Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
जैमिनीय दर्शन
१. पूर्व मीमांसा
मीमांसा शब्द का अर्थ (पाणिनि के अनुसार) जिज्ञासा है। जिज्ञासा अर्थात् जानने की लालसा।
अत: पूर्व-मीमांसा शब्द का अर्थ है जानने की प्रथम जिज्ञासा। इसके सोलह अध्याय हैं
मनुष्य जब इस संसार में अवतरित हुआ उसकी प्रथम जिज्ञासा यही रही थी कि वह क्या करे? अतएव इस दर्शनशास्त्र का प्रथम सूत्र मनुष्य की इस इच्छा का प्रतीक है।
दस दर्शन के प्रवर्तक महिर्ष जैमिनी है। इस ग्रन्थ में १२ अध्याय, ६० पाद और २,६३१ सूत्र है।
ग्रन्थ का आरम्भ ही महिर्ष जैमिनि इस प्रकार करते है-
अधातो धर्मजिज्ञासा।।
अब धर्म करणीय कर्म के जानने की जिज्ञासा है। इस जिज्ञासा का उत्तर देने के लिए यह पूर्ण १६ अध्याय वाला ग्रन्थ रचा गया है।
कर्म एक विस्तृत अर्थवाला शब्द है। अत: इसके विषय में १६ अध्याय और ६४ पादोंवाला ग्रन्थ लिखना उचित ही था।
यहाँ हम इस ग्रन्थ की झलक मात्र भी देने में असमर्थ हैं। केवल इतना बता देना ही पर्याप्त समझते है कि धर्म की व्याख्या यजुर्वेद में की गयी है। वेद के प्रारम्भ में ही यज्ञ की महिमा का वर्णन है। वैदिक परिपाटीमें यज्ञ का अर्थ देव-यज्ञ ही नहीं है, वरन् इसमें मनुष्य के प्रत्येक प्रकार के कायो का समावेश हो जाता है।
बढ़ई जब वृक्ष की लकड़ी से कुर्सी अथवा मेज बनाता है तो वह यज्ञ ही करता है। वृक्ष का तना जो मूल रूप में ईधन के अतिरिक्त, किसी भी उपयोगी काम का नहीं होता, उसे बढ़ई ने उपकारी रूप देकर मानव का कल्याण किया है। अत: बढ़ई का कार्य यज्ञरूप ही है।
एक अन्य उदाहरण ले सकते हैं। कच्चे लौह को लेकर योग्य वैज्ञानिक और कुशल शिल्पी एक सुन्दर कपड़ा सीने की मशीन बना देते हैं। इस कार्य से मानव का कल्याण हुआ। इस कारण यह भी यज्ञरूप है।
सभी प्रकार के कर्मों की व्याख्या इस दर्शन शास्त्र में है।
ज्ञान उपलब्धि के जिन छह साधनों की चर्चा इसमें की गई है, वे है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि। मीमांसा दर्शन के अनुसार वेद अपौरूषेय, नित्य एवं सर्वोपरि है और वेद-प्रतिपादित अर्थ को ही धर्म कहा गया है।
मीमांसा सिद्धान्त में वक्तव्य के दो विभाग है- पहला है अपरिहार्य विधि जिसमें उत्पत्ति, विनियोग, प्रयोग और अधिकार विधियां शामिल है। दूसरा विभाग है अर्थवाद जिसमें स्तुति और व्याख्या की प्रधानता है।
अत: पूर्व-मीमांसा शब्द का अर्थ है जानने की प्रथम जिज्ञासा। इसके सोलह अध्याय हैं
मनुष्य जब इस संसार में अवतरित हुआ उसकी प्रथम जिज्ञासा यही रही थी कि वह क्या करे? अतएव इस दर्शनशास्त्र का प्रथम सूत्र मनुष्य की इस इच्छा का प्रतीक है।
दस दर्शन के प्रवर्तक महिर्ष जैमिनी है। इस ग्रन्थ में १२ अध्याय, ६० पाद और २,६३१ सूत्र है।
ग्रन्थ का आरम्भ ही महिर्ष जैमिनि इस प्रकार करते है-
अधातो धर्मजिज्ञासा।।
अब धर्म करणीय कर्म के जानने की जिज्ञासा है। इस जिज्ञासा का उत्तर देने के लिए यह पूर्ण १६ अध्याय वाला ग्रन्थ रचा गया है।
कर्म एक विस्तृत अर्थवाला शब्द है। अत: इसके विषय में १६ अध्याय और ६४ पादोंवाला ग्रन्थ लिखना उचित ही था।
