माण्डूक्योपनिषद वैतथ्य प्रकरण
स्वप्न दृष्ट पदार्थों का मिथ्यात्व
(स्वप्नावस्था मे) सब पदार्थ शरीर के भीतर स्थित होते हैं; अतः स्थान के संकोच के कारण मनीषीगण स्वप्न मे सब पदार्थों का मिथ्यात्व प्रतिपादन करते हैं।
समय की अदीर्घता होने के कारण वह देह से बाहर जाकर उन्हें नहीं देखते तथा जागने पर भी कोई पुरुष उस देश मे विद्यमान नहीं रहता। (इससे भी उसका स्वप्नदृष्ट देश मे ना जाना ही सिद्ध होता है।
श्रुति मे भी रथादि का अभाव युक्तिपूर्वक सुना गया है अतः सिद्ध हुये मिथ्यात्व को ही स्वप्न मे स्पष्ट बतलाते हैं।
जाग्रद दृश्य पदार्थों के मिथ्यात्व मे हेतु
इसी जागृत अवस्था मे भी पदार्थों का मिथ्यात्व है, क्योंकि जिस प्रकार वे वहां स्वप्नावस्था होते हैं उसी प्रकार जागृत मे भी होते हैं। केवल शरीर के भीतर स्थित होने और स्थान के संकुचित होने मे ही स्वप्नदृष्ट पदार्थों का भेद है।
(स्वप्नावस्था मे) सब पदार्थ शरीर के भीतर स्थित होते हैं; अतः स्थान के संकोच के कारण मनीषीगण स्वप्न मे सब पदार्थों का मिथ्यात्व प्रतिपादन करते हैं।
समय की अदीर्घता होने के कारण वह देह से बाहर जाकर उन्हें नहीं देखते तथा जागने पर भी कोई पुरुष उस देश मे विद्यमान नहीं रहता। (इससे भी उसका स्वप्नदृष्ट देश मे ना जाना ही सिद्ध होता है।
श्रुति मे भी रथादि का अभाव युक्तिपूर्वक सुना गया है अतः सिद्ध हुये मिथ्यात्व को ही स्वप्न मे स्पष्ट बतलाते हैं।
जाग्रद दृश्य पदार्थों के मिथ्यात्व मे हेतु
इसी जागृत अवस्था मे भी पदार्थों का मिथ्यात्व है, क्योंकि जिस प्रकार वे वहां स्वप्नावस्था होते हैं उसी प्रकार जागृत मे भी होते हैं। केवल शरीर के भीतर स्थित होने और स्थान के संकुचित होने मे ही स्वप्नदृष्ट पदार्थों का भेद है।
इस प्रकार प्रसिद्ध हेतु से ही पदार्थों मे समानता होने के कारण विवेकी पुरुषों ने स्वप्न और जागृत अवस्थाओं को एक ही बतलाया है।
जो आदि और अंत मे नहीं है वह वर्तमान मे भी वैसा ही है। ये पदार्थ समूह असत के समान होकर भी सत जैसे दिखाई देते हैं।
स्वप्न में उन की सप्रयोजनता में विपरीतता आ जाती है। अतः आदि-अंत युक्त होने कारण वे निश्चय मिथ्या ही माने गए हैं।
जिस प्रकार स्वर्ग निवासियों की अलौकिक अवस्थाएं सुनी जाती है उसी प्रकार यह भी स्थानी का अपूर्व धर्म है उन स्वप्न पदार्थों को यह इसी प्रकार जान कर देखता है। जैसे कि इस लोक मे सुशिक्षित पुरुष (उस मार्ग से जाकर अपने अभीष्ट लक्ष्य पर पहुंच कर उसे देखता है।
स्वप्न मे मनः कल्पित और इन्द्रिय ग्राहीय दोनों ही प्रकार के पदार्थ मिथ्या हैं।
जागृत मे भी दोनों प्रकार के पदार्थ मिथ्या है
इसी प्रकार जाग्रदवस्था में भी चित्त के भीतर कल्पना किया हुआ पदार्थ असत तथा चित्त से बहार ग्रहण किया हुआ पदार्थ सत समझा जाता है। परन्तु इन दोनों ही का मिथ्यात्व मानना उचित है।
इन मिथ्या पदार्थों की कल्पना करने वाला कौन है?
