Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
ओशो दर्शन
"अपना जीवन समग्रता से जीना और जिसकी परम और एकमात्र शर्त है: सजगता, ध्यान।" अब आप किसी व्यक्ति या संस्था के मध्यस्थ हुए बगैर संन्यास ले सकते हैं। यह दृष्टिकोण व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके चुनाव का सम्मान करता है।ओशो कहते हैं, "यह तुम्हारा निर्णय है। सदा ध्यान रहे, यहां जो भी घट रहा है वह तुम्हारा निर्णय है। अगर तुम संन्यासी हो तो यहतुम्हारा निर्णय है। अगर तुम संन्यास छोड़ते हो तो यह तुम्हारा निर्णय है। अगर तुम फिर से लेना चाहते हो तो भी वह निर्णय तुम्हारा ही होगा। मैं सब कुछ तुम पर छोड़ताहूं।"
ओशो की नजर में: "संन्यास आंदोलन का अर्थ है: सत्य के खोजियों का आंदोलन। और आंदोलन एक बहाव है, वही उसका अर्थ है। वह बहता रहता है, विकसित होता है। "ओशो ने यह भी कहा है: "जो भी बाह्य है उसे छोड़ने की मैं भरसक कोशिश कर रहा हूं ताकि सिर्फ आंतरिक रह जाए जिसका तुम अन्वेषण कर सको।
"उनका ध्यान उनका निजी मामला है," ओशो।
संन्यास आंदोलन के बारे में ओशो ने कहा: "अब यह अकेले की और व्यक्तिगत यात्रा होगी। व्यक्ति स्वयं जिम्मेवार होगा। यह एक संघ या सभा नहीं होगी।" और अंततः ओशो के शब्दों में: "संन्यास आंदोलन न मेरा है न तुम्हारा है। वह तब था जब मैं यहां नहीं था; मैं जब नहीं रहूंगा तब भी यह रहेगा। संन्यास आंदोलन का इतना ही मतलब है, सत्य के खोजियों की धारा। वे यहां सदा से रहे हैं।" अगर आप ऐसे खोजी हैं तो तैयार हो जाएं स्वयं को यह अहसास दिलाने के लिए कि आप निश्चित ही एक संन्यासी हैं और इस आगे की प्रक्रिया को पूरा करें--बिना किसी बाहरी सहायता के।
ओशो की नजर में: "संन्यास आंदोलन का अर्थ है: सत्य के खोजियों का आंदोलन। और आंदोलन एक बहाव है, वही उसका अर्थ है। वह बहता रहता है, विकसित होता है। "ओशो ने यह भी कहा है: "जो भी बाह्य है उसे छोड़ने की मैं भरसक कोशिश कर रहा हूं ताकि सिर्फ आंतरिक रह जाए जिसका तुम अन्वेषण कर सको।
"उनका ध्यान उनका निजी मामला है," ओशो।
संन्यास आंदोलन के बारे में ओशो ने कहा: "अब यह अकेले की और व्यक्तिगत यात्रा होगी। व्यक्ति स्वयं जिम्मेवार होगा। यह एक संघ या सभा नहीं होगी।" और अंततः ओशो के शब्दों में: "संन्यास आंदोलन न मेरा है न तुम्हारा है। वह तब था जब मैं यहां नहीं था; मैं जब नहीं रहूंगा तब भी यह रहेगा। संन्यास आंदोलन का इतना ही मतलब है, सत्य के खोजियों की धारा। वे यहां सदा से रहे हैं।" अगर आप ऐसे खोजी हैं तो तैयार हो जाएं स्वयं को यह अहसास दिलाने के लिए कि आप निश्चित ही एक संन्यासी हैं और इस आगे की प्रक्रिया को पूरा करें--बिना किसी बाहरी सहायता के।
संन्यास पर ओशो के विचार
"जीवन को आत्म-अज्ञान के बिंदु से देखना संसार है; आत्म-ज्ञान के बिंदु से देखना संन्यास है। इसलिए जब कोई कहता है कि मैंने संन्यास लिया है, तो मुझे बात बड़ी असत्य मालूम होती है। यह लिया हुआ संन्यास ही संसार के विरोध की भ्रांति पैदा कर देता है। संन्यास भी क्या लिया जा सकता है? क्या कोई कहेगा कि ज्ञान मैंने लिया है? लिया हुआ ज्ञान भी क्या कोई ज्ञान होगा?
