Nyay Darshan न्याय दर्शन - अध्याय - 1
1 - प्रमेय, संशय आदि सोलह प्रकार के प्रमाण कहे गए है| न्याय मे ये ही सोलह पदार्थ माने जाते है| जिस साधन से प्रमाता विष्यों को प्राप्त करता है, उस साधन को प्रमाण और ग्रहण किये जाने वाले विष्यों को प्रमेह कहते हैं| इस सबके तत्त्व को भली प्रकार जान लेने से मोक्ष की प्राप्ति सुलभ हो जाती है|
2- तत्त्व ज्ञान से प्राप्त होने से मिथ्या ज्ञान दूर हो जाता है और मिथ्या ज्ञान के मिटने पर राग-द्वेष आदि का नाश होता है| जब राग-द्वेष का नाश होता है तब विषयों की प्रवृत्ति भी रुक जाती है और प्रवृत्ति के नष्ट होने पर तो मानव की कर्म से निवृत्ति हो जाती है| कर्म नहीं होता तो प्रारब्ध नहीं बनता और प्रारब्ध के ना बनने से जन्म-मरण भी नहीं होता| जन्म-मरण ही सुख-दुख रूप है, जब सुख-दुख नहीं होता तो मोक्ष प्राप्त हो जाता है| इस प्रकार सुख-दुख का अत्यंत अभाव हो जाने को ही मोक्ष की प्राप्ति समझनी चाहिये|
3 - प्रमाण के चार भेद हैं| प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द| जब किसी प्दार्थ को सिद्ध करना होता है तब इन चार प्रकारों से ही उस पदार्थ का ग्यान हो सकता है| अगले सूत्र मे प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षण का निरूपण करते हैं|
4- इन्द्रिया और उसके विष्य के सन्निकर्ष से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह प्रत्यक्ष दिखाई देता है जैसे अमुक व्यक्ति चल रहा है, अमुक व्यक्ति भोजन कर रहा है| जब नेत्र इन विषयों को प्रत्यक्ष देखते हैं तब उसमें संदेह का प्रश्न ही नहीं उठता| नेत्र जिस दृश्य को होते हुये प्रत्यक्ष देख रहा है, वह पहले से कहा गया भी नहीं होता और प्रत्यक्ष घटित होने से वह ज्यों का त्यों दिखाई देगा, इसलिये उसके घटने बढ़ने का दोष भी नहीं होता| इसलिये जो प्रत्यक्ष है, वह प्रमाण सर्वोपरि और अकाट्य माना जाता है| अब अगले सूत्र मे अनुमान प्रमाण का विवेचन किया है|
5- लक्षण को देख कर जिस किसी वस्तु का
ज्ञान होता है उसे अनुमान कहते हैं| जैसे सिंग, पूंछ के अंत मे बाल, चार
पाँव, कंधा उठा हुआ और कंठ के नीचे मांस लटकता
हुआ होने से गौ का अनुमान होता है| ऐसे को देखते ही सामान्य रूप से सभी
लोग उसे गाय समझ लेते हैं, इसलिये इसे सामान्यतोदृश्य अनुमान कहा गया है|
जहां कारण को देखकर कार्य का अनुमान हो अर्थात आम के वृक्ष को देख अनुमान
किया जाये कि इस पर जो फल लगेंगे, वे आम के ही होंगे| यह पूर्ववत अनुमान है
तथा कार्य को देख कर कारण का अनुमान हो, जैसे पुत्र हो तो पिता अवश्य
बनेगा| ऐसा अनुमान शेषवत कहा गया है| इस प्रकार सिद्ध हुआ कि अनुमान प्रमाण
के जो तीन भेद न्याय मे कहे गये है वे उचित है| अब उपमान प्रमाण का निरूपण
किया जाता है|
6- किसी पदार्थ के प्रसिद्ध पदार्थ के
से लक्षण हों और उसकी पहचान उस प्रसिद्ध पदार्थ का नाम लेकर कही जाये तो
उसे उपमान प्रमाण कहा जायेगा| जैसा किसी नील गाय को देखकर कह दें कि यह गौ
के समान अथवा नील गाय को गाय के समान देख कर यह समझ लिया लिया जाय कि यह
गाय नील गाय होगी, तो ऐसा अनुमान उपमान प्रमाण कहा जाता है|
7- आप्त पुरुष उन्हे कहते है जो सदाचारी, ज्ञानी,विद्वान और मोक्ष की कामना वाले तथा मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील हो। ऎसे व्यक्ति कभी मिथ्या भाषण नही करते और योग आदि की साधना मे लगे रहने से उन्हे जो सिद्दि होती है, उसके द्वारा वे सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्त्वो को जानने से भी पूर्ण समर्थ होते है। वे अपने योगबल से अप्राप्त विषयो का भी ज्ञान प्राप्त कर लेते है। ऎसे पुरुष जो बात कहे, उसे प्रमाणित माना जाता है; इसलिये सूत्रकार ने आप्त जनो के उपदेश को शब्द प्रमाण कहा है।
