Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३४
[ऋषि-मेधातिथि काण्व । देवता -अग्नि, छटवी ऋचा के प्रथम पाद के देवता निर्मथ्य अग्नि और आहवनीय अग्नि। छन्द-गायत्री।]
१११.अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥१॥
हे सर्वज्ञाता अग्निदेव! आप यज्ञ के विधाता है, समस्त देवशक्तियों को तुष्ट करने की सामर्थ्य रखते हैं। आप यज्ञ की विधि व्यवस्था के स्वामी है। ऐसे समर्थ आपको हम देव दूत रूप मे स्वीकार करते है॥१॥
११२.अग्निमग्निं हवीमभिः सदा हवन्त विश्पतिम् । हव्यवाहं पुरुप्रियम्॥२॥
प्रजापालक, देवो तक हवि पहुंचाने वाले, परमप्रिय, कुशल नेतृत्व प्रदान करने वाले हे अग्निदेव! हम याजक गण हवनीय मंत्रो से आपको सदा बुलाते है॥२॥
११३.अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे । असि होता न ईड्यः॥३॥
हे स्तुत्य अग्निदेव ! आप अरणि मन्थन से उत्पन्न हुये है। आस्तीर्ण (बिछे हुये) कुशाओ पर बैठे हुये यजमान पर अनुग्रह करने हेतु आप (यज्ञ की) हवि ग्रहण करने वाले देवताओ को इस यज्ञ मे बुलायें॥३॥
११४.ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम् । देवैरा सत्सि बर्हिषि॥४॥
हे अग्निदेव! आप हवि की कामना करने वाले देवो को यहाँ बुलाएँ और इन कुशा के आसन पर देवो के साथ प्रतिष्ठित हों॥४॥
११५.घृताहवन दीदिवः प्रति ष्म रिषतो दह । अग्ने त्वं रक्षस्विनः॥५॥
घृत आहुतियो से प्रदीप्त हे अग्निदेव ! आप राक्षसी प्रवृत्तियो वाले शत्रुओं को सम्यक रूप से भस्म करे॥५॥
११६.अग्निनाग्निः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा । हव्यवाड्जुह्वास्यः॥६॥
यज्ञ स्थल के रक्षक, दूरदर्शी, चिरयुवा, आहुतियो को देवो तक पहुंचाने वाले, ज्वालायुक्त आहवनीय यज्ञाग्नि को अरणि मन्थन द्वारा उत्पन्न अग्नि से प्रज्वलित किया जाता है॥६॥
११७.कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे । देवममीवचातनम्॥७॥
हे ऋत्विजो ! लोक हितकारी यज्ञ मे रोगो को नष्ट करने वाले, ज्ञानवान अग्निदेव की स्तुति आप सब विशेष रूप से करें॥७॥
११८.यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति । तस्य स्म प्राविता भव॥८॥
देवगणो तक हविष्यान्न पहुँचाने वाले हे अग्निदेव ! जो याजक, आप (देवदूत० की उत्तम विधि से अर्चना करते हौ, आप उनकी भली भाँति रक्षा करें॥८॥
११९.यो अग्निं देववीतये हविष्माँ आविवासति । तस्मै पावक मृळय॥९॥
हे शोधक अग्निदेव! देवो के लिए हवि प्रदान करने वाले जो यजमान आपकी प्रार्थना करते है, आप उन्हे सुखी बनाये॥९॥
१२०.स नः पावक दीदिवोऽग्ने देवाँ इहा वह । उप यज्ञं हविश्च नः॥१०॥
हे पवित्र दीप्तिमान अग्निदेव ! आप देवो को हमारे यज्ञ मे हवि ग्रहण करने के निमित्त ले आएँ॥१०॥
१२१.स न स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा । रयिं वीरवतीमिषम्॥११॥
हे अग्निदेव! नवीनतम गायत्री छन्द वाले सूक्त से स्तुति किये जाते हुये आप हमारे लिये पुत्रादि ऐश्वर्य और् बलयुक्त् अन्नो को भरपूर प्रदान करें॥११॥
१२२.अग्ने शुक्रेण शोचिषा विश्वाभिर्देवहूतिभिः । इमं स्तोमं जुषस्व नः॥१२॥
हे अग्निदेव! अपनि कान्तिमान् दीप्तियो से देवो को बुलाने निमित्त हमारी स्तुतियो को स्वीकार् करें॥१२॥
१११.अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥१॥
हे सर्वज्ञाता अग्निदेव! आप यज्ञ के विधाता है, समस्त देवशक्तियों को तुष्ट करने की सामर्थ्य रखते हैं। आप यज्ञ की विधि व्यवस्था के स्वामी है। ऐसे समर्थ आपको हम देव दूत रूप मे स्वीकार करते है॥१॥
११२.अग्निमग्निं हवीमभिः सदा हवन्त विश्पतिम् । हव्यवाहं पुरुप्रियम्॥२॥
