Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १६
[ऋषि- मेधातिथि काण्व। देवता-इन्द्र।छन्द-गायत्री]
१५९.आ त्वा वहन्तु हरयो वृषणं सोमपीतये । इन्द्र त्वा सूरचक्षसः ॥१॥
हे बलवान इन्द्रदेव! आपके तेजस्वी घोड़े सोमरस पीने के लिये आपको यज्ञस्थल पर लाएँ तथा सूर्य के समान प्रकाशयुक्त ऋत्विज् मन्त्रो द्वारा आपकी स्तुति करें॥१॥
१६०.इमा धाना घृतस्नुवो हरी इहोप वक्षतः । इन्द्रं सुखतमे रथे ॥२॥
अत्यन्त सुखकारी रथ मे नियोजित इन्द्रदेव के दोनो हरि (घोड़े) उन्हे (इन्द्रदेव को) घृत से स्निग्ध हवि रूप धाना(भुने हुये जौ) ग्रहण करने के लिये यहाँ ले आएँ॥२॥
१६१.इन्द्रं प्रातर्हवामह इन्द्रं प्रयत्यध्वरे । इन्द्रं सोमस्य पीतये ॥३॥
हम प्रातःकाल यज्ञ प्रारम्भ करते समय मध्याह्नकालीन सोमयाग प्रारम्भ होने पर तथा सांयकाल यज्ञ की समाप्ति पर भी सोमरस पीने के निमित्त इन्द्रदेव का आवाहन करते है॥३॥
१६२.उप नः सुतमा गहि हरिभिरिन्द्र केशिभिः । सुते हि त्वा हवामहे ॥४॥
हे इन्द्रदेव! आप अपने केसर युक्त अश्वो से सोम के अभिषव स्थान के पास् आएँ। सोम के अभिषुत होने पर हम आपका आवाहन करते है॥४॥
१६३.सेमं न स्तोममा गह्युपेदं सवनं सुतम् । गौरो न तृषितः पिब ॥५॥
हे इन्द्रदेव! हमारे स्तोत्रो का श्रवण कर आप यहाँ आएँ। प्यासे गौर मृग के सदृश व्याकुल मन से सोम के अभिषव स्थान के समीप आकर सोम का पान करें॥५॥
१६४.इमे सोमास इन्दवः सुतासो अधि बर्हिषि । ताँ इन्द्र सहसे पिब ॥६॥
हे इन्द्रदेव! यह दीप्तिमान् सोम निष्पादित होकर कुशाआसन पर सुशोभित है। शक्ति वर्धन के निमित्त आप इसका पान करें॥६॥
१६५.अयं ते स्तोमो अग्रियो हृदिस्पृगस्तु शंतमः । अथा सोमं सुतं पिब ॥७॥
हे इन्द्रदेव ! यह स्तोत्र श्रेष्ठ, मर्मस्पर्शी और अत्यन्य सुखकारी है। अब आप इसे सुनकर अभिषुत सोमरस का पान करें॥७॥
१६६.विश्वमित्सवनं सुतमिन्द्रो मदाय गच्छति । वृत्रहा सोमपीतये ॥८॥
सोम के सभी अभिषव स्थानो की ओर् इन्द्रदेव अवश्य जाते है। दुष्टो का हनन करने वाले इन्द्रदेव सोमरस पीकर अपना हर्ष बढाते है॥८॥
१६७.सेमं नः काममा पृण गोभिरश्वैः शतक्रतो । स्तवाम त्वा स्वाध्यः ॥९॥
हे शतकर्मा इन्द्रदेव! आप हमारी गौओ और अश्वो सम्बन्धी कामनाये पूर्ण करे। हम मनोयोग पूर्वक आपकी स्तुति करते है॥९॥
१५९.आ त्वा वहन्तु हरयो वृषणं सोमपीतये । इन्द्र त्वा सूरचक्षसः ॥१॥
हे बलवान इन्द्रदेव! आपके तेजस्वी घोड़े सोमरस पीने के लिये आपको यज्ञस्थल पर लाएँ तथा सूर्य के समान प्रकाशयुक्त ऋत्विज् मन्त्रो द्वारा आपकी स्तुति करें॥१॥
१६०.इमा धाना घृतस्नुवो हरी इहोप वक्षतः । इन्द्रं सुखतमे रथे ॥२॥
अत्यन्त सुखकारी रथ मे नियोजित इन्द्रदेव के दोनो हरि (घोड़े) उन्हे (इन्द्रदेव को) घृत से स्निग्ध हवि रूप धाना(भुने हुये जौ) ग्रहण करने के लिये यहाँ ले आएँ॥२॥
१६१.इन्द्रं प्रातर्हवामह इन्द्रं प्रयत्यध्वरे । इन्द्रं सोमस्य पीतये ॥३॥
हम प्रातःकाल यज्ञ प्रारम्भ करते समय मध्याह्नकालीन सोमयाग प्रारम्भ होने पर तथा सांयकाल यज्ञ की समाप्ति पर भी सोमरस पीने के निमित्त इन्द्रदेव का आवाहन करते है॥३॥
१६२.उप नः सुतमा गहि हरिभिरिन्द्र केशिभिः । सुते हि त्वा हवामहे ॥४॥
हे इन्द्रदेव! आप अपने केसर युक्त अश्वो से सोम के अभिषव स्थान के पास् आएँ। सोम के अभिषुत होने पर हम आपका आवाहन करते है॥४॥
१६३.सेमं न स्तोममा गह्युपेदं सवनं सुतम् । गौरो न तृषितः पिब ॥५॥
हे इन्द्रदेव! हमारे स्तोत्रो का श्रवण कर आप यहाँ आएँ। प्यासे गौर मृग के सदृश व्याकुल मन से सोम के अभिषव स्थान के समीप आकर सोम का पान करें॥५॥
