कामशास्त्र की परम्परा
संस्कृत शास्त्र की कड़ी में प्रस्तुत है “संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा”। प्रवेशिकारूपेण किंचित् आत्मनिवेदन -
क्रान्तदर्शी ऋषियों ने मानव-जीवन में उत्कृष्टत्व की कामना से धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप चतुर्विध पुरुषार्थों के रूप में अपने दार्शनिक विचारों को नियोजित एवं विवेचित करते हुए सुख के दो आधार स्वीकार किए - लौकिक एवं आध्यात्मिक। लौकिक सुख में सांसारिक आकर्षण एवं ऐश्वर्य का प्राधान्य होता है, जबकि आध्यात्मिक सुख में त्याग, आत्मसंतुष्टि एवं तप का प्राधान्य होता है। ये दोनों सुख के आधार पुरुषार्थ में ही अन्तर्निहित हैं, जो लौकिक एवं पारलौकिक भेद से द्विधा विभक्त हैं:-
(1) लौकिक पुरुषार्थ:- धर्म, अर्थ एवं काम; जो लोक में त्रिवर्ग के नाम से भी जाने जाते हैं, लौकिक पुरुषार्थ के अन्तर्गत आते हैं।
(2) पारलौकिक पुरुषार्थ:- मोक्ष पारलौकिक पुरुषार्थ के रूप में गृहीत है।
मोक्षरूप पारलौकिक पुरुषार्थ की प्राप्ति अन्योन्याश्रित त्रिवर्ग के परस्पर अविरोधी भाव से सेवन के द्वारा ही हो सकती है। जब तक मानव धर्म, अर्थ एवं काम का सम्यग्रूपेण निर्वाह करते हुए विधि द्वारा निर्दिष्ट अपने सामाजिक दायित्वों को सुव्यवस्थित रूप से संपादित नहीं करता है, तब तक वह कथमपि मोक्षप्राप्ति का अधिकारी नहीं हो सकता है। क्योंकि जब तक हृदय की वासनाएं शान्त नहीं होंगी तब तक मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। मोक्षप्राप्ति हेतु आवश्यक है कि मानव विद्याग्रहण करने के उपरान्त अपनी पारिवारिक परम्परा एवं धर्मानुसार अर्थोपार्जन करते हुए शास्त्रोचित मर्यादा के पालन पूर्वक गृहस्थ जीवन के आधारभूत ‘काम’ का सुव्यवस्थित रूप से आचरण करते हुए अपने हृदय में निहित सांसारिक वासनाओं को शमित करे। इन त्रिविध लौकिक पुरुषार्थों में से सर्वाधिक कठिन है ‘काम’ रूपी पुरुषार्थ की सिद्धि।
‘काम’ सृष्ट्युत्पत्ति का मूलाधार है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति परब्रह्म के हृदय से हुयी है। यह जीवन का अनिवार्य अंग है; प्राणी की सद्गति एवं दुर्गति का सहज कारण भी यही है। क्योंकि इस संसार में कोई भी प्राणी बिना ‘कामभावना’ के किसी भी कार्य को करने में सक्षम नहीं हो सकता है। ‘काम’ इस प्राणिजगत की अनिवार्य एवं अपरिहार्य आवश्यकता है। इसे किसी भी रूप में अनदेखा नहीं किया जा सकता है। क्योंकि ‘काम’ पंचज्ञानेन्द्रियों के द्वारा मन माध्यम से तत्तत् विषयों में आत्मा को होने वाली अनुकूलनात्मक अनुभूति का परिणाम है। यही ‘काम’ पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्श विशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिक रूपेण आनन्ददायक व्यवहार रूप फलवती अर्थप्रतीति के रूप में प्रवृत्त होकर ‘कामविशेष’ कहा गया है। इस फलवती अर्थप्रतीति को समुचित रूप से सम्पादित करने के लिए, जिससे सामाजिक मर्यादा भी सुरक्षित रहे एवं नैसर्गिक सुख-आनन्द का समुचित रूप से उपभोग भी हो सके; तद्विषयक शास्त्र का अध्ययन आवश्यक है।
चूँकि यहां ‘काम’ पुरुषार्थ विषयक चर्चा हो रही है, अतः काम विषयक ज्ञान को कामसूत्र एवं विदग्ध सम्भ्रान्त नागरिकों से प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि शास्त्र एवं शास्त्रज्ञजन ही सामान्य जनों को सुव्यवस्थित सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए सफल दाम्पत्य-जीवन व्यतीत करने का विधान बता सकते हैं। किन्तु ‘काम’ एवं तद्विषयक शास्त्र के विषय में अनेक विप्रतिपत्तियाँ भी हैं। धर्म के व्यापक स्वरूप को न समझने वाले व्यक्ति प्रायः कामशास्त्र की उपयोगिता नहीं मानते हैं, अपने को मोक्षमार्गी मानने वाले लोग इसे अनैतिक एवं अश्लील मानते हुए त्याज्य समझते हैं तथा नीतिज्ञ काम को स्वभावसिद्ध मानकर मानव एवं पशु को एक समान कोटि में खड़ा कर देते हैं। इस पर विचार करना आवश्यक भी है।
वस्तुतः काम न तो अनैतिक है और न ही अश्लील एवं त्याज्य। काम को स्वभावसिद्ध मानकर मानव एवं पशु को एक समान स्वीकार करना भी युक्तिसंगत नहीं है। कामसूत्रकार का कथन भी है कि मानवेतर जीवों में भी काम की स्वतः प्रवृत्ति पायी जाती है तथा यह नित्य-अविनाशी है, क्योंकि आत्मा रूपी पदार्थ में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि गुण सदैव विद्यमान रहते हैं। अतः मानवेतर प्राणियों को संसर्गसुख की प्राप्ति हेतु उनकी स्वाभाविक इच्छा ही पर्याप्त होती है, क्योंकि उनमें स्त्री जाति स्वतंत्र, बन्धनरहित एवं आवरणरहित होती है, ऋतुकाल में ही उनकी सोद्देश्य पूर्ति हो जाती है और यह प्रवृत्ति बुद्धिपूर्वक नहीं होती है। अतः उनका यह सहजधर्म किसी प्रकार के शास्त्ररूपी उपाय की आवश्यकता नहीं रखता है। किन्तु मानव के साथ ऐसी बात नहीं है। क्योंकि परस्पर संसर्ग में स्त्री-पुरुष परस्पर अधीन होते हैं, अतः उन्हें अपनी जैविक इच्छा की पूर्ति एवं पारस्परिक पराधीनता से बचने के लिए शास्त्र रूपी उपाय की आवश्यकता होती है। अत: ऐसे सभी प्रकार के उपाय, जो दाम्पत्य-जीवन को सफल बनाने में सहायक होते हैं; का ज्ञान कामसूत्र का भलीभॉति अध्ययन करने से ही संभव है। कामसूत्रकार का कथन भी यही है- ‘शरीरस्थितिहेतुत्वात् आहार सधर्माणो कि कामः। फलभूताश्च धर्मार्थयोः। (कामसूत्र 1/2/37)’ अर्थात् शारीरिक स्थिति को व्यवस्थित बनाने में सहयोगी होने के कारण ‘काम’ भी आहार के ही समान है एवं धर्म-अर्थ फलभूत भी यही है। यही आचार्य वात्स्यायन की स्पष्ट धारणा है। चूँकि सभी प्रकार की प्रवृत्तियॉ पुरुषार्थ से ही सम्पन्न होती हैं, अतः उसके उपाय को जानना आवश्यक है। यदि ‘काम’ को त्याज्य मान लिया जाएगा तो धर्म और अर्थ पूर्णतः निष्प्रयोज्य हो जाएंगे।
अतएव निर्विवादरूपेण कहा जा सकता है कि मनुष्य समाज की अनुकूलता के अनुसार अपने सम्पूर्ण कामसुखों की प्राप्ति संयम एवं मर्यादा का पालन करने के अनन्तर ही कर सकता है; जिसकी शिक्षा उसे कामसूत्र के अध्ययन से ही प्राप्त हो सकती है। क्योंकि जो व्यक्ति कामशास्त्र के तत्व को भलीभाँति जानता है, वह निश्चित रूपेण धर्म, अर्थ एवं काम में परस्पर सामंजस्य स्थापित करते हुए जितेन्द्रिय भाव से सफल दाम्पत्य जीवन व्यतीत करते हुए अपने लोक-व्यवहार की सुव्यवस्थित रूप से रक्षा कर सकता है। कामसूत्रकार ने कहा भी है -
रक्षन्धर्मार्थकामानां स्थितिं स्वां लोकवर्तिनीम्।
अस्य शास्त्रस्य तत्वज्ञो भवत्येव जितेन्द्रियः।। (कामसूत्र 7/2/58)
यदि संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा विषयक मेरा यह प्रयास सुधीजनों को आत्मिक संतोष प्रदान करते हुए कामशास्त्र एवं कामसूत्र के संबन्ध में प्रचलित भ्रान्त धारणाओं को निर्मूल करने में सहायक हो सके, यही इस परिश्रम का प्रतिफल एवं कार्य की सफलता होगी।
पुनश्च यदि मेरे इस प्रयास में उल्लिखित किसी पंक्ति अथवा टिप्पणी से किसी को असुविधा हो,तो मार्गदर्शन की अपेक्षा भी है। कालिदास ने कहा भी है - ‘आपरितोषाद् विदुषां न साधु’।
महाकाल की अविरल धारा में निरन्तर प्रवहमान विश्ववारा वाक्स्वरूपा भगवती भारती अपनी परा-पश्यन्ती-मध्यमा-वैखरी रूपी शक्तियों के द्वारा भारतीय मनीषा की चिन्तनशक्ति को प्रतिबोधित कर संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान की समष्टि को अवधारित करते हुए विश्वमनीषा को उद्बोधित करने वाले संस्कृत वाङ्मय के विशाल कलेवर में श्रीवृद्धि करने वाली आर्यमनीषा के चिन्तक क्रान्तदर्शी ऋषियों ने ज्ञान-विज्ञान के प्रत्येक पक्ष पर अपने चिन्तन को लोक कल्याणार्थ प्रस्तुत किया है। मानव-जीवन को अनुशासित करने उद्देश्य से प्रजापति ब्रह्मा ने एक आचार संहिता का निर्माण किया, जिसे कालान्तर में ऋषियों ने त्रिवर्गरूप पुरुषार्थ के अनुसार पृथक्शास्त्र के रूप में प्रवचित किया। कालान्तर में उस आचार संहिता के धर्मशास्त्रीय भाग को स्वायम्भुव मनु ने, अर्थशास्त्रीय भाग को आचार्य बृहस्पति ने तथा कामशास्त्रीय भाग को आचार्य नंदिकेश्वर ने पृथक्पृथक् प्रवचित किया।
कामशास्त्र के प्रतिष्ठापक आचार्य मल्लनाग वात्स्यायन कामसूत्र के मंगलाचरण परक अपने प्रथम सूत्र ”धर्मार्थकामेभ्यो नमः“(कामसूत्र 1/1/1) के द्वारा किसी देवी-देवता की वन्दना न कर ग्रन्थ-प्रतिपाद्य धर्म, अर्थ एवं काम रूप त्रिवर्ग की वन्दना करते हैं। कारण ? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र; ये चतुर्वर्ण तथा ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास; ये चार आश्रम हैं। इनमें स्थित प्रायः सभी प्राणी मोक्ष की कामना नहीं करते हैं; क्योंकि धर्म, अर्थ एवं काम रूप त्रिवर्ग में जो प्राणी पूर्णता प्राप्त कर लेता है वह स्वतः ही मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। अतः त्रिवर्ग ही लोक का परम पुरुषार्थ है। आचार्य वात्स्यायन इसका उद्घोष ”प्रजापतिर्हि प्रजाः सृष्ट्वा तासां स्थितिनिबन्धनं त्रिवर्गस्य“ (काम01/1/5) कहकर करते हैं; जिसका अनुमोदन छान्दोग्योपनिषद् (2/23/2), महाभारत (59/29-30), मत्स्यपुराण (54/3-4) आदि आकर ग्रन्थ भी करते हैं।
त्रिवर्ग एवं मोक्ष; यह चतुर्वर्ग ही भारतीय सभ्यता एवँ संस्कृति की आधारभित्ति है। मानव मात्र की समस्त आकांक्षाएं-अभिलाषाएं इन्हीं में सन्निहित हैं। इन कामनाओं की परितुष्टि हेतु मानव में शरीर, बुद्धि, मन एवं आत्मा; ये चार अंग हैं; जो कि अनन्त कामनाओं एवं आवश्यकताओं के केन्द्र में स्थित हैं। इनमें बुद्धि के लिए धर्म की, शरीर-पोषण के लिए अर्थ की, मनस्तुष्टि के लिए काम की तथा आत्मसंतुष्टि के लिए मोक्ष की आवश्यकता पड़ती है। ये आवश्यकताएँ अनिवार्य एवं अपरिहार्य हैं।
इस प्रकार जीवन-निर्वहन की आकांक्षा ‘अर्थ’ में; स्त्रीपुत्रादि की ‘काम’ में; यश, ज्ञान, न्याय आदि की ‘धर्म’ में एवँ पारलौकिक अभ्युदय की कामना ‘मोक्ष’ में समाविष्ट रहती है। परन्तु इस चतुर्वर्ग में मानवमात्र ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र पर यदि किसी का दुर्धर्ष प्रभाव है तो केवल ”काम“ का ही है। अब प्रश्न यह उठता है कि प्राणिमात्र को अभिभूत करने वाला दुर्धर्ष ‘काम’ क्या है? इसके समाधान में आचार्य वात्स्यायन-'श्रोतत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणानां आत्मसंयुक्तेन मनसाधिष्ठितानां स्वेषु स्वेषु विषयेष्वानुकूल्यतः प्रवृत्तिः कामः।।' (कामसूत्र 1/2/11) कह कर पंच ज्ञानेन्द्रियों की अपने-अपने विषयों में मनसाधिष्ठित आत्मसंयुक्त प्रवृत्ति को ही ‘काम’ स्वीकार करते हैं। इस प्रकार श्रोत, त्वक्, चक्षु, जिह्वा, घ्राण रूप पंच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से आत्मा को मन-बुद्धि के द्वारा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द रूपी सांसारिक कार्य-व्यापार रूप विषय का उपभोग करने में जिस अनुकूलता अर्थात् सुख का अनुभव होता है, वह प्रवृत्ति ही ‘काम’ है। किन्तु काम का यह स्वरूप सार्वभौमिक है। सृष्टि की सभी अनुकूलनात्मक क्रियाएं इसमें अन्तर्भुक्त हो जाती हैं। क्योंकि धर्मपालन में, अर्थसाधन में, स्त्रीपुत्रादि स्नेह में, विद्याध्ययन में, परोपकार में, प्रकृति की रमणीयता के दर्शन इत्यादि में आत्मा को ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अनुकूलता की प्रतीति होने के कारण ये क्रियाएं भी काम का ही परिणाम हैं। यह विशेष काम व्यावहारिक रूप से मानव को चुम्बनालिंगनादि सहित शरीर के विशेष अंगस्पर्शजनित आनन्द की फलवती अर्थप्रतीति के रूप में भी ग्राह्य माना गया है।
काम की उत्पत्ति कैसे हुयी? इस प्रश्न पर विचार करते हुए वैदिक ऋषि का कथन है -
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषाः।।(ऋग्वेद10/129/4)
अर्थात् ‘सृष्ट्युत्पत्ति के समय सर्वप्रथम ‘काम’ अर्थात् सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा उत्पन्न हुयी, जो परब्रह्म के हृदय में सर्वप्रथम सृष्टि का रेतस् अर्थात् बीजरूप कारण विशेष था, जिसे शुद्ध-बुद्ध ज्ञानवान् मनीषी कवियों ने हृदयस्थ परब्रह्म का गम्भीर अनुशीलन कर प्राप्त किया था।’ अतः ऋग्वेद के इस कथन से स्पष्ट है कि सृष्टि के मूलकारण ”काम“ की उत्पत्ति परब्रह्म के हृदय से हुयी और उस परमात्मा ने हृदय में सनातन रूप में अवस्थित कामभावना के कारण ही इच्छा की कि वह बहुत सी प्रजा उत्पन्न करे -
‘सोऽकामयत बहुस्यां प्रजायेत। काममय एवायं पुरुषः।’(तैत्तिरीयोपनिषद् 2/3)
क्योंकि वह जो परमपुरुष है, उसका स्वरूप, उसकी शक्ति एवं प्रकृति सभी कुछ काममय है। किन्तु जब वह अकेला था तो क्या मात्र कामना से ही सृष्टि उत्पन्न हुयी ? नही !! क्योंकि एकाकी पुरुष रमण नहीं कर सकता है। अतः उसने दूसरे की इच्छा की और आलिंगित युगल के परिणाम वाला होकर अपने शरीर को द्विधा विभक्त कर डाला, उससे पति एवं पत्नी अर्थात् स्त्री एवं पुरुष उत्पन्न हुए -
‘स वै नैव रेमे, तस्मादेकाकी न रमते, स द्वितीयमैच्छत्, स हैतावानास यथा स्त्री पुमॉऽसौ सम्परिष्वक्तौ स इममेवात्मानं द्वैधापातयत्ततः पतिश्च पत्नीं चाभवताम्’ (बृहदारण्यकोपनिषद् 1/2/6)
उस परमात्मा का अर्धभाग जो पुरुष रूपी अग्नि है उसमें जब देवगण अन्न होमते हैं तो उस आहुति से वीर्य की उत्पत्ति होती है -
‘तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा अन्नं जुह्वति तस्या आहुते रेतः संभवति।’(छान्दोग्य0 5/7/2)।
वह वीर्य ही प्राण एवं यश है -
‘प्राणो वै यशो वीर्यम्।’(बृहदारण्यक0 1/2/6)
जो शेष अर्धभाग स्त्रीरूपी अग्नि है उसका उपस्थ ही समिधा है, पुरुष जो उपमन्त्रण करता है वह धूम है, योनि ज्वाला है एवं रतिरूप जो व्यापार है वह अंगार है और उससे जिस सुख की प्राप्ति होती है वही विस्फुलिंग है -
‘योषा वाव गौतमाग्निः तस्या उपस्थ एव समिद्यदुपमन्त्रयते स धूमो योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेंऽगारा अभिनन्दा विस्फुलिंगाः।’(छान्दोग्य0 5/8/1)
बृहदारण्यक श्रुति सृष्टि में प्राप्त होने वाले सभी प्रकार के आनन्द का एकमात्र अधिष्ठान उपस्थ को स्वीकार करती -
‘सर्वेषामानन्दानामुपस्थ एकायनम्।’(2/4/11)
उस स्त्री-उपस्थ-रूपी अग्नि में देवगण पुरुषोपमन्त्रण के माध्यम से वीर्य का हवन करते हैं और उस आहुति से गर्भ की उत्पत्ति होती है-
‘तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्नति तस्या आहुतेर्गर्भः संभवति।’(छान्दोग्य0 5/8/2)
पुनः वह जरायु आवृत्त गर्भ नव या दश माह मातृगर्भ में शयन के अनन्तर पुनः उत्पन्न होता है-
‘उल्बावृतो गर्भो दश वा नव वा मासानन्तः शयित्वा यावद्वाथ जायते।’(छान्दोग्य0 5/9/1)
इस प्रकार कामबीज का उद्गमस्थल परमपुरुष का हृदय है एवं उस कामबीज को धारण करने वाली मातृशक्ति उस पुरुष की माया या प्रकृति है। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता में कहा भी है -
‘सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्त्तयः संभवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।’ (गीता 14/4)
उस परमात्मा का स्वरूप एवं उसकी स्थिति का ज्ञान कराने वाला वेद ही कामशास्त्र का बीज अर्थात् आदिकारण है। जो क्रमशः विकास को प्राप्त होता हुआ एक शास्त्र-विशेष के रूप में परिणत हो गया।
कामशास्त्र का उद्भव एवं विकास:
कामशास्त्र के उद्भव का आदिकारण वेद है। जो ‘काम’ की उत्पत्ति परमपुरुष से स्वीकार करता है। इस ‘काम’ के कारण ही एक वस्तु दूसरी वस्तु पर आकृष्ट होकर संयोग करती है, क्योंकि संकल्प के मूल में काम की ही भावना होती है - ‘कामो संकल्प एव हि’। इसी कारण काम को ही सृष्टि माना गया है जिसका प्राणिमात्र पर दुर्दमनीय प्रभाव है। आचार्य वात्स्यायन काम की सार्वभौमिक परिभाषा देने के अनन्तर लोक में रूढ़ काम के व्यावहारिक स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि नारी-पुरुष का परस्पर विशेष अंगस्पर्शरूप आनन्द की जो सुखानुभूतिपरक फलवती अर्थप्रतीति होती है, प्रायः उसे ही लोक में ‘काम’ कहा गया है –
‘स्पर्शविशेष विषयात्वस्याभिमानिक सुखानुविद्धा फलवत्यर्थप्रतीतिः प्राधान्यात्कामः'।(कामसूत्र 1/2/12)
यहाँ पर पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्शविशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिकरूपेण आनन्ददायक व्यवहाररूप फलवती अर्थप्रतीति को ‘कामविशेष’ कहा गया है। वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपस्थ रूप पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा क्रमशः वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग एवं आनन्द रूप कर्म सम्पन्न होते हैं। इनमें से स्त्री एवं पुरुष के अधोभाग में स्थित जननांग, जो स्वभावतः त्वगिन्द्रिय ही है; परस्पर संसर्गावस्था में अनिर्वचनीय आनन्द को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार स्त्री एवं पुरुष को परस्पर संसर्गजन्य जिस विचित्र एवं अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है, वही काम की फलवती अर्थप्रतीति है; क्योंकि सम्यग्रूपेण सम्पन्न होने वाले संसर्ग से ही सृष्टि प्रक्रिया का सातत्य भी अविच्छिन्न बना रहता है। इसी कारण कामानन्द को ब्रह्मानन्दसहोदर माना गया है।
आचार्य वात्स्यायन द्वारा कथित ‘फलवती अर्थप्रतीतिः’ शब्द में ही कामशास्त्र के विकास की प्रक्रिया को व्यंग्यात्मक रूप में स्पष्ट किया गया है, क्योंकि कामशास्त्र का जो धर्मार्थ समन्वित, अनुमोदित एवं मर्यादित कामोपभोगरूप उद्देश्य है उसकी आधारशिला वेदों में ही पड़ गयी थी। वेदों में प्रतिपादित यत्किंचित कामशास्त्रीय विचारपद्धति उपनिषत्काल में और विकसित हुयी। ‘छान्दोग्योपनिषद्’ में स्त्रीसंसर्ग की तुलना सामवेद के वामदेव्यगान से करते हुए कहा गया है कि - प्रेयसी को संदेश भेजना ‘हिंकार’ है। उसे प्रसन्न करने की चाटुकारिता ‘प्रस्ताव’ है। उसके साथ शयन ‘उद्गीथ’ है। संसर्ग ‘प्रतिहार’ है तथा मिथुनभाव के अवसान पर होने वाला वीर्यस्खलन ‘निधन’ है – ‘उपमन्त्रयते स हिंकारो ज्ञपयते स प्रस्तावः स्त्रिया सह शेते स उद्गीथः स्त्रीं सह शेते स प्रतिहारः कालं गच्छति तन्निधनं पारं गच्छति तन्निधनमेतद्वामदेव्यं मिथुने प्रोतम्’।(छान्दोग्य02/13/1) दाम्पत्यसुख की तुलना पवित्र वामदेव्यगान से करके उसकी महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। पुनः ‘बृहदारण्यकोनिषद्’ के षष्ठ अध्याय के चतुर्थ ब्राह्मण में प्रतिपादित पुत्रमन्थकर्म या सन्तानोत्पत्तिविज्ञान, जो कि सम्भवतः कामशास्त्र का अब तक प्राप्त व्यवस्थित प्राचीनतम स्वरूप है; के द्वारा मर्यादित एवं सुव्यवस्थित दाम्पत्यसुख के कार्य-व्यापार को प्रस्तुत किया गया है।
इस प्रकार उपनिषद् का ऋषि शिष्य को पूर्णरूपेण शिक्षित करने के बाद उसका समावर्तन संस्कार कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश की अनुमति देते हुए उससे कहता है –
‘सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्माप्रमदः। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः।’(तैत्तिरीय01/11/1)
अर्थात् ”वत्स ! सदा सत्य बोलना, धर्म का आचरण करते रहना, अप्रमत्त होकर वेदों का स्वाध्याय करना तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके सन्तानोत्पादन की परम्परा की वृद्धि करना।“ यहाँ सन्तानपरम्परा का विच्छेद न होने पाए, इसलिए गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने से पूर्व ब्रह्मचारी को विधिवत् सन्तानोत्पत्तिविज्ञान रूप पुत्रमन्थकर्म की शिक्षा दी जाती थी; जो कामशास्त्र का औपनिषदिक रूप है।
कामशास्त्रीय ग्रन्थ-परम्परा:
प्रजापति ब्रह्मा द्वारा प्रवचित वेद ही त्रयीविद्या या त्रिवर्गशास्त्र आदि नामों से प्रसिद्ध है। क्योंकि छान्दोग्य श्रुति कहती है कि ‘प्रजापति ने लोकों के उद्देश्य से ध्यान रूप तप किया। उन अभितप्त लोकों से त्रयीविद्या की उत्पत्ति हुयी –
‘प्रजापतिः लोकान् अभ्यतपत् तेभ्योऽभितप्तेभ्यः त्रयीविद्या संप्रास्रवत्तां अभ्यतपत्’। (छान्दोग्य02/23/2)
आचार्य वात्स्यायन भी कामसूत्र में कामशास्त्र की परम्परा बताते हुए कहते हैं कि ‘प्रजापति ने प्रजा उत्पन्न करके उसके जीवन को सुव्यवस्थित एवं नियमित करने के उद्देश्य से त्रिवर्गशास्त्र परक संविधान का सर्वप्रथम एक लक्ष श्लोकों में प्रवचन किया’ –
‘प्रजापतिर्हि प्रजाः सृष्ट्वा तासां स्थितिनिबन्धनं त्रिवर्गस्य साधनमध्यायानां शतसहस्त्रेणाग्रे प्रोवाच’। (कामसूत्र 01/01/05)
उपर्युक्त संविधानरूप त्रिवर्गशास्त्र का समर्थन एवं उल्लेख करते हुए महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास कहते हैं:-
‘ततोऽध्यायसहस्त्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम्।
यत्र धर्मस्तथैवार्थः कामश्चैवाभिवर्णितः।।
त्रिवर्ग इति व्याख्यातो गण एष स्वयम्भुवा’। (महाभारत शान्तिपर्व 59/29-30)
इसी प्रकार मत्स्यपुराणकार भी शतकोटि प्रविस्तर त्रिवर्गसाधनभूत पुराणसंहिता का उल्लेख करते हैं -
‘पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणास्मृतं।
पुराणमेकमेवासीत् तदा कल्पान्तरेऽनघः।।
त्रिवर्गसाधनं पुण्यं शतकोटि प्रविस्तरम्।’ (मत्स्यपुराण 53/3-4)
साधारणतया लोग त्रयीविद्या का आशय ‘ऋग्यजुःसाम’ परक ग्रहण करते हैं। किन्तु वेद तो स्वयमेव ब्रह्मविद्या के अधिष्ठान हैं और त्रयीविद्या उसके अंगरूप। यदि महाभारत, मत्स्यपुराण एवं कामसूत्र में कथित प्रजापति द्वारा लक्षश्लोक प्रतिपादित त्रिवर्गशास्त्र के साथ इस त्रयीविद्या का सामंजस्य स्थापित किया जाय, तो संगति स्वयमेव बैठ जाती है कि ‘छान्दोग्यश्रुति’ द्वारा कथित त्रयीविद्या, त्रिवर्गशास्त्र ही है तथा यह त्रयीविद्या/त्रिवर्गशास्त्र ब्रह्मविद्या का ही अंग है। यह शतसहस्त्र अध्यायों वाला त्रिवर्गशास्त्र धर्म, अर्थ एवं काम के सांगोपांग विवेचन एवं विधि व्यवस्था से परिपूर्ण था। ब्रह्मा ने उस शास्त्र के द्वारा समाज की व्यवस्था, सुरक्षा एवं उत्तरोत्तर विकास की भूमिका प्रस्तुत की।
कालान्तर में इस शतसहस्त्र प्रविस्तर पुराणसंहिता त्रिवर्गशास्त्र के धर्म, अर्थ एवं काम रूप तीनों स्तम्भों के अनुसार क्रमशः उस ‘आचारसंहिता’ के धर्मशास्त्रीय भाग को स्वायम्भुव मनु ने, अर्थशास्त्रीय भाग को आचार्य बृहस्पति ने तथा कामशास्त्रीय भाग को आचार्य नन्दिकेश्वर ने पृथक्पृथक् प्रवचित किया। यहीं से कामशास्त्र की ग्रन्थ-परम्परा का श्रीगणेश हुआ। इस ग्रन्थ परम्परा को सुविधा की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जा रहा है -
(क) वात्स्यायनीय कामसूत्र से पूर्ववर्ती ग्रन्थ।
(ख) वात्स्यायन कामसूत्र एवं परवर्ती ग्रन्थ।
(क) वात्स्यायनीय कामसूत्र से पूर्ववर्ती ग्रन्थ:
कामसूत्र की पूर्ववर्ती ग्रन्थपरम्परा का अधिकांश विवरण हमें कामसूत्र से ही प्राप्त होता है। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र के प्रथम अधिकरण में पूर्ववर्ती कामशास्त्रीय ग्रन्थों का उल्लेख किया है, जिनका विवरण इस प्रकार है -
०१. आचार्य नन्दी या नन्दिकेश्वर प्रोक्त कामसूत्र:
आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र का आदि आचार्य महादेवानुचर नन्दी को स्वीकारते हुए कहते हैं कि प्रजापति द्वारा प्रवचित त्रिवर्गशास्त्र में से एक हजार अध्यायों वाले कामशास्त्रीय भाग को उससे पृथक् कर महादेवानुचर नन्दी ने उसे स्वतंत्र रूप दे दिया –
‘महादेवानुचरश्च नन्दी सहस्त्रेणाध्यायानां पृथक् कामसूत्रं प्रोवाच’। (कामसूत्र1/1/8)
महादेवानुचर नन्दी का विस्तृत परिचय हमें शिवपुराण की शतरुद्रसंहिता के अध्याय 6 एवं 7 से प्राप्त होता है। जिसके अनुसार “नन्दी शालंकायनपुत्र शिलादि ऋषि के पुत्र थे। इनका जन्म शिव के वरदानस्वरूप हुआ था। इन्होंने सांगोपांग वेदों सहित अन्यान्य शास्त्रों का भी अध्ययन किया था। इनका विवाह मरुद्गण की कन्या ‘सुयशा’ के साथ हुआ था। भगवान शिव ने इन्हें अमरत्व प्रदान कर अपने गणनायकों का अध्यक्ष बना दिया था”। ऐसा ही उल्लेख वराहपुराण एवं कूर्मपुराण में भी प्राप्त होता है। कामसूत्र में सूत्र 1/1/8 की टीका में आचार्य यशोधर नन्दी के कामसूत्र के विषय में एक अनुश्रुति का उल्लेख करते हुए कहते हैं –
तथा हि श्रूयते - ‘दिव्यवर्षसहस्त्रं उमया सह सुरतसुखं अनुभवति महादेवे वासगृह द्वारगतो नन्दी कामसूत्रं प्रोवाच’ इति।
कामसूत्र के टीकाकार आचार्य यशोधर के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि वात्स्यायन के समय में नन्दीप्रोक्त कामसूत्र लगभग नष्ट हो चुका था। रतिरहस्यकार आचार्य कोक्कोक भी रतिरहस्य में कामशास्त्र के आदि आचार्य के रूप में नन्दिकेश्वर का स्मरण करते हैं। रसरत्नसमुच्चयकार इनका स्मरण आयुर्वेदज्ञ के रूप में करते हुए इन्हें ‘नाभियन्त्र’ का आविष्कारक बताते हैं –
‘नाभियन्त्रमिदं प्रोक्तं नन्दिना सर्ववेदिना’। (रसरत्नसमुच्चय, पूर्वखण्ड - 9/26)
काव्यमीमांसा के प्रथम अध्याय, शास्त्रसंग्रह में आचार्य राजशेखर ने नन्दिकेश्वर को रस का आधिकारिक आचार्य स्वीकार किया है। मेघदूत उत्तरमेघ के 15वें श्लोक की विद्युल्लता टीका में टीकाकार आचार्य पूर्णसरस्वती ने पद्मिनी नायिका का छः श्लोकों में लक्षण प्रस्तुत करते हुए उक्त लक्षणवाक्यों को नन्दीश्वर कृत बताया है। उपर्युक्त विवरणों के आलोक में कहा जा सकता है कि आचार्य नन्दी या नन्दिकेश्वर नाट्यशास्त्र, कामशास्त्र, रसशास्त्र, आयुर्वेद, वेदविद्या आदि के प्रामाणिक आचार्य थे।
आचार्य औद्दालकि श्वेतकेतु कृत सुखशास्त्र कामसूत्र:
आचार्य नन्दी के पश्चात् कामशास्त्रीय आचार्यपरम्परा में अगले महत्त्वपूर्ण आचार्य औद्दालकि श्वेतकेतु हुए। आचार्य वात्स्यायन के अनुसार श्वेतकेतु ने आचार्य नन्दीप्रोक्त कामसूत्र को संक्षिप्त कर पाँच सौ अध्यायों में सम्पादित किया -
तु पंचभिरध्यायशतैः औद्दालकिः श्वेतकेतुः संचिक्षेप। (काम01/1/9)
आचार्य औद्दालकि श्वेतकेतु के विषय में विभिन्न ग्रन्थों का अनुशीलन करने पर विशिष्ट तथ्य प्राप्त होते हैं। महाभारत में सभापर्व के तृतीय अध्याय के अनुसार आचार्य श्वेतकेतु पंचाल निवासी महर्षि आरुणि पांचाल, जो उद्दलनकर्म के कारण उद्दालक नाम से प्रसिद्ध थे; के पुत्र थे। छान्दोग्य एवं बृहदारण्यक आदि उपनिषदों में इन्हें आरुणेय नाम से भी स्मरण करते हुये इन्हें गौतम गोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है। महाभारत में ही शान्तिपर्व के 220वें अध्याय के अनुसार इनका विवाह शाण्डिल्य गोत्रीय ब्राह्मणों में प्रवर के रूप में स्मृत ब्रह्मर्षि देवल की परमविदुषी कन्या सुवर्चला के साथ हुआ था। ये परम योगी, न्यायविशारद्, क्रियाकल्पविद् एवं विविध शास्त्रों के मर्मज्ञ थे। इनके एवं आचार्य नन्दी के मध्य मिथुनकर्म अर्थात् कामशास्त्र को वाजपेययज्ञ के समान स्वीकारने वाले आरुणि उद्दालक, मौद्गल्य नाक एवं कुमारहारीत आदि मुनि हुए थे -
एतद्ध स्म वै तद् विद्वानुद्दालक आरुणिराहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान्नाको मौद्गल्य आहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान् कुमारहारीत आह......। (बृहदारण्यक06/4/4)
इन लोगों ने सम्भवतः नन्दीप्रोक्त कामशास्त्र को यथावत् ही रहने दिया। आरुणि उद्दालक के बाद उनके पुत्र श्वेतकेतु ने नन्दीप्रोक्त कामशास्त्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन करते हुए उसको पाँच सौ अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। कामसूत्र की जयमंगला टीका के प्रणेता आचार्य यशोधर औद्दालकि श्वेतकेतु द्वारा सुखशास्त्र कामशास्त्र की रचना पर एक कथन उद्धृत करते हुए कहते हैं कि लोक को मर्यादित करने के उद्देश्य से पिता की आज्ञा होने पर तपोनिष्ठ श्वेतकेतु ने सुखशास्त्र की रचना की -
तथाचोक्तम् -
‘मद्यपानान्निवृत्तिश्च ब्राह्मणानां गुरोः सुतात्।
परस्त्रीभ्यश्च लोकानां ऋषेरौद्दालकादपि।।
ततः पितुरनुज्ञानाद् गम्यागम्यव्यवस्थया।
श्वेतकेतुस्तपोनिष्ठः सुखं शास्त्रं निबद्धवान्।।’ इति। (काम0जय01/1/9)
बृहद्देवता के उल्लेखानुसार श्वेतकेतु, गालव आदि नौ ऋषियों को पौराणिक कवि माना गया है -
नवभ्य इति नैरुक्ताः पुराणाः कवयश्च ये।
मधुकः श्वेतकेतुश्च गालवश्चैव मन्यते।। 1/24।।
आचार्य श्वेतकेतु वैदिकालीन ऋषिपरम्परा के मान्य विद्वान् हैं। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में इनके मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साम्प्रयोगिक अधिकरण के रतावस्थापन प्रकरण में स्त्रीपुरुष के कामसंवेगों एवं स्खलन की पुष्टि हेतु, पारदारिक अधिकरण के दूतीकर्म प्रकरण में दूतीप्रयोग के विषय में खण्डन हेतु तथा वैशिक अधिकरण के अर्थानर्थानुबन्ध संशयविचार प्रकरण में अर्थानर्थरूप उभयतोयोग कथन हेतु’ प्रस्तुत करते हैं।
03. आचार्य बाभ्रव्य पांचाल कृत कामसूत्र
आचार्य श्वेतकेतु के पश्चात् कामशास्त्र को विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया पंचालवासी आचार्य बाभ्रव्य ने। इन्होंने आचार्य श्वेतकेतु द्वारा सम्पादित सुखशास्त्रपरक कामशास्त्र का पुनः संपादन कर उसे साधारण, साम्प्रयोगिक, कन्यासंप्रयुक्तक, भार्याधिकारिक, पारदारिक, वैशिक एवं औपनिषदिक; इन सात अधिकरणों में विभाजित कर एक सौ पचास अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। इसका उल्लेख करते हुए आचार्य वात्स्यायन कहते हैं -
तदेव तु पुनरध्यर्धेनाध्यायशतेन साधारण साम्प्रयोगिक कन्यासंप्रयुक्तक भार्याधिकारिक पारदारिक वैशिक औपनिषदिकैः सप्तभिरधिकरणैः बाभ्रव्यः पांचालः संचिक्षेप। (कामसूत्र 1/1/10)
आचार्य बाभ्रव्य के विषय में विविध पौराणिक एवं अन्य ग्रन्थों में जो तथ्य प्राप्त होते हैं, उनमें से मत्स्यपुराण के अनुसार आचार्य बाभ्रव्य पंचालनरेश ब्रह्मदत्त के मंत्री थे। इनका पूर्ण नाम सुबालक बाभ्रव्य था, ये कामशास्त्र प्रणेता एवं सर्वशास्त्रज्ञ थे तथा लोक में पांचाल के नाम से प्रसिद्ध थे-
कामशास्त्र प्रणेता च बाभ्रव्यस्तु सुबालकः।
पांचाल इति लोकेषु विश्रुतः सर्वशास्त्रवित्।। मत्स्यपुराण 50/24-25।।
हरिवंशपुराण में हरिवंशपर्व के 23-24वें अध्याय के अनुसार बाभ्रव्य पांचाल ऋग्वेदीय बह्वृच शाखानुयायी, धर्म-अर्थ-काम के तत्त्वज्ञ थे; उन्होंने वैदिकों में प्रसिद्ध ऋग्वेद के क्रमपाठ की विधि एवं शिक्षा नामक वेदांग का प्रणयन किया था। उक्त सन्दर्भ ऋग्वेदीय प्रातिशाख्य ग्रन्थ ऋक्प्रातिशाख्यम् के क्रमहेतु पटल के 65वें सूत्र में भी प्राप्त होता है, जिसके अनुसार आचार्य बाभ्रव्य ऋग्वेद के क्रमपाठ के प्रणेता भी थे -
इति प्र बाभ्रव्य उवाच च क्रमं, क्रम प्रवक्ता प्रथमं शशंस च।।
उपर्युक्त तथ्यों की पुष्टि महाभारत के शान्तिपर्व के 342 वें अध्याय के इस उद्धरण से भी होती है -
पांचालेन क्रमः प्राप्तस्तस्माद् भूतात्सनातनात् ।
बाभ्रव्यगोत्रः स बभौ प्रथमं क्रमपारगः ।।103।।
नारायणाद् वरं लब्ध्वा प्राप्ययोगमनुत्तमम् ।
क्रमं प्रणीय शिक्षां च प्रणयित्वा स गालवः ।।104।।
अर्थात् गालव अपरनाम बाभ्रव्यगोत्रीय पांचाल ने श्रीनारायण की उपासना से प्राप्त वर के प्रभाव से ऋग्वेद के क्रमपाठ का प्रणयन करने के साथ ही शिक्षाग्रन्थ का भी प्रणयन किया। ये ऋग्वेद की बह्वृच शाखा के प्रवर्तक आचार्य भी थे। आचार्य वात्स्यायन भी इन्हें बह्वृच शाखा का प्रवर्तक स्वीकारते हुए कहते हैं कि कुछ लोगों के अनुसार बाभ्रव्य पांचाल ने ही ऋग्वेद की बह्वृच शाखा को 64 भागों में विभक्त किया था। अतः कामशास्त्र का वेद के साथ संबन्ध की पुष्टि एवं कामशास्त्र की महत्ता प्रकट करने के लिए ऋग्वेद की भाँति ही साम्प्रयोगिक अधिकरण को भी बाभ्रव्य पांचाल ने 64 अंगों वाला बनाया -
पंचाल सम्बन्धाच्च बह्वृचैरेषां पूजार्थं संज्ञा प्रवर्तिता इत्येके।। (कामसूत्र2/2/3)
इस सूत्र को विवेचित करते हुए कामसूत्र के टीकाकार आचार्य यशोधर कहते हैं - ‘पांचाल बाभ्रव्य के संबन्ध से भी इस कामशास्त्र को चतुःषष्टि कहा गया है। महर्षि बाभ्रव्य पांचाल ने ऋग्वेद को 64 भागों में विभक्त किया है और अपने द्वारा संपादित कामसूत्र के साम्प्रयोगिक अधिकरण को भी इन्होंने आलिंगन, चुम्बन, नखक्षत, दन्तक्षत, संवेशन, सीत्कार, पुरुषायित, एवं औपरिष्टक रूप 64 भागों में विभक्त किया’। सुश्रुतसंहिता के टीकाकार आयुर्वेदाचार्य डल्हण के अनुसार व्याकरणशास्त्र के प्रवक्ता बाभ्रव्य पांचाल गालव भगवान धन्वन्तरि के शिष्य थे। संस्कृत साहित्य का बृहद् इतिहास, पृ0 537 पर वाचस्पति गैरोला के उल्लेखानुसार आचार्य बाभ्रव्य ने संहिता, ब्राह्मण, क्रमपाठ, कामसूत्र, शिक्षा, निरुक्त, व्याकरण, दैवतग्रन्थ, शालाक्यतंत्र आदि विषयों एवं नामों से विभिन्न ग्रन्थों का प्रणयन किया था। बृहद्देवता 1/24 के उल्लेखानुसार महर्षि गालव भी श्वेतकेतु की भॉति ही पौराणिक कवि एवं निरुक्तकार थे। गालव अपरनाम वाले आचार्य बाभ्रव्य पांचाल के मतों का उल्लेख ऐतरेय आरण्यक, बृहद्देवता, निरुक्त, अष्टाध्यायी, वायुपुराण, चरकसंहिता, भाषावृत्ति, कामसूत्र आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।
आचार्य बाभ्रव्य पांचाल द्वारा संपादित कामसूत्र तो काल के प्रवाह में विलुप्त हो गया। हॉ ! आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में बाभ्रव्य पांचाल के मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मविमर्शप्रकरण में परस्त्री के गम्यागम्यत्व कथन के प्रसंग में; साम्प्रयोगिक अधिकरण के रतावस्थापनप्रकरण में रतिजनित आनन्द के विवेचन के प्रसंग में, आलिगंनविचारप्रकरण में बाभ्रव्य द्वारा संप्रयोगकला को आठ भेदों में विभक्त कर पुनः उनके आठ-आठ उपभेद कर कामकला को चतुःषष्टि पांचालिकी कला बताने तथा बाभ्रव्य द्वारा प्रवर्तित आलिंगन के आठ भेदों के कथन के प्रसंग में, संवेशनविधिप्रकरण में बाभ्रव्य द्वारा प्रवर्तित संवेशन के भेदकथन के प्रसंग में; भार्याधिकारिक अधिकरण के ज्येष्ठादिवृत्तप्रकरण के पुनर्भूप्रकरण में तत्कालीन समाज में कई स्त्रियों का पति से असंतुष्ट हो कर अन्य प्रणयी एवं समर्थ पुरुष को पति रूप में स्वीकार करने के लोकव्यवस्था कथन के प्रसंग में; पारदारिक अधिकरण के दूतीकर्मप्रकरण में परदाराभियोग हेतु दूती प्रयोग के संबन्ध में तथा अन्तःपुरिकावृत्तप्रकरण में राजाओं के अन्तःपुर में रहने वाली स्त्रियों के स्वभावपरीक्षण के संबन्ध में; वैशिक अधिकरण के अर्थादिविचारप्रकरण में वेश्या द्वारा अर्थागम के संदर्भकथन में; औपनिषदिक अधिकरण के नष्टरागप्रत्यानयनप्रकरण में नारी की जैविक संतुष्टि हेतु निर्मित एवं प्रयुक्त होने वाले त्रपुष (रांगा), शीशक आदि के कृत्रिम शिश्न के गुणकथन के संदर्भ में’ नाम सहित प्रस्तुत करते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि कामसूत्र टीकाकार आचार्य यशोधर के काल तक बाभ्रव्य पांचाल प्रणीत ग्रन्थ के कुछ अंश उपलब्ध थे; क्योंकि उन्होंने जयमंगला टीका में बाभ्रव्य पांचाल के मतों को संाप्रयोगिक अधिकरण के प्रथम अध्याय के 34वें सूत्र की टीका में तथा पारदारिक अधिकरण के चतुर्थ अध्याय के 62वें सूत्र की टीका में उद्धृत किया है। इसके अतिरिक्त सप्तदश शतक के आचार्य सामराज दीक्षित के पुत्र कामराज दीक्षित ने कामसूत्र में प्राप्त सामान्य श्लोकों एवं आनुवंश्य श्लोकों को बाभ्रव्यकृत मानते हुए उनका पृथक् बाभ्रव्यकारिका नाम से संग्रह कर उस पर लघुटीका का प्रणयन किया था। यह ग्रन्थ पं0 ढुण्ढिराज शास्त्री द्वारा संपादित होकर कामकुंजलता के अष्टम मंजरी के रूप में चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से सन् 1967 ई0 में प्रकाशित हुआ है।
इस प्रकार कामशास्त्र को बाभ्रव्य ऋणी मानते हुए यह स्पष्टरूपेण कहा जा सकता है कि वर्तमान में कामसूत्र का जो स्वरूप प्राप्त होता है, उसकी क्रमबद्ध आधारशिला आचार्य बाभ्रव्य ने ही रखी। आचार्य बाभ्रव्य वैदिककालीन ऋषिपरम्परा के आचार्य एवं ऐतरेयब्राह्मण काल से पूर्व के हैं।
04. आचार्य दत्तक कृत दत्तकसूत्र:
आचार्य बाभ्रव्य के पश्चात् कामशास्त्रीय ग्रन्थपरम्परा एकांगी होने लगी। कामसूत्र में प्राप्त विवरण के अनुसार पाटलिपुत्र निवासी माथुर ब्राह्मण आचार्य दत्तक ने पाटलिपुत्र की गणिकाओं के अनुरोध पर कामसूत्र के छठें अधिकरण वैशिक अधिकरण को आधार बनाकर स्वतन्त्र रूप से दत्तकसूत्र नामक कामशास्त्रीय ग्रन्थ की रचना की -
तस्य षष्ठं वैशिकमधिकरणं पाटलिपुत्रिकाणां गणिकानां नियोगाद्दत्तकः पृथक्चकार। (कामसूत्र 1/1/10)
आचार्य दत्तक एवं तत्कृत दत्तकसूत्र के विषय में यत्किंचित विवरण प्राप्त हैं, वे कुछ कामशास्त्रीय ग्रन्थों, नाट्यकृतियों एवं अभिलेखीय संदर्भ से ही प्राप्त होते हैं। उपर्युक्त सूत्र की टीका में आचार्य यशोधर इनके विषय में विवरण देते हुए कहते हैं कि ये पाटलिपुत्र निवासी किसी माथुर ब्राह्मण के पुत्र थे। इनके जन्मकाल के कुछ समय पश्चात् ही इनके माता-पिता दिवंगत हो गये थे; एक ब्राह्मणी ने इन्हें अपना दत्तकपुत्र बना लिया जिसके कारण ये दत्तक नाम से प्रसिद्ध हुए। वयःसन्धि तक ये सभी विद्याओं एवं कलाओं में प्रवीण हो गए थे। कलाओं के प्रति आसक्ति होने से आचार्य दत्तक प्रायः पाटलिपुत्र की कलाशास्त्र में प्रवीण गणिकाओं के ही संसर्ग में रहा करते थे, जिसके कारण कामशास्त्र के आचार्य के रूप में इन्हें विशेष प्रसिद्धि प्राप्त हुई। बाद में पाटलिपुत्र की गणिकाओं के अनुरोध पर कामशास्त्र के वैशिक अधिकरण पर इन्होंने स्वतन्त्र रूप से दत्तकसूत्र नामक कामशास्त्रीय ग्रन्थ का प्रणयन किया।
कामसूत्र के अतिरिक्त आचार्य दत्तक का उल्लेख अष्टम शतक के कश्मीरी कवि दामोदरगुप्त प्रणीत ‘कुट्टनीमतम्’ नामक काव्य ग्रन्थ में 77वें एवं 122वें श्लोक में प्राप्त होता है। प्रथम शतक के रूपककार महाकवि शूद्रक स्वकृत ‘पद्मप्राभृतकम्’ नामक भाणरूपक में ‘दत्तकसूत्र’ ग्रन्थ का नामतः उल्लेख करते हुए कहते हैं कि वेश्या के आंगन में घुसा हुआ भिक्षु उसी प्रकार शोभित नहीं होता है, जिस प्रकार वैशिक अधिकरण पर आधारित ‘दत्तकसूत्र’ नामक ग्रन्थ में पवित्र ओंकार शब्द शोभित नहीं होता है - वेश्यांगणं प्रविष्टो मोहाभिक्षुर्यदृच्छया वाऽपि।
न भ्राजते प्रयुक्तो दत्तकसूत्रेष्विवोंकार।। 24।। आचार्य दत्तक प्रणीत तीन सूत्रों के स्पष्ट विवरण प्राप्त होते हैं। जिनमें से प्रथम उल्लेख गुप्तकालीन कवि ईश्वरदत्त प्रणीत ‘धूर्तविटसंवाद’ नामक भाणरूपक में ‘आपुमान शब्दकामः इति दात्तकीयाः’ कहकर, द्वितीय उल्लेख सप्तम शतक के कवि आर्य श्यामलिक प्रणीत ‘पादताडितकम्’ नामक भाणरूपक में ‘दत्तकेनाप्युक्तम्- कामोऽर्थनाशः पुंसाम्’ कहकर तथा तृतीय उल्लेख आचार्य यशोधर प्रणीत कामसूत्र के सूत्र संख्या 6/3/20 की टीका में ‘भाण्डसम्प्लवे विशिष्टग्रहणम्’ इति दत्तकसूत्रस्पष्टार्थम्।’ कहकर प्राप्त होता है।
‘दत्तकसूत्र’ पर दक्षिणभारत के गंगवंश के शासक श्रीमन्माधवमहाधिराज ने टीका का प्रणयन किया था। ‘केरेगालूर’ में प्राप्त गंगवंशी नरेश के दानपत्र के अनुसार गंगवंशी राजा दुर्विनीत ने बृहत्कथा को देवभारती के स्वरूप में उपनिबद्ध किया था एवं उसी के पूर्वज श्रीमन्माधवमहाधिराज ने ‘दत्तकसूत्र’ पर वृत्ति लिखी थी - स्वस्ति श्री जितं। भगवता गतधनगगनाभेन पद्मनाभेन। श्रीमज्जाह्नवेयकुलामलव्योमावभासनभास्करः सुखंगैकप्रहारखण्डित महाशिलास्तम्भबलपराक्रमः काण्वायन सगोत्र श्रीमत्कोंगुणिमहाधिराजो भुवि विभुतमोऽभवत्। तत्पुत्रो नीतिशास्त्रकुशलो दत्तकसूत्रस्यवृत्तेः प्रणेता श्रीमन्माधवमहाधिराजः।
दत्तकसूत्र के वृत्तिकार श्रीमन्माधवमहाधिराज काण्वायन गोत्रीय गंगवंशीय ब्राह्मण नरेश थे। जिनका समय इतिहासज्ञों द्वारा पंचम शतक पूर्वार्द्ध स्वीकृत है। A Triennial Catalogue of manuscripts collected for the Government Orintal Manuscripts Library, Madras में संख्या 3220(b) प्राप्त विवरण के अनुसार दत्तकसूत्र पर एक अज्ञात विद्वान् द्वारा रचित वृत्ति अपूर्ण रूप में गवर्नमेन्ट ओरिएण्टल मैन्युस्क्रिप्ट लाइब्रेरी, चेन्नई में सुरक्षित है।
उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि आचार्य दत्तक का यह सूत्रग्रन्थ संभवतः दशम शतक तक पूर्णतया सुरक्षित रहा; कालान्तर में सुरक्षा के अभाव के कारण यह ग्रन्थ लुप्तप्राय हो गया। आचार्य वात्स्यायन के कथनानुसार कामसूत्र के वैशिक अधिकरण का संपूर्ण आधार प्रायः दत्तकसूत्र से ही ग्रहण किया गया है। मान्यतानुसार इस ग्रन्थ में तत्कालीन सामाजिक विधान को दृष्टिगत रखते हुए गणिकाजनों के लाभहानि के बारे में विस्तृत निर्देश सहित वेश्याजनोचित चतुःषष्टि पांचालिकी कामकलाओं का संपूर्ण विवरण उपनिबद्ध था। इनका समय ईशवीय पूर्व में माना जा सकता है।
05. आचार्य चारायण कृत साधारण अधिकरणीय ग्रन्थ:-
कामसूत्र के अनुसार आचार्य चारायण ने दत्तक की ही भाँति कामसूत्र के साधारण अधिकरण को आधार बना कर स्वतंत्र रूप से ग्रन्थ का प्रणयन किया - तत्प्रसंगात् चारायणः साधारणमधिकरणं पृथक्प्रोवाच।(कामसूत्र 1/1/12) कामसूत्र के अतिरिक्त आचार्य चारायण का स्मरण कौटिलीय अर्थशास्त्र में ‘तृणमिति दीर्घचारायणः।(5/93/4)’ कहकर एवं पातञ्जल महाभाष्य सूत्र ‘1/1/72’ के भाष्य में किया गया है। अर्थशास्त्र से यह प्रतीत होता है कि ये किसी राज्य के महामात्य थे। ये कृष्णयजुर्वेद की चारायणीय शाखा के प्रर्वतक, चाराणीय शिक्षा के रचयिता एवं अर्थशास्त्र के मर्मज्ञ थे। इन्होंने कामशास्त्र के सुसंस्कृत मानव जीवनचर्या रूप साधारण अधिकरण पर विशेष प्रकाश डाला है। इनका समय ई.पू. तृतीय शतक से पूर्व अनुमानित है। आचार्य चारायण मूलतः समाजविज्ञानी थे। चूंकि आचार्य वात्स्यायन ने साधारण अधिकरण के अधिकारी विद्वान् के रूप में इनके मतों का उल्लेख किया है अतएव इनका कामशास्त्र के आचार्य के रूप में यहॉ उल्लेख किया जा रहा है। आचार्य वात्स्यायन ने कामसूत्र में चारायण के मतों का स्पष्ट उद्धरण साधारण अधिकरण के नागरकवृत्तप्रकरण में नागरक की भोजन व्यवस्था के प्रसंग में एवं नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय विधवा स्त्री को पंचम प्रकार की नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में प्रस्तुत किया है।
06. घोटकमुखकृत कन्यासम्प्रयुक्तकाश्रित ग्रन्थ:-
कामसूत्र में प्राप्त विवरणानुसार आचार्य घोटकमुख ने कामसूत्र के तृतीय अधिकरण कन्यासम्प्रयुक्तक को आधार बनाकर अपने ग्रन्थ की रचना की - घोटकमुखः कन्यासम्प्रयुक्तम्।(कामसूत्र 1/1/12) आचार्य घोटकमुख का उल्लेख कौटिलीय अर्थशास्त्र, बौद्ध ग्रन्थ मज्झिमनिकाय, जैन ग्रन्थ नन्दिसूत्र एवं अनुयोगदारसूत्र में प्राप्त होता है। ‘मज्झिमनिकाय’ के घोटकमुखसुत्त के अनुसार आचार्य घोटकमुख अंगराज के अमात्य थे। इन्हें पांच सौ कार्षापण (तत्कालीन मुद्रा की एक इकाई) दैनिक वेतन प्राप्त होता था, बाद में ये बौद्ध बन गए थे। आचार्य कौटिल्य ने ‘शीटा शाटीति घोटकमुखः’ (कौ0अर्थ04/93/5) कहकर इन्हें किसी राजा का अमात्य स्वीकार किया है। चूंकि आचार्य घोटकमुख कौटिल्य द्वारा स्मृत हैं, अतः इनका समय चतुर्थ शतक ई.पू. अनुमानित है। कामसूत्रीय विवरणनुसार आचार्य घोटकमुख ने विवाहयोग्य कन्या हेतु उसके अभिभावक द्वारा अथवा अवस्थाप्राप्त कन्या द्वारा स्वयं अनुकूल वर चयन कर सामाजिक जीवन निर्वाह को आधार बनाकर कन्यासम्प्रयुक्तकाश्रित ग्रन्थ का निर्माण किया। ये मुख्यरूपेण अर्थशास्त्र एवं गौणरूपेण कामशास्त्र के आचार्य विशेष माने गए हैं। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में घोटकमुख के मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय गणिका की अक्षतयोनि पुत्री अथवा परिचारिका को सप्तम प्रकार की नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में; कन्यासम्प्रयुक्तक अधिकरण के वरणसंविधानप्रकरण में योग्य कन्या के विषय में पुष्टि हेतु, कन्याविस्रम्भणप्रकरण में लज्जाशील कन्या के स्वभाव कथन हेतु, बालोपक्रमप्रकरण में बाल्यकालिक प्रेम की उत्कृष्टता हेतु तथा एकपुरुषाभियोगप्रकरण में अनुरक्त कन्या की प्राप्ति के विषय में नायक द्वारा निरन्तर प्रयास किए जाने के प्रसंग में’ प्रस्तुत करते हैं।
07. सुवर्णनाभ कृत साम्प्रयोगविधान तन्त्र:-
कामसूत्र में प्राप्त विवरणानुसार आचार्य सुवर्णनाभ ने कामसूत्र के द्वितीय अधिकरण साम्प्रयोगिक अधिकरण को आधार बनाकर पृथग्रूपेण साम्प्रयोगविधानतन्त्र रूप अपने ग्रन्थ का प्रणयन किया - सुवर्णनाभः साम्प्रयोगिकम्। (कामसूत्र 1/1/12) आचार्य सुवर्णनाभ का उल्लेख कामसूत्र के अतिरिक्त काव्यमीमांसा में प्राप्त होता है। राजशेखर ने ‘रीतिनिर्णयं सुवर्णनाभः’(का0मी0 1/2) कह कर आचार्य सुवर्णनाभ को काव्यपुरुष की रीतिनिर्णयविद्या का आधिकारिक आचार्य स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त इनका कोई अन्य उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। आचार्य सुवर्णनाभ ने अपनी नवीन उद्भावनाओं सहित बाभ्रवीय कामसूत्र के रतिक्रीडापरक साम्प्रयोगिक अधिकरण को आधार बनाकर सम्प्रयोगविधानतन्त्रपरक ग्रन्थ का प्रणयन किया था, जिसमें सहृदय नागरिकों की सुव्यवस्थित जीवनचर्या का निरूपण करते हुए बाभ्रवीय संप्रयोगविधान के अतिरिक्त विविध प्रकार के आलिंगन, संवेशन आदि के नवीन विधानों का प्रवर्तन भी किया गया है। ये धर्मशास्त्र एवं कामशास्त्र के आचार्य विशेष माने गए है। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में सुवर्णनाभ के मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय प्रव्रजिता स्त्री को षष्ठ प्रकार की नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में; साम्प्रयोगिक अधिकरण के आलिगंनविचारप्रकरण में बाभ्रव्य द्वारा बताए गए आलिगंनभेदों के अतिरिक्त चार प्रकार के नवीन आलिगंनभेद कथन के प्रसंग में, नखरदनजातिप्रकरण में रतिक्रीड़ा में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए विधिनिषेध से परे होने के प्रसंग में, दशनच्छेदविधिप्रकरण में देशपरक रीति की अपेक्षा व्यक्ति की अपनी स्वाभाविक रुचि एवं प्रीति की श्रेष्ठता के कथन के प्रसंग में, संवेशनविधिप्रकरण में बाभ्रव्य द्वारा बताए गए संवेशनविधान के अतिरिक्त ग्यारह प्रकार के नवीन संवेशनविधि कथन के प्रसंग में तथा पुरुषायितप्रकरण में संवेशनक्रम में स्त्री के आनन्दप्राप्ति के रहस्यकथन के प्रसंग में’ प्रस्तुत करते हैं।