प्रजापालक, देवो तक हवि पहुंचाने वाले, परमप्रिय, कुशल नेतृत्व प्रदान करने वाले हे अग्निदेव! हम याजक गण हवनीय मंत्रो से आपको सदा बुलाते है॥२॥
११३.अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे । असि होता न ईड्यः॥३॥
हे स्तुत्य अग्निदेव ! आप अरणि मन्थन से उत्पन्न हुये है। आस्तीर्ण (बिछे हुये) कुशाओ पर बैठे हुये यजमान पर अनुग्रह करने हेतु आप (यज्ञ की) हवि ग्रहण करने वाले देवताओ को इस यज्ञ मे बुलायें॥३॥
११४.ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम् । देवैरा सत्सि बर्हिषि॥४॥
हे अग्निदेव! आप हवि की कामना करने वाले देवो को यहाँ बुलाएँ और इन कुशा के आसन पर देवो के साथ प्रतिष्ठित हों॥४॥
११५.घृताहवन दीदिवः प्रति ष्म रिषतो दह । अग्ने त्वं रक्षस्विनः॥५॥
घृत आहुतियो से प्रदीप्त हे अग्निदेव ! आप राक्षसी प्रवृत्तियो वाले शत्रुओं को सम्यक रूप से भस्म करे॥५॥
११६.अग्निनाग्निः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा । हव्यवाड्जुह्वास्यः॥६॥
यज्ञ स्थल के रक्षक, दूरदर्शी, चिरयुवा, आहुतियो को देवो तक पहुंचाने वाले, ज्वालायुक्त आहवनीय यज्ञाग्नि को अरणि मन्थन द्वारा उत्पन्न अग्नि से प्रज्वलित किया जाता है॥६॥
११७.कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे । देवममीवचातनम्॥७॥
हे ऋत्विजो ! लोक हितकारी यज्ञ मे रोगो को नष्ट करने वाले, ज्ञानवान अग्निदेव की स्तुति आप सब विशेष रूप से करें॥७॥
११८.यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति । तस्य स्म प्राविता भव॥८॥
देवगणो तक हविष्यान्न पहुँचाने वाले हे अग्निदेव ! जो याजक, आप (देवदूत० की उत्तम विधि से अर्चना करते हौ, आप उनकी भली भाँति रक्षा करें॥८॥
११९.यो अग्निं देववीतये हविष्माँ आविवासति । तस्मै पावक मृळय॥९॥
हे शोधक अग्निदेव! देवो के लिए हवि प्रदान करने वाले जो यजमान आपकी प्रार्थना करते है, आप उन्हे सुखी बनाये॥९॥
१२०.स नः पावक दीदिवोऽग्ने देवाँ इहा वह । उप यज्ञं हविश्च नः॥१०॥
हे पवित्र दीप्तिमान अग्निदेव ! आप देवो को हमारे यज्ञ मे हवि ग्रहण करने के निमित्त ले आएँ॥१०॥
१२१.स न स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा । रयिं वीरवतीमिषम्॥११॥
हे अग्निदेव! नवीनतम गायत्री छन्द वाले सूक्त से स्तुति किये जाते हुये आप हमारे लिये पुत्रादि ऐश्वर्य और् बलयुक्त् अन्नो को भरपूर प्रदान करें॥११॥
१२२.अग्ने शुक्रेण शोचिषा विश्वाभिर्देवहूतिभिः । इमं स्तोमं जुषस्व नः॥१२॥
हे अग्निदेव! अपनि कान्तिमान् दीप्तियो से देवो को बुलाने निमित्त हमारी स्तुतियो को स्वीकार् करें॥१२॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३५
[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता -प्रथम मन्त्र का प्रथम पाद- अग्नि, द्वितिय पाद -मित्रावरुण, तृतीय पाद-रात्रि, चतुर्थ पाद-सविता, २-११- सविता । छन्द - त्रिष्टुप, १,९ जगती]
४११.ह्वयाम्यग्निं प्रथमं स्वस्तये ह्वयामि मित्रावरुणाविहावसे । ह्वयामि रात्रीं जगतो निवेशनीं ह्वयामि देवं सवितारमूतये ॥१॥
कल्याण की कामना से हम सर्वप्रथम अग्निदेव की प्रार्थना करते हैं। अपनी रक्षा के लिए हम मित्र और वरुण देवों को बुलाते हैं। जगत को विश्राम देने वाली रात्रि और सूर्यदेव का हम अपनी रक्षा के लिए आवाहन करते है॥१॥
४१२.आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥२॥
सवितादेव गहन तमिस्त्रा युक्त अंतरिक्ष पथ मे भ्रमण करते हुए, देवो और मनुष्यो को यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मो मे नियोजित करते है। वे समस्त लोकों को देखते(प्रकाशित करते) हुए स्वर्णिम (किरणो से युक्त) रथ से आते है॥२॥