8 - आप्त शब्द के भी दो भेद हैं - दृष्ट और अदृष्ट। जो विषय प्रत्यक्ष दिखाई देता हों, उसके सम्बन्ध में कहा गया शब्द 'दृष्ट' कहा गया है। जिस विषय को अनुमान से बताया गया हो, उसे अदृष्ट शब्द कहा गया है जैसे कोई कहे कि पुत्र की कामना वाला पुरुष यग्य करे, इसमें यग्य करने से उसके फल रूप पुत्र का उत्पन्न होना नेत्र से प्रत्यक्ष दिखाई देगा। परन्तु यदि कहा जाय कि 'स्वर्ग की कामना वाला पुरुष यग्य करे' तो यग्य द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति को देख पाना इस शरीर से सम्भव नहीं है। इसलिये इसे अदृष्ट शब्द कहा गया है। अब अगले सूत्र का विवेचन करेंगे।
9- आत्मा, शरीर आदि बारह प्रकार के प्रमेह बताये है। परन्तु यथार्थ रूप मे जिसके ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति हो, और जिसके ज्ञान से विपरीतता होने मे बन्धन की प्राप्ति हो वही प्रमेह है। जैसे - आत्मा और परमात्मा, इस प्रकार आत्मा के दो भेद है, इन्मे परमात्मा तो निर्लिप्त और आत्मा अपने कर्म का फल भोगने वाला है। इन कर्मो के फल को भोगने के साधन इन्द्रियो से सब पदार्थ इन्द्रियो के विषय है। इनका अनुभव इन्द्रियो से ही होता है। परन्तु इन्द्रियो से सब पदार्थो का ज्ञान नही होता इसलिये परोक्ष पदार्थो का ज्ञान करने वाला मन है। मन मे राग और द्वेष दो प्रकार के भावो की उत्पत्ति होती रहती है। यह दोनो दोष है, जिसमे पदार्थो को त्यागने और ग्रहण की प्रवृत्ति होती रहती है। जन्म्-मरण प्रेत्यभाव है और अच्छे या बुरे कर्मो से दुख और अच्छे कर्मो से सुख की प्राप्ति होती है। अत्यधिक सुख की प्राप्ति ही मोक्ष है, जिसमे दुख का अत्यन्त अभाव हो जाता है। अब अगले सूत्र मे आत्मा का लक्षण कहते है।
10- आत्मा के लक्षण है - (1) इच्छा - जिस वस्तु से पहले सुख मिला, उसी वस्तु की प्राप्ति का विचार इच्छा कहलाता है। (2) द्वेष - जिस वस्तु से पहले कष्ट प्राप्त हो, उस वस्तु को देखकर उससे बचने का विचार द्वेष कहलाता है। (3) प्रयत्न - दु:ख के कारणो को दूर करने और सुख के कारणो को प्राप्त करने वाले कार्य को प्रयत्न कहते है। (4) सुख - जो शरीर को कष्ट वह सुख है। (5) दु:ख - जिसकी प्राप्ति से शरीर को कष्ट हो दु:ख कहलाता है। (6) ज्ञान - आत्मा या देह के अनुकूल पदार्थो को जानना ज्ञान कहलाता है। (6) ज्ञान - आत्मा या देह के अनुकूल पदार्थो का जानना ही ज्ञान है। अब शरीर का विवेचन करते है।
11- जीव को अपने प्रारब्ध कर्म का भोग करने के लिये जन्म धारण करना होता है। सुख और दु:ख की प्राप्ति भोग कहा गया है और जिस आधार मे रह कर आत्मा उस भोग को प्राप्त कर सके, वह आधार ही शरीर है। अब इन्द्रिय का लक्षण तथा भेद कहा जाता है।
12- पान्चो इन्द्रिया पन्चभूतो से बनी है। ये इन्द्रिया ही शरीर के आश्रित आत्मा को विभिन्न विष्यो का ग्रहण करती है। घ्राण अर्थात नासिका का कार्य सूचना और गन्ध ग्रहण करना है, रसना अर्थात जिह्वा खाद्य पदार्थ का स्वाद ग्रहण करती है। नेत्र उपस्थित दृष्य का अवलोकन करते है। त्वचा से स्पर्श की अनुभूति है। श्रोत अर्थात कान शब्द को ग्रहण करते है। इस प्रकार ये पान्चो इन्द्रिया आत्मा को गन्ध, रस, दृष्य, स्पर्श, शब्द का ज्ञान करवाती है।
13- ये पान्चो भूत परस्पर समन्वय - सम्बन्ध अर्थात सन्युक्त रूप से रहते है। ये पन्चभूत बाह्य इन्द्रियो से प्रत्यक्ष होकर आत्मा को अपने - अपने गुण का ज्ञान कराने मे समर्थ है। अब भूतो के गुणो का वर्णन करते है।