08. गोनर्दीय प्रणीत भार्याधिकारिक तन्त्र:-
आचार्य गोनर्दीय मुख्यतः व्याकरणशास्त्र के आचार्य है। इन्होंने कामसूत्र के चतुर्थ अधिकरण भार्याधिकारिक अधिकरण, जो पारिवारिक दृष्टिकोण से युक्त था; पर स्वतन्त्र रूप से नवीन ग्रन्थ ‘भार्याधिकारिक तन्त्र’ का प्रणयन किया - ‘गोनर्दीयो भार्याधिकारिकम्’। (कामसूत्र 1/1/12) कामसूत्र के अतिरिक्त आचार्य गोनर्दीय का स्मरण महाभाष्य में सूत्र संख्या 1/1/21, 1/1/29, 3/1/92 एवं 7/2/102 के व्याख्यान के प्रसंग में किया गया है। आचार्य गोनर्दीय के बारे में यत्किंचित जो कुछ भी विवरण उपलब्ध होता है, उनमें से एक मत के अनुसार आचार्य पतञ्जलि का ही देशज नाम गोनर्दीय था। क्योंकि गोनर्दीय शब्द का अर्थ गोनर्दप्रान्तीय व्यक्ति होता है। भारत में गोनर्द नाम से तीन स्थान प्रसिद्ध है, प्रथम कश्मीर राज्य का गोनर्द स्थान, द्वितीय मध्यदेश में गोनर्द नामक नगर तथा तृतीय अयोध्या के समीप गोनर्द नगर (वर्तमान में गोण्डा जनपद)। इन तीनों स्थानों में से व्याकरण की दृष्टि से कश्मीरीय या मध्यदेशीय गोनर्द की अपेक्षा प्राच्य गोनर्द से ही गोनर्दीय प्रयोग उपपन्न होता है। क्योंकि ‘एड्. प्राचां देशे’ सूत्र से पूर्व देशवाची शब्द की ही वृद्धिसंज्ञा होती है एवं वृद्धिसंज्ञा होने पर ही ‘वृद्धाच्छः’ सूत्र से ‘ईय्‘ प्रत्यय सम्भव है। काशिका में सूत्र सं0 1/1/75 में गोनर्द को प्राच्य देश माना गया है। ब्रह्माण्डपुराण में गोनर्द जनपद का स्मरण मल्ल एवं मगध के साथ किया गया है- मल्लमगध गोनर्दाः प्राच्यां जनपदाः स्मृताः। (1/2/17/54) ध्यातव्य है कि मल्ल जनपद की पूर्वी सीमा मगध से लगती थी एवं पश्चिमी सीमा गोनर्द (वर्तमान में उत्तर प्रदेश के गोण्डा) जनपद से। अतः कहा जा सकता है कि गोनर्द (गोण्डा) देश का निवासी होने के कारण शास्त्रकार का देशज नाम ‘गोनर्दीय’ पड़ा था। इसके अतिरिक्त महाभारत के शान्तिपर्व में कथित शिवसहस्त्रनाम के अनुसार ‘गोनर्द‘ भगवान शंकर का ही एक नाम है। अतः ‘वानामधेयस्य’ वार्तिक से नामधेय की विकल्प से वृद्धिसंज्ञा हो जाने के कारण भी गोनर्दीय प्रयोग उपपन्न होता है। इस स्थिति में भर्तृहरि, कैयट, राजशेखर, वैजयन्तीकोशकार, शिवरामेन्द्रसरस्वती, नागेशभट्ट आदि विद्वान् आचार्य गोनर्दीय को महाभाष्यकार पतञ्जलि का ही अपरनाम स्वीकार करते हैं किन्तु आचार्य युधिष्ठिर मीमांसक, वाचस्पति गैरोला आदि विद्वान् इन्हें पतञ्जलि भिन्न मानते हैं। यदि आचार्य भर्तृहरि जो कि आचार्य पतञ्जलि के सर्वाधिक निकट हैं; के कथन पर विश्वास किया जाय तो पतञ्जलि को आचार्य गोनर्दीय मानने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी। क्योंकि प्रचलित मान्यतानुसार परमशैव आचार्य पतञ्जलि शुंगवंशीय शासक सेनापति पुष्यमित्र के राजपुरोहित थे तथा पुष्यमित्र की राजधानी साकेत के निकटवर्ती गोनर्द नामक स्थान के निवासी थे। अतः आचार्य पतञ्जलि का देशज नाम एवं शैवाचार्य के रूप में गोनर्दीय उपनाम के साथ संगति उचित ही है। किन्तु आचार्य पतञ्जलि के नाम से प्राप्त अन्य ग्रन्थ सामवेदीय निदानसूत्र एवं योगसूत्र में इस प्रकार के विशेषण का कोई आधार नहीं प्राप्त होता है। यतः निश्चयेन कुछ कहा नहीं जा सकता है। इस प्रकार आचार्य पतञ्जलि के रूप में संभावित आचार्य गोनर्दीय का समय ई.पू. द्वितीय शतक से पूर्व स्वीकार किया जा सकता है। यदि आचार्य पतञ्जलि ही गोनर्दीय हैं तो उनके द्वारा कामसूत्र के भार्याधिकारिक अधिकरण पर स्वतन्त्ररूपेण से नवीन ग्रन्थ का प्रणयन करना उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप ही है। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में गोनर्दीय के मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय किशोरावस्था को प्राप्त कुलीन घर की कन्या को अष्टम प्रकार की नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में; भार्याधिकारिक अधिकरण के एकचारिणीवृत्तप्रकरण में पति-पत्नी के परस्पर समर्पण को गार्हस्थजीवन के लिए संतुष्टिदायक एवं चित्तग्राहक मानने के प्रसंग में, इसी प्रकरण में पति-पत्नी के द्वारा एक-दूसरे के दुर्गुणों को किसी अन्य से न प्रकाशित करने के प्रति सचेत करने के प्रसंग में तथा ज्येष्ठादिवृत्तप्रकरण में अपनी सपत्नी के प्रति आदरभाव रखने और पुनर्भू नायिका द्वारा योग्य पुरुष के चयन के प्रसंग में’ प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त आचार्य गोनर्दीय के वचनों को विभिन्न प्रसंगों में आचार्य मल्लिनाथ ने स्वकृत रघुवंश एवं कुमारसंभव की टीकाओं में निम्न प्रकरणों में उद्धृत किया है- (क) प्रणयसन्धि के विषय में:- रघुवंश के उन्नीसवें सर्ग के 16वें श्लोक की टीका में प्रणयसन्धि को विवेचित करने के प्रसंग में - अत्र गोनर्दीयः - ‘सन्धिद्र्विविधः सावरणप्रकाशश्च। आवरणो भिक्षुक्यादिना प्रकाशः स्वयमुपेत्य केनापि।।’ इति। (ख) रतावसान के संदर्भ में:- रघुवंश के उन्नीसवें सर्ग के 29वें श्लोक की टीका में रतावसान को विवेचित करने के प्रसंग में - अत्र गोनर्दीयः - ‘रतावसाने यदि चुम्बनादि प्रयुज्य यायान्मदनोऽस्य वासः।। इति। (ग) गृहस्थ द्वारा वेश्यागमन के संदर्भ में:- रघुवंश के उन्नीसवें सर्ग के 31वें श्लोक की टीका में गृहस्थ द्वारा वेश्यागमन काल को विवेचित करने के प्रसंग में - अत्र गोनर्दीयः - ऋतुस्नाताभिगमने मित्रकार्ये तथापदि।
त्रिष्वेतेषु प्रियतमः क्षन्तव्यो वारगम्यया।।इति। (घ) नवोढा के प्रति सखीजनों के कर्त्तव्य के संदर्भ में:- कुमारसंभव के सातवें सर्ग के 95वें श्लोक की टीका में नवविवाहिता स्त्री के प्रति सखीजनों के द्वारा करणीय कर्Ÿाव्य को विवेचित करने के प्रसंग में -
यथाह गोनर्दः - हासेन मधुना नर्मवचसा लज्जितां प्रियाम्।
विलुप्तलज्जां कुर्वीत निपुणैश्च सखीजनैः।।इति।
वस्तुतः आचार्य गोनर्दीय द्वारा प्रणीत भार्याधिकारिकतंत्रपरक कामशास्त्रीय ग्रन्थ परिवार की मर्यादा को सुरक्षित रखते हुए दम्पत्ति द्वारा रतिक्रीडाजनित नैसर्गिक आनन्द की सम्यक्प्राप्ति का प्रतिपादक ग्रन्थ था।
09. गोणिकापुत्र प्रणीत पारदारिक तन्त्र:-
वात्स्यायन के उल्लेखानुसार बाभ्रव्य पांचाल के द्वारा संपादित कामसूत्र के पंचम अधिकरण पारदारिक अधिकरण का आश्रय ग्रहण कर आचार्य गोणिकापुत्र ने उसे नवीन स्वरूप देते हुए स्वतन्त्र रूप से ‘पारदारिकतन्त्र’ परक नवीन ग्रन्थ का प्रणयन किया -
‘गोणिकापुत्रः पारदारिकम्’।(कामसूत्र 1/1/12) आचार्य गोणिकापुत्र व्याकरणशास्त्र के प्रामाणिक आचार्य थे। आचार्य पतञ्जलि ने महाभाष्य में सूत्र संख्या 1/4/51 पर इनका स्मरण किया है। इसके अतिरिक्त इनका उल्लेख कामशास्त्रीय ग्रन्थ रतिरहस्य, रतिरत्नप्रदीपिका आदि में प्राप्त होता है। आचार्य नागेशभट्ट महाभाष्य की टीका में गोणिकापुत्र को आचार्य पतञ्जलि के ही अपर नाम की संभावना करते हैं ‘गोणिकापुत्रो भाष्यकारः इत्याहुः’। किन्तु भर्तृहरि, कैयट आदि वैयाकरण तथा कोशकारों ने इस नाम को पतञ्जलि का पर्याय नहीं माना है। फिर पतञ्जलि के देशवाचक नाम के रूप में संभावित गोनर्दीय के साथ ही कामसूत्र में गोणिकापुत्र का पारदारिक अधिकरण के आचार्य के रूप में स्मरण किया गया है। अतएव यदि गोनर्दीय आचार्य पतञ्जलि का अपर नाम है, तो गोणिकापुत्र कथमपि उनका अपरनाम नहीं माना जा सकता है। उपर्युक्त तथ्यों के ऊपर विचार करने पर यही माना जा सकता है कि आचार्य गोणिकापुत्र महर्षि पतञ्जलि के पूर्ववर्ती विद्वान् थे। गोणिकापुत्र द्वारा विरचित पारदारिकतंत्रपरक ग्रन्थ तो नहीं प्राप्त होता है। हॉ ! कामसूत्र, रतिरहस्य, रतिरत्नप्रदीपिका आदि में इनके मतों का सादर उल्लेख अवश्य प्राप्त होता है। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में गोणिकापुत्र के मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय पुत्रोत्पादन अथवा दैहिक सुख की प्राप्ति हेतु गृहीत अन्य स्त्री को पाक्षिकी नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में, इसी प्रकरण में अगम्या स्त्री के सन्दर्भ में बाभ्रव्य के मत कि ‘जिस स्त्री ने पांच पुरुषों के साथ संबन्ध स्थापित कर लिया हो, उसके साथ संबन्ध स्थापित करने में कोई दोष नहीं होता है’ के संशोधन में गोणिकापुत्र के पक्ष कि ‘पांच पुरुषों से संबन्ध स्थापित कर लेने पर भी संबन्धी, मित्र, विद्वान् ब्राह्मण, गुरु, तथा राजा की स्त्री सदा अगम्या ही होती है’ को प्रस्तुत करने के प्रसंग में; पारदारिक अधिकरण के शीलावस्थापनादि प्रकरण में सौन्दर्य के महŸव को प्रकट करने के उद्देश्य से कि ‘किसी स्वस्थ एवं आकर्षक परपुरुष के प्रति स्त्री की अनुरक्ति तथा उसी प्रकार किसी लावण्यमयी परस्त्री के प्रति पुरुष की अनुरक्ति, एक सहज और नैसर्गिक प्रवृत्ति है’ के कथन के संदर्भ में, दूतीकर्मप्रकरण में परपुरुष के साथ अपने प्रणय व्यापार के माध्यम हेतु विश्वस्त दूती के चयन के प्रसंग में, इसी प्रकरण में बिना परिचय एवं संकेत के सम्पन्न होने वाले दूतीकर्म के तथा सखी, भिक्षुकी, तापसी, सन्यासिनी आदि के घर को परपुरुष के साथ संबन्ध बनाने के स्थान के कथन के प्रसंग में एवं अन्तःपुरिकावृत्त प्रकरण में अन्तःपुर में प्रवेश करने के लिए वहाँ के रक्षकों को साम, दान, भेद आदि के प्रदर्शन द्वारा वशीभूत कर स्वार्थसिद्धि करने के प्रसंग में’ प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त रतिरहस्य में आचार्य कोक्कोक ने चन्द्रकला वर्णन के प्रसंग में तथा रतिरत्नप्रदीपिका में प्रौढ़देवराज ने स्त्रीजाति एवं चन्द्रकला वर्णन के प्रसंग में गोणिकापुत्र के मत का सादर स्मरण किया है।
10. कुचुमार प्रणीत कूचिमारतन्त्र वा कुचुमारसंहिता:-
कामसूत्रकार के उल्लेखानुसार बाभ्रव्यपांचाल के द्वारा संपादित कामसूत्र के सप्तम अधिकरण औपनिषदिक अधिकरण का आश्रय ग्रहण कर आचार्य कुचुमार ने उसे नवीन स्वरूप देते हुए स्वतन्त्र रूप से ‘औपनिषदिकतन्त्र’ परक कूचिमारतन्त्र का प्रणयन किया - ‘कुचुमार औपनिषदिकमिति’।(कामसूत्र 1/1/12) आचार्य कुचुमार औपनिषदिकतन्त्र के प्रामाणिक आचार्य थे। बर्नेल म्यूजियम में संग्रहीत पुस्तकों के सूचीपत्र के अनुसार 8 पटलों में विभक्त कूचिमारतन्त्र वा कुचुमारसंहिता नामक एक ग्रन्थ सन् 1922 ई0 में लाहौर से तथा सन् 1925 ई0 में धन्वन्तरि ग्रन्थावली अलीगढ, विजयगढ से प्रकाशित हुआ था। संप्रति 168 श्लोकयुत् 9 पटलों में विभक्त हिन्दी अनुवाद सहित कूचिमारतन्त्रम् नामक ग्रन्थ चैखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से 2007 में प्रकाशित है।
11. कर्णीसुत मूलदेव प्रणीत कामतन्त्र:-
आचार्य कर्णीसुत मूलदेव का कामशास्त्रज्ञ के रूप में रतिरहस्य एवं पूर्णसरस्वती विरचित मालतीमाधव की टीका (पृ0 170) में स्मरण किया गया है। कर्णीसुत मूलदेव को संस्कृत साहित्य में बहुमान्य व्यक्तित्व से परिपूर्ण व्यक्ति के रूप वर्णित किया गया है। संस्कृत साहित्य में जिस प्रकार कुलीन नायक के रूप में वत्सराज उदयन समादृत हैं, उसी प्रकार का सम्मान कर्णीसुत मूलदेव को वैशिक नायक के रूप में प्राप्त है। महाकवि बाणभट्ट ने कादम्बरी में विन्ध्याटवी वर्णन के समय -‘कर्णीसुतकथेव संनिहित विपुलाचला शशोपगता च’- कह कर कर्णीसुतकथा की प्रसिद्धि का उल्लेख किया है। इस पंक्ति की व्याख्या करते समय कादम्बरी के टीकाकार आचार्य भानुचन्द्र गणि बृहत्कथा से उद्धरण प्रस्तुत करते हुए कर्णीसुत को चौर्यशास्त्र का प्रवर्तक स्वीकार करते हैं- ‘कर्णीसुतः करटकः स्तेयशास्त्र प्रवर्तकः .....।’। महाकवि शूद्रक ने ‘पद्मप्राभृतकम्’ नामक भाणरूपक में कर्णीसुत मूलदेव की वैशिक प्रणयलीला का अत्यन्त मनोहारी चित्रण प्रस्तुत किया है। पद्मप्राभृतकम् के अनुसार कर्णीसुत मूलदेव पाटलिपुत्र का निवासी थे। ये कलामर्मज्ञ, कामशास्त्र के वैशिक प्रकरण के आधिकारिक विद्वान् तथा चौर्यशास्त्र का मान्य आचार्य थे एवं वाणिज्य-व्यापार, कला-संस्कृति तथा साहित्य का अन्तर्राष्ट्रीय का केन्द्र होने के कारण अवन्ती (उज्जयिनी) में ही निवास करते थे। चौर्यशास्त्र का आचार्य होने के कारण वेश्यालय के साथ उनका घनिष्ट संबन्ध था। क्योंकि वाणिज्य हेतु अन्य देशों से आए व्यापारियों एवं कला के उपासकों की संतुष्टि बिना गणिकाभवन के साहचर्य के संभव नहीं और अपने अभीष्ट की चौर्यसिद्धि में साधनभूत गणिका को वही व्यक्ति वशीभूत कर सकता है, जो चौंसठ सामान्य कलाओं एवं चौंसठ कामक्रीड़ापरक कलाओं का मर्मज्ञ हो। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण कर्णीसुत उज्जयिनी की एक प्रमुख गणिका विपुला का प्रणयभाजन बन जाते हैं, किन्तु अपनी भ्रमरवृत्ति के कारण विपुला द्वारा ठुकराए जाने पर वे दूसरी प्रमुख वेशयुवती देवदत्ता के साथ अपना प्रेमसंबन्ध बना लेते हैं। देवदत्ता के साथ प्रेमप्रसंग काल में ही उनकी दृष्टि उसकी छोटी बहिन देवसेना पर पड़ती है, कर्णीसुत देवसेना के अनिंद्य सौन्दर्य के मोहपाश में उलझ कर कामज्वर से पीड़ित हो जाते हैं। तब उनका शश नामक मित्र अपने प्रयत्नों के द्वारा देवदत्ता को अनुकूल बनाते हुए कर्णीसुत का देवसेना के साथ सम्मिलन करवाता है। इसी प्रसंग में कर्णीसुत के लिए कवि दो बार ‘कामतन्त्रसूत्रधार’ विशेषण का उल्लेख करता है। इसके अतिरिक्त धूर्तविटसंवाद नामक भाणरूपक तथा भरतमुनि कृत नाट्यशास्त्र में अनेक स्थानों पर कामतन्त्र नामक ग्रन्थ का सादर उल्लेख प्राप्त होता है। अतः निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि आचार्य कर्णीसुत मूलदेव वैशिक कामशास्त्र, कलाशास्त्र एवं चौर्यशास्त्र आदि के बहुमान्य आचार्य थे। इनका समय ई.पू. चतुर्थ शतक से ई.पू. षष्ठ शतक के मध्य संभावित है। रतिरहस्यकार ने उत्कलदेश की रमणियों को संतुष्टि प्रदान करने वाले विविध उपचारों के वर्णन के प्रसंग में आचार्य मूलदेव के मत का उल्लेख किया है।
12. कश्मीरनरेश वसुनन्द कृत स्मरशास्त्र:-
महाकवि कल्हण कृत राजतरंगिणी में प्राप्त विवरणानुसार कश्मीरनरेश क्षितिनन्द के पुत्र वसुनन्द ने कामशास्त्र पर एक प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा था -
‘द्वापंचाशतमब्दान्क्ष्मां द्वौ च मासौ तदात्मजः।
अपासीद्वसुनन्दाख्यः प्रख्यात स्मरशास्त्रकृत्।।’(राजतरंगिणी 1/337)।
इस राजा ने 52 वर्ष 2 माह तक कश्मीर पर शासन किया था। इसके अतिरिक्त वसुनन्द का उल्लेख वैशिक ग्रन्थ कुट्टनीमतम् में श्लोक संख्या 76 पर किया गया है। वसुनन्द कृत स्मरशास्त्र समय की धारा में विलीन हो गया। इस ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के विषय में मात्र इतना ही विवरण प्राप्त होता है।
(ख) वात्स्यायनीय कामसूत्र एवं परवर्ती ग्रन्थ:-
(12) वात्स्यायन कृत कामसूत्र:
आचार्य वात्स्यायन भास, कालिदास आदि की भॉति अपने विषय में सर्वथा मौन हैं। कामसूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य यशोधर एवं वासवदत्ताकार सुबन्धु के उल्लेखानुसार इनका वास्तविक नाम मल्लनाग था। वात्स्यायन इनका गोत्रवाचक नाम था। आचार्य मल्लनाग वात्स्यायन ने लोकजीवन को सरल, सफल, सुचारु एवं मर्यादित बनाने के लिए ब्रह्मचर्य पूर्वक एकाग्रचित्त होकर इस गम्भीर कृति का निर्माण किया। जिसका उल्लेख वे स्वयं करते हैं -
तदेतद् ब्रह्मचर्येण परेण च समाधिना।
विहितं लोकयात्रार्थं न रागार्थोऽस्य संविधिः।। कामसूत्र 7/2/57।।
कामसूत्रकार आचार्य वात्स्यायन के स्थितिकाल के विषय में प्रामाणिक सामग्री का नितान्त अभाव है। क्योंकि आचार्य वात्स्यायन तो अपने विषय में सर्वथा मौन हैं ही, उनके समकालीन किसी अन्य आचार्य ने भी उनके विषय में कुछ नहीं लिखा है। अतः वात्स्यायन के समय के विषय में जो कुछ भी मत प्रस्तुत हुए हैं वे यत्किंचित अन्तर्बाह्यसाक्ष्यजनित अनुमान पर ही आधारित हैं। परवर्ती ग्रन्थों में भी उनके जीवन के विषय में कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। हॉ ! विविध कोषकारों के कथन की पुष्टि करती हुयी यह किंवदन्ती प्रचलित है कि - ‘वात्स्यायन अर्थशास्त्र के प्रणेता आचार्य कौटिल्य का ही अपर नाम है। कौटिल्य ने ही अपने गोत्रवाचक छद्मनाम से अर्थशास्त्र की ही रचनापद्धति पर कामसूत्र का भी प्रणयन किया था’।
किन्तु अन्तःसाक्ष्यों एवं बाह्यसाक्ष्यों पर तर्कपूर्ण ढंग से विचार करने पर यह किंवदन्ती एवं कोषकारों का प्रामाण्य स्वतः निरस्त हो जाता है। कामसूत्र जैसी महनीय कृति का निर्माण शान्ति एवं समृद्ध वातावरण में ही हो सकती है और भारतीय इतिहास में ई.पू. प्रथम शतक से प्रथम शतक ईशवीय तक का सातवाहन शासनकाल तथा गुप्तकाल यही दो समय विशेष सुख एवं समृद्धि का रहा है। अन्तःसाक्ष्यों एवं बाह्यसाक्ष्यों पर विमर्श करने पर आचार्य वात्स्यायन इन दोनों कालों में से सातवाहन शासनकाल के सर्वाधिक निकट प्रतीत होते हैं।
आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र के साम्प्रयोगिक अधिकरण के प्रहणनसीत्कार प्रकरण में सातवाहन नरेश कुन्तलशातकर्णि का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि -
‘कर्तर्या कुन्तलःशातकर्णिः शातवाहनो महादेवीं मलयवतीं जघान’(कामसूत्र2/7/29)।
कामसूत्र के प्रामाणिक टीकाकार आचार्य यशोधर ‘कुन्तल’ शब्द से कुन्तल जनपद अर्थ का ग्रहण करते हैं। किन्तु प्रो0 गुर्ती वेंकटराव ने अपने ‘प्राक्-सातवाहन काल और सातवाहन काल’ नामक बृहद् शोध निबन्ध में ऐतिहासिक अनुशीलन करते हुए यह स्पष्ट किया है कि कुन्तल शातकर्णि आन्ध्रभृत्य सातवाहन वंश का तेरहवां शासक था, जिसका समय ई.पू. 52 से ई.पू. 44 तक रहा। इसने मात्र आठ वर्ष तक ही शासन किया था। अतः आचार्य वात्स्यायन ई.पू. प्रथम शतक से पूर्व के नहीं माने जा सकते हैं; यह कामसूत्रकार की पूर्व सीमा है। महाकवि सुबन्धु ने ‘वासवदत्ता’ नामक अपने कथापरक उपन्यास में ‘कामसूत्र विन्यास इव मल्लनाग घटित कान्तार सामोदः’ कहकर वात्स्यायन के मूल नाम का उद्घाटन किया, जिसका समर्थन बाद में आचार्य यशोधर ने भी किया। इनसे भी पूर्ववर्ती संस्कृत कथा साहित्य के अनुपम ग्रन्थ ‘पंचतंत्र’ के प्रणेता पं. विष्णुशर्मा ने पंचतंत्र में ‘ततो धर्मशास्त्राणि मन्वादीनि, अर्थशास्त्राणि चाणक्यादीनि, कामशास्त्राणि वात्स्यायनादीनि’ कहते हुए वात्स्यायन का ग्रन्थ सहित स्मरण किया है। इनमें से महाकवि सुबन्धु षष्ठ शतक में तथा पं0 विष्णुशर्मा तृतीय से चतुर्थ शतक के मध्य में हुए थे। यह कामसूत्रकार की अपर सीमा है। इस प्रकार उपर्युक्त विवरणों के आलोक में आचार्य वात्स्यायन का समय ईशा पूर्व प्रथम शतक से चतुर्थ शतक ईशवीय के मध्य स्थिर है। आचार्य वात्स्यायन के काल के साथ-साथ उनके निवासस्थान के विषय में भी विवाद है। डॉ. ए.बी. कीथ, डॉ. सूर्यकान्त, नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य आदि आलोचक इन्हें पश्चिमोत्तर भारत का निवासी मानते हैं। पं. देवदत्त शास्त्री इन्हें उत्तर भारत के वत्स देश का निवासी मानते हैं।
हमारे दृष्टिकोण से उपर्युक्त स्थापनाएं एकांगी हैं। आचार्य वात्स्यायन वत्य/वात्स्य गोत्रीय ब्राह्मण थे। भारतीय परम्परा के अनुसार प्रत्येक गोत्र किसी न किसी वेद की शाखा से संबन्धित होता है एवं उस शाखा के अपने धर्मविधान, गृह्यविधान, यज्ञविधान आदि होते हैं जो सूत्र कहे जाते हैं। कामसूत्र एवं कल्पसूत्र साहित्य पर तुलनात्मक दृष्टिपात करने पर कामसूत्र एवं आपस्तम्बगृह्यसूत्र के कतिपय सूत्रों में स्पष्ट समानताएं दिखायी पड़ती हैं। इस प्रकार ऐतिहासिक विवेचनों एवं कतिपय नवीन प्रमाणों का आधार ग्रहण करते हुए मैंने आचार्य मल्लनाग वात्स्यायन का समय ईशा पूर्व प्रथम शतक के उत्तरार्ध से प्रथम शतक ईशवीय के पूर्वार्ध के मध्य सातवाहनकाल में स्वीकार करते हुए उन्हें आन्ध्रदेशीय आपस्तम्ब शाखा एवं सूत्र से संबन्धित वत्य/वात्स्य गोत्रीय ब्राह्मण माना है। इनके काल एवं निवासस्थान के संबन्ध में विस्तृत विवरण हमारे समालोचनात्मक ग्रन्थ ‘कामसूत्र का सामाजिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन’ में दिए गए हैं, जो कि चैखम्बा विद्याभवन, वाराणसी से प्रकाशित है।
ध्यातव्य है कि यह चराचर जगत् दो रूपों में विभक्त है - जड़ एवं चेतन, इनमें भी चेतन जगत् अज्ञ एवं विज्ञ रूप से दो भागों में विभाजित है। पशु, पक्षी, कीटादि अज्ञ होने के कारण रतिसुख के लिए स्वतंत्र होते हैं, उनकी स्वाभाविक कामेक्षा ही उनके रतिसुख के लिए पर्याप्त होती है। किन्तु मानव विज्ञ होने के कारण रतिसुख के लिए परतंत्र होते हैं। क्योंकि उनमें संकोच, लज्जा, लोकभय आदि की भावनाएं व्याप्त रहती हैं, जो अज्ञों में नहीं होती हैं। मानव में परस्पर रतिभाव उत्पन्न करने और विषयसुख की अनुभूति करने के लिए यह आवश्यक है कि वे रतिभाव के संबन्ध में विशेष ज्ञान प्राप्त करे, जिससे वह लोक को संतुष्ट एवं मर्यादित रख सके। अतः मानव के लिए रतिभाव एवं कामसुख का भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए जो उपाय-विशेष कहे गए हैं, वे कामसूत्र के द्वारा ही जाने जा सकते हैं। यह कथन स्वयं आचार्य वात्स्यायन का है -
‘सा च उपाय प्रतिपत्ति: कामसूत्रात्’(कामसूत्र 1/2/19)।
आचार्य वात्स्यायन द्वारा विरचित कामसूत्र का प्रतिपाद्य विषय है ‘काम’। काम सृष्टि की एक अत्यन्त प्रबलतम शक्ति है। इस चराचर जगत् में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो काम के प्रभाव से अभिभूत न हुआ हो। जब आचार्य वात्स्यायन काम के सार्वभौमिक स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ‘श्रोत, त्वक्, चक्षु, जिह्वा एवं नासिका रूप पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ अपने अपने विषयों में आत्मा को मन-बुद्धि के माध्यम से रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द रूपी सांसारिक कार्य-व्यापार रूप विषय का उपभोग करने में जिस अनुकूलनात्मक आनन्द रूप सुख का अनुभव कराती हैं, वह अनुकूलनात्मक प्रवृत्ति ही ‘काम’ कही जाती है।’ काम की यह परिभाषा में धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग को पूर्णतया अपने में समाहित कर लेती है। किन्तु काम यह स्वरूप सार्वभौमिक है। सृष्टि की सभी अनुकूलनात्मक क्रियाएँ इसमें अन्तर्भुक्त हो जाती हैं। क्योंकि धर्म पालन में, अर्थ साधन में, पुत्रस्नेह में, विद्याध्ययन में, परोपकार में, प्रकृति रमणीयता के दर्शन इत्यादि में आत्मा को ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अनुकूलता की प्रतीति होने के कारण ये क्रियाएँ भी काम ही हैं। अतः कामसूत्रकार पुनः काम के लौकिक स्वरूप को परिभाषित करते हैं –
‘स्पर्शविशेष विषयात्त्वस्याभिमानिकसुखानुविद्धा फलवत्यर्थप्रतीतिः प्राधान्यात् कामः’ (कामसूत्र 1/2/12)।