४१३.याति देवः प्रवता यात्युद्वता याति शुभ्राभ्यां यजतो हरिभ्याम् । आ देवो याति सविता परावतोऽप विश्वा दुरिता बाधमानः ॥३॥
स्तुत्य सवितादेव ऊपर चढ़ते हुए और फिर नीचे उतरते हे निरंतर गतिशील रहते हैं। वे सविता देव तमरूपी पापों को नष्ट कररे हुए अतिदूर से उस यज्ञशाला मे श्वेत अश्वो के रथ पर आसीन होकर आते हैं॥३॥
४१४.अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं हिरण्यशम्यं यजतो बृहन्तम् । आस्थाद्रथं सविता चित्रभानुः कृष्णा रजांसि तविषीं दधानः ॥४॥
सतत परिभ्रमणशील, विविध रूपो मे सुशोभित, पूजनिय,अद्भूत रश्मि-युक्त सवितादेव गहन तमिस्त्रा को नष्ट करने के निमित्त प्रचण्ड सामर्थ्य को धारण करते हैं तथा स्वर्णिम रश्मियों से युक्त रथ पर प्रतिष्ठित होकर आतें हैं॥४॥
४१५.वि जनाञ्छ्यावाः शितिपादो अख्यन्रथं हिरण्यप्रउगं वहन्तः । शश्वद्विशः सवितुर्दैव्यस्योपस्थे विश्वा भुवनानि तस्थुः ॥५॥
सूर्यदेव के अश्व श्वेत पैर वाले है, वे स्वर्णरथ को वहन करते है और मानवो को प्रकाश देते हैं। सर्वदा सभी लोको के प्राणी सवितादेव के अंक मे स्थित है अर्थात उन्ही पर आश्रित है॥५॥
४१६.तिस्रो द्यावः सवितुर्द्वा उपस्थाँ एका यमस्य भुवने विराषाट् । आणिं न रथ्यममृताधि तस्थुरिह ब्रवीतु य उ तच्चिकेतत् ॥६॥
तीनो लोंको मे द्यावा और पृथिवी ये दोनो लोक सूर्य के समीप है अर्थात सूर्य से प्रकाशित है। एक अंतरिक्ष लोक यमदेव का विशिष्ट द्वार रूप है। रथ के धूरे की कील के समान सूर्यदेव पर ही सब लोक (नक्षत्रादि) अवलम्बित है। जो यह रहस्य जाने, वे सबको बतायें॥६॥
४१७.वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यख्यद्गभीरवेपा असुरः सुनीथः । क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मिरस्या ततान ॥७॥
गम्भीर, गतियुक्त, प्राणरूप, उत्तम प्रेरक, सुन्दर दीप्तिमान सूर्यदेव अंतरिक्षादि हो प्रकाशित करते हैं। ये सूर्यदेव कहां रहते है ? उनकी रश्मियां किस आकाश मे होंगी ? यह रहस्य कौन जानता है?॥७॥
४१८.अष्टौ व्यख्यत्ककुभः पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून् ।हिरण्याक्षः सविता देव आगाद्दधद्रत्ना दाशुषे वार्याणि ॥८॥
हिरण्य दृष्टि युक्त(सुनहली किरणो से युक्त) सवितादेव पृथ्वी की आठो दिशाओ, उनसे युक्त तीनो लोको, सप्त सागरो आदि को आलोकित करते हुए दाता(हविदाता) के लिए वरणीय विभूतियां लेकर यहां आएं॥८॥
४१९.हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते । अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति ॥९॥
स्वर्णिम रश्मियों रूपी हाथो से युक्त विलक्षण द्रष्टा सवितादेव द्यावा और पृथ्वी के बीच संचरित होते है। वे रोगादि बाधाओं को नष्ट कर अन्धकारनाशक दीप्तियों से आकाश को प्रकाशित करते हैं॥९॥
४२०.हिरण्यहस्तो असुरः सुनीथः सुमृळीकः स्ववाँ यात्वर्वाङ् । अपसेधन्रक्षसो यातुधानानस्थाद्देवः प्रतिदोषं गृणानः ॥१०॥
हिरण्य हस्त (स्वर्णिम तेजस्वी किरणो से युक्त) प्राणदाता कल्याणकारक, उत्तम सुखदायक, दिव्यगुण सम्पन्न सूर्यदेव सम्पूर्ण मनुष्यो के समस्त दोषो को, असुरो और दुष्कर्मियो को नष्ट करते(दूर भगाते) हुए उदित होते है। ऐसे सूर्यदेव हमारे लिए अनुकूल हो॥१०॥
४२१.ये ते पन्थाः सवितः पूर्व्यासोऽरेणवः सुकृता अन्तरिक्षे । तेभिर्नो अद्य पथिभिः सुगेभी रक्षा च नो अधि च ब्रूहि देव ॥११॥
हे सवितादेव! आकाश मे आपके ये धूलरहित मार्ग पूर्व निश्चित है। उन सुगम मार्गो से आकर आज आप हमारी रक्षा करें तथा हम (यज्ञानुष्ठान करने वालों) को देवत्व से युक्त करें॥११॥
४११.ह्वयाम्यग्निं प्रथमं स्वस्तये ह्वयामि मित्रावरुणाविहावसे । ह्वयामि रात्रीं जगतो निवेशनीं ह्वयामि देवं सवितारमूतये ॥१॥
