सविता देवता की भुजाएं हो। ऊन के बने कोमल आसन के रूप में देवताओं के सुखपूर्वक बैठने के लिए आपको फैलाते हैं। वसुगण, मरुद्गण तथा रुद्रगण आपके ऊपर स्थापित हों। (5)
आपका जुहू नाम है। आप अपने प्रिय धृत से पूर्ण होकर-धृत देने वाली होकर इस यज्ञ-स्थल में स्थापित हो। आपका उपभृत नाम है। आप धृत से युक्त होकर अपने प्रिय यज्ञस्थल पर स्थापित हों। आपका ध्रुवा नाम है। आप अपने प्रिय घृत द्वारा सिंचित होकर यज्ञ-स्थल परर स्थापित हों। हे यज्ञस्थल पर प्रतिष्ठित विष्णुदेव! यज्ञ-स्थल पर स्थापित सभी साधनों, उपकरणों, यज्ञकर्त्ताओं एवं हमारी आप रक्षा करें। (6)
अन्न प्रदान करने वाले हे अग्निदेव! अन्न प्राप्त के माध्यम तथा पुरुषार्थी आपका शोधन करते हैं। देवों एवं पितरों को अन्न देकर नमन करते हैं। आप हमारे लिए सहायक सिद्ध हों। (7)
हे यज्ञाग्ने! यज्ञस्थल को हम अपने पैरों से अपवित्र नहीं करेंगे। देवों को समर्पित करने के लिए आज हम पवित्र धृत लाये हैं। हे अग्निदेव! इंद्रदेव ने अपने प्रक्रम से यज्ञ को उन्नत किया था। यज्ञस्थल में स्थित, अन्न प्रदान करने वाले आपके सान्निध्य में सर्वदा रहें। (8)
हे अग्निदेव! हवन कार्य की विधि-व्यवस्था को आप भली-भांति जानते हैं। आप ही दैवी-शक्तियों तक हवि-भाग पहुंचाते हैं। द्युलोक तथा पृथ्वीलोक की आप रक्षा करें। देवों सहित इंद्र हमारे घृत रूपी हवि से संतुष्ट हों। ज्योति से ज्योति का एकीकरण हो। (9)
हे इंद्रदेव! हमारी मनोकामनाएं पूरी हों, हम सभी ऐश्वर्यों से युक्त हों। हम पराक्रमी हों। हमारी इच्छाएं सत्यफलवाली हों। यह माता के समान पृथ्वी, जिसकी हमने स्तुति की है; हमें यज्ञाग्नि प्रदीप्त करने वाला होने से तेजस्वी बनाकर समर्पित होने की अनुमति दे।(10)
द्युलोक के पालनकर्त्ता की हमने स्तुति की है। अतः द्युलोक के प्रभु यज्ञावशेष को ग्रहण करते हैं। यह आहुति रूप उन्नति करने वाला हो। सविता देव की प्रेरणा से, आश्विन कुमारों की बाहुओं से तथा पुषादेव के दोनों हाथों की मदद से इस यज्ञावशेष को हम ग्रहण करते हैं। अग्नि के मुख से हम भक्षण करते हैं। (11)
हे सृष्टिकर्त्ता सवितादेव! यजमानगण आपके निमित्त यह यज्ञ अनुष्ठान कर रहे हैं। अतः आप इस यज्ञ की, यजमान की तथा हमारी रक्षा करें। (12)
हे सवितादेव! आपका वेगवान मन आज्य का सेवन करे। वृहस्पति देव इस यज्ञ को, अनिष्ट रहित करके इसका विस्तार करें-इसे धारण करें। सभी दैवी-शक्तियां प्रतिष्ठित होकर आनंदित हों-संतुष्ट हों। (सवितादेव की ओर से कथन) तथास्तु-प्रतिष्ठित हों। (13)
हे अग्निदेव! आपको प्रज्ज्वलित करने के लिए यह समिधा है। हम (याजक) आपको प्रदीप्त करते हुए स्वयं भी समृद्धि की कामना करते हैं। हे अन्न दे उत्पादक अग्निदेव! हम आपका मार्जन करते हैं। (14)