यदि दोनों ही स्थानो के पदार्थों का मिथ्यात्व है तो इन पदार्थों को जानता कौन है और कौन इनकी कल्पना करने वाला है?
इनकी कल्पना करने वाला और इनका साक्षी आत्मा ही है
स्वयं प्रकाश आत्मा - अपनी माया से स्वयं ही कल्पना करा है और वाही सब भेदों को जानता है - यही वेदांत का निश्चय है।
पदार्थ कल्पना की विधि
प्रभु आत्मा अपने अन्तःकरण में स्थित अन्य भावों को नानारूप करता है तथा बहिष्चित्त होकर पृथिवी आदि नियत और अनियत पदार्थों की भी इसी प्रकार कल्पना करता है।
आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार के पदार्थ मिथ्या है
जो आंतरिक पदार्थ केवल कल्पना काल तक ही रहने वाले हैं और जो बाह्य पदार्थ द्विकलिक हैं वे सभी कल्पित हैं। उनकी विशेषता का कोई दूसरा कारण नहीं है।
जो आदि और अंत मे नहीं है वह वर्तमान मे भी वैसा ही है। ये पदार्थ समूह असत के समान होकर भी सत जैसे दिखाई देते हैं।
स्वप्न में उन की सप्रयोजनता में विपरीतता आ जाती है। अतः आदि-अंत युक्त होने कारण वे निश्चय मिथ्या ही माने गए हैं।
जिस प्रकार स्वर्ग निवासियों की अलौकिक अवस्थाएं सुनी जाती है उसी प्रकार यह भी स्थानी का अपूर्व धर्म है उन स्वप्न पदार्थों को यह इसी प्रकार जान कर देखता है। जैसे कि इस लोक मे सुशिक्षित पुरुष (उस मार्ग से जाकर अपने अभीष्ट लक्ष्य पर पहुंच कर उसे देखता है।
स्वप्न मे मनः कल्पित और इन्द्रिय ग्राहीय दोनों ही प्रकार के पदार्थ मिथ्या हैं।
जागृत मे भी दोनों प्रकार के पदार्थ मिथ्या है
इसी प्रकार जाग्रदवस्था में भी चित्त के भीतर कल्पना किया हुआ पदार्थ असत तथा चित्त से बहार ग्रहण किया हुआ पदार्थ सत समझा जाता है। परन्तु इन दोनों ही का मिथ्यात्व मानना उचित है।
इन मिथ्या पदार्थों की कल्पना करने वाला कौन है?
यदि दोनों ही स्थानो के पदार्थों का मिथ्यात्व है तो इन पदार्थों को जानता कौन है और कौन इनकी कल्पना करने वाला है?
इनकी कल्पना करने वाला और इनका साक्षी आत्मा ही है
स्वयं प्रकाश आत्मा - अपनी माया से स्वयं ही कल्पना करा है और वाही सब भेदों को जानता है - यही वेदांत का निश्चय है।
पदार्थ कल्पना की विधि
प्रभु आत्मा अपने अन्तःकरण में स्थित अन्य भावों को नानारूप करता है तथा बहिष्चित्त होकर पृथिवी आदि नियत और अनियत पदार्थों की भी इसी प्रकार कल्पना करता है।
आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार के पदार्थ मिथ्या है
जो आंतरिक पदार्थ केवल कल्पना काल तक ही रहने वाले हैं और जो बाह्य पदार्थ द्विकलिक हैं वे सभी कल्पित हैं। उनकी विशेषता का कोई दूसरा कारण नहीं है।
आंतरिक और बाह्य पदार्थों का भेद केवल इन्द्रियजनित है
जो आंतरिक पदार्थ हैं वे अव्यक्त ही हैं और जो बाह्य हैं वे स्पष्ट प्रतीत होने वाले हैं। किन्तु वे सब हैं कल्पित ही। उनकी विशेषता तो केवल इंद्रियों के ही भेद में हैं।