कल्याण की कामना से हम सर्वप्रथम अग्निदेव की प्रार्थना करते हैं। अपनी रक्षा के लिए हम मित्र और वरुण देवों को बुलाते हैं। जगत को विश्राम देने वाली रात्रि और सूर्यदेव का हम अपनी रक्षा के लिए आवाहन करते है॥१॥
४१२.आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥२॥
सवितादेव गहन तमिस्त्रा युक्त अंतरिक्ष पथ मे भ्रमण करते हुए, देवो और मनुष्यो को यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मो मे नियोजित करते है। वे समस्त लोकों को देखते(प्रकाशित करते) हुए स्वर्णिम (किरणो से युक्त) रथ से आते है॥२॥
४१३.याति देवः प्रवता यात्युद्वता याति शुभ्राभ्यां यजतो हरिभ्याम् । आ देवो याति सविता परावतोऽप विश्वा दुरिता बाधमानः ॥३॥
स्तुत्य सवितादेव ऊपर चढ़ते हुए और फिर नीचे उतरते हे निरंतर गतिशील रहते हैं। वे सविता देव तमरूपी पापों को नष्ट कररे हुए अतिदूर से उस यज्ञशाला मे श्वेत अश्वो के रथ पर आसीन होकर आते हैं॥३॥
४१४.अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं हिरण्यशम्यं यजतो बृहन्तम् । आस्थाद्रथं सविता चित्रभानुः कृष्णा रजांसि तविषीं दधानः ॥४॥
सतत परिभ्रमणशील, विविध रूपो मे सुशोभित, पूजनिय,अद्भूत रश्मि-युक्त सवितादेव गहन तमिस्त्रा को नष्ट करने के निमित्त प्रचण्ड सामर्थ्य को धारण करते हैं तथा स्वर्णिम रश्मियों से युक्त रथ पर प्रतिष्ठित होकर आतें हैं॥४॥
४१५.वि जनाञ्छ्यावाः शितिपादो अख्यन्रथं हिरण्यप्रउगं वहन्तः । शश्वद्विशः सवितुर्दैव्यस्योपस्थे विश्वा भुवनानि तस्थुः ॥५॥
सूर्यदेव के अश्व श्वेत पैर वाले है, वे स्वर्णरथ को वहन करते है और मानवो को प्रकाश देते हैं। सर्वदा सभी लोको के प्राणी सवितादेव के अंक मे स्थित है अर्थात उन्ही पर आश्रित है॥५॥
४१६.तिस्रो द्यावः सवितुर्द्वा उपस्थाँ एका यमस्य भुवने विराषाट् । आणिं न रथ्यममृताधि तस्थुरिह ब्रवीतु य उ तच्चिकेतत् ॥६॥
तीनो लोंको मे द्यावा और पृथिवी ये दोनो लोक सूर्य के समीप है अर्थात सूर्य से प्रकाशित है। एक अंतरिक्ष लोक यमदेव का विशिष्ट द्वार रूप है। रथ के धूरे की कील के समान सूर्यदेव पर ही सब लोक (नक्षत्रादि) अवलम्बित है। जो यह रहस्य जाने, वे सबको बतायें॥६॥
४१७.वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यख्यद्गभीरवेपा असुरः सुनीथः । क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मिरस्या ततान ॥७॥
गम्भीर, गतियुक्त, प्राणरूप, उत्तम प्रेरक, सुन्दर दीप्तिमान सूर्यदेव अंतरिक्षादि हो प्रकाशित करते हैं। ये सूर्यदेव कहां रहते है ? उनकी रश्मियां किस आकाश मे होंगी ? यह रहस्य कौन जानता है?॥७॥
४१८.अष्टौ व्यख्यत्ककुभः पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून् ।हिरण्याक्षः सविता देव आगाद्दधद्रत्ना दाशुषे वार्याणि ॥८॥
हिरण्य दृष्टि युक्त(सुनहली किरणो से युक्त) सवितादेव पृथ्वी की आठो दिशाओ, उनसे युक्त तीनो लोको, सप्त सागरो आदि को आलोकित करते हुए दाता(हविदाता) के लिए वरणीय विभूतियां लेकर यहां आएं॥८॥
४१९.हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावापृथिवी अन्तरीयते । अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति ॥९॥
स्वर्णिम रश्मियों रूपी हाथो से युक्त विलक्षण द्रष्टा सवितादेव द्यावा और पृथ्वी के बीच संचरित होते है। वे रोगादि बाधाओं को नष्ट कर अन्धकारनाशक दीप्तियों से आकाश को प्रकाशित करते हैं॥९॥
४२०.हिरण्यहस्तो असुरः सुनीथः सुमृळीकः स्ववाँ यात्वर्वाङ् । अपसेधन्रक्षसो यातुधानानस्थाद्देवः प्रतिदोषं गृणानः ॥१०॥