14 - पान्च भूतो के पान्च गुण है। पृ्थ्वी का गुण गन्ध है, जल गुण रस, अग्नि का गुण रूप, वायु का गुण स्पर्श और आकाश का गुण शब्द है। ये पान्च गुण ज्ञानेन्द्रियो के विषय है - नासिका का विषय गन्ध, जिह्वा का रस, नेत्र का रूप, त्वचा का विषय स्पर्श और कान का विषय शब्द है। अब अगले सूत्र मे बुद्धि का निरुपण किया जायेगा।
15- बुद्धि, उपलब्धि और ज्ञान इन तीनो के अर्थ मे कोइ अन्तर नही है। घट है, यह पट है इस प्रकार का ज्ञान कराने वाली वृत्ति बुद्धि का धर्म है और इन सबको ज्ञान कहा जाता है। इस घडे को जानता हू इस प्रकार का बोध 'उपलब्धि' है। इससे सिद्ध होता है कि बुद्धि और उपलब्धि का ज्ञान मे कोइ भेद नही है। अब मन का लक्षण कहते है।
16- आत्मा की प्रेरणा से ज्ञानेन्द्रियो या कर्मेन्द्रियो का सम्बन्ध रूप, रस, गन्ध आदि गुणो के साथ समान ज्ञान होना ही विषय ज्ञान है। तात्पर्य यह है कि मन को एक समय मे दो ज्ञान नही हो सकते। जब गन्ध का ज्ञान होगा, तब अन्य गुणो का नही होगा। रूप का होगा तब गन्ध आदि का नही होगा। इस प्रकार एक समय मे एक विषय का ज्ञान होना मन का लक्षण है। अब प्रवृत्ति का लक्षण कहते है।
17- इच्छा पूर्वक होने वाले शरीर आदि कार्यो की प्रवृत्ति जनक समझनी चाहिये। क्योन्कि यह कार्य मन, वाणी दोनो के सन्योग से होने वाला कर्म वाचिक है तथा मन, इन्द्रिया और शरीर के सन्योग से जो कार्य होता है, वह शारीरिक कहा गया है। जिस कर्म का फल सुख रूप हो, वह पुण्य कर्म है और जिसका फल दुख रूप हो उसे पाप कर्म समझना चाहिये। इस प्रकार पुण्य और पाप भेद वाली दश वृत्तिया होती है। अब दोष का विचार करेन्गे।
18- धर्म या अधर्म के हेतु प्रवृत्ति का होना दोष है अर्थात जिस प्रवृत्ति से धर्म या अधर्म कार्य की सिद्धि होती है, उसे दोष मानना चाहिये। प्रवृत्ति के कारण रूप, राग, द्वेष और मोह है। इनके होने पर ही धर्म या अधर्म कार्यो मे प्रवृत्ति होती है।
19- एक शरीर को छोडकर दूसरे शरीर मे जन्म प्रेत्यभाव है। पुनर्जन्म या पुनरूत्पति पर्यायवाची शब्द है। शरीर से इन्द्रिय और मन का सम्बन्ध टूट जाने को प्रेत कहते है। पुन: जन्म लेने को प्रेत्यभाव अर्थात मर कर जन्म लेना कहते है। तात्पर्य यह है कि सूक्षम शरीर सहित जीवात्मा का शरीर से निकलना प्रयाण है और प्रयाण करने वाले को प्रेत कहते है। उस प्रेत का दूसरे शरीर से सम्बन्ध हो जाना प्रेत्यभाव है। अब फल का निरूपण करते है।
20- सुख या दु:ख की प्राप्ति को ही फल कहते है। इसकी उत्पत्ति प्रवृत्ति और दोष से होती है। धार्मिक प्रवृत्ति से किया गया कार्य सुखकारक और अधार्मिक प्रवृत्ति वाला कार्य दु:ख उत्पन्न करने वाला होता है।
21- मन जिस किसी वस्तु को प्राप्त करना चाहता है और वह वस्तु न मिले तो उससे दुख होता है। अब मोक्ष का निरुपण करते है।
22- दु:ख तीन प्रकार के होते है आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक। इन तीन प्रकार के दु:खो से छुट्कारा तभी हो सकता है जब जन्म्-मरण का चक्र समाप्त हो जाये। और यह चक्र तब समाप्त होगा जब कि प्रारब्ध कर्मो का क्षय हो। कुछ लोग शन्का करते है कि सुषुप्ति को ही मुक्ति क्यो न मान ले? क्योन्कि उसमे भी दु:ख की निवृत्ति हो जाती है इसका समाधान यह है कि सुषुप्ति मे दु:खो की निवृत्ति हो जाती है। तो इसका समाधान यह है कि सुषुप्ति मे दु:खो का आधार सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहा है। मुक्तावस्था मे सूक्षम शरीर भी नही रहता। अब सन्शय का विवेचन करते है।