मंगलाचरण, शौनक आदि मुनियों का सूतजी से पुराण विषयक प्रश्न, सूतद्वारा मत्स्यपुराण का वर्णनारम्भ
प्रचंडतांडवाटोपे प्रक्षिप्ता येन दिग्ग़जाः। भवन्तु विघ्नभंगाय भवस्य चरणाम्बुजाः॥
पातालादुत्पतिष्णोर्मकरवसतयो यस्य पुच्छाभिधाता दूर्घ्वं ब्रह्माण्डखण्डव्यतिकरविहितव्यत्ययेनापतन्ति।
विष्णोर्मत्स्यावतारे सकलवसुमतीमण्डलं व्यश्रुवानास्तस्यास्योदीरितानां ध्वनिरपहरतादश्रियं वः श्रुतिनाम्॥
नारायणं नस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम। देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत्॥
अजोऽपि यः क्रियायोगान्नारायण इति स्मृत। त्रिगुणाय त्रिवेदाय नमस्तस्मै स्वयम्भुवे॥
सूतमेकाग्रमासीनं नैमिषारण्यवासिनः। मुनयो दीर्घसत्रान्ते पप्रच्छुर्दीर्घसंहिताम्॥
प्रवृत्तासु पुराणीषु धमर्यासु ललितासु च। कथासु शौनकाद्यास्तु अभिनंद्य मुहुर्मुहुः॥
कथितानि पुराणानि यान्यस्माकं त्वयानध। तान्येवामृतकल्पानी श्रोतुमिच्छामहे पुनः॥
कथं ससर्ज भगवाँल्लोकनाथश्चराचरम्। कस्माच्च भगवान् विष्णुर्मतस्य रूपत्वमाश्रितः॥
भैरवत्वं भवस्यापि पुरारित्वं च केन हि। कस्य हेतोः कपालित्वं जगाम वृषभध्वजः॥
सर्वमेतत् समाचक्ष्व सूत विस्तरशः क्रमात्। त्वद्वाक्येनामृतस्येव न तृप्तिरिह जायते॥
पातालादुत्पतिष्णोर्मकरवसतयो यस्य पुच्छाभिधाता दूर्घ्वं ब्रह्माण्डखण्डव्यतिकरविहितव्यत्ययेनापतन्ति।
विष्णोर्मत्स्यावतारे सकलवसुमतीमण्डलं व्यश्रुवानास्तस्यास्योदीरितानां ध्वनिरपहरतादश्रियं वः श्रुतिनाम्॥
नारायणं नस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम। देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत्॥
अजोऽपि यः क्रियायोगान्नारायण इति स्मृत। त्रिगुणाय त्रिवेदाय नमस्तस्मै स्वयम्भुवे॥
सूतमेकाग्रमासीनं नैमिषारण्यवासिनः। मुनयो दीर्घसत्रान्ते पप्रच्छुर्दीर्घसंहिताम्॥
प्रवृत्तासु पुराणीषु धमर्यासु ललितासु च। कथासु शौनकाद्यास्तु अभिनंद्य मुहुर्मुहुः॥
कथितानि पुराणानि यान्यस्माकं त्वयानध। तान्येवामृतकल्पानी श्रोतुमिच्छामहे पुनः॥
कथं ससर्ज भगवाँल्लोकनाथश्चराचरम्। कस्माच्च भगवान् विष्णुर्मतस्य रूपत्वमाश्रितः॥
भैरवत्वं भवस्यापि पुरारित्वं च केन हि। कस्य हेतोः कपालित्वं जगाम वृषभध्वजः॥
सर्वमेतत् समाचक्ष्व सूत विस्तरशः क्रमात्। त्वद्वाक्येनामृतस्येव न तृप्तिरिह जायते॥
सूत जी कह्ते है- द्विजवरो! पूर्वकाल मे भगवान गदाधर ने जिस मत्स्यपुराण का वर्णन किया था, इस समय उसी का विवरण (आपलोग) सुनें! यह पुण्यप्रद, परम पवित्र और आयुवर्धक है। प्राचीन काल में सूर्य पुत्र महाराज (वैवस्वत) मनु ने जो क्षमाशील, सम्पूर्ण आत्मगुणों से संपन्न, सुख-दुःख को सामान समझने वाले एवं उत्कृष्ट वीर थे, पुत्र को राज्य-भार सौंपकर मलयाचल के एक भाग में जाकर घोर तप का अनुष्ठान किया था। वह उन्हें उत्तम योग की प्राप्ति हुयी। इस प्रकार उनके तप करते हुए करोड़ों वर्ष व्यतीत होने पर कमलासन ब्रह्मा प्रसन्न होकर वरदातारूप में प्रकट हुए और राजा से बोले - 'वर मांगो!' इस प्रकार प्रेरित किये जाने पर वे महाराज मनु पितामह ब्रह्मा को प्रणाम कर बोले -'भगवन! मैं आपसे केवल एक सर्वश्रेष्ठ वर माँगना चाहता हूँ। (वह यह है कि) प्रलय के उपस्थित होने पर मैं सम्पूर्ण स्थावर-जंगम रूप जीव रूप की रक्षा करने में समर्थ हो सकूँ।' तब विश्वात्मा ब्रह्मा 'एवमस्तु' कहकर वहीँ अन्तर्धान हो गए। उस समय आकाश से देवताओं द्वारा की गयी महती पुष्पवृष्टि होने लगी।