हिरण्य हस्त (स्वर्णिम तेजस्वी किरणो से युक्त) प्राणदाता कल्याणकारक, उत्तम सुखदायक, दिव्यगुण सम्पन्न सूर्यदेव सम्पूर्ण मनुष्यो के समस्त दोषो को, असुरो और दुष्कर्मियो को नष्ट करते(दूर भगाते) हुए उदित होते है। ऐसे सूर्यदेव हमारे लिए अनुकूल हो॥१०॥
४२१.ये ते पन्थाः सवितः पूर्व्यासोऽरेणवः सुकृता अन्तरिक्षे । तेभिर्नो अद्य पथिभिः सुगेभी रक्षा च नो अधि च ब्रूहि देव ॥११॥
हे सवितादेव! आकाश मे आपके ये धूलरहित मार्ग पूर्व निश्चित है। उन सुगम मार्गो से आकर आज आप हमारी रक्षा करें तथा हम (यज्ञानुष्ठान करने वालों) को देवत्व से युक्त करें॥११॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३६
[ऋषि -कण्व धौर । देवता -अग्नि,१३-१४ यूप ।छन्द -बाहर्त प्रगाथ-विषमा बृहती, समासतो बृहती, १३ उपरिष्टाद बृहती ]
४२२.प्र वो यह्वं पुरूणां विशां देवयतीनाम् । अग्निं सूक्तेभिर्वचोभिरीमहे यं सीमिदन्य ईळते ॥१॥
हम ऋत्विज अपने सूक्ष्म वाक्यों(मंत्र शक्ति) से व्यक्तियो मे देवत्व का विकास करने वाली महानता का वर्णन करते है; जिस महानता का वर्णन(स्तवन) ऋषियो ने भली प्रकार किया था॥१॥
४२३.जनासो अग्निं दधिरे सहोवृधं हविष्मन्तो विधेम ते । स त्वं नो अद्य सुमना इहाविता भवा वाजेषु सन्त्य ॥२॥
मनुष्यो ने बलवर्धक अग्निदेव का वरण किया। हम उन्हे हवियो से प्रवृद्ध करते हैं। अन्नो के दाता हे अग्निदेव! आज आप प्रसन्न मन से हमारी रक्षा करें॥२॥
४२४.प्र त्वा दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । महस्ते सतो वि चरन्त्यर्चयो दिवि स्पृशन्ति भानवः ॥३॥
देवो के दूत, होतारुप, सर्वज्ञ हे अग्निदेव! आपका हम वरण करते है, आप महान और सत्यरूप है। आपकी ज्वालाओं की दीप्ति फैलती हुई आकाश तक पहुंचती है॥३॥
४२५.देवासस्त्वा वरुणो मित्रो अर्यमा सं दूतं प्रत्नमिन्धते । विश्वं सो अग्ने जयति त्वया धनं यस्ते ददाश मर्त्यः ॥४॥
हे अग्निदेव! मित्र, वरुण और अर्यमा ये तीनो देव आप जैसे पुरातन देवदूत को प्रदीप्त करते हैं। जो याजक आपके निमित्त हवि समर्पित करते है, वे आपकी कृपा से समस्त धनो को उपलब्ध करते हैं॥४॥
४२६.मन्द्रो होता गृहपतिरग्ने दूतो विशामसि । त्वे विश्वा संगतानि व्रता ध्रुवा यानि देवा अकृण्वत ॥५॥
हे अग्निदेव! आप प्रमुदित करने वाले, प्रजाओं के पालक, होतारुप, गृहस्वामी और देवदूत है। देवो के द्वारा सम्पादित सभी शुभ कर्म आपसे सम्पादित होते है॥५॥
४२७.त्वे इदग्ने सुभगे यविष्ठ्य विश्वमा हूयते हविः । स त्वं नो अद्य सुमना उतापरं यक्षि देवान्सुवीर्या ॥६॥
हे चिरयुवा अग्निदेव! यह आपका उत्तम सौभाग्य है कि सभी हवियां आपके अंदर अर्पित की जाती है। आप प्रसन्न होकर हमारे निमित्त आज और आगे भी सामर्थ्यवान देवो का यजन किया करें। (अर्थात देवो को हमारे अनुकूल बनायें।)॥६॥
४२८.तं घेमित्था नमस्विन उप स्वराजमासते । होत्राभिरग्निं मनुषः समिन्धते तितिर्वांसो अति स्रिधः ॥७॥
नमस्कार करनेवाले उपासक स्वप्रकाशित इन अग्निदेव की उपासना करते है। शत्रुओं को जीतने वाले मनुष्य हवन-साधनो और स्तुतियों को प्रदीप्त करते है॥७॥
४२९.घ्नन्तो वृत्रमतरन्रोदसी अप उरु क्षयाय चक्रिरे । भुवत्कण्वे वृषा द्युम्न्याहुतः क्रन्ददश्वो गविष्टिषु ॥८॥
देवो ने प्रहार कर वृत्र का वध किया। प्राणियों के निवासार्थ उन्होने द्यावा-पृथिवी और अंतरिक्ष का बहुत विस्तार किया। गौ, अश्व आदि की कामना से कण्व ने अग्नि को प्रकाशित कर आहुतियों द्वारा उन्हे बलिष्ठ बनाया॥८॥
४३०.सं सीदस्व महाँ असि शोचस्व देववीतमः । वि धूममग्ने अरुषं मियेध्य सृज प्रशस्त दर्शतम् ॥९॥
यज्ञीय गुणो से युक्त प्रशंसनीय हे अग्निदेव! आप देवता के प्रीतिपात्र और महान गुणो के प्रेरक है। यहां उपयुक्त स्थान पर पधारें और प्रज्वलित हों। घृत की आहुतियों द्वारा दर्शन योग्य तेजस्वी होते हुए सघन धूम्र को विसर्जित करें॥९॥