यहाँ हम इस ग्रन्थ की झलक मात्र भी देने में असमर्थ हैं। केवल इतना बता देना ही पर्याप्त समझते है कि धर्म की व्याख्या यजुर्वेद में की गयी है। वेद के प्रारम्भ में ही यज्ञ की महिमा का वर्णन है। वैदिक परिपाटीमें यज्ञ का अर्थ देव-यज्ञ ही नहीं है, वरन् इसमें मनुष्य के प्रत्येक प्रकार के कायो का समावेश हो जाता है।
बढ़ई जब वृक्ष की लकड़ी से कुर्सी अथवा मेज बनाता है तो वह यज्ञ ही करता है। वृक्ष का तना जो मूल रूप में ईधन के अतिरिक्त, किसी भी उपयोगी काम का नहीं होता, उसे बढ़ई ने उपकारी रूप देकर मानव का कल्याण किया है। अत: बढ़ई का कार्य यज्ञरूप ही है।
एक अन्य उदाहरण ले सकते हैं। कच्चे लौह को लेकर योग्य वैज्ञानिक और कुशल शिल्पी एक सुन्दर कपड़ा सीने की मशीन बना देते हैं। इस कार्य से मानव का कल्याण हुआ। इस कारण यह भी यज्ञरूप है।
सभी प्रकार के कर्मों की व्याख्या इस दर्शन शास्त्र में है।
ज्ञान उपलब्धि के जिन छह साधनों की चर्चा इसमें की गई है, वे है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि। मीमांसा दर्शन के अनुसार वेद अपौरूषेय, नित्य एवं सर्वोपरि है और वेद-प्रतिपादित अर्थ को ही धर्म कहा गया है।
मीमांसा सिद्धान्त में वक्तव्य के दो विभाग है- पहला है अपरिहार्य विधि जिसमें उत्पत्ति, विनियोग, प्रयोग और अधिकार विधियां शामिल है। दूसरा विभाग है अर्थवाद जिसमें स्तुति और व्याख्या की प्रधानता है।
२. ब्रह्यसूत्र (उत्तर मीमांसा)
जब मनुष्य जीवन-यापन करने लगता है तो उसके मन में दूसरी जिज्ञासा जो उठती है, वह है ब्रह्य -जिज्ञासा। ब्रह्यसूत्र का प्रथम सूत्र ही है-
अथातो ब्रह्यजिज्ञासा।।
ब्रह्य के जानने की लालसा।
इस जिज्ञासा का चित्रण श्वेताश्वर उपनिषद् में बहुत बहुत भली-भाँति किया गया है। उपनिषद् का प्रथम मंत्र है-
ब्रह्यवादिनो वदन्ति-
किं कारणं ब्रह्य कुत: स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठा:।
अधिष्ठिता: केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्यविदो व्यवस्थाम्।।
अर्थ-ब्रह्य का वर्णन करने वाले कहते है, इस (जगत्) का कारण क्या है, इस (जगत्) का कारण क्या है? हम कहाँ से उत्पन्न है? कहाँ स्थित है? (कैसे स्थित है?)यह सुख-दु:ख क्यों होता है? ब्रह्य की जिज्ञासा करने वाला यह जानने चाहते हैं। उत्पन्न हुआ कि `यह सब क्या है, क्यों हैं? इत्यादि।
पहली जिज्ञासा कर्म धर्म की जिज्ञासा थी और दूसरी जिज्ञासा जगत् का मूल कारण जानने ज्ञान की थी।
इस दूसरी जिज्ञासा का उत्तर ही ब्रह्यसूत्र अर्थात् उत्तर मीमांसा है। चूँकि यह दर्शन वेद के परम ओर अन्तिम तात्पर्य का दिग्दर्शन कराता है, इसलिए इसे वेदान्त दर्शन के नाम से ही जाना जाता हैं
वेदस्य अन्त: अन्तिमो भाग ति वेदान्त:।। यह वेद के अन्तिम ध्येय ओर कार्य क्षेत्र की शिक्षा देता है।
ब्रह्मसूत्र के प्रवर्तक महिर्ष बादरायण है। इस दर्शन में चार अध्याय, प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद (कुल १६ पाद) और सूत्रों की संख्या ५५५ है।