एक समय की बात है, आश्रम में पितृ-तर्पण करते हुए महाराज मनु की हथेली पर जल साथ ही एक मछली आ गिरी। उस मछली को देख वे नरेश दयार्द्र हो गए ततः उसे उस कमण्डलु में डालकर उसकी रक्षा का प्रयत्न करने लगे। एक ही दिन-रात में वह मत्स्यरूप से सोलह अंगुल बड़ा हो गया और 'रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये' कहने लगा। तब राजा ने उसे मिटटी के घड़े में डाल दिया। वहाँ भी वह एक ही रात में तीन हाथ बड़ा हो गया। पुनः उस जीव ने राजा से कहा 'रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये मैं आपकी शरण में हूँ। उसके बाद उन सूर्य-नंदन ने उस मत्स्य को कुँए में रख दिया। किन्तु वह देखते ही देखते विशाल रूप में हो गया और राजा मनु से कहने लगा 'रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये' तब राजा ने उसे सरोवर में छोड़ दिया। वह जलचर जीव देखते ही देखते एक योजन का हो गया और दीन होकर कहने लगा - 'नृपश्रेष्ठ! मेरी रक्षा कीजिये।' उसके बाद मनु ने उसे गंगा में छोड़ दिया। लेकिन देखते ही देखते वह विशाल रूप धारण कर नृप की और देखने लगा। तब भूपाल ने उसे समुद्र में डाल दिया।जब उस मत्स्य ने सम्पूर्ण समुद्र को आच्छादित कर दिया। तब मनु ने भयभीत होकर उनसे पूछा = 'आप कोई असुरराज तो नहीं है?' अथवा वासुदेव भगवान् हैं, अन्यथा दूसरा कोई ऐसा कैसे कर सकता है? भला, इस प्रकार कईं करोड़ योजनों के सामान विस्तारवाला शरीर किसका को सकता है? केशव! मुझे ज्ञात हो गया कि 'आप मत्स्य का रूप धारण करके मुझे खिन्न कर रहे हैं। हृषिकेश! आप जगदीश्वर एवं जगत के निवासस्थान हैं, आपको नमस्कार है।' तब मत्स्यरूपधारी वे भगवान् जनार्दन यों कहे जाने पर बोले - 'निष्पाप! ठीक है, ठीक है, तुमने मुझे भली प्रकार से पहचान लिया है। भूपाल! थोड़े समय में पर्वत, वन और काननों सहित यह धरती जल में निमग्न हो जायेगी। इस कारण पृथ्वीपते! सम्पूर्ण जीव समूहों की रक्षा करने के लिये समस्त देवगणों द्वारा इस नौका का निर्माण किया गया है। सुव्रत! जितने स्वेदज, अंदाज और उद्भिज्ज जीव हैं तथा जितने जरायुज जीव हैं, उन सभी अनाथों को इस नौका में चढ़ाकर तुम उन सब की रक्षा करना। राजन! जब युगांत की वायु से आहत होकर यह नौका डगमगाने लगे, उस समय राजेन्द्र! तुम उसे मेरे इस सींग में बाँध देना। तदनन्तर पृथ्वीपते! प्रलय की समाप्ति में तुम जगत के समस्त स्थावर-जङम प्राणियों के प्रजापति होओगे। इस प्रकार कृतयुग के प्रारम्भ में सर्वज्ञ प्राणियों के प्रजापति होओगे। उस समय देवगण तुम्हारी पूजा करेंगे।