४३१.यं त्वा देवासो मनवे दधुरिह यजिष्ठं हव्यवाहन । यं कण्वो मेध्यातिथिर्धनस्पृतं यं वृषा यमुपस्तुतः ॥१०॥
हे हविवाहक अग्निदेव! सभी देवो ने पूजने योग्य आपको मानव मात्र के कल्याण के लिए इस यज्ञ मे धारण किया। मेध्यातिथि और कण्व ने तथा वृषा(इन्द्र) और उपस्तुत(अन्य यजमान) ने धन से संतुष्ट करने वाले आपका वरण किया॥१०॥
४३२.यमग्निं मेध्यातिथिः कण्व ईध ऋतादधि । तस्य प्रेषो दीदियुस्तमिमा ऋचस्तमग्निं वर्धयामसि ॥११॥
जिन अग्निदेव को मेध्यातिथि और कण्व ने सत्यरूप कर्मो से प्रदीप्त किया, वे अग्निदेव देदीप्यमान हैं। उन्ही को हमारी ऋचायें भी प्रवृद्ध करती हैं। हम भी उन अग्निदेव को संवर्धित करते हैं॥११॥
४३३.रायस्पूर्धि स्वधावोऽस्ति हि तेऽग्ने देवेष्वाप्यम् । त्वं वाजस्य श्रुत्यस्य राजसि स नो मृळ महाँ असि ॥१२॥
हे अत्रवान अग्ने! आप हमे अन्न-सम्पदा से अभिपूरत करें। आप देवो के मित्र और प्रशंसनीय बलो के स्वामी है। आप महान है। आप हमे सुखी बनाएं॥१२॥
४३४.ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये तिष्ठा देवो न सविता । ऊर्ध्वो वाजस्य सनिता यदञ्जिभिर्वाघद्भिर्विह्वयामहे ॥१३॥
हे काष्ठ स्थित अग्निदेव! सर्वोत्पादक सवितादेव जिस प्रकार अंतरिक्ष से हम सबकी रक्षा करते है, उसी प्रकार आप भी उंचे उठकर, अन्न आदि पोषक पदार्थ देकर हमारे जीवन की रक्षा करें।मन्त्रोच्चारणपूर्वक हविप्रदान करने वाले याजक आपके उत्कृष्ट स्वरूप का आवाहन करते हैं॥१३॥
४३५.ऊर्ध्वो नः पाह्यंहसो नि केतुना विश्वं समत्रिणं दह । कृधी न ऊर्ध्वाञ्चरथाय जीवसे विदा देवेषु नो दुवः ॥१४॥
ये यूपस्थ अग्ने। आप ऊंचे उठकर अपने श्रेष्ठ ज्ञान द्वारा पापो से हमारी रक्षा करें,मानवता के शत्रुओं का दहन करें, जीवन मे प्रगति के लिए हमे ऊंचा उठाये तथा हमारी प्रार्थना देवों तक पहुंचाए॥१४॥
४३६.पाहि नो अग्ने रक्षसः पाहि धूर्तेरराव्णः । पाहि रीषत उत वा जिघांसतो बृहद्भानो यविष्ठ्य ॥१५॥
हे महान दीप्तिवाले , चिरयुवा अग्निदेव! आप हमे राक्षसो से रक्षित करें, कृपण धूर्तो से रक्षित करें तथा हिंसक और जघन्यो से रक्षित करें॥१५॥
४३७.घनेव विष्वग्वि जह्यराव्णस्तपुर्जम्भ यो अस्मध्रुक् । यो मर्त्यः शिशीते अत्यक्तुभिर्मा नः स रिपुरीशत ॥१६॥
अपने ताप से रोगादि कष्टो को मिटाने वाले हे अग्ने! आप कृपणो को गदा से विनष्ट करें। जो हमसे द्रोह करते है, जो रात्रि मे जागकर हमारे नाश का यत्न करते हैं, वे शत्रु हम पर आधिपत्य न कर पाएं॥१६॥
४३८.अग्निर्वव्ने सुवीर्यमग्निः कण्वाय सौभगम् । अग्निः प्रावन्मित्रोत मेध्यातिथिमग्निः साता उपस्तुतम् ॥१७॥
उत्तम पराक्रमी हे अग्निदेव, जोन्होने कण्व को सौभाग्य प्रदान किया, हमारे मित्रो की रक्षा की तथा ’मेध्यातिथि’ और ’उपस्तुत’(यजमान) की भी रक्षा की है॥१७॥
४३९.अग्निना तुर्वशं यदुं परावत उग्रादेवं हवामहे । अग्निर्नयन्नववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिं दस्यवे सहः ॥१८॥
अग्निदेव के साथ हम ’तुर्वश’ ,’यदु’ और ’उग्रदेव’ को बुलाते है। वे अग्निदेव ’नववास्तु’, ’ब्रहद्रथ’ और ’तुर्वीति’(आदि राजर्षियों) को भी ले चलें, जिससे हम दुष्टो के साथ संघर्ष कर सके॥१८॥
४४०.नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते । दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो यं नमस्यन्ति कृष्टयः ॥१९॥
हे अग्निदेव! विचारवान व्यक्ति आपका वरण करते है। अनादिकाल से ही मानव जाति के लिए आपकी ज्योति प्रकाशित है। आपका प्रकाश आश्रमो के ज्ञानवान ऋषियो मे उत्पन्न होता है। यज्ञ मे ही आपका प्रज्वलित स्वरूप प्रकट होता है। उस समय सभी मनुष्य आपको नमन वंदन करते हैं॥१९॥