पदार्थ कल्पना की मूल जीव कल्पना है
सबसे पहले जीव की कल्पना करता है; फिर तरह-तरह के बाह्य और आध्यात्मिक पदार्थों की कल्पना करता है। उस जीव का जैसा विज्ञानं होता ही वैसी ही स्मृति भी होती है।
जीव कल्पना का हेतु अज्ञान है
जिस प्रकार निश्चय न की हुई रज्जु अंधकार में सर्प-धारा आदि भावों से कल्पना की जाती है उसी प्रकार आत्मा में भी तरह-तरह की कल्पनाये हो रही है।
अज्ञान निवृत्ति ही आत्मज्ञान है
जिस प्रकार रज्जु का निश्चय हो जेन पर उस्मैन्ह (सर्पादि का) विकल्प निवृत्त हो जाता है तथा 'यह रज्जु ही है' ऐसा अद्वैत निश्चय होता है उसी प्रकार आत्मा का निश्चय है।
विकल्प की मूल माया है
यह जो इन प्राणादि अनंत भावों से विकल्पित हो रहा है सो यह उस प्रकाशमय आत्मदेव की माया ही है, जिससे कि वह स्वयं ही मोहित हो रहा है।
मूलतत्त्व सम्बन्धी विभिन्न मतवाद
प्राणोपासक कहते है - 'प्राण ही जगत का कारण है।' भूतज्ञों (प्रत्यक्ष वादी चार्वाकादि) का कथन है - 'पृथ्वी आदि) चार भूत ही परमार्थ हैं।' गुणों को जानने वाले (सांख्यवादी) कहते हैं - '(आत्मा, अविद्या और शिव -ये तीन) तत्त्व ही जगत के प्रवतक हैं।'
पादवेत्ता कहते हैं - 'विश्व आदि पाद ही सम्पूर्ण व्यवहार के हेतु हैं। (वात्स्यायनादि) विषयज्ञ कहते हैं - 'शब्दादि विषय ही सत्य वस्तु है।' लोक वेत्ताओं (पौराणिकों) का कहना है कि लोक ही सत्य है तथा देवोपासक कहते हैं - 'इन्द्रादि देवता ही सृष्टि के संचालक हैं'
वेदज्ञ कहते हैं 'ऋगादि चार वेद ही परमार्थ हैं।' याज्ञिक कहते हैं कि 'यज्ञ ही संसार के आदिकारण हैं।' भोक्ता को जानने वाले भोक्ता की ही प्रधानता बतलाते हैं तथा भोज्य के समर्थक भोज्य पदार्थों की ही सारवत्ता का प्रतिपादन करते हैं।
सूक्षमवेत्ता कहते हैं - 'आत्मा सूक्षम (अनुप्रमाण) है।' स्थूलवादी (चार्वाकादि) कहते हैं - 'वह स्थूल है। ' मूर्त्तवादी (साकारोपासक) कहते हैं कि परमार्थ वास्तु मूर्तिमान है।' तथा अमूर्त्तवादियों (शून्यवादियों) का कथन है कि वह मूर्त्तिहीन हैं।
कालज्ञ (ज्योतिषी लोग) कहते हैं कि काल ही परमार्थ है। दिशाओं के जानने वाले (स्वरोदय शास्त्री) कहते है कि दिशाएं ही सत्य वास्तु है।' वादवेत्ता (धातुवाद, मंत्रवाद आदि) कहते हैं कि वाद ही सत्य वस्तु है। तथा भुवनकोश के ज्ञाताओं का कथन है कि भुवन ही परमार्थ है।
मनोविद कहते हैं -'मन ही आत्मा है' बौद्धों का कहना है कि बुद्धि ही आत्मा है, चित्तज्ञों का विचार है कि चित्त ही सत्यवस्तु है; तथा धर्माधर्मवेत्ता (मीमांसक) "धर्माधर्म को ही परमार्थ मानते हैं।"
कोई (सांख्यवादी) पच्चीस तत्त्वों को, कोई (पातञ्जलामतावलम्बी) छब्बीस को और पाशुपत इकत्तीस तत्वों को सत्य मानते हैं तथा अन्य मतावलम्बी परमार्थ को अनंत भेदों वाला मानते हैं।