इसमें बताया गया है कि तीन ब्रह्य अर्थात् मूल पदार्थ है-प्रकृति,जीवात्मा और परमात्मा। तीनों अनादि है। इनका आदि-अन्त नहीं। तीनों ब्रह्य कहाते है और जिसमें ये तीनो विद्यमान है अर्थात् जगत् वह परम ब्रह्य है।
प्रकृति जो जगत् का उपादान कारण है, परमाणुरूप है जो त्रिट (तीन शक्तियो-सत्व, राजस् और तमस् का गुट) है। इन तीनो अनादि पदार्थों का वर्णन ब्रह्यसूत्र(उत्तर मीमांसा) में है।
जीवात्मा का वर्णन करते हुए इसके जन्म-मरण के बन्धन में आने का वर्णन भी ब्रह्यसूत्र में है। साथ ही मरण-जन्म से छुटकारा पाने का भी वर्णन है।
परमात्मा जो अपने शबत रूप में तत्वों से संयुक्त होकर भासता है, परन्तु उसका अपना शुद्ध रूप नेति-नेति शब्दों से ही व्यक्त होता है।
यह दर्शन भी वेद के कहे मन्त्रों की व्याख्या में ही है।
अथातो ब्रह्यजिज्ञासा।।
ब्रह्य के जानने की लालसा।
इस जिज्ञासा का चित्रण श्वेताश्वर उपनिषद् में बहुत बहुत भली-भाँति किया गया है। उपनिषद् का प्रथम मंत्र है-
ब्रह्यवादिनो वदन्ति-
किं कारणं ब्रह्य कुत: स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठा:।
अधिष्ठिता: केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्यविदो व्यवस्थाम्।।
अर्थ-ब्रह्य का वर्णन करने वाले कहते है, इस (जगत्) का कारण क्या है, इस (जगत्) का कारण क्या है? हम कहाँ से उत्पन्न है? कहाँ स्थित है? (कैसे स्थित है?)यह सुख-दु:ख क्यों होता है? ब्रह्य की जिज्ञासा करने वाला यह जानने चाहते हैं। उत्पन्न हुआ कि `यह सब क्या है, क्यों हैं? इत्यादि।
पहली जिज्ञासा कर्म धर्म की जिज्ञासा थी और दूसरी जिज्ञासा जगत् का मूल कारण जानने ज्ञान की थी।
इस दूसरी जिज्ञासा का उत्तर ही ब्रह्यसूत्र अर्थात् उत्तर मीमांसा है। चूँकि यह दर्शन वेद के परम ओर अन्तिम तात्पर्य का दिग्दर्शन कराता है, इसलिए इसे वेदान्त दर्शन के नाम से ही जाना जाता हैं
वेदस्य अन्त: अन्तिमो भाग ति वेदान्त:।। यह वेद के अन्तिम ध्येय ओर कार्य क्षेत्र की शिक्षा देता है।
ब्रह्मसूत्र के प्रवर्तक महिर्ष बादरायण है। इस दर्शन में चार अध्याय, प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद (कुल १६ पाद) और सूत्रों की संख्या ५५५ है।
इसमें बताया गया है कि तीन ब्रह्य अर्थात् मूल पदार्थ है-प्रकृति,जीवात्मा और परमात्मा। तीनों अनादि है। इनका आदि-अन्त नहीं। तीनों ब्रह्य कहाते है और जिसमें ये तीनो विद्यमान है अर्थात् जगत् वह परम ब्रह्य है।
प्रकृति जो जगत् का उपादान कारण है, परमाणुरूप है जो त्रिट (तीन शक्तियो-सत्व, राजस् और तमस् का गुट) है। इन तीनो अनादि पदार्थों का वर्णन ब्रह्यसूत्र(उत्तर मीमांसा) में है।
जीवात्मा का वर्णन करते हुए इसके जन्म-मरण के बन्धन में आने का वर्णन भी ब्रह्यसूत्र में है। साथ ही मरण-जन्म से छुटकारा पाने का भी वर्णन है।
परमात्मा जो अपने शबत रूप में तत्वों से संयुक्त होकर भासता है, परन्तु उसका अपना शुद्ध रूप नेति-नेति शब्दों से ही व्यक्त होता है।
यह दर्शन भी वेद के कहे मन्त्रों की व्याख्या में ही है।