ऐसा ही लिया हुआ संन्यास भी, संन्यास नहीं होता है। सत्य ओढ़े नहीं जाते हैं। उन्हें तुम्हारे भीतर जगाना होता है। संन्यास का जन्म होता है। वह समझ से आता है। उस समझ से हम परिवर्तित होते जाते हैं। जैसे-जैसे हमारी समझ बदलती है, हमारी दृष्टि बदलती है और अनायास ही आचरण भी बदल जाता है। संसार जहां का तहां होता है, पर हमारे भीतर संन्यास का जन्म होता जाता है।
संन्यास का अर्थ है: यह बोध कि मैं शरीर ही नहीं हूं, आत्मा हूं। इस बोध के साथ ही भीतर आसक्ति और अज्ञान नहीं रह जाता है। संसार बाहर था, अब भी वह बाहर होगा, पर भीतर उसके प्रति राग-शून्यता होगी, या यूं कहें कि संसार अब भीतर नहीं होगा।"
ओशो, साधना पथ, प्रवचन 3
"संन्यास में हमने एंट्रेंस तो रखा है, एक्झिट नहीं रखा है। उसमें भीतर जा सकते हैं, बाहर नहीं आ सकते। और ऐसा स्वर्ग भी नरक हो जाता है जिसमें बाहर लौटने का दरवाजा न हो। वह परतंत्रता बन जाता है, कारागृह हो जाता है। कोई संन्यासी लौटना चाहे तो कोई क्या कर सकता है? वह लौट सकता है लेकिन आप उसकी निंदा करते हैं, अपमान करते हैं। कंडेमनेशन है उसके पीछे।
और इसीलिए हमने एक तरकीब बना रखी है कि जब कोई संन्यास लेता है, तो उसका भारी शोरगुल मचाते हैं। जब कोई संन्यास लेता है तो बहुत बैंडबाजा बजाते हैं। जब कोई संन्यास लेता है तो बहुत फूलमालाएं पहनाते हैं, और यह उपद्रव का दूसरा हिस्सा है, वह उस संन्यासी को पता नहीं है कि अगर वह कल लौटा तो जैसे फूलमालाएं फेंकी गईं, वैसे ही पत्थर और जूते भी फेंके जांएगे। और ये ही लोग फेंकने वाले, कोई दूसरा आदमी नहीं होगा। असल में इन लोगों ने फूलामालाएं पहना कर उससे कहा कि अब सावधान, अब लौटना मत, जितना आदर दिया है उतना ही अनादर प्रतीक्षा करेगा। यह बड़ी खतरनाक बात है। इसके कारण न मालूम कितने लोग संन्यास का आनंद ले सकते हैं, वे नहीं ले पाते। वे कभी निर्णय ही नहीं कर पाते कि जीवन भर के लिए। जीवन भर का निर्णय बड़ी महंगी बात है, बड़ी मुश्किल बात है। फिर हकदार भी नहीं हैं हम जीवन भर के निर्णय के लिए।
तो मेरी दृष्टि है कि संन्यास सदा ही सावधिक है।। आप कभी भी वापस लौट सकते हैं। कौन बाधा डालने वाला है? संन्यास आपने लिया था। संन्यास आप छोड़ते हैं। आपके अतिरिक्त इसमें कोई और निर्णायक नहीं है। आप ही डिसीसिव हैं, आपका ही निर्णय है। इसमें दूसरे की न कोई स्वीकृति है, न दूसरे का कोई संबंध है। संन्यास निजता है, मेरा निर्णय है। मैं आज लेता हूं, कल वापस लौटता हूं। न तो लेते वक्त आपसे अपेक्षा है कि आप सम्मान करें, न छोड़ते वक्त आपसे अपेक्षा है कि आप इसके लिए निंदा करें। आपका कोई संबंध नहीं है।
साथ ही ध्यान रहे, अब तक संन्यास सदा ही गुरु से बंधा रहा है। कोई गुरु दीक्षा देता है। संन्यास कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे कोई दे सके। संन्यास ऐसी चीज है जो लेनी पड़ती है, देता कोई भी नहीं। या कहना चाहिए कि परमात्मा के सिवाय और कौन दे सकता है संन्यास? अगरे मेरे पास कोई आता है और कहता है कि मुझे दीक्षा दे दें, तो मैं कहता हूं, मैं कैसे दीक्षा दे सकता हूं, मैं सिर्फ गवाह हो सकता हूं, विटनेस हो सकता हूं। दीक्षा तो परमात्मा से ले लो, दीक्षा तो परम सत्ता से ले लो, मैं गवाह भर हो सकता हूं, एक विटनेस हो सकता हूं कि मैं मौजूद था, मेरे सामने यह घटना घटी। इससे ज्यादा कोई अर्थ नहीं होता। गुरु से बंधा हुआ संन्यास सांप्रदायिक हो ही जाएगा। गुरु से बंधा हुआ संन्यास मुक्ति नहीं ला सकता, बंधन ले आएगा।
संन्यास उनका परमात्मा के बीच का संबंध होगा। इसके लिए कोई उत्सव नहीं किया जाएगा संन्यास देने के लिए, नहीं तो फिर छोड़ते वक्त भी उलटा उत्सव करना पड़ता है।"