लौकिक पुरुष लोकानुरंजन को और आश्रमवादी आश्रमों को ही प्रधान बतलाते हैं। लिंगवादी स्त्रीलिंग, पुलिंग और नपुंसकलिंग को तथा दूसरे लोग पर और अपर ब्रह्म को ही परमार्थ मानते हैं।
सृष्टिवेत्ता कहते हैं कि सृष्टि ही सत्य है, लयवादी कहते हैं कि लय ही परमार्थ वास्तु है तथा स्थितिवेत्ता कहते हैं कि स्थिति ही सत्य है। इस प्रकार ये (कहे हुए और बिना कहे हुए) सभी वाद इस आत्मतत्व में सर्वदा कल्पित हैं।
(गुरु) जिसे जो भाव दिखला देता है वह उसी को आत्मस्वरूप से देखने लगता है तथा इस प्रकार देखने वाले उस व्यक्ति की वह भाव तद्रूप होकर रक्षा करने लगता है। फिर उस में होने वाला अभिनिवेश उस (के आत्मभाव) को प्राप्त हो जाता है।
आत्मा सर्वाधिष्ठान है ऐसा जानने वाला ही परमार्थदर्शी है
(इस प्रकार सब का अधिष्ठान होने के कारण) इन प्राणादि अपृथग भावों से (पृथक न होने पर भी अज्ञानियों द्वारा) यह आत्मा भिन्न ही माना गया है। इस बात को जो वास्तविक रूप से जानता है वह निशंक होकर (वेदार्थ की) कल्पना कर सकता है।
द्वैत असत्यत्व वेदांत वेद्य है
जिस प्रकार स्वप्न और माया देखे गए हैं तथा जैसा गन्धर्व नगर जाना गया है, उसी प्रकार विचक्षण पुरुषों ने वेदान्तों में इस जगत को देखा है।
परमार्थ क्या है?
न प्रलय है, न उत्पत्ति है, न बद्ध है, न साधक है, न मुमुक्षु है और न मुक्त ही है - यही परमार्थता है।
अद्वैतभाव ही मंगलमय है
यह (आत्मतत्त्व) प्राणादि असद्भावों से और अद्वैत रूप से कल्पित है। वे असद्भाव भी अद्वैत से ही कल्पना किये गए है। इसलिए अद्वैतभाव ही मंगलमय है।
तत्त्ववेत्ता की दृष्टि के नानात्व का अत्यन्ताभाव है
यह नानात्व न तो आत्मस्वरूप से है और न अपने ही स्वरूप से कुछ है। कोई भी वास्तु न तो ब्रह्म से पृथक है और न अपृथक ही - ऐसा तत्त्ववेत्ता जानते हैं।
इस रहस्य के साक्षी कौन थे?
जिनके राग, भय, और क्रोध निवृत्त हो गए हैं उन वेड के पारगामी मुनियों द्वारा ही यह निर्विकल्प प्रपंचोपशम अदव्य तत्त्व देखा गया है।
तत्त्वदर्शन का आदेश
इसलिए इस (आत्मतत्व) को ऐसा जानकार अद्वैत में मनोनिवेश करे और अद्वैत तत्त्व को प्राप्त कर लोक में जड़वत व्यवहार करें।
तत्त्वदर्शी का आचरण
यति को स्तुति, नमस्कार और स्वधाकार (पैत्रकर्म) से रहित हो चल (शरीर) और अचल (आत्मा) में ही विश्राम करने वाला होकर यादृच्छिक (अनयासलब्ध वस्तु द्वारा संतुष्ट रहने वाला) हो जाना चाहिए।
अविचल तत्त्व निष्ठा का विधान
(फिर वह विवेकी पुरुष) आध्यात्मिक तत्त्व को देखकर और बाह्य तत्त्व का भी अनुभव कर, तत्विभूत और तत्व में ही रमन करने वाला होकर तत्व से च्युत न हो।