यहाँ पर पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्श विशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिक रूपेण आनन्ददायक व्यवहार रूप फलवती अर्थप्रतीति को ‘कामविशेष’ कहा गया है। वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपस्थ रूप पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा क्रमशः वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग एवं आनन्द रूप कर्म सम्पन्न होते हैं। इनमें से स्त्री एवं पुरुष के अधोभाग में स्थित जननांग, जो स्वभावतः त्वगिन्द्रिय ही है; परस्पर संसर्गावस्था में अनिर्वचनीय आनन्द को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार दम्पत्ति को परस्पर संसर्गजन्य जिस विचित्र एवं अवर्णनीय आनन्द की प्राप्ति होती है, वही काम की फलवती अर्थप्रतीति है; क्योंकि सम्यग्रूपेण सम्पन्न होने वाले संसर्ग से ही सृष्टि प्रक्रिया का सातत्य भी अविच्छिन्न बना रहता है। इस फलवती अर्थप्रतीति को मानव किस प्रकार सम्पादित करे, जिससे उसकी सामाजिक मर्यादा भी सुरक्षित रहे एवं वह नैसर्गिक सुख-आनन्द का समुचित रूप से उपभोग करते हुए अपने गृहस्थ जीवन सुखी भी बना सके ? इसके लिए आचार्य वात्स्यायन कहते हैं कि काम विषयक ज्ञान को कामसूत्र एवं विदग्ध सम्भ्रान्त नागरिकों से प्राप्त किया जाना चाहिए। क्योंकि शास्त्र एवं श्रेष्ठ पुरुष ही सामान्य जनों को सुव्यवस्थित सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए सफल दाम्पत्यजीवन जीने की कला शिक्षा दे सकते हैं।
आचार्य मल्लनाग वात्स्यायन ने तत्कालीन सुखी समाज में सामाजिकों के यौनजीवन को सुव्यवस्थित एवं मर्यादित बनाए रखने के उद्देश्य से लुप्तप्राय कामसूत्र जैसे महनीय ग्रन्थ का पुनर्प्रणयन किया। कामसूत्र का प्रकरणानुसार औचित्यपूर्ण विवेचन प्रस्तुत है।
कामसूत्र:-
आचार्य वात्स्यायन ने बाभ्रव्य पांचाल कृत कामसूत्र एवं चाणक्य कृत अर्थशास्त्र को आधार बनाकर कामसूत्र को 1250 श्लोकों के प्रमाण में सात अधिकरणों, 36 अध्यायों एवं 64 प्रकरणों में विभक्त किया है। प्रथम अधिकरण का नाम साधारण अधिकरण है। इस अधिकरण के प्रत्येक अध्याय में एक-एक प्रकरण हैं, इस प्रकार इस अधिकरण में कुल पांच अध्याय एवं पांच प्रकरण हैं।
प्रथम अध्याय में शास्त्रसंग्रह नामक प्रकरण है। आचार्य वात्स्यायन इस प्रकरण के द्वारा ग्रन्थ का प्रारम्भ करते समय मंगलाचरण के रूप में धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग पुरुषार्थ को नमस्कार करते हैं; क्योंकि उन्होंने इस शास्त्र के माध्यम से धर्म एवं अर्थ के द्वारा अनुमोदित एवं अनुशासित काम के सेवन का उपदेश किया है। पुनः धर्म, अर्थ एवं काम संबन्धी ग्रन्थों का प्रणयन कर समाज की मनोवृत्तियों को नियमित एवं मर्यादित करने वाले उन-उन शास्त्रों के तत्त्वज्ञ आचार्यों का भी नमन किया है।
इस प्रकार मंगलाचरण करते हुए आचार्य वात्स्यायन कामशास्त्र की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए इसकी पूर्व की परम्परा का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि “सर्वप्रथम प्रजापति ब्रह्मा ने प्रजा की सृष्टि करने के उपरान्त प्रजा की सामाजिक स्थिति एवं मर्यादा का नियमन करने के उद्देश्य से धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग के साधनभूत एक लाख श्लोकों में कर्त्तव्य एवं अकर्त्तव्य का बोध कराने वाले मानव-संविधान-परक शास्त्र का प्रवचन किया। कालान्तर में प्रजापति ब्रह्मा द्वारा प्रवचित उस संविधानपरक शास्त्र के धर्मशास्त्र विषयक अंश को स्वायम्भुव मनु ने पृथक् रूप से मानव धर्मशास्त्र के रूप में संपादित कर स्वतंत्र स्वरूप दे दिया। इसी आधार पर आचार्य बृहस्पति ने उस संविधानपरक शास्त्र के अर्थशास्त्र विषयक अंश का सम्यक् अध्ययन करने के पश्चात् पृथक् रूप से बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र के रूप में संपादित कर स्वतंत्र स्वरूप दे दिया। इस परम्परा का अनुसरण करते हुए भगवान शिव के अनुगामी शिलादि ऋषि के पुत्र नन्दी या नन्दिकेश्वर ने उस संविधानपरक शास्त्र के कामशास्त्र विषयक अंश को पृथक् कर एक हजार अध्यायों में कामसूत्र के रूप में संपादित कर विशद् एवं स्वतंत्र स्वरूप दे दिया। चूँकि नन्दी द्वारा संपादित कामसूत्र अत्यन्त विशद् था, अतः गौतम गोत्रीय उद्दालक ऋषि के पुत्र महर्षि श्वेतकेतु ने उस कामसूत्र का पुनः संपादन कर पांच सौ अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। किन्तु बाद के समय में यह कामसूत्र भी जन सामान्य के लिए कठिन हो गया। अतः पांचाल देश के निवासी बभ्रु ऋषि के पुत्र बाभ्रव्य पांचाल ने श्वेतकेतु के पांच सौ अध्यायों वाले कामसूत्र को एक सौ पचास अध्यायों में संक्षिप्त कर ‘साधारण, साम्प्रयोगिक, कन्यासम्प्रयुक्तक, भार्याधिकारिक, पारदारिक, वैशिक एवं औपनिषदिक’ इन सात अधिकरणों में विभक्त कर दिया।
इनके बाद के समय में आचार्य दत्तक ने पाटलिपुत्र की गणिकाओं के अनुरोध पर कामसूत्र के छठवें अधिकरण वैशिक अधिकरण का आश्रय ग्रहण कर पृथक् रूप से दत्तकसूत्र नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया। जिस प्रकार आचार्य दत्तक ने वैशिक अधिकरण का स्वतंत्र रूप से प्रणयन किया, उसी प्रकार विषय-विशेष का व्यवस्थित एवं विस्तृत विवेचन करने के उद्देश्य से आचार्य चारायण ने साधारण अधिकरण, आचार्य सुवर्णनाभ ने साम्प्रयोगिक अधिकरण, आचार्य घोटकमुख ने कन्यासम्प्रयुक्तक अधिकरण, आचार्य गोनर्दीय ने भार्याधिकारिक अधिकरण, आचार्य गोणिकापुत्र ने पारदारिक अधिकरण, एवं आचार्य कुचुमार ने औपनिषदिक अधिकरण का स्वतंत्र रूप से विस्तृत विवेचन किया। किन्तु भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा बाभ्रव्य पांचाल विरचित कामसूत्र के अधिकरणों को भिन्न-भिन्न खण्डों में लिखे जाने के वह महाग्रन्थ बिखर सा गया।
चूंकि दत्तक आदि आचार्यों ने पृथक्-पृथक् अधिकरणों का आश्रय ग्रहण कर अपने-अपने ग्रन्थों की रचना की थी, अतः ये ग्रन्थ कामसूत्र के अंशमात्र होने के कारण उसके प्रयोजन को पूरा करने में असमर्थ थे। फिर आचार्य बाभ्रव्य द्वारा रचित कामसूत्र विशाल होने के कारण तत्कालीन जन-सामान्य के लिए कठिन हो गया था। इन सभी परिस्थितियों पर भलीभॉति विचार करके आचार्य वात्स्यायन ने बाभ्रव्य विरचित कामसूत्र को समसामयिक जनसमुदाय की बुद्धि के अनुकूल सरलता पूर्वक समझे जाने योग्य पूर्ण एवं संक्षिप्त इस कामसूत्र की रचना की। वात्स्यायन द्वारा रचित इस कामसूत्र के प्रकरण, अध्याय, अधिकरण आदि इस प्रकार हैं।
इसके प्रथम अधिकरण का नाम साधारण अधिकरण है, इसमें पांच अध्याय एवं पांच ही प्रकरण हैं। द्वितीय अधिकरण का नाम साम्प्रयोगिक अधिकरण है, इसमें दश अध्याय एवं सत्रह प्रकरण हैं। तृतीय अधिकरण का नाम कन्यासम्प्रयुक्तक अधिकरण है, इसमें पांच अध्याय एवं नौ प्रकरण हैं। चतुर्थ अधिकरण का नाम भार्याधिकारिक अधिकरण है, इसमें दो अध्याय एवं आठ प्रकरण हैं। पंचम अधिकरण का नाम पारदारिक अधिकरण है, इसमें छः अध्याय एवं दश प्रकरण हैं। षष्ठ अधिकरण का नाम वैशिक अधिकरण है, इसमें छः अध्याय एवं बारह प्रकरण हैं। सप्तम अधिकरण का नाम औपनिषदिक अधिकरण है, इसमें दो अध्याय एवं छः प्रकरण हैं। इस प्रकार एक हजार दो सौ पचास श्लोक के परिणाम वाले इस ‘कामसूत्र’ में कुल छब्बीस अध्याय, चौंसठ प्रकरण एवं सात अधिकरण हैं।
द्वितीय अध्याय में त्रिवर्गप्रतिपत्ति नामक प्रकरण है। भारतीय विचारधारा के अनुसार शास्त्र का परिणाम है त्रिवर्ग की प्रतिपत्ति अर्थात् धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग की प्राप्ति। शास्त्र के लिए त्रिवर्ग की प्राप्ति के साधन क्या हैं, उसके उपाय की खोज करना आवश्यक है। अतः शास्त्रसंग्रह के पश्चात् आचार्य वात्स्यायन इस प्रकरण को प्रस्तुत करते हैं। त्रिवर्ग की प्रतिपत्ति के तीन भेद हैं - अनुष्ठान, अवबोध एवं संप्रतिपत्ति। इनमें से त्रिवर्ग की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले उपाय को अनुष्ठान कहा जाता है, धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझने की प्रक्रिया को अवबोध कहते हैं तथा त्रिवर्ग पर अधिकार कर लेने को संप्रतिपत्ति कहा गया है। इन तीनों में अनुष्ठान का ही प्रामुख्य होता है। अतएव आचार्य वात्स्यायन सबसे पहले अनुष्ठान पर विचार करते हुए कहते हैं कि ”शतंजीवी मानव को चाहिए कि वह अपने जीवन को आश्रमों में विभाजित कर धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग का इस प्रकार सेवन करे कि वे तीनों एक-दूसरे से परस्पर संबद्ध भी रहें एवं परस्पर अनिष्टकारी भी न हों।“ अपने इस कथन के द्वारा आचार्य वात्स्यायन ने भारतीय मनीषा की चिन्तन प्रणाली का सार ही यहॉं प्रस्तुत कर दिया है। भारतीय जीवन-पद्धति में मानव की आयु सौ वर्ष की मानी गयी है। शतवर्षीय जीवन की कामना लिए वैदिक ऋषि पूर्व दिशा में उदित भगवान सूर्य से प्रार्थना करता हुआ कहता है – ‘पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शतं, शृणुयाम शरदः शतं, प्रब्ब्रवाम शरदः शतं, अदीनाः स्याम शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात्’। इसलिए कल्याणमय जीवनयापन की कामना करने वाले मानव को चाहिए कि वह अपने जीवन को विभिन्न आश्रमों में विभाजित कर अन्योन्यानुबद्ध एवं परस्पर अनुपघातक त्रिवर्ग का सेवन करे। यहॉं अन्योन्यानुबद्ध एवं अनुपघातक शब्द का आशय है कि त्रिवर्ग के उपभोग में धर्म, अर्थ एवं काम में से किसी एक पुरुषार्थ की ही प्रधानता होगी किन्तु अन्य पुरुषार्थ भी गौण रूप से सम्मिलित हों और उनमें किसी भी प्रकार का विरोध हो ही नहीं। यदि जीवन में धर्म की प्रधानता हो तो अर्थ एवं काम सहायक हों, विरोधी नहीं; अर्थ की प्रधानता हो तो धर्म एवं काम सहायक हों, विरोधी नहीं तथा काम की प्रधानता हो तो धर्म एवं अर्थ सहायक हों, विरोधी नहीं।
आचार्य वात्स्यायन सौ वर्ष की अवस्था का क्रमानुसार विभाजन करते हुए कहते हैं कि ‘बाल्यावस्था में विद्योपार्जन आदि बाल्यकाल के अनुकूल कार्यों का सेवन किया जाना चाहिए।’ अवस्था के विभाजन पर शास्त्रों में कहा गया है कि - ‘आ षोडषात् भवेद् बालो यावत् क्षीरान्नवर्तनः। मध्यमः सप्ततिं यावत् परतो वृद्ध उच्यते।।’ अर्थात् सोलह वर्ष की अवस्था तक मानव बालक कहा जाता है, सत्तर वर्ष की अवस्था तक मध्यम तथा इसके बाद वृद्ध कहा जाता है। इस प्रकार मानव को अपने बाल्यकाल में विद्या की साधना करते हुए शारीरिक एवं मानसिक विकास, लोक-व्यवहार आदि का परिज्ञान कर लेना चाहिए; क्योंकि जीवन के मध्यमकाल को सुखी एवं मर्यादित बनाने में बाल्यकाल का ही योगदान महत्त्वपूर्ण होता है। बाल्यकाल के बाद की अवस्था अर्थात् यौवनकाल में काम का सेवन किया जाना चाहिए तथा वृद्धावस्था में धर्म एवं मोक्ष का सेवन किया जाना चाहिए। चूंकि जीवन अनित्य है अतः त्रिवर्ग का सेवन समय एवं आवश्यकतानुसार कभी भी किया जा सकता है। क्योंकि मानव की कामना सौ वर्ष की आयु प्राप्त करने की अवश्य है किन्तु मृत्यु पर उसका नियन्त्रण किसी भी रूप में नहीं है। अतः जीवनकाल नियत अवस्था वाला नहीं होने के कारण जिस समय जो भी सम्भव हो, सामाजिक मर्यादा एवं लोकाचार का अनुसरण करते हुए त्रिवर्ग का इच्छानुसार सेवन कर लेना चाहिए। हॉ ! त्रिवर्ग के सेवन में परस्पर संबद्धता एवं इष्टकारी भाव का होना आवश्यक है। इस प्रकार मानव का बाल्यकाल में ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हुए जीवन को सार्थक एवं उपयोगी बनाने के लिए विविध प्रकार की आध्यात्मिक एवं लोकोपकारक विद्याओं का उपार्जन करना आवश्यक एवं अनिवार्य है। विद्योपार्जन के पश्चात् ब्रह्मचारी अर्थोपार्जन में प्रवृत्त होते हुए उपयुक्त कन्या के साथ धार्मिक विधि से विवाह कर उसके उद्देश्य की पूर्ति करता था। शास्त्रों में विवाह के तीन उद्देश्य माने गए हैं - यज्ञादि समस्त धार्मिक कर्मों का सम्पादन करना, कामोपभोग के द्वारा शरीर को जैविक अनुकूलता प्रदान करना तथा संतानोत्पत्ति कर सृष्टि का सातत्य बनाते हुए पितृ ऋण से मुक्ति प्राप्त करना।
त्रिवर्ग का उपाय बता देने मात्र से ही उसका अनुष्ठान संभव नहीं है। अतः आचार्य वात्स्यायन धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझने की प्रक्रिया अवबोध पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए सर्वप्रथम लोक की व्यवस्था का नियमन करने वाले धर्म के स्वरूप का विवेचन करते हुए कहते हैं कि ‘अलौकिक एवं परोक्ष फल देने वाले यज्ञ आदि कृत्यों में शीघ्र प्रवृत्त न होने वाले मानव का शास्त्र के आदेश से प्रवृत्त होना तथा लोक में प्रत्यक्ष फल से युक्त होने के कारण मांसादि अभक्ष्य भक्षण रूप कार्यों में प्रवृत्त मनुष्य का शास्त्र के आदेश से निवृत्त होना ही ”धर्म“ है। क्योंकि विद्वानों के लिए वेदादि शास्त्र प्रमाण हैं तथा जन-सामान्य के लिए धर्मज्ञ विद्वान्। जीवन में धर्माचरण की आवश्यकता पर अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए कामसूत्रकार कहते हैं कि - चूंकि धर्म का व्यवस्थित रूप से नियमन करने वाले वेदादि शास्त्र ईश्वरप्रोक्त एवं मंत्रद्रष्टा ऋषियों द्वारा दृष्ट हैं, अतएव उनके वचनों पर किसी भी प्रकार से सन्देह नहीं किया जा सकता है। उन शास्त्रों के द्वारा प्रवर्तित शान्ति-पुष्टिधायक कर्मो एवं अभिचार कर्मों के फलों का अनुभव भी इसी लोक में होता है। नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, तारागण एवं ग्रहादि की प्रवृत्ति भी लोकहित के लिए ही धर्मवाद सम्मत है। वर्ण एवं आश्रम व्यवस्था तथा उनके पालन में किए जाने वाले आचार-विचार परक सभी प्रकार के कर्मों का प्रतिपादन धर्म में ही किया गया है। इसलिए जिस प्रकार जीवनयापन के लिए हाथ में आए हुए बीज को भविष्य में उत्पन्न होने वाले अन्न की आशा से खेत में त्याग देना मूर्खता नहीं है, उसी प्रकार आध्यात्मिक एवं सामाजिक उन्नति की आशा करते हुए धर्म का आचरण अवश्य ही किया जाना चाहिए। इस प्रकार प्रवृत्ति एवं निवृत्ति स्वरूप धर्म का निर्देश करते हुए कामसूत्रकार धर्म की शिक्षा वेदादि शास्त्रों एवं धर्म के तत्त्व को आत्मसात करने वाले धर्मज्ञ पुरुषों से ग्रहण करने का परामर्श देते हैं। यहॉं आचार्य वात्स्यायन वेद-शास्त्रादि द्वारा प्रतिपादित वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुकूल धर्माचरण की आवश्यकता का तर्कपूर्ण ढंग से समर्थन करते हैं। उनकी दृष्टि में धर्ममय-जीवन मानव की अपरिहार्य आवश्यकता है।
इसके पश्चात् अर्थ पर विचार प्रस्तुत करते हैं। क्योंकि ‘अर्थ’ मानव के आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक उन्नति में उपयोग के आधार पर परम सहायक है। आचार्य वात्स्यायन इसे परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ‘विद्या, भूमि, हिरण्य, पशु, धान्य, बर्तन आदि गृहोपयोगी वस्तु, वस्त्राभूषण एवं सन्मित्र आदि को धर्मपूर्वक प्राप्त करना तथा प्राप्त हुए ऐश्वर्य की वृद्धि करना ही ”अर्थ“ है। चूंकि अर्थोपार्जन चारों वर्णों के लिए आवश्यक है, अतएव अर्थशास्त्र के अर्थविधिक अधिकरण अध्यक्षप्रचार तथा कृषि, व्यापारी आदि अर्थतत्त्वज्ञों का आश्रय ग्रहण करते हुए आर्थिक शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार धर्म से बुद्धि सम्बन्धित है उसी प्रकार जीवनयापन हेतु करणीय समस्त व्यापार अर्थ से सम्बन्धित है। पुनः कर्म के प्राधान्य पर अपना अभिमत देते हुए कहते हैं कि सम्पूर्ण कार्यप्रवृत्तियाँ पुरुषार्थ-पराक्रम से ही सम्पन्न होती हैं, अतः अर्थसाधन के उपाय का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि अवश्यंभावी कार्यों की सिद्धि भी बिना उपाय अथवा पराक्रम के नहीं होती है एवं अकर्मण्य पुरुष का कभी कल्याण नहीं होता है। इस प्रकार आचार्य वात्स्यायन की दृष्टि में मानव को अपना जीवन स्तर व्यवस्थित रखने के लिए धर्म पूर्वक अर्थोपार्जन के लिए प्रयत्नशील एवं उद्योगी होना चाहिए। उसे जीवन में आने वाले संकटों एवं संघर्षों को सहन करने की शक्ति विकसित करनी चाहिए।
धर्म एवं अर्थ का निरूपण करने के पश्चात् काम के स्वरूप पर विचार प्रस्तुत करते हैं। यह काम रूप पुरुषार्थ ही ब्रह्म के हृदय में ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ रूपी कामना-विशेष के रूप में उत्पन्न होकर सृष्टि प्रक्रिया का सातत्य बनाये हुए है। आचार्य वात्स्यायन सृष्टि के अनुकूलनात्मक कार्य-व्यापार को काम का ही परिणाम मानते हुए कहते हैं कि श्रोत, त्वक्, चक्षु, जिह्वा, घ्राण रूप पंच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से आत्मा को मन-बुद्धि के द्वारा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द रूपी सांसारिक कार्य-व्यापार रूप विषय का उपभोग करने में जिस अनुकूलता अर्थात् सुख का अनुभव होता है, वह प्रवृत्ति ही काम है। किन्तु काम यह स्वरूप सार्वभौमिक है। सृष्टि की सभी अनुकूलनात्मक क्रियाएँ इसमें अन्तर्भुक्त हो जाती हैं। क्योंकि धर्म पालन में, अर्थ साधन में, पुत्रस्नेह में, विद्याध्ययन में, परोपकार में, प्रकृति की रमणीयता के दर्शन इत्यादि में आत्मा को ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अनुकूलता की प्रतीति होने के कारण ये क्रियाएँ भी काम ही हैं। अतएव कामसूत्रकार पुनः काम के लौकिक स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि यहाँ पर पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्श विशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिक रूपेण आनन्ददायक व्यवहार रूप फलवती अर्थप्रतीति को ‘कामविशेष’ कहा गया है। वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपस्थ रूप पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा क्रमशः वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग एवं आनन्द रूप कर्म सम्पन्न होते हैं। इनमें से स्त्री एवं पुरुष के अधोभाग में स्थित जननांग, जो स्वभावतः त्वगिन्द्रिय ही है; परस्पर संसर्गावस्था में अवर्णनीय आनन्द को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार स्त्री एवं पुरुष को परस्पर संसर्गजन्य जिस विचित्र एवं अवर्णनीय आनन्द की प्राप्ति होती है, वही काम की फलवती अर्थप्रतीति है; क्योंकि सम्यग्रूपेण सम्पन्न होने वाले संसर्ग से ही सृष्टि प्रक्रिया का सातत्य भी अविच्छिन्न बना रहता है। इस फलवती अर्थप्रतीति को मानव किस प्रकार सम्पादित करे, जिससे उसकी सामाजिक मर्यादा भी सुरक्षित रहे एवं वह नैसर्गिक सुख-आनन्द का समुचित रूप से उपभोग करते हुए अपने गृहस्थ जीवन को सुखी भी बना सके ? इसके लिए आचार्य वात्स्यायन काम विषयक ज्ञान को कामसूत्र एवं विदग्ध सम्भ्रान्त नागरिकों से प्राप्त करने का परामर्श देते हैं। इस प्रकार कामसूत्र के अध्ययन से तथा कामशास्त्र के ज्ञाता नागरिकों के संसर्ग से काम की फलवती अर्थसिद्धि हेतु ज्ञान प्राप्त करके लोकजीवन की जैविक आवश्यकताओं की सम्यक्तया पूर्ति करनी चाहिए, जिससे सामाजिक अपवाद न हो एवं धार्मिक अनुकूलता भी बनी रहे।
ध्यातव्य है कि आचार्य वात्स्यायन का उद्देश्य सृष्टि में सर्वाधिक दुर्धर्ष प्रभाव रखने वाले ‘काम’ का व्यवस्थित विवेचन है। अतः इसके स्वरूप को स्पष्ट करने के साथ ही काम के सहायक ‘अर्थ’ एवं नियन्त्रक ‘धर्म’ के स्वरूप को भी स्पष्ट करते हैं तथा अन्त में काम की अपेक्षा अर्थ एवं अर्थ की अपेक्षा धर्म के श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन भी करते हैं - एषां समवाये पूर्वः पूर्वो गरीयान् ।। किन्तु यह सभी के लिए प्रमाण नहीं है। कारण कि राजा के लिए धर्म एवं काम की अपेक्षा अर्थ अधिक श्रेयस्कर है, क्योंकि सामाजिक वर्णाश्रम मर्यादा का सुव्यवस्थित परिपालन राजा का कर्त्तव्य है, उसके लिए प्रभुशक्ति की आवश्यकता होती है और प्रभुत्व कोश, दण्ड एवं बल पर ही निर्भर है और ये सभी अर्थशक्ति पर निर्भर हैं; अतएव शासक वर्ग के लिए अर्थ अधिक श्रेयस्कर है। इसी प्रकार वेश्या की जीविका भी अर्थशक्ति पर ही निर्भर है। यही कारण है कि वह धर्म की दृष्टि से कामातुर ब्राह्मण एवं प्रेम की दृष्टि अपने प्रियतम नागरिक को छोड़कर धन की दृष्टि से समर्थ व्यक्ति के साथ अपने रागात्मक संबन्ध स्थापित करती है। क्योंकि उसके लिए धनप्राप्ति महत्त्वपूर्ण है, न कि रागात्मक संबन्ध की भावनात्मकता एवं सार्थकता। पुनः कामसूत्रकार फलवती अर्थप्रतीति रूप काम का विवेचन करने वाले शास्त्र की आवश्यकता को बताते हुए कहते हैं कि ‘धर्म’ अलौकिक है, अतः उसका सम्यक परिज्ञान कराने वाले शास्त्र का होना युक्तिसंगत भी है एवं आवश्यक भी। ‘अर्थ’ की सिद्धि भी उपाय से ही होती है, अतएव अर्थसिद्धि के उपायों को बतलाने वाले तद्विषयक शास्त्र अर्थशास्त्र की भी आवश्यकता है। अब रही ‘काम’ एवं तद्विषयक शास्त्र की बात। तो धर्म के व्यापक स्वरूप को न समझने वाले व्यक्ति प्रायः कामशास्त्र की उपयोगिता नहीं मानते हैं, मोक्षमार्गी इसे अनैतिक एवं अश्लील मानते हुए त्याज्य समझते हैं तथा नीतिज्ञ काम को स्वभावसिद्ध मानकर मानव एवं पशु को एक समान कोटि में खड़ा कर देते हैं।
वस्तुतः ‘काम’ न तो अनैतिक है और न ही अश्लील एवं त्याज्य। काम को स्वभावसिद्ध मानकर मानव एवं पशु को एक समान स्वीकार करना भी युक्तिसंगत नहीं है। इसीलिए कामसूत्रकार कहते हैं कि मानवेतर जीवों में भी काम की स्वतः प्रवृत्ति पायी जाती है तथा यह नित्य एवं अविनाशी है, क्योंकि आत्मा रूपी पदार्थ में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि गुण सदैव विद्यमान रहते हैं। अतः प्राणियों को संसर्गसुख की प्राप्ति हेतु उनकी स्वाभाविक इच्छा ही पर्याप्त होती है क्योंकि पशु-पक्षियों में स्त्री जाति स्वतंत्र, बन्धनरहित एवं आवरणरहित होती है, ऋतुकाल में ही उनकी सोद्देश्य पूर्ति हो जाती है और यह प्रवृत्ति बुद्धिपूर्वक नहीं होती है। अतः उनका यह सहजधर्म किसी प्रकार के शास्त्ररूपी उपाय की आवश्यकता नहीं रखता है। किन्तु मानव के साथ ऐसी बात नहीं है। क्योंकि परस्पर संसर्ग में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के अधीन होते हैं, अतः उन्हें अपनी जैविक इच्छा की पूर्ति एवं पारस्परिक पराधीनता से बचने के लिए शास्त्र रूपी उपाय की आवश्यकता होती है तथा ऐसे सभी प्रकार के उपाय, जो दाम्पत्य-जीवन को सफल बनाने में सहायक होते हैं; का ज्ञान कामसूत्र का भलीभॉति अध्ययन करने से ही संभव है, क्योंकि शारीरिक स्थिति को व्यवस्थित बनाने में सहयोगी होने के कारण ‘काम’ भी आहार के ही समान है एवं धर्म-अर्थ फल भी। यह आचार्य वात्स्यायन की स्पष्ट धारणा है। चूंकि सभी प्रकार की प्रवृत्तियॉ पुरुषार्थ से ही सम्पन्न होती हैं, अतः उसके उपाय को जानना आवश्यक है। ‘काम’ को यदि त्याज्य मान लिया जाएगा तो धर्म और अर्थ पूर्णतः निष्प्रयोज्य हो जाएंगे। इस अध्याय की समाप्ति करते हुए आचार्य वात्स्यायन प्राचीन विचारकों का मत व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जिस कार्य को करने में यह आशंका न हो कि परलोक में क्या होगा तथा जो कार्य सुख का नाश न करे; बुद्धिमान पुरुष ऐसे ही कार्य को करते हैं। अतः जो कार्य त्रिवर्ग का साधक हो या दो-एक का भी साधक हो उसे ही करना चाहिए किन्तु जो धर्म, अर्थ या काम केवल अपना ही साधक हो एवं शेष का विघातक हो उसे नहीं करना चाहिए। इस प्रकार परस्पर साधक ‘धर्म, अर्थ एवं काम की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील मानव इस लोक में तथा परलोक में भी निष्कंटक आत्यंतिक सुख प्राप्त करता है।’