ऐसा ही लिया हुआ संन्यास भी, संन्यास नहीं होता है। सत्य ओढ़े नहीं जाते हैं। उन्हें तुम्हारे भीतर जगाना होता है। संन्यास का जन्म होता है। वह समझ से आता है। उस समझ से हम परिवर्तित होते जाते हैं। जैसे-जैसे हमारी समझ बदलती है, हमारी दृष्टि बदलती है और अनायास ही आचरण भी बदल जाता है। संसार जहां का तहां होता है, पर हमारे भीतर संन्यास का जन्म होता जाता है।
संन्यास का अर्थ है: यह बोध कि मैं शरीर ही नहीं हूं, आत्मा हूं। इस बोध के साथ ही भीतर आसक्ति और अज्ञान नहीं रह जाता है। संसार बाहर था, अब भी वह बाहर होगा, पर भीतर उसके प्रति राग-शून्यता होगी, या यूं कहें कि संसार अब भीतर नहीं होगा।"
ओशो, साधना पथ, प्रवचन 3
"संन्यास में हमने एंट्रेंस तो रखा है, एक्झिट नहीं रखा है। उसमें भीतर जा सकते हैं, बाहर नहीं आ सकते। और ऐसा स्वर्ग भी नरक हो जाता है जिसमें बाहर लौटने का दरवाजा न हो। वह परतंत्रता बन जाता है, कारागृह हो जाता है। कोई संन्यासी लौटना चाहे तो कोई क्या कर सकता है? वह लौट सकता है लेकिन आप उसकी निंदा करते हैं, अपमान करते हैं। कंडेमनेशन है उसके पीछे।
और इसीलिए हमने एक तरकीब बना रखी है कि जब कोई संन्यास लेता है, तो उसका भारी शोरगुल मचाते हैं। जब कोई संन्यास लेता है तो बहुत बैंडबाजा बजाते हैं। जब कोई संन्यास लेता है तो बहुत फूलमालाएं पहनाते हैं, और यह उपद्रव का दूसरा हिस्सा है, वह उस संन्यासी को पता नहीं है कि अगर वह कल लौटा तो जैसे फूलमालाएं फेंकी गईं, वैसे ही पत्थर और जूते भी फेंके जांएगे। और ये ही लोग फेंकने वाले, कोई दूसरा आदमी नहीं होगा। असल में इन लोगों ने फूलामालाएं पहना कर उससे कहा कि अब सावधान, अब लौटना मत, जितना आदर दिया है उतना ही अनादर प्रतीक्षा करेगा। यह बड़ी खतरनाक बात है। इसके कारण न मालूम कितने लोग संन्यास का आनंद ले सकते हैं, वे नहीं ले पाते। वे कभी निर्णय ही नहीं कर पाते कि जीवन भर के लिए। जीवन भर का निर्णय बड़ी महंगी बात है, बड़ी मुश्किल बात है। फिर हकदार भी नहीं हैं हम जीवन भर के निर्णय के लिए।
तो मेरी दृष्टि है कि संन्यास सदा ही सावधिक है।। आप कभी भी वापस लौट सकते हैं। कौन बाधा डालने वाला है? संन्यास आपने लिया था। संन्यास आप छोड़ते हैं। आपके अतिरिक्त इसमें कोई और निर्णायक नहीं है। आप ही डिसीसिव हैं, आपका ही निर्णय है। इसमें दूसरे की न कोई स्वीकृति है, न दूसरे का कोई संबंध है। संन्यास निजता है, मेरा निर्णय है। मैं आज लेता हूं, कल वापस लौटता हूं। न तो लेते वक्त आपसे अपेक्षा है कि आप सम्मान करें, न छोड़ते वक्त आपसे अपेक्षा है कि आप इसके लिए निंदा करें। आपका कोई संबंध नहीं है।
साथ ही ध्यान रहे, अब तक संन्यास सदा ही गुरु से बंधा रहा है। कोई गुरु दीक्षा देता है। संन्यास कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे कोई दे सके। संन्यास ऐसी चीज है जो लेनी पड़ती है, देता कोई भी नहीं। या कहना चाहिए कि परमात्मा के सिवाय और कौन दे सकता है संन्यास? अगरे मेरे पास कोई आता है और कहता है कि मुझे दीक्षा दे दें, तो मैं कहता हूं, मैं कैसे दीक्षा दे सकता हूं, मैं सिर्फ गवाह हो सकता हूं, विटनेस हो सकता हूं। दीक्षा तो परमात्मा से ले लो, दीक्षा तो परम सत्ता से ले लो, मैं गवाह भर हो सकता हूं, एक विटनेस हो सकता हूं कि मैं मौजूद था, मेरे सामने यह घटना घटी। इससे ज्यादा कोई अर्थ नहीं होता। गुरु से बंधा हुआ संन्यास सांप्रदायिक हो ही जाएगा। गुरु से बंधा हुआ संन्यास मुक्ति नहीं ला सकता, बंधन ले आएगा।
संन्यास उनका परमात्मा के बीच का संबंध होगा। इसके लिए कोई उत्सव नहीं किया जाएगा संन्यास देने के लिए, नहीं तो फिर छोड़ते वक्त भी उलटा उत्सव करना पड़ता है।"