जो आंतरिक पदार्थ हैं वे अव्यक्त ही हैं और जो बाह्य हैं वे स्पष्ट प्रतीत होने वाले हैं। किन्तु वे सब हैं कल्पित ही। उनकी विशेषता तो केवल इंद्रियों के ही भेद में हैं।
पदार्थ कल्पना की मूल जीव कल्पना है
सबसे पहले जीव की कल्पना करता है; फिर तरह-तरह के बाह्य और आध्यात्मिक पदार्थों की कल्पना करता है। उस जीव का जैसा विज्ञानं होता ही वैसी ही स्मृति भी होती है।
जीव कल्पना का हेतु अज्ञान है
जिस प्रकार निश्चय न की हुई रज्जु अंधकार में सर्प-धारा आदि भावों से कल्पना की जाती है उसी प्रकार आत्मा में भी तरह-तरह की कल्पनाये हो रही है।
अज्ञान निवृत्ति ही आत्मज्ञान है
जिस प्रकार रज्जु का निश्चय हो जेन पर उस्मैन्ह (सर्पादि का) विकल्प निवृत्त हो जाता है तथा 'यह रज्जु ही है' ऐसा अद्वैत निश्चय होता है उसी प्रकार आत्मा का निश्चय है।
विकल्प की मूल माया है
यह जो इन प्राणादि अनंत भावों से विकल्पित हो रहा है सो यह उस प्रकाशमय आत्मदेव की माया ही है, जिससे कि वह स्वयं ही मोहित हो रहा है।
मूलतत्त्व सम्बन्धी विभिन्न मतवाद
प्राणोपासक कहते है - 'प्राण ही जगत का कारण है।' भूतज्ञों (प्रत्यक्ष वादी चार्वाकादि) का कथन है - 'पृथ्वी आदि) चार भूत ही परमार्थ हैं।' गुणों को जानने वाले (सांख्यवादी) कहते हैं - '(आत्मा, अविद्या और शिव -ये तीन) तत्त्व ही जगत के प्रवतक हैं।'
पादवेत्ता कहते हैं - 'विश्व आदि पाद ही सम्पूर्ण व्यवहार के हेतु हैं। (वात्स्यायनादि) विषयज्ञ कहते हैं - 'शब्दादि विषय ही सत्य वस्तु है।' लोक वेत्ताओं (पौराणिकों) का कहना है कि लोक ही सत्य है तथा देवोपासक कहते हैं - 'इन्द्रादि देवता ही सृष्टि के संचालक हैं'
वेदज्ञ कहते हैं 'ऋगादि चार वेद ही परमार्थ हैं।' याज्ञिक कहते हैं कि 'यज्ञ ही संसार के आदिकारण हैं।' भोक्ता को जानने वाले भोक्ता की ही प्रधानता बतलाते हैं तथा भोज्य के समर्थक भोज्य पदार्थों की ही सारवत्ता का प्रतिपादन करते हैं।
सूक्षमवेत्ता कहते हैं - 'आत्मा सूक्षम (अनुप्रमाण) है।' स्थूलवादी (चार्वाकादि) कहते हैं - 'वह स्थूल है। ' मूर्त्तवादी (साकारोपासक) कहते हैं कि परमार्थ वास्तु मूर्तिमान है।' तथा अमूर्त्तवादियों (शून्यवादियों) का कथन है कि वह मूर्त्तिहीन हैं।
कालज्ञ (ज्योतिषी लोग) कहते हैं कि काल ही परमार्थ है। दिशाओं के जानने वाले (स्वरोदय शास्त्री) कहते है कि दिशाएं ही सत्य वास्तु है।' वादवेत्ता (धातुवाद, मंत्रवाद आदि) कहते हैं कि वाद ही सत्य वस्तु है। तथा भुवनकोश के ज्ञाताओं का कथन है कि भुवन ही परमार्थ है।
मनोविद कहते हैं -'मन ही आत्मा है' बौद्धों का कहना है कि बुद्धि ही आत्मा है, चित्तज्ञों का विचार है कि चित्त ही सत्यवस्तु है; तथा धर्माधर्मवेत्ता (मीमांसक) "धर्माधर्म को ही परमार्थ मानते हैं।"