क्रान्तदर्शी ऋषियों ने मानव-जीवन में उत्कृष्टत्व की कामना से धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप चतुर्विध पुरुषार्थों के रूप में अपने दार्शनिक विचारों को नियोजित एवं विवेचित करते हुए सुख के दो आधार स्वीकार किए - लौकिक एवं आध्यात्मिक। लौकिक सुख में सांसारिक आकर्षण एवं ऐश्वर्य का प्राधान्य होता है, जबकि आध्यात्मिक सुख में त्याग, आत्मसंतुष्टि एवं तप का प्राधान्य होता है। ये दोनों सुख के आधार पुरुषार्थ में ही अन्तर्निहित हैं, जो लौकिक एवं पारलौकिक भेद से द्विधा विभक्त हैं:-
(1) लौकिक पुरुषार्थ:- धर्म, अर्थ एवं काम; जो लोक में त्रिवर्ग के नाम से भी जाने जाते हैं, लौकिक पुरुषार्थ के अन्तर्गत आते हैं।
(2) पारलौकिक पुरुषार्थ:- मोक्ष पारलौकिक पुरुषार्थ के रूप में गृहीत है।
मोक्षरूप पारलौकिक पुरुषार्थ की प्राप्ति अन्योन्याश्रित त्रिवर्ग के परस्पर अविरोधी भाव से सेवन के द्वारा ही हो सकती है। जब तक मानव धर्म, अर्थ एवं काम का सम्यग्रूपेण निर्वाह करते हुए विधि द्वारा निर्दिष्ट अपने सामाजिक दायित्वों को सुव्यवस्थित रूप से संपादित नहीं करता है, तब तक वह कथमपि मोक्षप्राप्ति का अधिकारी नहीं हो सकता है। क्योंकि जब तक हृदय की वासनाएं शान्त नहीं होंगी तब तक मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। मोक्षप्राप्ति हेतु आवश्यक है कि मानव विद्याग्रहण करने के उपरान्त अपनी पारिवारिक परम्परा एवं धर्मानुसार अर्थोपार्जन करते हुए शास्त्रोचित मर्यादा के पालन पूर्वक गृहस्थ जीवन के आधारभूत ‘काम’ का सुव्यवस्थित रूप से आचरण करते हुए अपने हृदय में निहित सांसारिक वासनाओं को शमित करे। इन त्रिविध लौकिक पुरुषार्थों में से सर्वाधिक कठिन है ‘काम’ रूपी पुरुषार्थ की सिद्धि।
‘काम’ सृष्ट्युत्पत्ति का मूलाधार है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति परब्रह्म के हृदय से हुयी है। यह जीवन का अनिवार्य अंग है; प्राणी की सद्गति एवं दुर्गति का सहज कारण भी यही है। क्योंकि इस संसार में कोई भी प्राणी बिना ‘कामभावना’ के किसी भी कार्य को करने में सक्षम नहीं हो सकता है। ‘काम’ इस प्राणिजगत की अनिवार्य एवं अपरिहार्य आवश्यकता है। इसे किसी भी रूप में अनदेखा नहीं किया जा सकता है। क्योंकि ‘काम’ पंचज्ञानेन्द्रियों के द्वारा मन माध्यम से तत्तत् विषयों में आत्मा को होने वाली अनुकूलनात्मक अनुभूति का परिणाम है। यही ‘काम’ पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्श विशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिक रूपेण आनन्ददायक व्यवहार रूप फलवती अर्थप्रतीति के रूप में प्रवृत्त होकर ‘कामविशेष’ कहा गया है। इस फलवती अर्थप्रतीति को समुचित रूप से सम्पादित करने के लिए, जिससे सामाजिक मर्यादा भी सुरक्षित रहे एवं नैसर्गिक सुख-आनन्द का समुचित रूप से उपभोग भी हो सके; तद्विषयक शास्त्र का अध्ययन आवश्यक है।
चूँकि यहां ‘काम’ पुरुषार्थ विषयक चर्चा हो रही है, अतः काम विषयक ज्ञान को कामसूत्र एवं विदग्ध सम्भ्रान्त नागरिकों से प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि शास्त्र एवं शास्त्रज्ञजन ही सामान्य जनों को सुव्यवस्थित सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए सफल दाम्पत्य-जीवन व्यतीत करने का विधान बता सकते हैं। किन्तु ‘काम’ एवं तद्विषयक शास्त्र के विषय में अनेक विप्रतिपत्तियाँ भी हैं। धर्म के व्यापक स्वरूप को न समझने वाले व्यक्ति प्रायः कामशास्त्र की उपयोगिता नहीं मानते हैं, अपने को मोक्षमार्गी मानने वाले लोग इसे अनैतिक एवं अश्लील मानते हुए त्याज्य समझते हैं तथा नीतिज्ञ काम को स्वभावसिद्ध मानकर मानव एवं पशु को एक समान कोटि में खड़ा कर देते हैं। इस पर विचार करना आवश्यक भी है।
वस्तुतः काम न तो अनैतिक है और न ही अश्लील एवं त्याज्य। काम को स्वभावसिद्ध मानकर मानव एवं पशु को एक समान स्वीकार करना भी युक्तिसंगत नहीं है। कामसूत्रकार का कथन भी है कि मानवेतर जीवों में भी काम की स्वतः प्रवृत्ति पायी जाती है तथा यह नित्य-अविनाशी है, क्योंकि आत्मा रूपी पदार्थ में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि गुण सदैव विद्यमान रहते हैं। अतः मानवेतर प्राणियों को संसर्गसुख की प्राप्ति हेतु उनकी स्वाभाविक इच्छा ही पर्याप्त होती है, क्योंकि उनमें स्त्री जाति स्वतंत्र, बन्धनरहित एवं आवरणरहित होती है, ऋतुकाल में ही उनकी सोद्देश्य पूर्ति हो जाती है और यह प्रवृत्ति बुद्धिपूर्वक नहीं होती है। अतः उनका यह सहजधर्म किसी प्रकार के शास्त्ररूपी उपाय की आवश्यकता नहीं रखता है। किन्तु मानव के साथ ऐसी बात नहीं है। क्योंकि परस्पर संसर्ग में स्त्री-पुरुष परस्पर अधीन होते हैं, अतः उन्हें अपनी जैविक इच्छा की पूर्ति एवं पारस्परिक पराधीनता से बचने के लिए शास्त्र रूपी उपाय की आवश्यकता होती है। अत: ऐसे सभी प्रकार के उपाय, जो दाम्पत्य-जीवन को सफल बनाने में सहायक होते हैं; का ज्ञान कामसूत्र का भलीभॉति अध्ययन करने से ही संभव है। कामसूत्रकार का कथन भी यही है- ‘शरीरस्थितिहेतुत्वात् आहार सधर्माणो कि कामः। फलभूताश्च धर्मार्थयोः। (कामसूत्र 1/2/37)’ अर्थात् शारीरिक स्थिति को व्यवस्थित बनाने में सहयोगी होने के कारण ‘काम’ भी आहार के ही समान है एवं धर्म-अर्थ फलभूत भी यही है। यही आचार्य वात्स्यायन की स्पष्ट धारणा है। चूँकि सभी प्रकार की प्रवृत्तियॉ पुरुषार्थ से ही सम्पन्न होती हैं, अतः उसके उपाय को जानना आवश्यक है। यदि ‘काम’ को त्याज्य मान लिया जाएगा तो धर्म और अर्थ पूर्णतः निष्प्रयोज्य हो जाएंगे।
अतएव निर्विवादरूपेण कहा जा सकता है कि मनुष्य समाज की अनुकूलता के अनुसार अपने सम्पूर्ण कामसुखों की प्राप्ति संयम एवं मर्यादा का पालन करने के अनन्तर ही कर सकता है; जिसकी शिक्षा उसे कामसूत्र के अध्ययन से ही प्राप्त हो सकती है। क्योंकि जो व्यक्ति कामशास्त्र के तत्व को भलीभाँति जानता है, वह निश्चित रूपेण धर्म, अर्थ एवं काम में परस्पर सामंजस्य स्थापित करते हुए जितेन्द्रिय भाव से सफल दाम्पत्य जीवन व्यतीत करते हुए अपने लोक-व्यवहार की सुव्यवस्थित रूप से रक्षा कर सकता है। कामसूत्रकार ने कहा भी है -
रक्षन्धर्मार्थकामानां स्थितिं स्वां लोकवर्तिनीम्।
अस्य शास्त्रस्य तत्वज्ञो भवत्येव जितेन्द्रियः।। (कामसूत्र 7/2/58)
यदि संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा विषयक मेरा यह प्रयास सुधीजनों को आत्मिक संतोष प्रदान करते हुए कामशास्त्र एवं कामसूत्र के संबन्ध में प्रचलित भ्रान्त धारणाओं को निर्मूल करने में सहायक हो सके, यही इस परिश्रम का प्रतिफल एवं कार्य की सफलता होगी।
पुनश्च यदि मेरे इस प्रयास में उल्लिखित किसी पंक्ति अथवा टिप्पणी से किसी को असुविधा हो,तो मार्गदर्शन की अपेक्षा भी है। कालिदास ने कहा भी है - ‘आपरितोषाद् विदुषां न साधु’।
महाकाल की अविरल धारा में निरन्तर प्रवहमान विश्ववारा वाक्स्वरूपा भगवती भारती अपनी परा-पश्यन्ती-मध्यमा-वैखरी रूपी शक्तियों के द्वारा भारतीय मनीषा की चिन्तनशक्ति को प्रतिबोधित कर संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान की समष्टि को अवधारित करते हुए विश्वमनीषा को उद्बोधित करने वाले संस्कृत वाङ्मय के विशाल कलेवर में श्रीवृद्धि करने वाली आर्यमनीषा के चिन्तक क्रान्तदर्शी ऋषियों ने ज्ञान-विज्ञान के प्रत्येक पक्ष पर अपने चिन्तन को लोक कल्याणार्थ प्रस्तुत किया है। मानव-जीवन को अनुशासित करने उद्देश्य से प्रजापति ब्रह्मा ने एक आचार संहिता का निर्माण किया, जिसे कालान्तर में ऋषियों ने त्रिवर्गरूप पुरुषार्थ के अनुसार पृथक्शास्त्र के रूप में प्रवचित किया। कालान्तर में उस आचार संहिता के धर्मशास्त्रीय भाग को स्वायम्भुव मनु ने, अर्थशास्त्रीय भाग को आचार्य बृहस्पति ने तथा कामशास्त्रीय भाग को आचार्य नंदिकेश्वर ने पृथक्पृथक् प्रवचित किया।
कामशास्त्र के प्रतिष्ठापक आचार्य मल्लनाग वात्स्यायन कामसूत्र के मंगलाचरण परक अपने प्रथम सूत्र ”धर्मार्थकामेभ्यो नमः“(कामसूत्र 1/1/1) के द्वारा किसी देवी-देवता की वन्दना न कर ग्रन्थ-प्रतिपाद्य धर्म, अर्थ एवं काम रूप त्रिवर्ग की वन्दना करते हैं। कारण ? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र; ये चतुर्वर्ण तथा ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास; ये चार आश्रम हैं। इनमें स्थित प्रायः सभी प्राणी मोक्ष की कामना नहीं करते हैं; क्योंकि धर्म, अर्थ एवं काम रूप त्रिवर्ग में जो प्राणी पूर्णता प्राप्त कर लेता है वह स्वतः ही मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। अतः त्रिवर्ग ही लोक का परम पुरुषार्थ है। आचार्य वात्स्यायन इसका उद्घोष ”प्रजापतिर्हि प्रजाः सृष्ट्वा तासां स्थितिनिबन्धनं त्रिवर्गस्य“ (काम01/1/5) कहकर करते हैं; जिसका अनुमोदन छान्दोग्योपनिषद् (2/23/2), महाभारत (59/29-30), मत्स्यपुराण (54/3-4) आदि आकर ग्रन्थ भी करते हैं।
त्रिवर्ग एवं मोक्ष; यह चतुर्वर्ग ही भारतीय सभ्यता एवँ संस्कृति की आधारभित्ति है। मानव मात्र की समस्त आकांक्षाएं-अभिलाषाएं इन्हीं में सन्निहित हैं। इन कामनाओं की परितुष्टि हेतु मानव में शरीर, बुद्धि, मन एवं आत्मा; ये चार अंग हैं; जो कि अनन्त कामनाओं एवं आवश्यकताओं के केन्द्र में स्थित हैं। इनमें बुद्धि के लिए धर्म की, शरीर-पोषण के लिए अर्थ की, मनस्तुष्टि के लिए काम की तथा आत्मसंतुष्टि के लिए मोक्ष की आवश्यकता पड़ती है। ये आवश्यकताएँ अनिवार्य एवं अपरिहार्य हैं।
इस प्रकार जीवन-निर्वहन की आकांक्षा ‘अर्थ’ में; स्त्रीपुत्रादि की ‘काम’ में; यश, ज्ञान, न्याय आदि की ‘धर्म’ में एवँ पारलौकिक अभ्युदय की कामना ‘मोक्ष’ में समाविष्ट रहती है। परन्तु इस चतुर्वर्ग में मानवमात्र ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र पर यदि किसी का दुर्धर्ष प्रभाव है तो केवल ”काम“ का ही है। अब प्रश्न यह उठता है कि प्राणिमात्र को अभिभूत करने वाला दुर्धर्ष ‘काम’ क्या है? इसके समाधान में आचार्य वात्स्यायन-'श्रोतत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणानां आत्मसंयुक्तेन मनसाधिष्ठितानां स्वेषु स्वेषु विषयेष्वानुकूल्यतः प्रवृत्तिः कामः।।' (कामसूत्र 1/2/11) कह कर पंच ज्ञानेन्द्रियों की अपने-अपने विषयों में मनसाधिष्ठित आत्मसंयुक्त प्रवृत्ति को ही ‘काम’ स्वीकार करते हैं। इस प्रकार श्रोत, त्वक्, चक्षु, जिह्वा, घ्राण रूप पंच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से आत्मा को मन-बुद्धि के द्वारा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द रूपी सांसारिक कार्य-व्यापार रूप विषय का उपभोग करने में जिस अनुकूलता अर्थात् सुख का अनुभव होता है, वह प्रवृत्ति ही ‘काम’ है। किन्तु काम का यह स्वरूप सार्वभौमिक है। सृष्टि की सभी अनुकूलनात्मक क्रियाएं इसमें अन्तर्भुक्त हो जाती हैं। क्योंकि धर्मपालन में, अर्थसाधन में, स्त्रीपुत्रादि स्नेह में, विद्याध्ययन में, परोपकार में, प्रकृति की रमणीयता के दर्शन इत्यादि में आत्मा को ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अनुकूलता की प्रतीति होने के कारण ये क्रियाएं भी काम का ही परिणाम हैं। यह विशेष काम व्यावहारिक रूप से मानव को चुम्बनालिंगनादि सहित शरीर के विशेष अंगस्पर्शजनित आनन्द की फलवती अर्थप्रतीति के रूप में भी ग्राह्य माना गया है।
काम की उत्पत्ति कैसे हुयी? इस प्रश्न पर विचार करते हुए वैदिक ऋषि का कथन है -
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषाः।।(ऋग्वेद10/129/4)
अर्थात् ‘सृष्ट्युत्पत्ति के समय सर्वप्रथम ‘काम’ अर्थात् सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा उत्पन्न हुयी, जो परब्रह्म के हृदय में सर्वप्रथम सृष्टि का रेतस् अर्थात् बीजरूप कारण विशेष था, जिसे शुद्ध-बुद्ध ज्ञानवान् मनीषी कवियों ने हृदयस्थ परब्रह्म का गम्भीर अनुशीलन कर प्राप्त किया था।’ अतः ऋग्वेद के इस कथन से स्पष्ट है कि सृष्टि के मूलकारण ”काम“ की उत्पत्ति परब्रह्म के हृदय से हुयी और उस परमात्मा ने हृदय में सनातन रूप में अवस्थित कामभावना के कारण ही इच्छा की कि वह बहुत सी प्रजा उत्पन्न करे -
‘सोऽकामयत बहुस्यां प्रजायेत। काममय एवायं पुरुषः।’(तैत्तिरीयोपनिषद् 2/3)
क्योंकि वह जो परमपुरुष है, उसका स्वरूप, उसकी शक्ति एवं प्रकृति सभी कुछ काममय है। किन्तु जब वह अकेला था तो क्या मात्र कामना से ही सृष्टि उत्पन्न हुयी ? नही !! क्योंकि एकाकी पुरुष रमण नहीं कर सकता है। अतः उसने दूसरे की इच्छा की और आलिंगित युगल के परिणाम वाला होकर अपने शरीर को द्विधा विभक्त कर डाला, उससे पति एवं पत्नी अर्थात् स्त्री एवं पुरुष उत्पन्न हुए -
‘स वै नैव रेमे, तस्मादेकाकी न रमते, स द्वितीयमैच्छत्, स हैतावानास यथा स्त्री पुमॉऽसौ सम्परिष्वक्तौ स इममेवात्मानं द्वैधापातयत्ततः पतिश्च पत्नीं चाभवताम्’ (बृहदारण्यकोपनिषद् 1/2/6)
उस परमात्मा का अर्धभाग जो पुरुष रूपी अग्नि है उसमें जब देवगण अन्न होमते हैं तो उस आहुति से वीर्य की उत्पत्ति होती है -
‘तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा अन्नं जुह्वति तस्या आहुते रेतः संभवति।’(छान्दोग्य0 5/7/2)।
वह वीर्य ही प्राण एवं यश है -
‘प्राणो वै यशो वीर्यम्।’(बृहदारण्यक0 1/2/6)
जो शेष अर्धभाग स्त्रीरूपी अग्नि है उसका उपस्थ ही समिधा है, पुरुष जो उपमन्त्रण करता है वह धूम है, योनि ज्वाला है एवं रतिरूप जो व्यापार है वह अंगार है और उससे जिस सुख की प्राप्ति होती है वही विस्फुलिंग है -
‘योषा वाव गौतमाग्निः तस्या उपस्थ एव समिद्यदुपमन्त्रयते स धूमो योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेंऽगारा अभिनन्दा विस्फुलिंगाः।’(छान्दोग्य0 5/8/1)
बृहदारण्यक श्रुति सृष्टि में प्राप्त होने वाले सभी प्रकार के आनन्द का एकमात्र अधिष्ठान उपस्थ को स्वीकार करती -
‘सर्वेषामानन्दानामुपस्थ एकायनम्।’(2/4/11)
उस स्त्री-उपस्थ-रूपी अग्नि में देवगण पुरुषोपमन्त्रण के माध्यम से वीर्य का हवन करते हैं और उस आहुति से गर्भ की उत्पत्ति होती है-
‘तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्नति तस्या आहुतेर्गर्भः संभवति।’(छान्दोग्य0 5/8/2)
पुनः वह जरायु आवृत्त गर्भ नव या दश माह मातृगर्भ में शयन के अनन्तर पुनः उत्पन्न होता है-
‘उल्बावृतो गर्भो दश वा नव वा मासानन्तः शयित्वा यावद्वाथ जायते।’(छान्दोग्य0 5/9/1)
इस प्रकार कामबीज का उद्गमस्थल परमपुरुष का हृदय है एवं उस कामबीज को धारण करने वाली मातृशक्ति उस पुरुष की माया या प्रकृति है। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता में कहा भी है -
‘सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्त्तयः संभवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।’ (गीता 14/4)
उस परमात्मा का स्वरूप एवं उसकी स्थिति का ज्ञान कराने वाला वेद ही कामशास्त्र का बीज अर्थात् आदिकारण है। जो क्रमशः विकास को प्राप्त होता हुआ एक शास्त्र-विशेष के रूप में परिणत हो गया।
कामशास्त्र का उद्भव एवं विकास:
कामशास्त्र के उद्भव का आदिकारण वेद है। जो ‘काम’ की उत्पत्ति परमपुरुष से स्वीकार करता है। इस ‘काम’ के कारण ही एक वस्तु दूसरी वस्तु पर आकृष्ट होकर संयोग करती है, क्योंकि संकल्प के मूल में काम की ही भावना होती है - ‘कामो संकल्प एव हि’। इसी कारण काम को ही सृष्टि माना गया है जिसका प्राणिमात्र पर दुर्दमनीय प्रभाव है। आचार्य वात्स्यायन काम की सार्वभौमिक परिभाषा देने के अनन्तर लोक में रूढ़ काम के व्यावहारिक स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि नारी-पुरुष का परस्पर विशेष अंगस्पर्शरूप आनन्द की जो सुखानुभूतिपरक फलवती अर्थप्रतीति होती है, प्रायः उसे ही लोक में ‘काम’ कहा गया है –
‘स्पर्शविशेष विषयात्वस्याभिमानिक सुखानुविद्धा फलवत्यर्थप्रतीतिः प्राधान्यात्कामः'।(कामसूत्र 1/2/12)
यहाँ पर पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्शविशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिकरूपेण आनन्ददायक व्यवहाररूप फलवती अर्थप्रतीति को ‘कामविशेष’ कहा गया है। वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपस्थ रूप पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा क्रमशः वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग एवं आनन्द रूप कर्म सम्पन्न होते हैं। इनमें से स्त्री एवं पुरुष के अधोभाग में स्थित जननांग, जो स्वभावतः त्वगिन्द्रिय ही है; परस्पर संसर्गावस्था में अनिर्वचनीय आनन्द को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार स्त्री एवं पुरुष को परस्पर संसर्गजन्य जिस विचित्र एवं अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है, वही काम की फलवती अर्थप्रतीति है; क्योंकि सम्यग्रूपेण सम्पन्न होने वाले संसर्ग से ही सृष्टि प्रक्रिया का सातत्य भी अविच्छिन्न बना रहता है। इसी कारण कामानन्द को ब्रह्मानन्दसहोदर माना गया है।
आचार्य वात्स्यायन द्वारा कथित ‘फलवती अर्थप्रतीतिः’ शब्द में ही कामशास्त्र के विकास की प्रक्रिया को व्यंग्यात्मक रूप में स्पष्ट किया गया है, क्योंकि कामशास्त्र का जो धर्मार्थ समन्वित, अनुमोदित एवं मर्यादित कामोपभोगरूप उद्देश्य है उसकी आधारशिला वेदों में ही पड़ गयी थी। वेदों में प्रतिपादित यत्किंचित कामशास्त्रीय विचारपद्धति उपनिषत्काल में और विकसित हुयी। ‘छान्दोग्योपनिषद्’ में स्त्रीसंसर्ग की तुलना सामवेद के वामदेव्यगान से करते हुए कहा गया है कि - प्रेयसी को संदेश भेजना ‘हिंकार’ है। उसे प्रसन्न करने की चाटुकारिता ‘प्रस्ताव’ है। उसके साथ शयन ‘उद्गीथ’ है। संसर्ग ‘प्रतिहार’ है तथा मिथुनभाव के अवसान पर होने वाला वीर्यस्खलन ‘निधन’ है – ‘उपमन्त्रयते स हिंकारो ज्ञपयते स प्रस्तावः स्त्रिया सह शेते स उद्गीथः स्त्रीं सह शेते स प्रतिहारः कालं गच्छति तन्निधनं पारं गच्छति तन्निधनमेतद्वामदेव्यं मिथुने प्रोतम्’।(छान्दोग्य02/13/1) दाम्पत्यसुख की तुलना पवित्र वामदेव्यगान से करके उसकी महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। पुनः ‘बृहदारण्यकोनिषद्’ के षष्ठ अध्याय के चतुर्थ ब्राह्मण में प्रतिपादित पुत्रमन्थकर्म या सन्तानोत्पत्तिविज्ञान, जो कि सम्भवतः कामशास्त्र का अब तक प्राप्त व्यवस्थित प्राचीनतम स्वरूप है; के द्वारा मर्यादित एवं सुव्यवस्थित दाम्पत्यसुख के कार्य-व्यापार को प्रस्तुत किया गया है।
इस प्रकार उपनिषद् का ऋषि शिष्य को पूर्णरूपेण शिक्षित करने के बाद उसका समावर्तन संस्कार कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश की अनुमति देते हुए उससे कहता है –
‘सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्माप्रमदः। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः।’(तैत्तिरीय01/11/1)
अर्थात् ”वत्स ! सदा सत्य बोलना, धर्म का आचरण करते रहना, अप्रमत्त होकर वेदों का स्वाध्याय करना तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके सन्तानोत्पादन की परम्परा की वृद्धि करना।“ यहाँ सन्तानपरम्परा का विच्छेद न होने पाए, इसलिए गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने से पूर्व ब्रह्मचारी को विधिवत् सन्तानोत्पत्तिविज्ञान रूप पुत्रमन्थकर्म की शिक्षा दी जाती थी; जो कामशास्त्र का औपनिषदिक रूप है।
कामशास्त्रीय ग्रन्थ-परम्परा:
प्रजापति ब्रह्मा द्वारा प्रवचित वेद ही त्रयीविद्या या त्रिवर्गशास्त्र आदि नामों से प्रसिद्ध है। क्योंकि छान्दोग्य श्रुति कहती है कि ‘प्रजापति ने लोकों के उद्देश्य से ध्यान रूप तप किया। उन अभितप्त लोकों से त्रयीविद्या की उत्पत्ति हुयी –
‘प्रजापतिः लोकान् अभ्यतपत् तेभ्योऽभितप्तेभ्यः त्रयीविद्या संप्रास्रवत्तां अभ्यतपत्’। (छान्दोग्य02/23/2)
आचार्य वात्स्यायन भी कामसूत्र में कामशास्त्र की परम्परा बताते हुए कहते हैं कि ‘प्रजापति ने प्रजा उत्पन्न करके उसके जीवन को सुव्यवस्थित एवं नियमित करने के उद्देश्य से त्रिवर्गशास्त्र परक संविधान का सर्वप्रथम एक लक्ष श्लोकों में प्रवचन किया’ –
‘प्रजापतिर्हि प्रजाः सृष्ट्वा तासां स्थितिनिबन्धनं त्रिवर्गस्य साधनमध्यायानां शतसहस्त्रेणाग्रे प्रोवाच’। (कामसूत्र 01/01/05)
उपर्युक्त संविधानरूप त्रिवर्गशास्त्र का समर्थन एवं उल्लेख करते हुए महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास कहते हैं:-
‘ततोऽध्यायसहस्त्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम्।
यत्र धर्मस्तथैवार्थः कामश्चैवाभिवर्णितः।।
त्रिवर्ग इति व्याख्यातो गण एष स्वयम्भुवा’। (महाभारत शान्तिपर्व 59/29-30)
इसी प्रकार मत्स्यपुराणकार भी शतकोटि प्रविस्तर त्रिवर्गसाधनभूत पुराणसंहिता का उल्लेख करते हैं -
‘पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणास्मृतं।
पुराणमेकमेवासीत् तदा कल्पान्तरेऽनघः।।
त्रिवर्गसाधनं पुण्यं शतकोटि प्रविस्तरम्।’ (मत्स्यपुराण 53/3-4)
साधारणतया लोग त्रयीविद्या का आशय ‘ऋग्यजुःसाम’ परक ग्रहण करते हैं। किन्तु वेद तो स्वयमेव ब्रह्मविद्या के अधिष्ठान हैं और त्रयीविद्या उसके अंगरूप। यदि महाभारत, मत्स्यपुराण एवं कामसूत्र में कथित प्रजापति द्वारा लक्षश्लोक प्रतिपादित त्रिवर्गशास्त्र के साथ इस त्रयीविद्या का सामंजस्य स्थापित किया जाय, तो संगति स्वयमेव बैठ जाती है कि ‘छान्दोग्यश्रुति’ द्वारा कथित त्रयीविद्या, त्रिवर्गशास्त्र ही है तथा यह त्रयीविद्या/त्रिवर्गशास्त्र ब्रह्मविद्या का ही अंग है। यह शतसहस्त्र अध्यायों वाला त्रिवर्गशास्त्र धर्म, अर्थ एवं काम के सांगोपांग विवेचन एवं विधि व्यवस्था से परिपूर्ण था। ब्रह्मा ने उस शास्त्र के द्वारा समाज की व्यवस्था, सुरक्षा एवं उत्तरोत्तर विकास की भूमिका प्रस्तुत की।
कालान्तर में इस शतसहस्त्र प्रविस्तर पुराणसंहिता त्रिवर्गशास्त्र के धर्म, अर्थ एवं काम रूप तीनों स्तम्भों के अनुसार क्रमशः उस ‘आचारसंहिता’ के धर्मशास्त्रीय भाग को स्वायम्भुव मनु ने, अर्थशास्त्रीय भाग को आचार्य बृहस्पति ने तथा कामशास्त्रीय भाग को आचार्य नन्दिकेश्वर ने पृथक्पृथक् प्रवचित किया। यहीं से कामशास्त्र की ग्रन्थ-परम्परा का श्रीगणेश हुआ। इस ग्रन्थ परम्परा को सुविधा की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जा रहा है -
(क) वात्स्यायनीय कामसूत्र से पूर्ववर्ती ग्रन्थ।
(ख) वात्स्यायन कामसूत्र एवं परवर्ती ग्रन्थ।
(क) वात्स्यायनीय कामसूत्र से पूर्ववर्ती ग्रन्थ:
कामसूत्र की पूर्ववर्ती ग्रन्थपरम्परा का अधिकांश विवरण हमें कामसूत्र से ही प्राप्त होता है। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र के प्रथम अधिकरण में पूर्ववर्ती कामशास्त्रीय ग्रन्थों का उल्लेख किया है, जिनका विवरण इस प्रकार है -
०१. आचार्य नन्दी या नन्दिकेश्वर प्रोक्त कामसूत्र:
आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र का आदि आचार्य महादेवानुचर नन्दी को स्वीकारते हुए कहते हैं कि प्रजापति द्वारा प्रवचित त्रिवर्गशास्त्र में से एक हजार अध्यायों वाले कामशास्त्रीय भाग को उससे पृथक् कर महादेवानुचर नन्दी ने उसे स्वतंत्र रूप दे दिया –
