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सामवेद
"वेदानां सामवेदोऽस्मि" कहकर गीता उपदेशक ने सामवेद की गरिमा को प्रकट किया है। साथ ही इस उक्ति के रहस्य की एक झलक पाने की ललक हर स्वाध्यायशील के मन में पैदा कर की है। यों तो वेद के सभी मन्त्र अनुभूतिजन्य ज्ञान के उद्घोषक होने के कारण लौकिक एवं आध्यात्मित रहस्यों से लबालब भरे हैं, फिर सामवेद में ऐसी क्या विशेषता है, जिसके कारण गीता ज्ञान प्रकट करने वाले ने यह कहा है कि 'वेदों में मैं सामवेद हूँ' इस बात की पुष्टि इस वेद का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् ही होती है।
साम से सम्बद्ध वेद सामवेद कहलाता है। आरोह एवं अवरोह से युक्त मन्त्रों का गान साम कहलाता है। वस्तुतः सामवेद में ऋग्वेद की उन ऋचाओं का संकलन है जो गान के योग्य समझी गयी थी। ऋचाओं का गान ही सामवेद का मुख्य उद्देश्य माना जाता है। सामवेद मुख्यतः उपासना से सम्बद्ध है, सोमयाग में आवाहन के योग्य देवताओं की स्तुतियाँ इसमें प्राप्त होती है। यज्ञसंपादन काल में उद्रता इन मन्त्रों का गान करता था। सम्पूर्ण सामवेद में सोमरस, सोम्देवता, सोमयाग, सोमपान का महत्त्व अंकित है इसलिए इसे सोम प्रधान वेद भी कहा जाता है। कर्मकांड तथा मंत्रो के व्यापक अर्थों के बीच तारतम्य समझने के लिए आवश्यक है कि मन्त्रों को देखने वाले, मन्त्रद्रष्टाओं की सूक्षम दृष्टि का अनुसरण करते हुए समझने का प्रयास किया जाये। जैसे सोमलता कूटी जा रही है, रस निचोड़ा जा रहा है। ऋषि देखता है, "इस सोमलता के रस में एक दिव्या पोषक तत्त्व सन्निहित है, जिसके कारण इस रस को महत्त्व दिया जाता है।"उक्त तत्व को देखते ही उसकी दिव्य दृष्टि देखती है कि वही पोषक तत्त्व वृक्षों-वनस्पति में भी संचरित हो रहा है, वही जल धाराओं के साथ भी प्रवाहित हो रहा है, वह वनस्पतियों और जल के सहारे प्राणियों में भी प्रवाहित है; वही प्रवाह ऋषि को अन्तरिक्ष और द्युलोक में भी दिखाई देता है, वह गा उठता है- "........."
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये।नि होता सत्सि बर्हिषि॥ |