(यज्ञ से प्राप्त पोषण रूप) अन्न से प्रेरित होकर हम वैसी ही विजय प्राप्त करने के लिए तत्पर हुए हैं, जैसी विजय सोम और अग्निदेव ने प्राप्त की है। जो हमसे द्वेष रखते हैं एवं जिनसे हम द्वेष रखते हैं, उन्हें अग्नि और सोम दूर हटा दें। अन्न से प्रेरित हुए हम वैसी ही विजय के लिए तत्पर हैं, जैसी विजय इंद्र और अग्निदेवों ने प्राप्त की हैं। जो हमसे द्वेष करने वाले हैं तथा जिनसे हम द्वेष करते हैं, उन्हें इंद्र एवं अग्निदेव दूर हटा दें। हम हविष्यान्न की प्रेरणा से शत्रुओं को दूर करते हैं। (15)
तीन परिधियाँ क्रमशः वासु को, रूद्र को और आदित्य को समर्पित की जाती हैं। इस तथ्य को द्युलोक और पृथ्वी लोक की शक्तियां जाने। मित्रावरुण वर्षा से उनकी रक्षा करें। घृतयुक्त हव्या का स्वाद लेते हुए पक्षी मरुतों का अनुगमन करते हुए स्वाधीन किरणों में परिवर्तित होकर द्युलोक में पहुंचें। वहां से वर्षा लेकर आयें। हे यज्ञाग्ने! आप नेत्रों के रक्षक हैं, हमारे नेत्रों की रक्षा करें। (16)
हे अग्निदेव! आपके द्वारा 'पणि' नामक शत्रुओं से बचाव के लिए जो परिधि चरों और बनायीं गयी हैं, उसे आपके अनुकूल बनाते हैं, ताकि यह परिधि आपसे दूर न हो। यह प्रिय हविष्यान्न आपको प्राप्त हो। (17)
हे विश्वेदेवागण! आप अपनी मर्यादा के आश्रय में रहें। अपने आसन पर ही मधुर रसमय अन्न-भाग को ग्रहण करके पुष्ट बने और आनंदित हों। आप इस घोषणा के अनुरूप कार्य करें। (18)
(हे जुहू तथा उपभृत!) आप दोनों घृत से पूर्ण हों। (हे शकटवाहक!) आप धुर में नुयुक्त (जुहू और उपभृत को घृत से युक्त) हुओं की रक्षा करें। हे यज्ञवेदिके! यह हविष्यान्न आपके समीप लाया गया है। आप सुख स्वरूप हैं। अतः यज्ञार्थ हमारे इष्ट के रूप में हमें सुख प्रदान करते हुए स्थापित हों। (19)
हे तेजस्वी आयुष्य प्रदान करने वाले व्यापक अग्ने! शत्रु के शस्त्र से तथा उसके जाल से हमारी रक्षा करें, हमें विनाश से बचाएं। हमें विषैले भोजन से बचाएं। हमारे अन्न को पवित्र करें। अपने निवास में सुख और आनंद से रहने का हमारा मार्ग प्रशस्त करें- यह हमारी प्रार्थना है। हमारे सान्निध्य में रहने वाले आप के लिए यह आहुति समर्पित है।(20)
हे वेद! आप ज्ञान स्वरूप हैं। देवों को ज्ञानवान बनाने की भांति हमें भी ज्ञान प्रदान करें। हे मार्गदर्शक देवगणों! सन्मार्ग को समझकर सत्यमार्ग पर आरूढ़ हों। हे मन के परिपालक प्रभो! यह यज्ञ आपको समर्पित करते हैं, आप इसे वायु के माध्यम से विस्तार प्रदान करें। (21)
हे इन्द्रदेव! इस कुश-समूह को यज्ञार्थ लाये गए घृत से युक्त कर समर्पित करते हैं। इन्हें आदित्यों, वसुओं, मरुतों तथा सभी देवगणों के साथ दिव्य आकाश में स्थापित करें। (22)
तुम्हें किसने छोड़ा है? तुम्हें उसने(सृष्टा) छोड़ा है। तुम्हें किस हेतु छोड़ा गया है? तुम्हें उनके(याजक और परिजनों के) लिए छोड़ा गया है। वह राक्षसों के भाग रूप में त्यागा गया है। (23)