‘महादेवानुचरश्च नन्दी सहस्त्रेणाध्यायानां पृथक् कामसूत्रं प्रोवाच’। (कामसूत्र1/1/8)
महादेवानुचर नन्दी का विस्तृत परिचय हमें शिवपुराण की शतरुद्रसंहिता के अध्याय 6 एवं 7 से प्राप्त होता है। जिसके अनुसार “नन्दी शालंकायनपुत्र शिलादि ऋषि के पुत्र थे। इनका जन्म शिव के वरदानस्वरूप हुआ था। इन्होंने सांगोपांग वेदों सहित अन्यान्य शास्त्रों का भी अध्ययन किया था। इनका विवाह मरुद्गण की कन्या ‘सुयशा’ के साथ हुआ था। भगवान शिव ने इन्हें अमरत्व प्रदान कर अपने गणनायकों का अध्यक्ष बना दिया था”। ऐसा ही उल्लेख वराहपुराण एवं कूर्मपुराण में भी प्राप्त होता है। कामसूत्र में सूत्र 1/1/8 की टीका में आचार्य यशोधर नन्दी के कामसूत्र के विषय में एक अनुश्रुति का उल्लेख करते हुए कहते हैं –
तथा हि श्रूयते - ‘दिव्यवर्षसहस्त्रं उमया सह सुरतसुखं अनुभवति महादेवे वासगृह द्वारगतो नन्दी कामसूत्रं प्रोवाच’ इति।
कामसूत्र के टीकाकार आचार्य यशोधर के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि वात्स्यायन के समय में नन्दीप्रोक्त कामसूत्र लगभग नष्ट हो चुका था। रतिरहस्यकार आचार्य कोक्कोक भी रतिरहस्य में कामशास्त्र के आदि आचार्य के रूप में नन्दिकेश्वर का स्मरण करते हैं। रसरत्नसमुच्चयकार इनका स्मरण आयुर्वेदज्ञ के रूप में करते हुए इन्हें ‘नाभियन्त्र’ का आविष्कारक बताते हैं –
‘नाभियन्त्रमिदं प्रोक्तं नन्दिना सर्ववेदिना’। (रसरत्नसमुच्चय, पूर्वखण्ड - 9/26)
काव्यमीमांसा के प्रथम अध्याय, शास्त्रसंग्रह में आचार्य राजशेखर ने नन्दिकेश्वर को रस का आधिकारिक आचार्य स्वीकार किया है। मेघदूत उत्तरमेघ के 15वें श्लोक की विद्युल्लता टीका में टीकाकार आचार्य पूर्णसरस्वती ने पद्मिनी नायिका का छः श्लोकों में लक्षण प्रस्तुत करते हुए उक्त लक्षणवाक्यों को नन्दीश्वर कृत बताया है। उपर्युक्त विवरणों के आलोक में कहा जा सकता है कि आचार्य नन्दी या नन्दिकेश्वर नाट्यशास्त्र, कामशास्त्र, रसशास्त्र, आयुर्वेद, वेदविद्या आदि के प्रामाणिक आचार्य थे।
आचार्य औद्दालकि श्वेतकेतु कृत सुखशास्त्र कामसूत्र:
आचार्य नन्दी के पश्चात् कामशास्त्रीय आचार्यपरम्परा में अगले महत्त्वपूर्ण आचार्य औद्दालकि श्वेतकेतु हुए। आचार्य वात्स्यायन के अनुसार श्वेतकेतु ने आचार्य नन्दीप्रोक्त कामसूत्र को संक्षिप्त कर पाँच सौ अध्यायों में सम्पादित किया -
तु पंचभिरध्यायशतैः औद्दालकिः श्वेतकेतुः संचिक्षेप। (काम01/1/9)
आचार्य औद्दालकि श्वेतकेतु के विषय में विभिन्न ग्रन्थों का अनुशीलन करने पर विशिष्ट तथ्य प्राप्त होते हैं। महाभारत में सभापर्व के तृतीय अध्याय के अनुसार आचार्य श्वेतकेतु पंचाल निवासी महर्षि आरुणि पांचाल, जो उद्दलनकर्म के कारण उद्दालक नाम से प्रसिद्ध थे; के पुत्र थे। छान्दोग्य एवं बृहदारण्यक आदि उपनिषदों में इन्हें आरुणेय नाम से भी स्मरण करते हुये इन्हें गौतम गोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है। महाभारत में ही शान्तिपर्व के 220वें अध्याय के अनुसार इनका विवाह शाण्डिल्य गोत्रीय ब्राह्मणों में प्रवर के रूप में स्मृत ब्रह्मर्षि देवल की परमविदुषी कन्या सुवर्चला के साथ हुआ था। ये परम योगी, न्यायविशारद्, क्रियाकल्पविद् एवं विविध शास्त्रों के मर्मज्ञ थे। इनके एवं आचार्य नन्दी के मध्य मिथुनकर्म अर्थात् कामशास्त्र को वाजपेययज्ञ के समान स्वीकारने वाले आरुणि उद्दालक, मौद्गल्य नाक एवं कुमारहारीत आदि मुनि हुए थे -
एतद्ध स्म वै तद् विद्वानुद्दालक आरुणिराहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान्नाको मौद्गल्य आहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान् कुमारहारीत आह......। (बृहदारण्यक06/4/4)
इन लोगों ने सम्भवतः नन्दीप्रोक्त कामशास्त्र को यथावत् ही रहने दिया। आरुणि उद्दालक के बाद उनके पुत्र श्वेतकेतु ने नन्दीप्रोक्त कामशास्त्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन करते हुए उसको पाँच सौ अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। कामसूत्र की जयमंगला टीका के प्रणेता आचार्य यशोधर औद्दालकि श्वेतकेतु द्वारा सुखशास्त्र कामशास्त्र की रचना पर एक कथन उद्धृत करते हुए कहते हैं कि लोक को मर्यादित करने के उद्देश्य से पिता की आज्ञा होने पर तपोनिष्ठ श्वेतकेतु ने सुखशास्त्र की रचना की -
तथाचोक्तम् -
‘मद्यपानान्निवृत्तिश्च ब्राह्मणानां गुरोः सुतात्।
परस्त्रीभ्यश्च लोकानां ऋषेरौद्दालकादपि।।
ततः पितुरनुज्ञानाद् गम्यागम्यव्यवस्थया।
श्वेतकेतुस्तपोनिष्ठः सुखं शास्त्रं निबद्धवान्।।’ इति। (काम0जय01/1/9)
बृहद्देवता के उल्लेखानुसार श्वेतकेतु, गालव आदि नौ ऋषियों को पौराणिक कवि माना गया है -
नवभ्य इति नैरुक्ताः पुराणाः कवयश्च ये।
मधुकः श्वेतकेतुश्च गालवश्चैव मन्यते।। 1/24।।
आचार्य श्वेतकेतु वैदिकालीन ऋषिपरम्परा के मान्य विद्वान् हैं। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में इनके मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साम्प्रयोगिक अधिकरण के रतावस्थापन प्रकरण में स्त्रीपुरुष के कामसंवेगों एवं स्खलन की पुष्टि हेतु, पारदारिक अधिकरण के दूतीकर्म प्रकरण में दूतीप्रयोग के विषय में खण्डन हेतु तथा वैशिक अधिकरण के अर्थानर्थानुबन्ध संशयविचार प्रकरण में अर्थानर्थरूप उभयतोयोग कथन हेतु’ प्रस्तुत करते हैं।
03. आचार्य बाभ्रव्य पांचाल कृत कामसूत्र
आचार्य श्वेतकेतु के पश्चात् कामशास्त्र को विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया पंचालवासी आचार्य बाभ्रव्य ने। इन्होंने आचार्य श्वेतकेतु द्वारा सम्पादित सुखशास्त्रपरक कामशास्त्र का पुनः संपादन कर उसे साधारण, साम्प्रयोगिक, कन्यासंप्रयुक्तक, भार्याधिकारिक, पारदारिक, वैशिक एवं औपनिषदिक; इन सात अधिकरणों में विभाजित कर एक सौ पचास अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। इसका उल्लेख करते हुए आचार्य वात्स्यायन कहते हैं -
तदेव तु पुनरध्यर्धेनाध्यायशतेन साधारण साम्प्रयोगिक कन्यासंप्रयुक्तक भार्याधिकारिक पारदारिक वैशिक औपनिषदिकैः सप्तभिरधिकरणैः बाभ्रव्यः पांचालः संचिक्षेप। (कामसूत्र 1/1/10)
आचार्य बाभ्रव्य के विषय में विविध पौराणिक एवं अन्य ग्रन्थों में जो तथ्य प्राप्त होते हैं, उनमें से मत्स्यपुराण के अनुसार आचार्य बाभ्रव्य पंचालनरेश ब्रह्मदत्त के मंत्री थे। इनका पूर्ण नाम सुबालक बाभ्रव्य था, ये कामशास्त्र प्रणेता एवं सर्वशास्त्रज्ञ थे तथा लोक में पांचाल के नाम से प्रसिद्ध थे-
कामशास्त्र प्रणेता च बाभ्रव्यस्तु सुबालकः।
पांचाल इति लोकेषु विश्रुतः सर्वशास्त्रवित्।। मत्स्यपुराण 50/24-25।।
हरिवंशपुराण में हरिवंशपर्व के 23-24वें अध्याय के अनुसार बाभ्रव्य पांचाल ऋग्वेदीय बह्वृच शाखानुयायी, धर्म-अर्थ-काम के तत्त्वज्ञ थे; उन्होंने वैदिकों में प्रसिद्ध ऋग्वेद के क्रमपाठ की विधि एवं शिक्षा नामक वेदांग का प्रणयन किया था। उक्त सन्दर्भ ऋग्वेदीय प्रातिशाख्य ग्रन्थ ऋक्प्रातिशाख्यम् के क्रमहेतु पटल के 65वें सूत्र में भी प्राप्त होता है, जिसके अनुसार आचार्य बाभ्रव्य ऋग्वेद के क्रमपाठ के प्रणेता भी थे -
इति प्र बाभ्रव्य उवाच च क्रमं, क्रम प्रवक्ता प्रथमं शशंस च।।
उपर्युक्त तथ्यों की पुष्टि महाभारत के शान्तिपर्व के 342 वें अध्याय के इस उद्धरण से भी होती है -
पांचालेन क्रमः प्राप्तस्तस्माद् भूतात्सनातनात् ।
बाभ्रव्यगोत्रः स बभौ प्रथमं क्रमपारगः ।।103।।
नारायणाद् वरं लब्ध्वा प्राप्ययोगमनुत्तमम् ।
क्रमं प्रणीय शिक्षां च प्रणयित्वा स गालवः ।।104।।
अर्थात् गालव अपरनाम बाभ्रव्यगोत्रीय पांचाल ने श्रीनारायण की उपासना से प्राप्त वर के प्रभाव से ऋग्वेद के क्रमपाठ का प्रणयन करने के साथ ही शिक्षाग्रन्थ का भी प्रणयन किया। ये ऋग्वेद की बह्वृच शाखा के प्रवर्तक आचार्य भी थे। आचार्य वात्स्यायन भी इन्हें बह्वृच शाखा का प्रवर्तक स्वीकारते हुए कहते हैं कि कुछ लोगों के अनुसार बाभ्रव्य पांचाल ने ही ऋग्वेद की बह्वृच शाखा को 64 भागों में विभक्त किया था। अतः कामशास्त्र का वेद के साथ संबन्ध की पुष्टि एवं कामशास्त्र की महत्ता प्रकट करने के लिए ऋग्वेद की भाँति ही साम्प्रयोगिक अधिकरण को भी बाभ्रव्य पांचाल ने 64 अंगों वाला बनाया -
पंचाल सम्बन्धाच्च बह्वृचैरेषां पूजार्थं संज्ञा प्रवर्तिता इत्येके।। (कामसूत्र2/2/3)
इस सूत्र को विवेचित करते हुए कामसूत्र के टीकाकार आचार्य यशोधर कहते हैं - ‘पांचाल बाभ्रव्य के संबन्ध से भी इस कामशास्त्र को चतुःषष्टि कहा गया है। महर्षि बाभ्रव्य पांचाल ने ऋग्वेद को 64 भागों में विभक्त किया है और अपने द्वारा संपादित कामसूत्र के साम्प्रयोगिक अधिकरण को भी इन्होंने आलिंगन, चुम्बन, नखक्षत, दन्तक्षत, संवेशन, सीत्कार, पुरुषायित, एवं औपरिष्टक रूप 64 भागों में विभक्त किया’। सुश्रुतसंहिता के टीकाकार आयुर्वेदाचार्य डल्हण के अनुसार व्याकरणशास्त्र के प्रवक्ता बाभ्रव्य पांचाल गालव भगवान धन्वन्तरि के शिष्य थे। संस्कृत साहित्य का बृहद् इतिहास, पृ0 537 पर वाचस्पति गैरोला के उल्लेखानुसार आचार्य बाभ्रव्य ने संहिता, ब्राह्मण, क्रमपाठ, कामसूत्र, शिक्षा, निरुक्त, व्याकरण, दैवतग्रन्थ, शालाक्यतंत्र आदि विषयों एवं नामों से विभिन्न ग्रन्थों का प्रणयन किया था। बृहद्देवता 1/24 के उल्लेखानुसार महर्षि गालव भी श्वेतकेतु की भॉति ही पौराणिक कवि एवं निरुक्तकार थे। गालव अपरनाम वाले आचार्य बाभ्रव्य पांचाल के मतों का उल्लेख ऐतरेय आरण्यक, बृहद्देवता, निरुक्त, अष्टाध्यायी, वायुपुराण, चरकसंहिता, भाषावृत्ति, कामसूत्र आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।
आचार्य बाभ्रव्य पांचाल द्वारा संपादित कामसूत्र तो काल के प्रवाह में विलुप्त हो गया। हॉ ! आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में बाभ्रव्य पांचाल के मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मविमर्शप्रकरण में परस्त्री के गम्यागम्यत्व कथन के प्रसंग में; साम्प्रयोगिक अधिकरण के रतावस्थापनप्रकरण में रतिजनित आनन्द के विवेचन के प्रसंग में, आलिगंनविचारप्रकरण में बाभ्रव्य द्वारा संप्रयोगकला को आठ भेदों में विभक्त कर पुनः उनके आठ-आठ उपभेद कर कामकला को चतुःषष्टि पांचालिकी कला बताने तथा बाभ्रव्य द्वारा प्रवर्तित आलिंगन के आठ भेदों के कथन के प्रसंग में, संवेशनविधिप्रकरण में बाभ्रव्य द्वारा प्रवर्तित संवेशन के भेदकथन के प्रसंग में; भार्याधिकारिक अधिकरण के ज्येष्ठादिवृत्तप्रकरण के पुनर्भूप्रकरण में तत्कालीन समाज में कई स्त्रियों का पति से असंतुष्ट हो कर अन्य प्रणयी एवं समर्थ पुरुष को पति रूप में स्वीकार करने के लोकव्यवस्था कथन के प्रसंग में; पारदारिक अधिकरण के दूतीकर्मप्रकरण में परदाराभियोग हेतु दूती प्रयोग के संबन्ध में तथा अन्तःपुरिकावृत्तप्रकरण में राजाओं के अन्तःपुर में रहने वाली स्त्रियों के स्वभावपरीक्षण के संबन्ध में; वैशिक अधिकरण के अर्थादिविचारप्रकरण में वेश्या द्वारा अर्थागम के संदर्भकथन में; औपनिषदिक अधिकरण के नष्टरागप्रत्यानयनप्रकरण में नारी की जैविक संतुष्टि हेतु निर्मित एवं प्रयुक्त होने वाले त्रपुष (रांगा), शीशक आदि के कृत्रिम शिश्न के गुणकथन के संदर्भ में’ नाम सहित प्रस्तुत करते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि कामसूत्र टीकाकार आचार्य यशोधर के काल तक बाभ्रव्य पांचाल प्रणीत ग्रन्थ के कुछ अंश उपलब्ध थे; क्योंकि उन्होंने जयमंगला टीका में बाभ्रव्य पांचाल के मतों को संाप्रयोगिक अधिकरण के प्रथम अध्याय के 34वें सूत्र की टीका में तथा पारदारिक अधिकरण के चतुर्थ अध्याय के 62वें सूत्र की टीका में उद्धृत किया है। इसके अतिरिक्त सप्तदश शतक के आचार्य सामराज दीक्षित के पुत्र कामराज दीक्षित ने कामसूत्र में प्राप्त सामान्य श्लोकों एवं आनुवंश्य श्लोकों को बाभ्रव्यकृत मानते हुए उनका पृथक् बाभ्रव्यकारिका नाम से संग्रह कर उस पर लघुटीका का प्रणयन किया था। यह ग्रन्थ पं0 ढुण्ढिराज शास्त्री द्वारा संपादित होकर कामकुंजलता के अष्टम मंजरी के रूप में चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से सन् 1967 ई0 में प्रकाशित हुआ है।
इस प्रकार कामशास्त्र को बाभ्रव्य ऋणी मानते हुए यह स्पष्टरूपेण कहा जा सकता है कि वर्तमान में कामसूत्र का जो स्वरूप प्राप्त होता है, उसकी क्रमबद्ध आधारशिला आचार्य बाभ्रव्य ने ही रखी। आचार्य बाभ्रव्य वैदिककालीन ऋषिपरम्परा के आचार्य एवं ऐतरेयब्राह्मण काल से पूर्व के हैं।
04. आचार्य दत्तक कृत दत्तकसूत्र:
आचार्य बाभ्रव्य के पश्चात् कामशास्त्रीय ग्रन्थपरम्परा एकांगी होने लगी। कामसूत्र में प्राप्त विवरण के अनुसार पाटलिपुत्र निवासी माथुर ब्राह्मण आचार्य दत्तक ने पाटलिपुत्र की गणिकाओं के अनुरोध पर कामसूत्र के छठें अधिकरण वैशिक अधिकरण को आधार बनाकर स्वतन्त्र रूप से दत्तकसूत्र नामक कामशास्त्रीय ग्रन्थ की रचना की -
तस्य षष्ठं वैशिकमधिकरणं पाटलिपुत्रिकाणां गणिकानां नियोगाद्दत्तकः पृथक्चकार। (कामसूत्र 1/1/10)
आचार्य दत्तक एवं तत्कृत दत्तकसूत्र के विषय में यत्किंचित विवरण प्राप्त हैं, वे कुछ कामशास्त्रीय ग्रन्थों, नाट्यकृतियों एवं अभिलेखीय संदर्भ से ही प्राप्त होते हैं। उपर्युक्त सूत्र की टीका में आचार्य यशोधर इनके विषय में विवरण देते हुए कहते हैं कि ये पाटलिपुत्र निवासी किसी माथुर ब्राह्मण के पुत्र थे। इनके जन्मकाल के कुछ समय पश्चात् ही इनके माता-पिता दिवंगत हो गये थे; एक ब्राह्मणी ने इन्हें अपना दत्तकपुत्र बना लिया जिसके कारण ये दत्तक नाम से प्रसिद्ध हुए। वयःसन्धि तक ये सभी विद्याओं एवं कलाओं में प्रवीण हो गए थे। कलाओं के प्रति आसक्ति होने से आचार्य दत्तक प्रायः पाटलिपुत्र की कलाशास्त्र में प्रवीण गणिकाओं के ही संसर्ग में रहा करते थे, जिसके कारण कामशास्त्र के आचार्य के रूप में इन्हें विशेष प्रसिद्धि प्राप्त हुई। बाद में पाटलिपुत्र की गणिकाओं के अनुरोध पर कामशास्त्र के वैशिक अधिकरण पर इन्होंने स्वतन्त्र रूप से दत्तकसूत्र नामक कामशास्त्रीय ग्रन्थ का प्रणयन किया।
कामसूत्र के अतिरिक्त आचार्य दत्तक का उल्लेख अष्टम शतक के कश्मीरी कवि दामोदरगुप्त प्रणीत ‘कुट्टनीमतम्’ नामक काव्य ग्रन्थ में 77वें एवं 122वें श्लोक में प्राप्त होता है। प्रथम शतक के रूपककार महाकवि शूद्रक स्वकृत ‘पद्मप्राभृतकम्’ नामक भाणरूपक में ‘दत्तकसूत्र’ ग्रन्थ का नामतः उल्लेख करते हुए कहते हैं कि वेश्या के आंगन में घुसा हुआ भिक्षु उसी प्रकार शोभित नहीं होता है, जिस प्रकार वैशिक अधिकरण पर आधारित ‘दत्तकसूत्र’ नामक ग्रन्थ में पवित्र ओंकार शब्द शोभित नहीं होता है - वेश्यांगणं प्रविष्टो मोहाभिक्षुर्यदृच्छया वाऽपि।
न भ्राजते प्रयुक्तो दत्तकसूत्रेष्विवोंकार।। 24।। आचार्य दत्तक प्रणीत तीन सूत्रों के स्पष्ट विवरण प्राप्त होते हैं। जिनमें से प्रथम उल्लेख गुप्तकालीन कवि ईश्वरदत्त प्रणीत ‘धूर्तविटसंवाद’ नामक भाणरूपक में ‘आपुमान शब्दकामः इति दात्तकीयाः’ कहकर, द्वितीय उल्लेख सप्तम शतक के कवि आर्य श्यामलिक प्रणीत ‘पादताडितकम्’ नामक भाणरूपक में ‘दत्तकेनाप्युक्तम्- कामोऽर्थनाशः पुंसाम्’ कहकर तथा तृतीय उल्लेख आचार्य यशोधर प्रणीत कामसूत्र के सूत्र संख्या 6/3/20 की टीका में ‘भाण्डसम्प्लवे विशिष्टग्रहणम्’ इति दत्तकसूत्रस्पष्टार्थम्।’ कहकर प्राप्त होता है।
‘दत्तकसूत्र’ पर दक्षिणभारत के गंगवंश के शासक श्रीमन्माधवमहाधिराज ने टीका का प्रणयन किया था। ‘केरेगालूर’ में प्राप्त गंगवंशी नरेश के दानपत्र के अनुसार गंगवंशी राजा दुर्विनीत ने बृहत्कथा को देवभारती के स्वरूप में उपनिबद्ध किया था एवं उसी के पूर्वज श्रीमन्माधवमहाधिराज ने ‘दत्तकसूत्र’ पर वृत्ति लिखी थी - स्वस्ति श्री जितं। भगवता गतधनगगनाभेन पद्मनाभेन। श्रीमज्जाह्नवेयकुलामलव्योमावभासनभास्करः सुखंगैकप्रहारखण्डित महाशिलास्तम्भबलपराक्रमः काण्वायन सगोत्र श्रीमत्कोंगुणिमहाधिराजो भुवि विभुतमोऽभवत्। तत्पुत्रो नीतिशास्त्रकुशलो दत्तकसूत्रस्यवृत्तेः प्रणेता श्रीमन्माधवमहाधिराजः।
दत्तकसूत्र के वृत्तिकार श्रीमन्माधवमहाधिराज काण्वायन गोत्रीय गंगवंशीय ब्राह्मण नरेश थे। जिनका समय इतिहासज्ञों द्वारा पंचम शतक पूर्वार्द्ध स्वीकृत है। A Triennial Catalogue of manuscripts collected for the Government Orintal Manuscripts Library, Madras में संख्या 3220(b) प्राप्त विवरण के अनुसार दत्तकसूत्र पर एक अज्ञात विद्वान् द्वारा रचित वृत्ति अपूर्ण रूप में गवर्नमेन्ट ओरिएण्टल मैन्युस्क्रिप्ट लाइब्रेरी, चेन्नई में सुरक्षित है।
उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि आचार्य दत्तक का यह सूत्रग्रन्थ संभवतः दशम शतक तक पूर्णतया सुरक्षित रहा; कालान्तर में सुरक्षा के अभाव के कारण यह ग्रन्थ लुप्तप्राय हो गया। आचार्य वात्स्यायन के कथनानुसार कामसूत्र के वैशिक अधिकरण का संपूर्ण आधार प्रायः दत्तकसूत्र से ही ग्रहण किया गया है। मान्यतानुसार इस ग्रन्थ में तत्कालीन सामाजिक विधान को दृष्टिगत रखते हुए गणिकाजनों के लाभहानि के बारे में विस्तृत निर्देश सहित वेश्याजनोचित चतुःषष्टि पांचालिकी कामकलाओं का संपूर्ण विवरण उपनिबद्ध था। इनका समय ईशवीय पूर्व में माना जा सकता है।
05. आचार्य चारायण कृत साधारण अधिकरणीय ग्रन्थ:-
कामसूत्र के अनुसार आचार्य चारायण ने दत्तक की ही भाँति कामसूत्र के साधारण अधिकरण को आधार बना कर स्वतंत्र रूप से ग्रन्थ का प्रणयन किया - तत्प्रसंगात् चारायणः साधारणमधिकरणं पृथक्प्रोवाच।(कामसूत्र 1/1/12) कामसूत्र के अतिरिक्त आचार्य चारायण का स्मरण कौटिलीय अर्थशास्त्र में ‘तृणमिति दीर्घचारायणः।(5/93/4)’ कहकर एवं पातञ्जल महाभाष्य सूत्र ‘1/1/72’ के भाष्य में किया गया है। अर्थशास्त्र से यह प्रतीत होता है कि ये किसी राज्य के महामात्य थे। ये कृष्णयजुर्वेद की चारायणीय शाखा के प्रर्वतक, चाराणीय शिक्षा के रचयिता एवं अर्थशास्त्र के मर्मज्ञ थे। इन्होंने कामशास्त्र के सुसंस्कृत मानव जीवनचर्या रूप साधारण अधिकरण पर विशेष प्रकाश डाला है। इनका समय ई.पू. तृतीय शतक से पूर्व अनुमानित है। आचार्य चारायण मूलतः समाजविज्ञानी थे। चूंकि आचार्य वात्स्यायन ने साधारण अधिकरण के अधिकारी विद्वान् के रूप में इनके मतों का उल्लेख किया है अतएव इनका कामशास्त्र के आचार्य के रूप में यहॉ उल्लेख किया जा रहा है। आचार्य वात्स्यायन ने कामसूत्र में चारायण के मतों का स्पष्ट उद्धरण साधारण अधिकरण के नागरकवृत्तप्रकरण में नागरक की भोजन व्यवस्था के प्रसंग में एवं नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय विधवा स्त्री को पंचम प्रकार की नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में प्रस्तुत किया है।
06. घोटकमुखकृत कन्यासम्प्रयुक्तकाश्रित ग्रन्थ:-
कामसूत्र में प्राप्त विवरणानुसार आचार्य घोटकमुख ने कामसूत्र के तृतीय अधिकरण कन्यासम्प्रयुक्तक को आधार बनाकर अपने ग्रन्थ की रचना की - घोटकमुखः कन्यासम्प्रयुक्तम्।(कामसूत्र 1/1/12) आचार्य घोटकमुख का उल्लेख कौटिलीय अर्थशास्त्र, बौद्ध ग्रन्थ मज्झिमनिकाय, जैन ग्रन्थ नन्दिसूत्र एवं अनुयोगदारसूत्र में प्राप्त होता है। ‘मज्झिमनिकाय’ के घोटकमुखसुत्त के अनुसार आचार्य घोटकमुख अंगराज के अमात्य थे। इन्हें पांच सौ कार्षापण (तत्कालीन मुद्रा की एक इकाई) दैनिक वेतन प्राप्त होता था, बाद में ये बौद्ध बन गए थे। आचार्य कौटिल्य ने ‘शीटा शाटीति घोटकमुखः’ (कौ0अर्थ04/93/5) कहकर इन्हें किसी राजा का अमात्य स्वीकार किया है। चूंकि आचार्य घोटकमुख कौटिल्य द्वारा स्मृत हैं, अतः इनका समय चतुर्थ शतक ई.पू. अनुमानित है। कामसूत्रीय विवरणनुसार आचार्य घोटकमुख ने विवाहयोग्य कन्या हेतु उसके अभिभावक द्वारा अथवा अवस्थाप्राप्त कन्या द्वारा स्वयं अनुकूल वर चयन कर सामाजिक जीवन निर्वाह को आधार बनाकर कन्यासम्प्रयुक्तकाश्रित ग्रन्थ का निर्माण किया। ये मुख्यरूपेण अर्थशास्त्र एवं गौणरूपेण कामशास्त्र के आचार्य विशेष माने गए हैं। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में घोटकमुख के मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय गणिका की अक्षतयोनि पुत्री अथवा परिचारिका को सप्तम प्रकार की नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में; कन्यासम्प्रयुक्तक अधिकरण के वरणसंविधानप्रकरण में योग्य कन्या के विषय में पुष्टि हेतु, कन्याविस्रम्भणप्रकरण में लज्जाशील कन्या के स्वभाव कथन हेतु, बालोपक्रमप्रकरण में बाल्यकालिक प्रेम की उत्कृष्टता हेतु तथा एकपुरुषाभियोगप्रकरण में अनुरक्त कन्या की प्राप्ति के विषय में नायक द्वारा निरन्तर प्रयास किए जाने के प्रसंग में’ प्रस्तुत करते हैं।
07. सुवर्णनाभ कृत साम्प्रयोगविधान तन्त्र:-
कामसूत्र में प्राप्त विवरणानुसार आचार्य सुवर्णनाभ ने कामसूत्र के द्वितीय अधिकरण साम्प्रयोगिक अधिकरण को आधार बनाकर पृथग्रूपेण साम्प्रयोगविधानतन्त्र रूप अपने ग्रन्थ का प्रणयन किया - सुवर्णनाभः साम्प्रयोगिकम्। (कामसूत्र 1/1/12) आचार्य सुवर्णनाभ का उल्लेख कामसूत्र के अतिरिक्त काव्यमीमांसा में प्राप्त होता है। राजशेखर ने ‘रीतिनिर्णयं सुवर्णनाभः’(का0मी0 1/2) कह कर आचार्य सुवर्णनाभ को काव्यपुरुष की रीतिनिर्णयविद्या का आधिकारिक आचार्य स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त इनका कोई अन्य उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। आचार्य सुवर्णनाभ ने अपनी नवीन उद्भावनाओं सहित बाभ्रवीय कामसूत्र के रतिक्रीडापरक साम्प्रयोगिक अधिकरण को आधार बनाकर सम्प्रयोगविधानतन्त्रपरक ग्रन्थ का प्रणयन किया था, जिसमें सहृदय नागरिकों की सुव्यवस्थित जीवनचर्या का निरूपण करते हुए बाभ्रवीय संप्रयोगविधान के अतिरिक्त विविध प्रकार के आलिंगन, संवेशन आदि के नवीन विधानों का प्रवर्तन भी किया गया है। ये धर्मशास्त्र एवं कामशास्त्र के आचार्य विशेष माने गए है। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में सुवर्णनाभ के मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय प्रव्रजिता स्त्री को षष्ठ प्रकार की नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में; साम्प्रयोगिक अधिकरण के आलिगंनविचारप्रकरण में बाभ्रव्य द्वारा बताए गए आलिगंनभेदों के अतिरिक्त चार प्रकार के नवीन आलिगंनभेद कथन के प्रसंग में, नखरदनजातिप्रकरण में रतिक्रीड़ा में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए विधिनिषेध से परे होने के प्रसंग में, दशनच्छेदविधिप्रकरण में देशपरक रीति की अपेक्षा व्यक्ति की अपनी स्वाभाविक रुचि एवं प्रीति की श्रेष्ठता के कथन के प्रसंग में, संवेशनविधिप्रकरण में बाभ्रव्य द्वारा बताए गए संवेशनविधान के अतिरिक्त ग्यारह प्रकार के नवीन संवेशनविधि कथन के प्रसंग में तथा पुरुषायितप्रकरण में संवेशनक्रम में स्त्री के आनन्दप्राप्ति के रहस्यकथन के प्रसंग में’ प्रस्तुत करते हैं।
08. गोनर्दीय प्रणीत भार्याधिकारिक तन्त्र:-
