आहर्त दर्शन
क्षणिकत्व शुन्यत्वादि रूप मुक्त कच्छ(बौद्ध) के मत को न सहने वाली विवेसन स्थिरत्व मानकर क्षणिकत्व पक्ष का निराकरण करते है। यदि आत्मा को स्थिर नही माने तो पशु अन्नादि फल साधन समस्त लोक व्यवहार भी विफल हो जायेंगे क्योंकि आत्मा क्षणिक होने से क्रिया के उत्तर काल ही मे नष्ट हो जाएगा कालांतर भाव फलोत्पत्ति काल मे आत्म नहि यह भी सम्भव नही कि कर्म कोइ करे और फल कोइ भोगे। जो मैंने पहले कर्म किया उसके फल मै भोगता हूँ। इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा से पूर्व काल सम्बन्धी स्थायी आत्मा स्पष्ट प्रतीत होता है। अतः पूर्वोत्तर भाग शुन्य कलात्मक काल स्थिति रूप क्षणिकत्व तर्क कुशलों के अनादरणीय है
बौध मत से पूर्व पक्ष नहि सिद्धेऽनुपपन्नं नामेति न्याय से यत्सत तत क्षणिकमिति अनुमान प्रमाण सिद्ध क्षणिकत्व प्रमाण को कौन वारण कर सकता है अतः पूर्व क्षण वृत्ति विज्ञानात्मा को कर्ता और उत्तर क्षण वृत्ति को फल भोक्ता मानना पड़ेगा| यदि पूर्वोत्तर क्षण वृत्तित्व मात्र से कर्तृत्व भोक्तृत्व व्यवस्था करोगे तो देवदत्त का किया हुआ कर्म का फल यज्ञदत्त को प्राप्त होने लगेगा| क्योंकि पूर्वोत्तर क्षण वृत्तित्व दोनो मे समान ही है इस आशय से शंका करते हैं| अति प्रसंग अतिव्याप्ति पूर्वकाल वृत्ति विज्ञानात्मा उत्तर विज्ञानं का कारण है| और उत्तर विज्ञानं का कार्य है उसमें भी यद्दृत्ति वासना से जो उत्पन्न होता है उन दोनों विज्ञान मे परस्पर कार्य कारण भाव है| और भी कार्य कारण भाव ही कर्तृत्व और भोक्तृत्व का नियामक होगा| अर्थात कारण विज्ञान मनोवृत्ति क्रियाजन्य फल के कार्य विज्ञान को भोगेगा एवं उक्त अति प्रसंग नहीं होगा| जिस प्रकार मधुर रस से भावित आम के बीज को अच्छी जोति हुई भूमि मे रोपने पर अंकुर, स्तंभ, स्कंध, शाखा, पत्र और फूल आदि परंपरा से मधुर फल उत्पन्न होता है| खट्टे बीज से उत्पन्न फल खट्टा होता है| लाख के रस से भिगोया हुआ कपास का बीज अंकुरादि परंपरा से लाल वर्ण धारण करता है| उसी प्रकार आत्मा मे भी वासना सन्तान परंपरा से फल भोग नियम हो जाता है| अभियुक्तोक्ती भी कहते है, जिस आत्मा के वासना सन्तान कर्म वासना संक्रान्त हो उसमे उस कर्म का फल होता है, जिस प्रकार कपास मे रक्त वर्ण होता है| बिजोरा नींबू के फूल मे लाक्षादि के जल से भिजाने पर रूप-रस-गंध आदि को उत्पन्न करने वाली जो शक्ति होती है उसी प्रकार आत्म सन्तान मे भी होगी यही सिद्ध है|
उक्त पूर्व पक्ष का उत्तर - यह भी जल मे डूबते हुये को तिनके का सहारा दर्शाता है| क्योंकि वक्षयमाण विकल्प मे एक भी पक्ष को स्थिर नहीं कर सकता| तथाहि यत-सत-तत क्षणिक तथा जलधर इस अनुमान मे दृष्टांत भूतजलधर मे क्षणिकत्व इसी अनुमान से साधना है यह प्रमाणान्तर से सिद्ध है? प्रथम पक्ष को नहीं कह सकते क्योंकि दृष्टांत वही होता है| जो सिद्ध और उभयवादी सम्मत हो आपका अभिमत क्षणिक मात्र कही भी नज़र नहीं आता| अतः दृष्टांत ना होने से इस प्रकार का अनुमान का उत्थान ही असंभव है| यदि अनुमानान्तर से कहो तो उसी अनुमान से सर्वत्र क्षणिक सिद्ध हो जायेगा| पुनः सत्य अनुमान, कल्पना प्रयास भी व्यर्थ है| अर्थ क्रिया करित्वरूप सत्य का लक्षण भी आयुक्त है| क्योंकि झूठ से साप के काटने का भय अर्थक्रियाकारी होने से उसको भी सत्यत्व प्रसंग होगा| इसलिये तत्व अर्थ सूत्र मे उत्पाद ही सत्य का लक्षय कहा गया है| इसका अर्थ है कि चेतन या अचेतन द्रव्य को सजातीय भावान्तरापत्ति उत्पाद है| जैसे मृत्पिंड क घटरूप परिणाम पूर्वावस्था क त्यांग व्यय है तथा घटोत्पत्ति मे पिंड क नाश अनादि परीणाम स्वभाव होने से स्थिरता ध्रुव है यथा मृत्पिंड घटाद्यवस्था मे मृत का सम्बन्ध तथाच तादृश त्रित्ययुक्त द्रव्य है|