हमारे शरीर तेजस्विता (वर्चस) एवं (पयसा) पोषक तत्त्वों से युक्त हों। हमारे मन शिवत्व से युक्त हों। शरीरों में जो भी कमी हो, वह पूरी हो जाये। श्रेष्ठदाता त्वष्टा हमें अनेक प्रकार का एश्वर्य प्रदान करें। (24)
विष्णु(पोषण के देवता यज्ञ) ने जगती छंद से द्युलोक में, त्रिष्टुभ छंद से अन्तरिक्ष लोक में तथा गायत्री छंद से पृथ्वी पर विचक्रमण(परिभ्रमण) किया है। इस कारन जो हम सबसे द्वेष करता है और जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे द्युलोक, अन्तरिक्ष तथा पृथ्वी से समाप्त कर दिया गया है। हविष्यान्न के स्थान से - पूजा स्थल से ऐसे शत्रुओं को हटा दिया गया है। इस प्रकार स्वर्गधाम को प्राप्त कर हम तेजस्वी बन गए हैं। (25)
हे सवितादेव! आप तेजस्वरुप हैं। स्वयं सिद्ध-समर्थ हैं। श्रेष्ठ तेज की रश्मियों वाले हैं। अतः हमें भी तेजस्वी बनायें। हम सुया के आवर्तन के अनुरूप स्वयं भी आवर्तन(व्यव्हार/परिक्रमा) करते है। (26)
हे गृहपति अग्ने! आपके गृहपालक रूप के सामीप्य से हम श्रेष्ठ गृह स्वामी बने। गृहस्वामी की स्तुति से आप उत्तम गृहपालक बने। हे अग्निदेव! हम दाम्पत्य जीवन का निर्वाह करते हुए सौ वर्ष तक यज्ञ कर्म करते रहें। हम सूर्य के द्वारा स्थापित अनुशासनों का अनुगमन करें। (27)
हे व्रतों के पालक अग्निदेव! हमने जो नियमों का पालन किया है, उससे हम सामर्थ्यवान बने है। हमारे इस यज्ञ कर्म को आपने सिद्ध किया है। यज्ञीय कर्म करते समय हमारी जो भावनाएं थी, वही अब भी हैं। (28)
पितरों तक कव्य(पितरों का हव्य) पहुचाने वाले अग्निदेव के लिए यह आहुति समर्पित है। पितरों के सहचर सोमदेव के लिए यह आहुति अर्पित है। यज्ञभूमि में विद्यमान आसुरी शक्तियां नष्ट हो गयी है। (29)
(हे कव्य वाहनाग्नी देवता!) जो आसुरी शक्तियां पितरों को समर्पित अन्न का सेवन करने के लिए अनेक रूप बदलकर सूक्षम या स्थूल रूप से आती है और नीच कर्म करती है, उन्हें इस पवित्र स्थान से दूर करें। (30)
हे पितृगण! जैसे बैल, इच्छित अन्न्भाग प्राप्त कर तृप्त होता एवं पुष्ट होता है, वैसे ही आप अपना कव्य भाग प्राप्त कर बलिष्ठ हों, हर्षित-आनंदित हों। (31)
हे पितृगण! आपके रसरूप (वसंत), शुष्कता रूप (ग्रीष्म), जीवन रूप (वर्षा), अन्न रूप (शरद), पोषणरूप (हेमंत) तथा उत्साह रूप(शिशिर ऋतुओं) को नमस्कार है। हे पितरो! हमारे पास जो कुछ भी है, वस्त्रादि सहित वह सभी आपको समर्पित है। आप हमें पुत्र-पौत्रादि से युक्त गृह प्रदान करें। (32)
हे पितृगण! पुष्टिकर पदार्थों से बने शरीर वाल (इस) सुन्दर बालक का पोषण करें; ताकि वह इस पृथ्वी पर वीर पुरुष बन सके। (33)
हे जलसमूह। अन्न, घृत, दूध तथा फूलों-फलों में आप रस रूप में विद्यमान हैं। अतः अमृत के सामान सेवनीय तथा धारक शक्ति बढ़ाने वाले हैं। इसलिए हमारे पितृगणों को तृप्त करें। (34)