आचार्य गोनर्दीय मुख्यतः व्याकरणशास्त्र के आचार्य है। इन्होंने कामसूत्र के चतुर्थ अधिकरण भार्याधिकारिक अधिकरण, जो पारिवारिक दृष्टिकोण से युक्त था; पर स्वतन्त्र रूप से नवीन ग्रन्थ ‘भार्याधिकारिक तन्त्र’ का प्रणयन किया - ‘गोनर्दीयो भार्याधिकारिकम्’। (कामसूत्र 1/1/12) कामसूत्र के अतिरिक्त आचार्य गोनर्दीय का स्मरण महाभाष्य में सूत्र संख्या 1/1/21, 1/1/29, 3/1/92 एवं 7/2/102 के व्याख्यान के प्रसंग में किया गया है। आचार्य गोनर्दीय के बारे में यत्किंचित जो कुछ भी विवरण उपलब्ध होता है, उनमें से एक मत के अनुसार आचार्य पतञ्जलि का ही देशज नाम गोनर्दीय था। क्योंकि गोनर्दीय शब्द का अर्थ गोनर्दप्रान्तीय व्यक्ति होता है। भारत में गोनर्द नाम से तीन स्थान प्रसिद्ध है, प्रथम कश्मीर राज्य का गोनर्द स्थान, द्वितीय मध्यदेश में गोनर्द नामक नगर तथा तृतीय अयोध्या के समीप गोनर्द नगर (वर्तमान में गोण्डा जनपद)। इन तीनों स्थानों में से व्याकरण की दृष्टि से कश्मीरीय या मध्यदेशीय गोनर्द की अपेक्षा प्राच्य गोनर्द से ही गोनर्दीय प्रयोग उपपन्न होता है। क्योंकि ‘एड्. प्राचां देशे’ सूत्र से पूर्व देशवाची शब्द की ही वृद्धिसंज्ञा होती है एवं वृद्धिसंज्ञा होने पर ही ‘वृद्धाच्छः’ सूत्र से ‘ईय्‘ प्रत्यय सम्भव है। काशिका में सूत्र सं0 1/1/75 में गोनर्द को प्राच्य देश माना गया है। ब्रह्माण्डपुराण में गोनर्द जनपद का स्मरण मल्ल एवं मगध के साथ किया गया है- मल्लमगध गोनर्दाः प्राच्यां जनपदाः स्मृताः। (1/2/17/54) ध्यातव्य है कि मल्ल जनपद की पूर्वी सीमा मगध से लगती थी एवं पश्चिमी सीमा गोनर्द (वर्तमान में उत्तर प्रदेश के गोण्डा) जनपद से। अतः कहा जा सकता है कि गोनर्द (गोण्डा) देश का निवासी होने के कारण शास्त्रकार का देशज नाम ‘गोनर्दीय’ पड़ा था। इसके अतिरिक्त महाभारत के शान्तिपर्व में कथित शिवसहस्त्रनाम के अनुसार ‘गोनर्द‘ भगवान शंकर का ही एक नाम है। अतः ‘वानामधेयस्य’ वार्तिक से नामधेय की विकल्प से वृद्धिसंज्ञा हो जाने के कारण भी गोनर्दीय प्रयोग उपपन्न होता है। इस स्थिति में भर्तृहरि, कैयट, राजशेखर, वैजयन्तीकोशकार, शिवरामेन्द्रसरस्वती, नागेशभट्ट आदि विद्वान् आचार्य गोनर्दीय को महाभाष्यकार पतञ्जलि का ही अपरनाम स्वीकार करते हैं किन्तु आचार्य युधिष्ठिर मीमांसक, वाचस्पति गैरोला आदि विद्वान् इन्हें पतञ्जलि भिन्न मानते हैं। यदि आचार्य भर्तृहरि जो कि आचार्य पतञ्जलि के सर्वाधिक निकट हैं; के कथन पर विश्वास किया जाय तो पतञ्जलि को आचार्य गोनर्दीय मानने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी। क्योंकि प्रचलित मान्यतानुसार परमशैव आचार्य पतञ्जलि शुंगवंशीय शासक सेनापति पुष्यमित्र के राजपुरोहित थे तथा पुष्यमित्र की राजधानी साकेत के निकटवर्ती गोनर्द नामक स्थान के निवासी थे। अतः आचार्य पतञ्जलि का देशज नाम एवं शैवाचार्य के रूप में गोनर्दीय उपनाम के साथ संगति उचित ही है। किन्तु आचार्य पतञ्जलि के नाम से प्राप्त अन्य ग्रन्थ सामवेदीय निदानसूत्र एवं योगसूत्र में इस प्रकार के विशेषण का कोई आधार नहीं प्राप्त होता है। यतः निश्चयेन कुछ कहा नहीं जा सकता है। इस प्रकार आचार्य पतञ्जलि के रूप में संभावित आचार्य गोनर्दीय का समय ई.पू. द्वितीय शतक से पूर्व स्वीकार किया जा सकता है। यदि आचार्य पतञ्जलि ही गोनर्दीय हैं तो उनके द्वारा कामसूत्र के भार्याधिकारिक अधिकरण पर स्वतन्त्ररूपेण से नवीन ग्रन्थ का प्रणयन करना उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप ही है। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में गोनर्दीय के मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय किशोरावस्था को प्राप्त कुलीन घर की कन्या को अष्टम प्रकार की नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में; भार्याधिकारिक अधिकरण के एकचारिणीवृत्तप्रकरण में पति-पत्नी के परस्पर समर्पण को गार्हस्थजीवन के लिए संतुष्टिदायक एवं चित्तग्राहक मानने के प्रसंग में, इसी प्रकरण में पति-पत्नी के द्वारा एक-दूसरे के दुर्गुणों को किसी अन्य से न प्रकाशित करने के प्रति सचेत करने के प्रसंग में तथा ज्येष्ठादिवृत्तप्रकरण में अपनी सपत्नी के प्रति आदरभाव रखने और पुनर्भू नायिका द्वारा योग्य पुरुष के चयन के प्रसंग में’ प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त आचार्य गोनर्दीय के वचनों को विभिन्न प्रसंगों में आचार्य मल्लिनाथ ने स्वकृत रघुवंश एवं कुमारसंभव की टीकाओं में निम्न प्रकरणों में उद्धृत किया है- (क) प्रणयसन्धि के विषय में:- रघुवंश के उन्नीसवें सर्ग के 16वें श्लोक की टीका में प्रणयसन्धि को विवेचित करने के प्रसंग में - अत्र गोनर्दीयः - ‘सन्धिद्र्विविधः सावरणप्रकाशश्च। आवरणो भिक्षुक्यादिना प्रकाशः स्वयमुपेत्य केनापि।।’ इति। (ख) रतावसान के संदर्भ में:- रघुवंश के उन्नीसवें सर्ग के 29वें श्लोक की टीका में रतावसान को विवेचित करने के प्रसंग में - अत्र गोनर्दीयः - ‘रतावसाने यदि चुम्बनादि प्रयुज्य यायान्मदनोऽस्य वासः।। इति। (ग) गृहस्थ द्वारा वेश्यागमन के संदर्भ में:- रघुवंश के उन्नीसवें सर्ग के 31वें श्लोक की टीका में गृहस्थ द्वारा वेश्यागमन काल को विवेचित करने के प्रसंग में - अत्र गोनर्दीयः - ऋतुस्नाताभिगमने मित्रकार्ये तथापदि।
त्रिष्वेतेषु प्रियतमः क्षन्तव्यो वारगम्यया।।इति। (घ) नवोढा के प्रति सखीजनों के कर्त्तव्य के संदर्भ में:- कुमारसंभव के सातवें सर्ग के 95वें श्लोक की टीका में नवविवाहिता स्त्री के प्रति सखीजनों के द्वारा करणीय कर्Ÿाव्य को विवेचित करने के प्रसंग में -
यथाह गोनर्दः - हासेन मधुना नर्मवचसा लज्जितां प्रियाम्।
विलुप्तलज्जां कुर्वीत निपुणैश्च सखीजनैः।।इति।
वस्तुतः आचार्य गोनर्दीय द्वारा प्रणीत भार्याधिकारिकतंत्रपरक कामशास्त्रीय ग्रन्थ परिवार की मर्यादा को सुरक्षित रखते हुए दम्पत्ति द्वारा रतिक्रीडाजनित नैसर्गिक आनन्द की सम्यक्प्राप्ति का प्रतिपादक ग्रन्थ था।
09. गोणिकापुत्र प्रणीत पारदारिक तन्त्र:-
वात्स्यायन के उल्लेखानुसार बाभ्रव्य पांचाल के द्वारा संपादित कामसूत्र के पंचम अधिकरण पारदारिक अधिकरण का आश्रय ग्रहण कर आचार्य गोणिकापुत्र ने उसे नवीन स्वरूप देते हुए स्वतन्त्र रूप से ‘पारदारिकतन्त्र’ परक नवीन ग्रन्थ का प्रणयन किया -
‘गोणिकापुत्रः पारदारिकम्’।(कामसूत्र 1/1/12) आचार्य गोणिकापुत्र व्याकरणशास्त्र के प्रामाणिक आचार्य थे। आचार्य पतञ्जलि ने महाभाष्य में सूत्र संख्या 1/4/51 पर इनका स्मरण किया है। इसके अतिरिक्त इनका उल्लेख कामशास्त्रीय ग्रन्थ रतिरहस्य, रतिरत्नप्रदीपिका आदि में प्राप्त होता है। आचार्य नागेशभट्ट महाभाष्य की टीका में गोणिकापुत्र को आचार्य पतञ्जलि के ही अपर नाम की संभावना करते हैं ‘गोणिकापुत्रो भाष्यकारः इत्याहुः’। किन्तु भर्तृहरि, कैयट आदि वैयाकरण तथा कोशकारों ने इस नाम को पतञ्जलि का पर्याय नहीं माना है। फिर पतञ्जलि के देशवाचक नाम के रूप में संभावित गोनर्दीय के साथ ही कामसूत्र में गोणिकापुत्र का पारदारिक अधिकरण के आचार्य के रूप में स्मरण किया गया है। अतएव यदि गोनर्दीय आचार्य पतञ्जलि का अपर नाम है, तो गोणिकापुत्र कथमपि उनका अपरनाम नहीं माना जा सकता है। उपर्युक्त तथ्यों के ऊपर विचार करने पर यही माना जा सकता है कि आचार्य गोणिकापुत्र महर्षि पतञ्जलि के पूर्ववर्ती विद्वान् थे। गोणिकापुत्र द्वारा विरचित पारदारिकतंत्रपरक ग्रन्थ तो नहीं प्राप्त होता है। हॉ ! कामसूत्र, रतिरहस्य, रतिरत्नप्रदीपिका आदि में इनके मतों का सादर उल्लेख अवश्य प्राप्त होता है। आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में गोणिकापुत्र के मतों का स्पष्ट उद्धरण ‘साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय पुत्रोत्पादन अथवा दैहिक सुख की प्राप्ति हेतु गृहीत अन्य स्त्री को पाक्षिकी नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में, इसी प्रकरण में अगम्या स्त्री के सन्दर्भ में बाभ्रव्य के मत कि ‘जिस स्त्री ने पांच पुरुषों के साथ संबन्ध स्थापित कर लिया हो, उसके साथ संबन्ध स्थापित करने में कोई दोष नहीं होता है’ के संशोधन में गोणिकापुत्र के पक्ष कि ‘पांच पुरुषों से संबन्ध स्थापित कर लेने पर भी संबन्धी, मित्र, विद्वान् ब्राह्मण, गुरु, तथा राजा की स्त्री सदा अगम्या ही होती है’ को प्रस्तुत करने के प्रसंग में; पारदारिक अधिकरण के शीलावस्थापनादि प्रकरण में सौन्दर्य के महŸव को प्रकट करने के उद्देश्य से कि ‘किसी स्वस्थ एवं आकर्षक परपुरुष के प्रति स्त्री की अनुरक्ति तथा उसी प्रकार किसी लावण्यमयी परस्त्री के प्रति पुरुष की अनुरक्ति, एक सहज और नैसर्गिक प्रवृत्ति है’ के कथन के संदर्भ में, दूतीकर्मप्रकरण में परपुरुष के साथ अपने प्रणय व्यापार के माध्यम हेतु विश्वस्त दूती के चयन के प्रसंग में, इसी प्रकरण में बिना परिचय एवं संकेत के सम्पन्न होने वाले दूतीकर्म के तथा सखी, भिक्षुकी, तापसी, सन्यासिनी आदि के घर को परपुरुष के साथ संबन्ध बनाने के स्थान के कथन के प्रसंग में एवं अन्तःपुरिकावृत्त प्रकरण में अन्तःपुर में प्रवेश करने के लिए वहाँ के रक्षकों को साम, दान, भेद आदि के प्रदर्शन द्वारा वशीभूत कर स्वार्थसिद्धि करने के प्रसंग में’ प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त रतिरहस्य में आचार्य कोक्कोक ने चन्द्रकला वर्णन के प्रसंग में तथा रतिरत्नप्रदीपिका में प्रौढ़देवराज ने स्त्रीजाति एवं चन्द्रकला वर्णन के प्रसंग में गोणिकापुत्र के मत का सादर स्मरण किया है।
10. कुचुमार प्रणीत कूचिमारतन्त्र वा कुचुमारसंहिता:-
कामसूत्रकार के उल्लेखानुसार बाभ्रव्यपांचाल के द्वारा संपादित कामसूत्र के सप्तम अधिकरण औपनिषदिक अधिकरण का आश्रय ग्रहण कर आचार्य कुचुमार ने उसे नवीन स्वरूप देते हुए स्वतन्त्र रूप से ‘औपनिषदिकतन्त्र’ परक कूचिमारतन्त्र का प्रणयन किया - ‘कुचुमार औपनिषदिकमिति’।(कामसूत्र 1/1/12) आचार्य कुचुमार औपनिषदिकतन्त्र के प्रामाणिक आचार्य थे। बर्नेल म्यूजियम में संग्रहीत पुस्तकों के सूचीपत्र के अनुसार 8 पटलों में विभक्त कूचिमारतन्त्र वा कुचुमारसंहिता नामक एक ग्रन्थ सन् 1922 ई0 में लाहौर से तथा सन् 1925 ई0 में धन्वन्तरि ग्रन्थावली अलीगढ, विजयगढ से प्रकाशित हुआ था। संप्रति 168 श्लोकयुत् 9 पटलों में विभक्त हिन्दी अनुवाद सहित कूचिमारतन्त्रम् नामक ग्रन्थ चैखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से 2007 में प्रकाशित है।
11. कर्णीसुत मूलदेव प्रणीत कामतन्त्र:-
आचार्य कर्णीसुत मूलदेव का कामशास्त्रज्ञ के रूप में रतिरहस्य एवं पूर्णसरस्वती विरचित मालतीमाधव की टीका (पृ0 170) में स्मरण किया गया है। कर्णीसुत मूलदेव को संस्कृत साहित्य में बहुमान्य व्यक्तित्व से परिपूर्ण व्यक्ति के रूप वर्णित किया गया है। संस्कृत साहित्य में जिस प्रकार कुलीन नायक के रूप में वत्सराज उदयन समादृत हैं, उसी प्रकार का सम्मान कर्णीसुत मूलदेव को वैशिक नायक के रूप में प्राप्त है। महाकवि बाणभट्ट ने कादम्बरी में विन्ध्याटवी वर्णन के समय -‘कर्णीसुतकथेव संनिहित विपुलाचला शशोपगता च’- कह कर कर्णीसुतकथा की प्रसिद्धि का उल्लेख किया है। इस पंक्ति की व्याख्या करते समय कादम्बरी के टीकाकार आचार्य भानुचन्द्र गणि बृहत्कथा से उद्धरण प्रस्तुत करते हुए कर्णीसुत को चौर्यशास्त्र का प्रवर्तक स्वीकार करते हैं- ‘कर्णीसुतः करटकः स्तेयशास्त्र प्रवर्तकः .....।’। महाकवि शूद्रक ने ‘पद्मप्राभृतकम्’ नामक भाणरूपक में कर्णीसुत मूलदेव की वैशिक प्रणयलीला का अत्यन्त मनोहारी चित्रण प्रस्तुत किया है। पद्मप्राभृतकम् के अनुसार कर्णीसुत मूलदेव पाटलिपुत्र का निवासी थे। ये कलामर्मज्ञ, कामशास्त्र के वैशिक प्रकरण के आधिकारिक विद्वान् तथा चौर्यशास्त्र का मान्य आचार्य थे एवं वाणिज्य-व्यापार, कला-संस्कृति तथा साहित्य का अन्तर्राष्ट्रीय का केन्द्र होने के कारण अवन्ती (उज्जयिनी) में ही निवास करते थे। चौर्यशास्त्र का आचार्य होने के कारण वेश्यालय के साथ उनका घनिष्ट संबन्ध था। क्योंकि वाणिज्य हेतु अन्य देशों से आए व्यापारियों एवं कला के उपासकों की संतुष्टि बिना गणिकाभवन के साहचर्य के संभव नहीं और अपने अभीष्ट की चौर्यसिद्धि में साधनभूत गणिका को वही व्यक्ति वशीभूत कर सकता है, जो चौंसठ सामान्य कलाओं एवं चौंसठ कामक्रीड़ापरक कलाओं का मर्मज्ञ हो। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण कर्णीसुत उज्जयिनी की एक प्रमुख गणिका विपुला का प्रणयभाजन बन जाते हैं, किन्तु अपनी भ्रमरवृत्ति के कारण विपुला द्वारा ठुकराए जाने पर वे दूसरी प्रमुख वेशयुवती देवदत्ता के साथ अपना प्रेमसंबन्ध बना लेते हैं। देवदत्ता के साथ प्रेमप्रसंग काल में ही उनकी दृष्टि उसकी छोटी बहिन देवसेना पर पड़ती है, कर्णीसुत देवसेना के अनिंद्य सौन्दर्य के मोहपाश में उलझ कर कामज्वर से पीड़ित हो जाते हैं। तब उनका शश नामक मित्र अपने प्रयत्नों के द्वारा देवदत्ता को अनुकूल बनाते हुए कर्णीसुत का देवसेना के साथ सम्मिलन करवाता है। इसी प्रसंग में कर्णीसुत के लिए कवि दो बार ‘कामतन्त्रसूत्रधार’ विशेषण का उल्लेख करता है। इसके अतिरिक्त धूर्तविटसंवाद नामक भाणरूपक तथा भरतमुनि कृत नाट्यशास्त्र में अनेक स्थानों पर कामतन्त्र नामक ग्रन्थ का सादर उल्लेख प्राप्त होता है। अतः निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि आचार्य कर्णीसुत मूलदेव वैशिक कामशास्त्र, कलाशास्त्र एवं चौर्यशास्त्र आदि के बहुमान्य आचार्य थे। इनका समय ई.पू. चतुर्थ शतक से ई.पू. षष्ठ शतक के मध्य संभावित है। रतिरहस्यकार ने उत्कलदेश की रमणियों को संतुष्टि प्रदान करने वाले विविध उपचारों के वर्णन के प्रसंग में आचार्य मूलदेव के मत का उल्लेख किया है।
12. कश्मीरनरेश वसुनन्द कृत स्मरशास्त्र:-
महाकवि कल्हण कृत राजतरंगिणी में प्राप्त विवरणानुसार कश्मीरनरेश क्षितिनन्द के पुत्र वसुनन्द ने कामशास्त्र पर एक प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा था -
‘द्वापंचाशतमब्दान्क्ष्मां द्वौ च मासौ तदात्मजः।
अपासीद्वसुनन्दाख्यः प्रख्यात स्मरशास्त्रकृत्।।’(राजतरंगिणी 1/337)।
इस राजा ने 52 वर्ष 2 माह तक कश्मीर पर शासन किया था। इसके अतिरिक्त वसुनन्द का उल्लेख वैशिक ग्रन्थ कुट्टनीमतम् में श्लोक संख्या 76 पर किया गया है। वसुनन्द कृत स्मरशास्त्र समय की धारा में विलीन हो गया। इस ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के विषय में मात्र इतना ही विवरण प्राप्त होता है।
(ख) वात्स्यायनीय कामसूत्र एवं परवर्ती ग्रन्थ:-
(12) वात्स्यायन कृत कामसूत्र:
आचार्य वात्स्यायन भास, कालिदास आदि की भॉति अपने विषय में सर्वथा मौन हैं। कामसूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य यशोधर एवं वासवदत्ताकार सुबन्धु के उल्लेखानुसार इनका वास्तविक नाम मल्लनाग था। वात्स्यायन इनका गोत्रवाचक नाम था। आचार्य मल्लनाग वात्स्यायन ने लोकजीवन को सरल, सफल, सुचारु एवं मर्यादित बनाने के लिए ब्रह्मचर्य पूर्वक एकाग्रचित्त होकर इस गम्भीर कृति का निर्माण किया। जिसका उल्लेख वे स्वयं करते हैं -
तदेतद् ब्रह्मचर्येण परेण च समाधिना।
विहितं लोकयात्रार्थं न रागार्थोऽस्य संविधिः।। कामसूत्र 7/2/57।।
कामसूत्रकार आचार्य वात्स्यायन के स्थितिकाल के विषय में प्रामाणिक सामग्री का नितान्त अभाव है। क्योंकि आचार्य वात्स्यायन तो अपने विषय में सर्वथा मौन हैं ही, उनके समकालीन किसी अन्य आचार्य ने भी उनके विषय में कुछ नहीं लिखा है। अतः वात्स्यायन के समय के विषय में जो कुछ भी मत प्रस्तुत हुए हैं वे यत्किंचित अन्तर्बाह्यसाक्ष्यजनित अनुमान पर ही आधारित हैं। परवर्ती ग्रन्थों में भी उनके जीवन के विषय में कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। हॉ ! विविध कोषकारों के कथन की पुष्टि करती हुयी यह किंवदन्ती प्रचलित है कि - ‘वात्स्यायन अर्थशास्त्र के प्रणेता आचार्य कौटिल्य का ही अपर नाम है। कौटिल्य ने ही अपने गोत्रवाचक छद्मनाम से अर्थशास्त्र की ही रचनापद्धति पर कामसूत्र का भी प्रणयन किया था’।
किन्तु अन्तःसाक्ष्यों एवं बाह्यसाक्ष्यों पर तर्कपूर्ण ढंग से विचार करने पर यह किंवदन्ती एवं कोषकारों का प्रामाण्य स्वतः निरस्त हो जाता है। कामसूत्र जैसी महनीय कृति का निर्माण शान्ति एवं समृद्ध वातावरण में ही हो सकती है और भारतीय इतिहास में ई.पू. प्रथम शतक से प्रथम शतक ईशवीय तक का सातवाहन शासनकाल तथा गुप्तकाल यही दो समय विशेष सुख एवं समृद्धि का रहा है। अन्तःसाक्ष्यों एवं बाह्यसाक्ष्यों पर विमर्श करने पर आचार्य वात्स्यायन इन दोनों कालों में से सातवाहन शासनकाल के सर्वाधिक निकट प्रतीत होते हैं।
आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र के साम्प्रयोगिक अधिकरण के प्रहणनसीत्कार प्रकरण में सातवाहन नरेश कुन्तलशातकर्णि का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि -
‘कर्तर्या कुन्तलःशातकर्णिः शातवाहनो महादेवीं मलयवतीं जघान’(कामसूत्र2/7/29)।
कामसूत्र के प्रामाणिक टीकाकार आचार्य यशोधर ‘कुन्तल’ शब्द से कुन्तल जनपद अर्थ का ग्रहण करते हैं। किन्तु प्रो0 गुर्ती वेंकटराव ने अपने ‘प्राक्-सातवाहन काल और सातवाहन काल’ नामक बृहद् शोध निबन्ध में ऐतिहासिक अनुशीलन करते हुए यह स्पष्ट किया है कि कुन्तल शातकर्णि आन्ध्रभृत्य सातवाहन वंश का तेरहवां शासक था, जिसका समय ई.पू. 52 से ई.पू. 44 तक रहा। इसने मात्र आठ वर्ष तक ही शासन किया था। अतः आचार्य वात्स्यायन ई.पू. प्रथम शतक से पूर्व के नहीं माने जा सकते हैं; यह कामसूत्रकार की पूर्व सीमा है। महाकवि सुबन्धु ने ‘वासवदत्ता’ नामक अपने कथापरक उपन्यास में ‘कामसूत्र विन्यास इव मल्लनाग घटित कान्तार सामोदः’ कहकर वात्स्यायन के मूल नाम का उद्घाटन किया, जिसका समर्थन बाद में आचार्य यशोधर ने भी किया। इनसे भी पूर्ववर्ती संस्कृत कथा साहित्य के अनुपम ग्रन्थ ‘पंचतंत्र’ के प्रणेता पं. विष्णुशर्मा ने पंचतंत्र में ‘ततो धर्मशास्त्राणि मन्वादीनि, अर्थशास्त्राणि चाणक्यादीनि, कामशास्त्राणि वात्स्यायनादीनि’ कहते हुए वात्स्यायन का ग्रन्थ सहित स्मरण किया है। इनमें से महाकवि सुबन्धु षष्ठ शतक में तथा पं0 विष्णुशर्मा तृतीय से चतुर्थ शतक के मध्य में हुए थे। यह कामसूत्रकार की अपर सीमा है। इस प्रकार उपर्युक्त विवरणों के आलोक में आचार्य वात्स्यायन का समय ईशा पूर्व प्रथम शतक से चतुर्थ शतक ईशवीय के मध्य स्थिर है। आचार्य वात्स्यायन के काल के साथ-साथ उनके निवासस्थान के विषय में भी विवाद है। डॉ. ए.बी. कीथ, डॉ. सूर्यकान्त, नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य आदि आलोचक इन्हें पश्चिमोत्तर भारत का निवासी मानते हैं। पं. देवदत्त शास्त्री इन्हें उत्तर भारत के वत्स देश का निवासी मानते हैं।
हमारे दृष्टिकोण से उपर्युक्त स्थापनाएं एकांगी हैं। आचार्य वात्स्यायन वत्य/वात्स्य गोत्रीय ब्राह्मण थे। भारतीय परम्परा के अनुसार प्रत्येक गोत्र किसी न किसी वेद की शाखा से संबन्धित होता है एवं उस शाखा के अपने धर्मविधान, गृह्यविधान, यज्ञविधान आदि होते हैं जो सूत्र कहे जाते हैं। कामसूत्र एवं कल्पसूत्र साहित्य पर तुलनात्मक दृष्टिपात करने पर कामसूत्र एवं आपस्तम्बगृह्यसूत्र के कतिपय सूत्रों में स्पष्ट समानताएं दिखायी पड़ती हैं। इस प्रकार ऐतिहासिक विवेचनों एवं कतिपय नवीन प्रमाणों का आधार ग्रहण करते हुए मैंने आचार्य मल्लनाग वात्स्यायन का समय ईशा पूर्व प्रथम शतक के उत्तरार्ध से प्रथम शतक ईशवीय के पूर्वार्ध के मध्य सातवाहनकाल में स्वीकार करते हुए उन्हें आन्ध्रदेशीय आपस्तम्ब शाखा एवं सूत्र से संबन्धित वत्य/वात्स्य गोत्रीय ब्राह्मण माना है। इनके काल एवं निवासस्थान के संबन्ध में विस्तृत विवरण हमारे समालोचनात्मक ग्रन्थ ‘कामसूत्र का सामाजिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन’ में दिए गए हैं, जो कि चैखम्बा विद्याभवन, वाराणसी से प्रकाशित है।
ध्यातव्य है कि यह चराचर जगत् दो रूपों में विभक्त है - जड़ एवं चेतन, इनमें भी चेतन जगत् अज्ञ एवं विज्ञ रूप से दो भागों में विभाजित है। पशु, पक्षी, कीटादि अज्ञ होने के कारण रतिसुख के लिए स्वतंत्र होते हैं, उनकी स्वाभाविक कामेक्षा ही उनके रतिसुख के लिए पर्याप्त होती है। किन्तु मानव विज्ञ होने के कारण रतिसुख के लिए परतंत्र होते हैं। क्योंकि उनमें संकोच, लज्जा, लोकभय आदि की भावनाएं व्याप्त रहती हैं, जो अज्ञों में नहीं होती हैं। मानव में परस्पर रतिभाव उत्पन्न करने और विषयसुख की अनुभूति करने के लिए यह आवश्यक है कि वे रतिभाव के संबन्ध में विशेष ज्ञान प्राप्त करे, जिससे वह लोक को संतुष्ट एवं मर्यादित रख सके। अतः मानव के लिए रतिभाव एवं कामसुख का भौतिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए जो उपाय-विशेष कहे गए हैं, वे कामसूत्र के द्वारा ही जाने जा सकते हैं। यह कथन स्वयं आचार्य वात्स्यायन का है -
‘सा च उपाय प्रतिपत्ति: कामसूत्रात्’(कामसूत्र 1/2/19)।
आचार्य वात्स्यायन द्वारा विरचित कामसूत्र का प्रतिपाद्य विषय है ‘काम’। काम सृष्टि की एक अत्यन्त प्रबलतम शक्ति है। इस चराचर जगत् में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो काम के प्रभाव से अभिभूत न हुआ हो। जब आचार्य वात्स्यायन काम के सार्वभौमिक स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ‘श्रोत, त्वक्, चक्षु, जिह्वा एवं नासिका रूप पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ अपने अपने विषयों में आत्मा को मन-बुद्धि के माध्यम से रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द रूपी सांसारिक कार्य-व्यापार रूप विषय का उपभोग करने में जिस अनुकूलनात्मक आनन्द रूप सुख का अनुभव कराती हैं, वह अनुकूलनात्मक प्रवृत्ति ही ‘काम’ कही जाती है।’ काम की यह परिभाषा में धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग को पूर्णतया अपने में समाहित कर लेती है। किन्तु काम यह स्वरूप सार्वभौमिक है। सृष्टि की सभी अनुकूलनात्मक क्रियाएँ इसमें अन्तर्भुक्त हो जाती हैं। क्योंकि धर्म पालन में, अर्थ साधन में, पुत्रस्नेह में, विद्याध्ययन में, परोपकार में, प्रकृति रमणीयता के दर्शन इत्यादि में आत्मा को ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अनुकूलता की प्रतीति होने के कारण ये क्रियाएँ भी काम ही हैं। अतः कामसूत्रकार पुनः काम के लौकिक स्वरूप को परिभाषित करते हैं –
‘स्पर्शविशेष विषयात्त्वस्याभिमानिकसुखानुविद्धा फलवत्यर्थप्रतीतिः प्राधान्यात् कामः’ (कामसूत्र 1/2/12)।