वर्तमान अर्थ क्रिया संपादन काल मे अतीतानागत अर्थ क्रिया को बीजादि नहीं करता अतः विरूद्ध धर्माध्यस्त होने से अनुमान से भी वस्तु का क्षणिकत्व सिद्ध है| यह भी कथन अयुक्त है| स्याद्वादी के मत से सर्वत्र अनैकांत अर्थात अस्ति नास्तीति विरुद्ध धर्माध्यस्तत्व ही रहता है| अतः उनके मत मे विरोध असिद्ध है| कर्तृत्वभोकर्तृत्वादि प्रति नियाँ के लिये जो कारपास दृष्टांत दिया वह भी निरयुक्तिक होने से कथन मात्र है| बीजादि मे भी निरांवय ध्वंस नहीं होता| तात्पर्य यह है कि कार्य का ध्वंस कारणावस्था प्राप्ति है| निरांवय अर्थात निरूपाख्य अभावरूप नहीं यथा घाट का ध्वंस होकर कपालरूप हो गया तब भी उसमे मृत्तिका रहती है| कपाल नष्ट होकर पिंड या चूर्ण होने पर भी मृत्तिकारूप व्यवहार बना रहता है अतः अन्वयी मृत सत्य ही रहता है यदि कही यद्यपि घटादि के धवन्स मे अन्वयी मृदादि बनी रहती है| तथापि बीजादि मे एवं तप्त लोह मे छोड़ी हुई जलबिन्दु मे अन्वयी रूपस्थ है कार्य होने से घट के समान तप्त लोह मे नष्ट जल भी तेज के वेग से मेघ मंडल मे अथवा सूर्य मंडल मे जाता है एसा अनुमान करना होगा| अतः अन्वयी का विनाश ना होने से निरनवय विनाश कहीं नहीं होता है|
संतान से भिन्न संतान भी प्रमांगम्य नहीं है क्योंकि एक जातीय हो, क्रम से उत्पन्न हो, परस्पर मिला हो, एसे व्यक्ति को संतान कहते है, वह एक ही कहा जाता है| कार्य कारण भाव नियम भी अतिव्याप्ति को हटा नहीं सकता| अन्यथा अचार्य के अनुभूत वस्त्तु का स्मरण शिष्य को होने लगेगा एवम आचार्यकृत कर्म का फल शिष्य को भोगना पड़ेगा| उपालम्भ करते है कृत का नाश, अकृत कर्म का भोग, संसार का उच्छेद (मोक्षभंग) स्मरणानुपपच्यादि दोषों को उपेक्षा कर क्षन भंग को मानने वाला बौध बड़ा ही साहसिक अर्थात हठी है|
दोषांतर भी कहते है - क्षनिक पक्ष मे ज्ञानकाल मे ज्ञेय घटादि और ज्ञेय सत्ताकाल मे ज्ञान को ना रहने से ग्राह्य ग्रहक ज्ञान अनुप पन्न होगा तो तनमूलक समस्त लोक व्यव्हार भी नष्ट होगा| ज्ञान और ग्राह्य को एक काल वृत्तित्व भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सम कालोत्पन्न होने से वाम दक्षिन श्रृंग के समान परस्पर कार्य कारण भाव असंभव होगा| अतः ग्राह्य ना होने से विष्यालम्बन प्रत्ययत्व असंभव होगा| ज्ञान से पूर्व काल मे ग्राह्य की सत्ता होने से भी अकारार्पकत्व नहीं कह सकते क्योंकि क्षणिक ज्ञान मे अकार का आश्रयत्व ही दुर्निरूप है ज्ञान काल मे विष्य और विष्यकाल मे ज्ञान दोनों ना होने से ज्ञान मे विष्याकार समर्पकत्व के असंभव होने पर ज्ञान वैचिन्य नहीं हो सकेगा घटपटादि विचित्र ज्ञान अकार वैलक्षयण्य से ही होता है| कहा भी है "ज्ञान वैचिञ्य के लिय क्षनिकत्व पक्ष मे भी कथांचित विष्यकार्र समर्पकत्व स्वीकार करना चाहिये|