Nyay Darshan न्याय दर्शन
सन्सार मे पाये जाने वाले इन अभावो और दु:खो से मनुष्य का कैसे छुटकारा हो इसके सम्बन्ध मे प्राचीन मनीषियो ने कई प्रकार के मार्ग बताये है जो प्रत्यक्ष मे पृथक एव विपरीत दिखाई देते है। एक आत्मा के स्वरूप को समझने के लिये सभी सान्सारिक पदार्थो मे आत्म - बुद्धि रखकर एक ही परमात्मा का अन्श कहकर भक्ति और सेवा का जीवन व्यतीत करने को लाभदायक बतलाया है, तीसरा सन्सार के पदार्थो और घटनाओ को तात्विक दृष्टि से देखते हुये अपने मन और बुद्धि को उनमे आसक्त न होने देने की सलाह देता है।
न्याय दर्शन को हम तीसरी श्रेणी के अन्तर्गत ही रख सकते है। यद्यपि वह आत्मा, परलोक, पुनर्जन्म, ईश्वर की उपासना आदि मे पूर्ण विश्वास रखता है फिर भी इनको उचित रूप मे प्राप्त करने, जीवन को लौकिक तथा पारलौकिक दृष्टि से सफल बनाने के लिए सान्सारिक पदार्थो और घटनाओ का ही विमोचन करता है। उसका मत है कि मनुष्य का समस्त ग्यान मन, बुद्धि और इन्द्रियो के ही द्वारा प्राप्त होता है। यदि इनमे से किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न हो जाये और ग्यान द्वारा किसी महत्वपूर्ण समस्या पर विचार करके जो परिणाम निकाला जायेगा वह भी विचारयुक्त अथवा उद्देश्य की पूर्ती करने वाला होगा।
"प्रमाण, प्रमेय, सन्शय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रह - स्थान से सोलह निःश्रेयस के साधन है।
सच्ची परिक्षा के लिये इस बात की भी बहुत अधिक आवश्यकता है कि हम सन्सार के पदार्थो और उनके स्वरूप का ग्यान प्राप्त कर भी सकते है या नही। दर्शन शास्त्र मे यह "सन्देहवाद" एक अनिवार्य बात है और सच तो यह है कि जब मनुष्य के हृदय से लौकिक और पारलौकिक विषयो के सम्बन्ध मे सन्शय की निवृत्ति उत्पन्न होती है तभी उन पर दार्शनिक दृष्टि से विचार करके ठीक - ठीक निर्णय करने की आवश्यकता अनुभव होती है। जब सन्देह दूर हो जाता है तब हम यह जान लेते है कि सत्य और असत्य के निर्णय करने की शक्ति सम्भव है और मनुष्य उसे प्राप्त कर सकता है,
न्याय के तर्क और अनुमान गणित के समान विधि से सिद्ध किये जाते है, इसलिये वे सामान्य गणित के समान विधि से सिद्ध किये जाते है और सत्य तथा असत्य का निर्णय करने मे उसका मार्ग - दर्शन करते है। इसके लिये न्याय - सूत्र के रचयिता ने एक विशेष विधि निकाली है उसे पंच अवयवी वाक्य कहते है। उसमे प्रतिग्या, हेतू, उदाहरण, उपनय और निगमन - इन पाँच विभागों मे वाक्य को बाँटकर अन्य व्यक्ति को समझाया है। इनके लिये न्याय - दर्शन मे अग्नि और अपने घर मे आग जलते समय धुआँ निकलते देखते है तो दूर रहने पर भी यह अनुमान लगा लेता है कि वहाँ आग जल रही होगी।
आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, पुनर्जन्म, फ़ल, दुःख और मोक्ष - ये 12 प्रमेय है।
पहले 6 विषय मनुष्य को कारण - रूप दृष्टि से देखकर निश्चित किये है, और अन्तिम 6 उसकी क्रियाओं तथा क्रिया फल से सम्बन्धित है। इसमें सबसे पहले आत्मा को अलग स्थान दिया है। कितने ही आक्षेपकर्ताओं ने ईश्वर को कर्त्ता न मानने के कारण न्याय पर अवास्तविकता का आरोप किया है पर अन्य - देशीय तथा विभिन्न धर्मो के दर्शनों ने जहाँ कार ने उसे बडे सुदृढ प्रमाणों से सिद्ध किया है। तीसरे अध्याय मे प्रमेय विषय पर विचार आरम्भ करते ही उसमे कहा है - दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थ ग्रहणात
शरीर, इन्द्रिय, मन आदि से आत्मा को भिन्न सिद्ध करते हुये न्याय एक अकाट्य तर्क पेश करता है कि आँखे केवल देखती हैं और त्वचा और त्वचा केवल स्पर्श द्वारा जानकारी प्राप्त करती हैं और त्वचा केवल स्पर्श द्वारा जानकारी प्राप्त करती है। पर मनुष्य दोनों गुणों को एक साथ मिलाकर जो शक्ति पदार्थ की वास्तविकता को ग्रहण कर लेती है वही आत्मा है। इसी तरह का दूसरा प्रमाण यह है कि एक इन्द्रिय की क्रिया या प्रभाव तुरन्त दूसरी इन्द्रिय पर पड जाता है। जैसे हमने खाने का कोई स्वादिष्ट एवं रूचिकर पदार्थ देखा तो उसी समय मुँह मे पानी(लार) भर गया। इस मे एक इन्द्रिय द्वारा प्राप्त ग्य़ान को ग्रहण करके उसके द्वारा दूसरी इन्द्रिय को प्रभावित करने वाली शक्ति भी आत्मा के अतिरिक्त और कोई दिखलाई नही देती।
पहले 6 विषय मनुष्य को कारण - रूप दृष्टि से देखकर निश्चित किये है, और अन्तिम 6 उसकी क्रियाओं तथा क्रिया फल से सम्बन्धित है। इसमें सबसे पहले आत्मा को अलग स्थान दिया है। कितने ही आक्षेपकर्ताओं ने ईश्वर को कर्त्ता न मानने के कारण न्याय पर अवास्तविकता का आरोप किया है पर अन्य - देशीय तथा विभिन्न धर्मो के दर्शनों ने जहाँ कार ने उसे बडे सुदृढ प्रमाणों से सिद्ध किया है। तीसरे अध्याय मे प्रमेय विषय पर विचार आरम्भ करते ही उसमे कहा है - दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थ ग्रहणात
शरीर, इन्द्रिय, मन आदि से आत्मा को भिन्न सिद्ध करते हुये न्याय एक अकाट्य तर्क पेश करता है कि आँखे केवल देखती हैं और त्वचा और त्वचा केवल स्पर्श द्वारा जानकारी प्राप्त करती हैं और त्वचा केवल स्पर्श द्वारा जानकारी प्राप्त करती है। पर मनुष्य दोनों गुणों को एक साथ मिलाकर जो शक्ति पदार्थ की वास्तविकता को ग्रहण कर लेती है वही आत्मा है। इसी तरह का दूसरा प्रमाण यह है कि एक इन्द्रिय की क्रिया या प्रभाव तुरन्त दूसरी इन्द्रिय पर पड जाता है। जैसे हमने खाने का कोई स्वादिष्ट एवं रूचिकर पदार्थ देखा तो उसी समय मुँह मे पानी(लार) भर गया। इस मे एक इन्द्रिय द्वारा प्राप्त ग्य़ान को ग्रहण करके उसके द्वारा दूसरी इन्द्रिय को प्रभावित करने वाली शक्ति भी आत्मा के अतिरिक्त और कोई दिखलाई नही देती।