कोई (सांख्यवादी) पच्चीस तत्त्वों को, कोई (पातञ्जलामतावलम्बी) छब्बीस को और पाशुपत इकत्तीस तत्वों को सत्य मानते हैं तथा अन्य मतावलम्बी परमार्थ को अनंत भेदों वाला मानते हैं।
लौकिक पुरुष लोकानुरंजन को और आश्रमवादी आश्रमों को ही प्रधान बतलाते हैं। लिंगवादी स्त्रीलिंग, पुलिंग और नपुंसकलिंग को तथा दूसरे लोग पर और अपर ब्रह्म को ही परमार्थ मानते हैं।
सृष्टिवेत्ता कहते हैं कि सृष्टि ही सत्य है, लयवादी कहते हैं कि लय ही परमार्थ वास्तु है तथा स्थितिवेत्ता कहते हैं कि स्थिति ही सत्य है। इस प्रकार ये (कहे हुए और बिना कहे हुए) सभी वाद इस आत्मतत्व में सर्वदा कल्पित हैं।
(गुरु) जिसे जो भाव दिखला देता है वह उसी को आत्मस्वरूप से देखने लगता है तथा इस प्रकार देखने वाले उस व्यक्ति की वह भाव तद्रूप होकर रक्षा करने लगता है। फिर उस में होने वाला अभिनिवेश उस (के आत्मभाव) को प्राप्त हो जाता है।
आत्मा सर्वाधिष्ठान है ऐसा जानने वाला ही परमार्थदर्शी है
(इस प्रकार सब का अधिष्ठान होने के कारण) इन प्राणादि अपृथग भावों से (पृथक न होने पर भी अज्ञानियों द्वारा) यह आत्मा भिन्न ही माना गया है। इस बात को जो वास्तविक रूप से जानता है वह निशंक होकर (वेदार्थ की) कल्पना कर सकता है।
द्वैत असत्यत्व वेदांत वेद्य है
जिस प्रकार स्वप्न और माया देखे गए हैं तथा जैसा गन्धर्व नगर जाना गया है, उसी प्रकार विचक्षण पुरुषों ने वेदान्तों में इस जगत को देखा है।
परमार्थ क्या है?
न प्रलय है, न उत्पत्ति है, न बद्ध है, न साधक है, न मुमुक्षु है और न मुक्त ही है - यही परमार्थता है।
अद्वैतभाव ही मंगलमय है
यह (आत्मतत्त्व) प्राणादि असद्भावों से और अद्वैत रूप से कल्पित है। वे असद्भाव भी अद्वैत से ही कल्पना किये गए है। इसलिए अद्वैतभाव ही मंगलमय है।
तत्त्ववेत्ता की दृष्टि के नानात्व का अत्यन्ताभाव है
यह नानात्व न तो आत्मस्वरूप से है और न अपने ही स्वरूप से कुछ है। कोई भी वास्तु न तो ब्रह्म से पृथक है और न अपृथक ही - ऐसा तत्त्ववेत्ता जानते हैं।
इस रहस्य के साक्षी कौन थे?
जिनके राग, भय, और क्रोध निवृत्त हो गए हैं उन वेड के पारगामी मुनियों द्वारा ही यह निर्विकल्प प्रपंचोपशम अदव्य तत्त्व देखा गया है।
तत्त्वदर्शन का आदेश
इसलिए इस (आत्मतत्व) को ऐसा जानकार अद्वैत में मनोनिवेश करे और अद्वैत तत्त्व को प्राप्त कर लोक में जड़वत व्यवहार करें।
तत्त्वदर्शी का आचरण
यति को स्तुति, नमस्कार और स्वधाकार (पैत्रकर्म) से रहित हो चल (शरीर) और अचल (आत्मा) में ही विश्राम करने वाला होकर यादृच्छिक (अनयासलब्ध वस्तु द्वारा संतुष्ट रहने वाला) हो जाना चाहिए।
अविचल तत्त्व निष्ठा का विधान
(फिर वह विवेकी पुरुष) आध्यात्मिक तत्त्व को देखकर और बाह्य तत्त्व का भी अनुभव कर, तत्विभूत और तत्व में ही रमन करने वाला होकर तत्व से च्युत न हो।