४४१.त्वेषासो अग्नेरमवन्तो अर्चयो भीमासो न प्रतीतये । रक्षस्विनः सदमिद्यातुमावतो विश्वं समत्रिणं दह ॥२०॥
अग्निदेव की ज्वालाएं प्रदीप्त होकर अत्यन्त बलवती और प्रचण्ड हुई है। कोई उनका सामना नहीं कर सकता। हे अग्ने! आप समस्त राक्षसो, आतताइयो और मानवता के शत्रुओ को नष्ट करें॥२०॥
४२२.प्र वो यह्वं पुरूणां विशां देवयतीनाम् । अग्निं सूक्तेभिर्वचोभिरीमहे यं सीमिदन्य ईळते ॥१॥
हम ऋत्विज अपने सूक्ष्म वाक्यों(मंत्र शक्ति) से व्यक्तियो मे देवत्व का विकास करने वाली महानता का वर्णन करते है; जिस महानता का वर्णन(स्तवन) ऋषियो ने भली प्रकार किया था॥१॥
४२३.जनासो अग्निं दधिरे सहोवृधं हविष्मन्तो विधेम ते । स त्वं नो अद्य सुमना इहाविता भवा वाजेषु सन्त्य ॥२॥
मनुष्यो ने बलवर्धक अग्निदेव का वरण किया। हम उन्हे हवियो से प्रवृद्ध करते हैं। अन्नो के दाता हे अग्निदेव! आज आप प्रसन्न मन से हमारी रक्षा करें॥२॥
४२४.प्र त्वा दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । महस्ते सतो वि चरन्त्यर्चयो दिवि स्पृशन्ति भानवः ॥३॥
देवो के दूत, होतारुप, सर्वज्ञ हे अग्निदेव! आपका हम वरण करते है, आप महान और सत्यरूप है। आपकी ज्वालाओं की दीप्ति फैलती हुई आकाश तक पहुंचती है॥३॥
४२५.देवासस्त्वा वरुणो मित्रो अर्यमा सं दूतं प्रत्नमिन्धते । विश्वं सो अग्ने जयति त्वया धनं यस्ते ददाश मर्त्यः ॥४॥
हे अग्निदेव! मित्र, वरुण और अर्यमा ये तीनो देव आप जैसे पुरातन देवदूत को प्रदीप्त करते हैं। जो याजक आपके निमित्त हवि समर्पित करते है, वे आपकी कृपा से समस्त धनो को उपलब्ध करते हैं॥४॥
४२६.मन्द्रो होता गृहपतिरग्ने दूतो विशामसि । त्वे विश्वा संगतानि व्रता ध्रुवा यानि देवा अकृण्वत ॥५॥
हे अग्निदेव! आप प्रमुदित करने वाले, प्रजाओं के पालक, होतारुप, गृहस्वामी और देवदूत है। देवो के द्वारा सम्पादित सभी शुभ कर्म आपसे सम्पादित होते है॥५॥
४२७.त्वे इदग्ने सुभगे यविष्ठ्य विश्वमा हूयते हविः । स त्वं नो अद्य सुमना उतापरं यक्षि देवान्सुवीर्या ॥६॥
हे चिरयुवा अग्निदेव! यह आपका उत्तम सौभाग्य है कि सभी हवियां आपके अंदर अर्पित की जाती है। आप प्रसन्न होकर हमारे निमित्त आज और आगे भी सामर्थ्यवान देवो का यजन किया करें। (अर्थात देवो को हमारे अनुकूल बनायें।)॥६॥
४२८.तं घेमित्था नमस्विन उप स्वराजमासते । होत्राभिरग्निं मनुषः समिन्धते तितिर्वांसो अति स्रिधः ॥७॥
नमस्कार करनेवाले उपासक स्वप्रकाशित इन अग्निदेव की उपासना करते है। शत्रुओं को जीतने वाले मनुष्य हवन-साधनो और स्तुतियों को प्रदीप्त करते है॥७॥
४२९.घ्नन्तो वृत्रमतरन्रोदसी अप उरु क्षयाय चक्रिरे । भुवत्कण्वे वृषा द्युम्न्याहुतः क्रन्ददश्वो गविष्टिषु ॥८॥
देवो ने प्रहार कर वृत्र का वध किया। प्राणियों के निवासार्थ उन्होने द्यावा-पृथिवी और अंतरिक्ष का बहुत विस्तार किया। गौ, अश्व आदि की कामना से कण्व ने अग्नि को प्रकाशित कर आहुतियों द्वारा उन्हे बलिष्ठ बनाया॥८॥
४३०.सं सीदस्व महाँ असि शोचस्व देववीतमः । वि धूममग्ने अरुषं मियेध्य सृज प्रशस्त दर्शतम् ॥९॥
यज्ञीय गुणो से युक्त प्रशंसनीय हे अग्निदेव! आप देवता के प्रीतिपात्र और महान गुणो के प्रेरक है। यहां उपयुक्त स्थान पर पधारें और प्रज्वलित हों। घृत की आहुतियों द्वारा दर्शन योग्य तेजस्वी होते हुए सघन धूम्र को विसर्जित करें॥९॥
४३१.यं त्वा देवासो मनवे दधुरिह यजिष्ठं हव्यवाहन । यं कण्वो मेध्यातिथिर्धनस्पृतं यं वृषा यमुपस्तुतः ॥१०॥
हे हविवाहक अग्निदेव! सभी देवो ने पूजने योग्य आपको मानव मात्र के कल्याण के लिए इस यज्ञ मे धारण किया। मेध्यातिथि और कण्व ने तथा वृषा(इन्द्र) और उपस्तुत(अन्य यजमान) ने धन से संतुष्ट करने वाले आपका वरण किया॥१०॥