यहाँ पर पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्श विशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिक रूपेण आनन्ददायक व्यवहार रूप फलवती अर्थप्रतीति को ‘कामविशेष’ कहा गया है। वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपस्थ रूप पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा क्रमशः वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग एवं आनन्द रूप कर्म सम्पन्न होते हैं। इनमें से स्त्री एवं पुरुष के अधोभाग में स्थित जननांग, जो स्वभावतः त्वगिन्द्रिय ही है; परस्पर संसर्गावस्था में अनिर्वचनीय आनन्द को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार दम्पत्ति को परस्पर संसर्गजन्य जिस विचित्र एवं अवर्णनीय आनन्द की प्राप्ति होती है, वही काम की फलवती अर्थप्रतीति है; क्योंकि सम्यग्रूपेण सम्पन्न होने वाले संसर्ग से ही सृष्टि प्रक्रिया का सातत्य भी अविच्छिन्न बना रहता है। इस फलवती अर्थप्रतीति को मानव किस प्रकार सम्पादित करे, जिससे उसकी सामाजिक मर्यादा भी सुरक्षित रहे एवं वह नैसर्गिक सुख-आनन्द का समुचित रूप से उपभोग करते हुए अपने गृहस्थ जीवन सुखी भी बना सके ? इसके लिए आचार्य वात्स्यायन कहते हैं कि काम विषयक ज्ञान को कामसूत्र एवं विदग्ध सम्भ्रान्त नागरिकों से प्राप्त किया जाना चाहिए। क्योंकि शास्त्र एवं श्रेष्ठ पुरुष ही सामान्य जनों को सुव्यवस्थित सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए सफल दाम्पत्यजीवन जीने की कला शिक्षा दे सकते हैं।
आचार्य मल्लनाग वात्स्यायन ने तत्कालीन सुखी समाज में सामाजिकों के यौनजीवन को सुव्यवस्थित एवं मर्यादित बनाए रखने के उद्देश्य से लुप्तप्राय कामसूत्र जैसे महनीय ग्रन्थ का पुनर्प्रणयन किया। कामसूत्र का प्रकरणानुसार औचित्यपूर्ण विवेचन प्रस्तुत है।
कामसूत्र:-
आचार्य वात्स्यायन ने बाभ्रव्य पांचाल कृत कामसूत्र एवं चाणक्य कृत अर्थशास्त्र को आधार बनाकर कामसूत्र को 1250 श्लोकों के प्रमाण में सात अधिकरणों, 36 अध्यायों एवं 64 प्रकरणों में विभक्त किया है। प्रथम अधिकरण का नाम साधारण अधिकरण है। इस अधिकरण के प्रत्येक अध्याय में एक-एक प्रकरण हैं, इस प्रकार इस अधिकरण में कुल पांच अध्याय एवं पांच प्रकरण हैं।
प्रथम अध्याय में शास्त्रसंग्रह नामक प्रकरण है। आचार्य वात्स्यायन इस प्रकरण के द्वारा ग्रन्थ का प्रारम्भ करते समय मंगलाचरण के रूप में धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग पुरुषार्थ को नमस्कार करते हैं; क्योंकि उन्होंने इस शास्त्र के माध्यम से धर्म एवं अर्थ के द्वारा अनुमोदित एवं अनुशासित काम के सेवन का उपदेश किया है। पुनः धर्म, अर्थ एवं काम संबन्धी ग्रन्थों का प्रणयन कर समाज की मनोवृत्तियों को नियमित एवं मर्यादित करने वाले उन-उन शास्त्रों के तत्त्वज्ञ आचार्यों का भी नमन किया है।
इस प्रकार मंगलाचरण करते हुए आचार्य वात्स्यायन कामशास्त्र की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए इसकी पूर्व की परम्परा का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि “सर्वप्रथम प्रजापति ब्रह्मा ने प्रजा की सृष्टि करने के उपरान्त प्रजा की सामाजिक स्थिति एवं मर्यादा का नियमन करने के उद्देश्य से धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग के साधनभूत एक लाख श्लोकों में कर्त्तव्य एवं अकर्त्तव्य का बोध कराने वाले मानव-संविधान-परक शास्त्र का प्रवचन किया। कालान्तर में प्रजापति ब्रह्मा द्वारा प्रवचित उस संविधानपरक शास्त्र के धर्मशास्त्र विषयक अंश को स्वायम्भुव मनु ने पृथक् रूप से मानव धर्मशास्त्र के रूप में संपादित कर स्वतंत्र स्वरूप दे दिया। इसी आधार पर आचार्य बृहस्पति ने उस संविधानपरक शास्त्र के अर्थशास्त्र विषयक अंश का सम्यक् अध्ययन करने के पश्चात् पृथक् रूप से बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र के रूप में संपादित कर स्वतंत्र स्वरूप दे दिया। इस परम्परा का अनुसरण करते हुए भगवान शिव के अनुगामी शिलादि ऋषि के पुत्र नन्दी या नन्दिकेश्वर ने उस संविधानपरक शास्त्र के कामशास्त्र विषयक अंश को पृथक् कर एक हजार अध्यायों में कामसूत्र के रूप में संपादित कर विशद् एवं स्वतंत्र स्वरूप दे दिया। चूँकि नन्दी द्वारा संपादित कामसूत्र अत्यन्त विशद् था, अतः गौतम गोत्रीय उद्दालक ऋषि के पुत्र महर्षि श्वेतकेतु ने उस कामसूत्र का पुनः संपादन कर पांच सौ अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। किन्तु बाद के समय में यह कामसूत्र भी जन सामान्य के लिए कठिन हो गया। अतः पांचाल देश के निवासी बभ्रु ऋषि के पुत्र बाभ्रव्य पांचाल ने श्वेतकेतु के पांच सौ अध्यायों वाले कामसूत्र को एक सौ पचास अध्यायों में संक्षिप्त कर ‘साधारण, साम्प्रयोगिक, कन्यासम्प्रयुक्तक, भार्याधिकारिक, पारदारिक, वैशिक एवं औपनिषदिक’ इन सात अधिकरणों में विभक्त कर दिया।
इनके बाद के समय में आचार्य दत्तक ने पाटलिपुत्र की गणिकाओं के अनुरोध पर कामसूत्र के छठवें अधिकरण वैशिक अधिकरण का आश्रय ग्रहण कर पृथक् रूप से दत्तकसूत्र नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया। जिस प्रकार आचार्य दत्तक ने वैशिक अधिकरण का स्वतंत्र रूप से प्रणयन किया, उसी प्रकार विषय-विशेष का व्यवस्थित एवं विस्तृत विवेचन करने के उद्देश्य से आचार्य चारायण ने साधारण अधिकरण, आचार्य सुवर्णनाभ ने साम्प्रयोगिक अधिकरण, आचार्य घोटकमुख ने कन्यासम्प्रयुक्तक अधिकरण, आचार्य गोनर्दीय ने भार्याधिकारिक अधिकरण, आचार्य गोणिकापुत्र ने पारदारिक अधिकरण, एवं आचार्य कुचुमार ने औपनिषदिक अधिकरण का स्वतंत्र रूप से विस्तृत विवेचन किया। किन्तु भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा बाभ्रव्य पांचाल विरचित कामसूत्र के अधिकरणों को भिन्न-भिन्न खण्डों में लिखे जाने के वह महाग्रन्थ बिखर सा गया।
चूंकि दत्तक आदि आचार्यों ने पृथक्-पृथक् अधिकरणों का आश्रय ग्रहण कर अपने-अपने ग्रन्थों की रचना की थी, अतः ये ग्रन्थ कामसूत्र के अंशमात्र होने के कारण उसके प्रयोजन को पूरा करने में असमर्थ थे। फिर आचार्य बाभ्रव्य द्वारा रचित कामसूत्र विशाल होने के कारण तत्कालीन जन-सामान्य के लिए कठिन हो गया था। इन सभी परिस्थितियों पर भलीभॉति विचार करके आचार्य वात्स्यायन ने बाभ्रव्य विरचित कामसूत्र को समसामयिक जनसमुदाय की बुद्धि के अनुकूल सरलता पूर्वक समझे जाने योग्य पूर्ण एवं संक्षिप्त इस कामसूत्र की रचना की। वात्स्यायन द्वारा रचित इस कामसूत्र के प्रकरण, अध्याय, अधिकरण आदि इस प्रकार हैं।
इसके प्रथम अधिकरण का नाम साधारण अधिकरण है, इसमें पांच अध्याय एवं पांच ही प्रकरण हैं। द्वितीय अधिकरण का नाम साम्प्रयोगिक अधिकरण है, इसमें दश अध्याय एवं सत्रह प्रकरण हैं। तृतीय अधिकरण का नाम कन्यासम्प्रयुक्तक अधिकरण है, इसमें पांच अध्याय एवं नौ प्रकरण हैं। चतुर्थ अधिकरण का नाम भार्याधिकारिक अधिकरण है, इसमें दो अध्याय एवं आठ प्रकरण हैं। पंचम अधिकरण का नाम पारदारिक अधिकरण है, इसमें छः अध्याय एवं दश प्रकरण हैं। षष्ठ अधिकरण का नाम वैशिक अधिकरण है, इसमें छः अध्याय एवं बारह प्रकरण हैं। सप्तम अधिकरण का नाम औपनिषदिक अधिकरण है, इसमें दो अध्याय एवं छः प्रकरण हैं। इस प्रकार एक हजार दो सौ पचास श्लोक के परिणाम वाले इस ‘कामसूत्र’ में कुल छब्बीस अध्याय, चौंसठ प्रकरण एवं सात अधिकरण हैं।
द्वितीय अध्याय में त्रिवर्गप्रतिपत्ति नामक प्रकरण है। भारतीय विचारधारा के अनुसार शास्त्र का परिणाम है त्रिवर्ग की प्रतिपत्ति अर्थात् धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग की प्राप्ति। शास्त्र के लिए त्रिवर्ग की प्राप्ति के साधन क्या हैं, उसके उपाय की खोज करना आवश्यक है। अतः शास्त्रसंग्रह के पश्चात् आचार्य वात्स्यायन इस प्रकरण को प्रस्तुत करते हैं। त्रिवर्ग की प्रतिपत्ति के तीन भेद हैं - अनुष्ठान, अवबोध एवं संप्रतिपत्ति। इनमें से त्रिवर्ग की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले उपाय को अनुष्ठान कहा जाता है, धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझने की प्रक्रिया को अवबोध कहते हैं तथा त्रिवर्ग पर अधिकार कर लेने को संप्रतिपत्ति कहा गया है। इन तीनों में अनुष्ठान का ही प्रामुख्य होता है। अतएव आचार्य वात्स्यायन सबसे पहले अनुष्ठान पर विचार करते हुए कहते हैं कि ”शतंजीवी मानव को चाहिए कि वह अपने जीवन को आश्रमों में विभाजित कर धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग का इस प्रकार सेवन करे कि वे तीनों एक-दूसरे से परस्पर संबद्ध भी रहें एवं परस्पर अनिष्टकारी भी न हों।“ अपने इस कथन के द्वारा आचार्य वात्स्यायन ने भारतीय मनीषा की चिन्तन प्रणाली का सार ही यहॉं प्रस्तुत कर दिया है। भारतीय जीवन-पद्धति में मानव की आयु सौ वर्ष की मानी गयी है। शतवर्षीय जीवन की कामना लिए वैदिक ऋषि पूर्व दिशा में उदित भगवान सूर्य से प्रार्थना करता हुआ कहता है – ‘पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शतं, शृणुयाम शरदः शतं, प्रब्ब्रवाम शरदः शतं, अदीनाः स्याम शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात्’। इसलिए कल्याणमय जीवनयापन की कामना करने वाले मानव को चाहिए कि वह अपने जीवन को विभिन्न आश्रमों में विभाजित कर अन्योन्यानुबद्ध एवं परस्पर अनुपघातक त्रिवर्ग का सेवन करे। यहॉं अन्योन्यानुबद्ध एवं अनुपघातक शब्द का आशय है कि त्रिवर्ग के उपभोग में धर्म, अर्थ एवं काम में से किसी एक पुरुषार्थ की ही प्रधानता होगी किन्तु अन्य पुरुषार्थ भी गौण रूप से सम्मिलित हों और उनमें किसी भी प्रकार का विरोध हो ही नहीं। यदि जीवन में धर्म की प्रधानता हो तो अर्थ एवं काम सहायक हों, विरोधी नहीं; अर्थ की प्रधानता हो तो धर्म एवं काम सहायक हों, विरोधी नहीं तथा काम की प्रधानता हो तो धर्म एवं अर्थ सहायक हों, विरोधी नहीं।
आचार्य वात्स्यायन सौ वर्ष की अवस्था का क्रमानुसार विभाजन करते हुए कहते हैं कि ‘बाल्यावस्था में विद्योपार्जन आदि बाल्यकाल के अनुकूल कार्यों का सेवन किया जाना चाहिए।’ अवस्था के विभाजन पर शास्त्रों में कहा गया है कि - ‘आ षोडषात् भवेद् बालो यावत् क्षीरान्नवर्तनः। मध्यमः सप्ततिं यावत् परतो वृद्ध उच्यते।।’ अर्थात् सोलह वर्ष की अवस्था तक मानव बालक कहा जाता है, सत्तर वर्ष की अवस्था तक मध्यम तथा इसके बाद वृद्ध कहा जाता है। इस प्रकार मानव को अपने बाल्यकाल में विद्या की साधना करते हुए शारीरिक एवं मानसिक विकास, लोक-व्यवहार आदि का परिज्ञान कर लेना चाहिए; क्योंकि जीवन के मध्यमकाल को सुखी एवं मर्यादित बनाने में बाल्यकाल का ही योगदान महत्त्वपूर्ण होता है। बाल्यकाल के बाद की अवस्था अर्थात् यौवनकाल में काम का सेवन किया जाना चाहिए तथा वृद्धावस्था में धर्म एवं मोक्ष का सेवन किया जाना चाहिए। चूंकि जीवन अनित्य है अतः त्रिवर्ग का सेवन समय एवं आवश्यकतानुसार कभी भी किया जा सकता है। क्योंकि मानव की कामना सौ वर्ष की आयु प्राप्त करने की अवश्य है किन्तु मृत्यु पर उसका नियन्त्रण किसी भी रूप में नहीं है। अतः जीवनकाल नियत अवस्था वाला नहीं होने के कारण जिस समय जो भी सम्भव हो, सामाजिक मर्यादा एवं लोकाचार का अनुसरण करते हुए त्रिवर्ग का इच्छानुसार सेवन कर लेना चाहिए। हॉ ! त्रिवर्ग के सेवन में परस्पर संबद्धता एवं इष्टकारी भाव का होना आवश्यक है। इस प्रकार मानव का बाल्यकाल में ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हुए जीवन को सार्थक एवं उपयोगी बनाने के लिए विविध प्रकार की आध्यात्मिक एवं लोकोपकारक विद्याओं का उपार्जन करना आवश्यक एवं अनिवार्य है। विद्योपार्जन के पश्चात् ब्रह्मचारी अर्थोपार्जन में प्रवृत्त होते हुए उपयुक्त कन्या के साथ धार्मिक विधि से विवाह कर उसके उद्देश्य की पूर्ति करता था। शास्त्रों में विवाह के तीन उद्देश्य माने गए हैं - यज्ञादि समस्त धार्मिक कर्मों का सम्पादन करना, कामोपभोग के द्वारा शरीर को जैविक अनुकूलता प्रदान करना तथा संतानोत्पत्ति कर सृष्टि का सातत्य बनाते हुए पितृ ऋण से मुक्ति प्राप्त करना।
त्रिवर्ग का उपाय बता देने मात्र से ही उसका अनुष्ठान संभव नहीं है। अतः आचार्य वात्स्यायन धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझने की प्रक्रिया अवबोध पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए सर्वप्रथम लोक की व्यवस्था का नियमन करने वाले धर्म के स्वरूप का विवेचन करते हुए कहते हैं कि ‘अलौकिक एवं परोक्ष फल देने वाले यज्ञ आदि कृत्यों में शीघ्र प्रवृत्त न होने वाले मानव का शास्त्र के आदेश से प्रवृत्त होना तथा लोक में प्रत्यक्ष फल से युक्त होने के कारण मांसादि अभक्ष्य भक्षण रूप कार्यों में प्रवृत्त मनुष्य का शास्त्र के आदेश से निवृत्त होना ही ”धर्म“ है। क्योंकि विद्वानों के लिए वेदादि शास्त्र प्रमाण हैं तथा जन-सामान्य के लिए धर्मज्ञ विद्वान्। जीवन में धर्माचरण की आवश्यकता पर अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए कामसूत्रकार कहते हैं कि - चूंकि धर्म का व्यवस्थित रूप से नियमन करने वाले वेदादि शास्त्र ईश्वरप्रोक्त एवं मंत्रद्रष्टा ऋषियों द्वारा दृष्ट हैं, अतएव उनके वचनों पर किसी भी प्रकार से सन्देह नहीं किया जा सकता है। उन शास्त्रों के द्वारा प्रवर्तित शान्ति-पुष्टिधायक कर्मो एवं अभिचार कर्मों के फलों का अनुभव भी इसी लोक में होता है। नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, तारागण एवं ग्रहादि की प्रवृत्ति भी लोकहित के लिए ही धर्मवाद सम्मत है। वर्ण एवं आश्रम व्यवस्था तथा उनके पालन में किए जाने वाले आचार-विचार परक सभी प्रकार के कर्मों का प्रतिपादन धर्म में ही किया गया है। इसलिए जिस प्रकार जीवनयापन के लिए हाथ में आए हुए बीज को भविष्य में उत्पन्न होने वाले अन्न की आशा से खेत में त्याग देना मूर्खता नहीं है, उसी प्रकार आध्यात्मिक एवं सामाजिक उन्नति की आशा करते हुए धर्म का आचरण अवश्य ही किया जाना चाहिए। इस प्रकार प्रवृत्ति एवं निवृत्ति स्वरूप धर्म का निर्देश करते हुए कामसूत्रकार धर्म की शिक्षा वेदादि शास्त्रों एवं धर्म के तत्त्व को आत्मसात करने वाले धर्मज्ञ पुरुषों से ग्रहण करने का परामर्श देते हैं। यहॉं आचार्य वात्स्यायन वेद-शास्त्रादि द्वारा प्रतिपादित वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुकूल धर्माचरण की आवश्यकता का तर्कपूर्ण ढंग से समर्थन करते हैं। उनकी दृष्टि में धर्ममय-जीवन मानव की अपरिहार्य आवश्यकता है।
इसके पश्चात् अर्थ पर विचार प्रस्तुत करते हैं। क्योंकि ‘अर्थ’ मानव के आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक उन्नति में उपयोग के आधार पर परम सहायक है। आचार्य वात्स्यायन इसे परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ‘विद्या, भूमि, हिरण्य, पशु, धान्य, बर्तन आदि गृहोपयोगी वस्तु, वस्त्राभूषण एवं सन्मित्र आदि को धर्मपूर्वक प्राप्त करना तथा प्राप्त हुए ऐश्वर्य की वृद्धि करना ही ”अर्थ“ है। चूंकि अर्थोपार्जन चारों वर्णों के लिए आवश्यक है, अतएव अर्थशास्त्र के अर्थविधिक अधिकरण अध्यक्षप्रचार तथा कृषि, व्यापारी आदि अर्थतत्त्वज्ञों का आश्रय ग्रहण करते हुए आर्थिक शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार धर्म से बुद्धि सम्बन्धित है उसी प्रकार जीवनयापन हेतु करणीय समस्त व्यापार अर्थ से सम्बन्धित है। पुनः कर्म के प्राधान्य पर अपना अभिमत देते हुए कहते हैं कि सम्पूर्ण कार्यप्रवृत्तियाँ पुरुषार्थ-पराक्रम से ही सम्पन्न होती हैं, अतः अर्थसाधन के उपाय का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि अवश्यंभावी कार्यों की सिद्धि भी बिना उपाय अथवा पराक्रम के नहीं होती है एवं अकर्मण्य पुरुष का कभी कल्याण नहीं होता है। इस प्रकार आचार्य वात्स्यायन की दृष्टि में मानव को अपना जीवन स्तर व्यवस्थित रखने के लिए धर्म पूर्वक अर्थोपार्जन के लिए प्रयत्नशील एवं उद्योगी होना चाहिए। उसे जीवन में आने वाले संकटों एवं संघर्षों को सहन करने की शक्ति विकसित करनी चाहिए।
धर्म एवं अर्थ का निरूपण करने के पश्चात् काम के स्वरूप पर विचार प्रस्तुत करते हैं। यह काम रूप पुरुषार्थ ही ब्रह्म के हृदय में ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ रूपी कामना-विशेष के रूप में उत्पन्न होकर सृष्टि प्रक्रिया का सातत्य बनाये हुए है। आचार्य वात्स्यायन सृष्टि के अनुकूलनात्मक कार्य-व्यापार को काम का ही परिणाम मानते हुए कहते हैं कि श्रोत, त्वक्, चक्षु, जिह्वा, घ्राण रूप पंच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से आत्मा को मन-बुद्धि के द्वारा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द रूपी सांसारिक कार्य-व्यापार रूप विषय का उपभोग करने में जिस अनुकूलता अर्थात् सुख का अनुभव होता है, वह प्रवृत्ति ही काम है। किन्तु काम यह स्वरूप सार्वभौमिक है। सृष्टि की सभी अनुकूलनात्मक क्रियाएँ इसमें अन्तर्भुक्त हो जाती हैं। क्योंकि धर्म पालन में, अर्थ साधन में, पुत्रस्नेह में, विद्याध्ययन में, परोपकार में, प्रकृति की रमणीयता के दर्शन इत्यादि में आत्मा को ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अनुकूलता की प्रतीति होने के कारण ये क्रियाएँ भी काम ही हैं। अतएव कामसूत्रकार पुनः काम के लौकिक स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि यहाँ पर पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा व्यवहृत प्रासंगिक सुख के साथ-साथ स्त्रीत्व एवं पुंस्त्व भाव को उद्दीप्त करने वाले त्वगिन्द्रिय विषयक स्पर्श विशेष रूप विचित्र, अवर्णनीय एवं आत्मिक रूपेण आनन्ददायक व्यवहार रूप फलवती अर्थप्रतीति को ‘कामविशेष’ कहा गया है। वाक्, पाणि, पाद, पायु एवं उपस्थ रूप पंचकर्मेन्द्रियों के द्वारा क्रमशः वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग एवं आनन्द रूप कर्म सम्पन्न होते हैं। इनमें से स्त्री एवं पुरुष के अधोभाग में स्थित जननांग, जो स्वभावतः त्वगिन्द्रिय ही है; परस्पर संसर्गावस्था में अवर्णनीय आनन्द को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार स्त्री एवं पुरुष को परस्पर संसर्गजन्य जिस विचित्र एवं अवर्णनीय आनन्द की प्राप्ति होती है, वही काम की फलवती अर्थप्रतीति है; क्योंकि सम्यग्रूपेण सम्पन्न होने वाले संसर्ग से ही सृष्टि प्रक्रिया का सातत्य भी अविच्छिन्न बना रहता है। इस फलवती अर्थप्रतीति को मानव किस प्रकार सम्पादित करे, जिससे उसकी सामाजिक मर्यादा भी सुरक्षित रहे एवं वह नैसर्गिक सुख-आनन्द का समुचित रूप से उपभोग करते हुए अपने गृहस्थ जीवन को सुखी भी बना सके ? इसके लिए आचार्य वात्स्यायन काम विषयक ज्ञान को कामसूत्र एवं विदग्ध सम्भ्रान्त नागरिकों से प्राप्त करने का परामर्श देते हैं। इस प्रकार कामसूत्र के अध्ययन से तथा कामशास्त्र के ज्ञाता नागरिकों के संसर्ग से काम की फलवती अर्थसिद्धि हेतु ज्ञान प्राप्त करके लोकजीवन की जैविक आवश्यकताओं की सम्यक्तया पूर्ति करनी चाहिए, जिससे सामाजिक अपवाद न हो एवं धार्मिक अनुकूलता भी बनी रहे।
ध्यातव्य है कि आचार्य वात्स्यायन का उद्देश्य सृष्टि में सर्वाधिक दुर्धर्ष प्रभाव रखने वाले ‘काम’ का व्यवस्थित विवेचन है। अतः इसके स्वरूप को स्पष्ट करने के साथ ही काम के सहायक ‘अर्थ’ एवं नियन्त्रक ‘धर्म’ के स्वरूप को भी स्पष्ट करते हैं तथा अन्त में काम की अपेक्षा अर्थ एवं अर्थ की अपेक्षा धर्म के श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन भी करते हैं - एषां समवाये पूर्वः पूर्वो गरीयान् ।। किन्तु यह सभी के लिए प्रमाण नहीं है। कारण कि राजा के लिए धर्म एवं काम की अपेक्षा अर्थ अधिक श्रेयस्कर है, क्योंकि सामाजिक वर्णाश्रम मर्यादा का सुव्यवस्थित परिपालन राजा का कर्त्तव्य है, उसके लिए प्रभुशक्ति की आवश्यकता होती है और प्रभुत्व कोश, दण्ड एवं बल पर ही निर्भर है और ये सभी अर्थशक्ति पर निर्भर हैं; अतएव शासक वर्ग के लिए अर्थ अधिक श्रेयस्कर है। इसी प्रकार वेश्या की जीविका भी अर्थशक्ति पर ही निर्भर है। यही कारण है कि वह धर्म की दृष्टि से कामातुर ब्राह्मण एवं प्रेम की दृष्टि अपने प्रियतम नागरिक को छोड़कर धन की दृष्टि से समर्थ व्यक्ति के साथ अपने रागात्मक संबन्ध स्थापित करती है। क्योंकि उसके लिए धनप्राप्ति महत्त्वपूर्ण है, न कि रागात्मक संबन्ध की भावनात्मकता एवं सार्थकता। पुनः कामसूत्रकार फलवती अर्थप्रतीति रूप काम का विवेचन करने वाले शास्त्र की आवश्यकता को बताते हुए कहते हैं कि ‘धर्म’ अलौकिक है, अतः उसका सम्यक परिज्ञान कराने वाले शास्त्र का होना युक्तिसंगत भी है एवं आवश्यक भी। ‘अर्थ’ की सिद्धि भी उपाय से ही होती है, अतएव अर्थसिद्धि के उपायों को बतलाने वाले तद्विषयक शास्त्र अर्थशास्त्र की भी आवश्यकता है। अब रही ‘काम’ एवं तद्विषयक शास्त्र की बात। तो धर्म के व्यापक स्वरूप को न समझने वाले व्यक्ति प्रायः कामशास्त्र की उपयोगिता नहीं मानते हैं, मोक्षमार्गी इसे अनैतिक एवं अश्लील मानते हुए त्याज्य समझते हैं तथा नीतिज्ञ काम को स्वभावसिद्ध मानकर मानव एवं पशु को एक समान कोटि में खड़ा कर देते हैं।
वस्तुतः ‘काम’ न तो अनैतिक है और न ही अश्लील एवं त्याज्य। काम को स्वभावसिद्ध मानकर मानव एवं पशु को एक समान स्वीकार करना भी युक्तिसंगत नहीं है। इसीलिए कामसूत्रकार कहते हैं कि मानवेतर जीवों में भी काम की स्वतः प्रवृत्ति पायी जाती है तथा यह नित्य एवं अविनाशी है, क्योंकि आत्मा रूपी पदार्थ में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि गुण सदैव विद्यमान रहते हैं। अतः प्राणियों को संसर्गसुख की प्राप्ति हेतु उनकी स्वाभाविक इच्छा ही पर्याप्त होती है क्योंकि पशु-पक्षियों में स्त्री जाति स्वतंत्र, बन्धनरहित एवं आवरणरहित होती है, ऋतुकाल में ही उनकी सोद्देश्य पूर्ति हो जाती है और यह प्रवृत्ति बुद्धिपूर्वक नहीं होती है। अतः उनका यह सहजधर्म किसी प्रकार के शास्त्ररूपी उपाय की आवश्यकता नहीं रखता है। किन्तु मानव के साथ ऐसी बात नहीं है। क्योंकि परस्पर संसर्ग में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के अधीन होते हैं, अतः उन्हें अपनी जैविक इच्छा की पूर्ति एवं पारस्परिक पराधीनता से बचने के लिए शास्त्र रूपी उपाय की आवश्यकता होती है तथा ऐसे सभी प्रकार के उपाय, जो दाम्पत्य-जीवन को सफल बनाने में सहायक होते हैं; का ज्ञान कामसूत्र का भलीभॉति अध्ययन करने से ही संभव है, क्योंकि शारीरिक स्थिति को व्यवस्थित बनाने में सहयोगी होने के कारण ‘काम’ भी आहार के ही समान है एवं धर्म-अर्थ फल भी। यह आचार्य वात्स्यायन की स्पष्ट धारणा है। चूंकि सभी प्रकार की प्रवृत्तियॉ पुरुषार्थ से ही सम्पन्न होती हैं, अतः उसके उपाय को जानना आवश्यक है। ‘काम’ को यदि त्याज्य मान लिया जाएगा तो धर्म और अर्थ पूर्णतः निष्प्रयोज्य हो जाएंगे। इस अध्याय की समाप्ति करते हुए आचार्य वात्स्यायन प्राचीन विचारकों का मत व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जिस कार्य को करने में यह आशंका न हो कि परलोक में क्या होगा तथा जो कार्य सुख का नाश न करे; बुद्धिमान पुरुष ऐसे ही कार्य को करते हैं। अतः जो कार्य त्रिवर्ग का साधक हो या दो-एक का भी साधक हो उसे ही करना चाहिए किन्तु जो धर्म, अर्थ या काम केवल अपना ही साधक हो एवं शेष का विघातक हो उसे नहीं करना चाहिए। इस प्रकार परस्पर साधक ‘धर्म, अर्थ एवं काम की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील मानव इस लोक में तथा परलोक में भी निष्कंटक आत्यंतिक सुख प्राप्त करता है।’