४३२.यमग्निं मेध्यातिथिः कण्व ईध ऋतादधि । तस्य प्रेषो दीदियुस्तमिमा ऋचस्तमग्निं वर्धयामसि ॥११॥
जिन अग्निदेव को मेध्यातिथि और कण्व ने सत्यरूप कर्मो से प्रदीप्त किया, वे अग्निदेव देदीप्यमान हैं। उन्ही को हमारी ऋचायें भी प्रवृद्ध करती हैं। हम भी उन अग्निदेव को संवर्धित करते हैं॥११॥
४३३.रायस्पूर्धि स्वधावोऽस्ति हि तेऽग्ने देवेष्वाप्यम् । त्वं वाजस्य श्रुत्यस्य राजसि स नो मृळ महाँ असि ॥१२॥
हे अत्रवान अग्ने! आप हमे अन्न-सम्पदा से अभिपूरत करें। आप देवो के मित्र और प्रशंसनीय बलो के स्वामी है। आप महान है। आप हमे सुखी बनाएं॥१२॥
४३४.ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये तिष्ठा देवो न सविता । ऊर्ध्वो वाजस्य सनिता यदञ्जिभिर्वाघद्भिर्विह्वयामहे ॥१३॥
हे काष्ठ स्थित अग्निदेव! सर्वोत्पादक सवितादेव जिस प्रकार अंतरिक्ष से हम सबकी रक्षा करते है, उसी प्रकार आप भी उंचे उठकर, अन्न आदि पोषक पदार्थ देकर हमारे जीवन की रक्षा करें।मन्त्रोच्चारणपूर्वक हविप्रदान करने वाले याजक आपके उत्कृष्ट स्वरूप का आवाहन करते हैं॥१३॥
४३५.ऊर्ध्वो नः पाह्यंहसो नि केतुना विश्वं समत्रिणं दह । कृधी न ऊर्ध्वाञ्चरथाय जीवसे विदा देवेषु नो दुवः ॥१४॥
ये यूपस्थ अग्ने। आप ऊंचे उठकर अपने श्रेष्ठ ज्ञान द्वारा पापो से हमारी रक्षा करें,मानवता के शत्रुओं का दहन करें, जीवन मे प्रगति के लिए हमे ऊंचा उठाये तथा हमारी प्रार्थना देवों तक पहुंचाए॥१४॥
४३६.पाहि नो अग्ने रक्षसः पाहि धूर्तेरराव्णः । पाहि रीषत उत वा जिघांसतो बृहद्भानो यविष्ठ्य ॥१५॥
हे महान दीप्तिवाले , चिरयुवा अग्निदेव! आप हमे राक्षसो से रक्षित करें, कृपण धूर्तो से रक्षित करें तथा हिंसक और जघन्यो से रक्षित करें॥१५॥
४३७.घनेव विष्वग्वि जह्यराव्णस्तपुर्जम्भ यो अस्मध्रुक् । यो मर्त्यः शिशीते अत्यक्तुभिर्मा नः स रिपुरीशत ॥१६॥
अपने ताप से रोगादि कष्टो को मिटाने वाले हे अग्ने! आप कृपणो को गदा से विनष्ट करें। जो हमसे द्रोह करते है, जो रात्रि मे जागकर हमारे नाश का यत्न करते हैं, वे शत्रु हम पर आधिपत्य न कर पाएं॥१६॥
४३८.अग्निर्वव्ने सुवीर्यमग्निः कण्वाय सौभगम् । अग्निः प्रावन्मित्रोत मेध्यातिथिमग्निः साता उपस्तुतम् ॥१७॥
उत्तम पराक्रमी हे अग्निदेव, जोन्होने कण्व को सौभाग्य प्रदान किया, हमारे मित्रो की रक्षा की तथा ’मेध्यातिथि’ और ’उपस्तुत’(यजमान) की भी रक्षा की है॥१७॥
४३९.अग्निना तुर्वशं यदुं परावत उग्रादेवं हवामहे । अग्निर्नयन्नववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिं दस्यवे सहः ॥१८॥
अग्निदेव के साथ हम ’तुर्वश’ ,’यदु’ और ’उग्रदेव’ को बुलाते है। वे अग्निदेव ’नववास्तु’, ’ब्रहद्रथ’ और ’तुर्वीति’(आदि राजर्षियों) को भी ले चलें, जिससे हम दुष्टो के साथ संघर्ष कर सके॥१८॥
४४०.नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते । दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो यं नमस्यन्ति कृष्टयः ॥१९॥
हे अग्निदेव! विचारवान व्यक्ति आपका वरण करते है। अनादिकाल से ही मानव जाति के लिए आपकी ज्योति प्रकाशित है। आपका प्रकाश आश्रमो के ज्ञानवान ऋषियो मे उत्पन्न होता है। यज्ञ मे ही आपका प्रज्वलित स्वरूप प्रकट होता है। उस समय सभी मनुष्य आपको नमन वंदन करते हैं॥१९॥
४४१.त्वेषासो अग्नेरमवन्तो अर्चयो भीमासो न प्रतीतये । रक्षस्विनः सदमिद्यातुमावतो विश्वं समत्रिणं दह ॥२०॥
अग्निदेव की ज्वालाएं प्रदीप्त होकर अत्यन्त बलवती और प्रचण्ड हुई है। कोई उनका सामना नहीं कर सकता। हे अग्ने! आप समस्त राक्षसो, आतताइयो और मानवता के शत्रुओ को नष्ट करें॥२०॥