१६४.इमे सोमास इन्दवः सुतासो अधि बर्हिषि । ताँ इन्द्र सहसे पिब ॥६॥
हे इन्द्रदेव! यह दीप्तिमान् सोम निष्पादित होकर कुशाआसन पर सुशोभित है। शक्ति वर्धन के निमित्त आप इसका पान करें॥६॥
१६५.अयं ते स्तोमो अग्रियो हृदिस्पृगस्तु शंतमः । अथा सोमं सुतं पिब ॥७॥
हे इन्द्रदेव ! यह स्तोत्र श्रेष्ठ, मर्मस्पर्शी और अत्यन्य सुखकारी है। अब आप इसे सुनकर अभिषुत सोमरस का पान करें॥७॥
१६६.विश्वमित्सवनं सुतमिन्द्रो मदाय गच्छति । वृत्रहा सोमपीतये ॥८॥
सोम के सभी अभिषव स्थानो की ओर् इन्द्रदेव अवश्य जाते है। दुष्टो का हनन करने वाले इन्द्रदेव सोमरस पीकर अपना हर्ष बढाते है॥८॥
१६७.सेमं नः काममा पृण गोभिरश्वैः शतक्रतो । स्तवाम त्वा स्वाध्यः ॥९॥
हे शतकर्मा इन्द्रदेव! आप हमारी गौओ और अश्वो सम्बन्धी कामनाये पूर्ण करे। हम मनोयोग पूर्वक आपकी स्तुति करते है॥९॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १७
[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता-इन्द्रावरुण। छन्द-गायत्री।]
१६८.इन्द्रावरुणयोरहं सम्राजोरव आ वृणे । ता नो मृळात ईदृशे ॥१॥
हम इन्द्र और वरुण दोनो प्रतापी देवो से अपनी सुरक्षा की कामना करते हैं। वे दोनो हम पर इस प्रकार अनुकम्पा करें, जिससे कि हम सुखी रहें॥१॥
१६९.गन्तारा हि स्थोऽवसे हवं विप्रस्य मावतः । धर्तारा चर्षणीनाम् ॥२॥
हे इन्द्रदेव और वरुणदेवो! आप दोनो मनुष्यो के सम्राट, धारक एवं पोषक हैं। हम जैसे ब्राह्मणो के आवाहन पर सुरक्षा ले लिये आप निश्चय ही आने को उद्यत रहते हैं॥२॥
१७०.अनुकामं तर्पयेथामिन्द्रावरुण राय आ । ता वां नेदिष्ठमीमहे॥३॥
हे इन्द्रदेव और वरुणदेवो! हमारी कामनाओ के अनुरूप धन देकर हमें संतुष्ट करें। आप दोनो के समीप पहुचँकर हम प्रार्थना करते हैं॥३॥
१७१.युवाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम् । भूयाम वाजदाव्नाम् ॥४॥
हमारे कर्म संगठित हो, हमारी सद्बुद्धीयाँ संगठित हो, हम अग्रगण्य होकर दान करने वाले बनें॥४॥
१७२.इन्द्रः सहस्रदाव्नां वरुणः शंस्यानाम् । क्रतुर्भवत्युक्थ्यः॥५॥
इन्द्रदेव सहस्त्रो दाताओ मे सर्वश्रेष्ठ है और् वरुणदेव सहस्त्रो प्रशंसनीय देवो मे सर्वश्रेष्ठ हैं॥५॥
१७३.तयोरिदवसा वयं सनेम नि च धीमहि । स्यादुत प्ररेचनम्॥६॥
आपके द्वारा सुरक्षित धन को प्राप्त कर हम उसका श्रेष्ठतम उपयोग करें। वह धन हमे विपुल मात्रा मे प्राप्त हो॥६॥
१७४.इन्द्रावरुण वामहं हुवे चित्राय राधसे । अस्मान्सु जिग्युषस्कृतम्॥७॥
हे इन्द्रावरुण देवो! विविध प्रकार के धन की कामना से हम आपका आवाहन करते है। आप हमे उत्तम विजय प्राप्त कराएँ॥७॥
१७५.इन्द्रावरुण नू नु वां सिषासन्तीषु धीष्वा । अस्मभ्यं शर्म यच्छतम्॥८॥
हे इन्द्रावरुण देवो! हमारी बुद्धियाँ सम्यक् रूप से आपकी सेवा करने की इच्छा करती है, अतः हमे शीघ्र ही निश्चयपूर्वक सुख प्रदान करें॥८॥
१७६.प्र वामश्नोतु सुष्टुतिरिन्द्रावरुण यां हुवे । यामृधाथे सधस्तुतिम्॥९॥
हे इन्द्रावरुण देवो! जिन उत्तम स्तुतियों के लिये हम आप दोनो का आवाहन करते हैं एवं जिन स्तुतियो को साथ साथ प्राप्त करके आप दोनो पुष्ट होते हैं, वे स्तुतियाँ आपको प्राप्त हों॥९॥
१६८.इन्द्रावरुणयोरहं सम्राजोरव आ वृणे । ता नो मृळात ईदृशे ॥१॥
हम इन्द्र और वरुण दोनो प्रतापी देवो से अपनी सुरक्षा की कामना करते हैं। वे दोनो हम पर इस प्रकार अनुकम्पा करें, जिससे कि हम सुखी रहें॥१॥
१६९.गन्तारा हि स्थोऽवसे हवं विप्रस्य मावतः । धर्तारा चर्षणीनाम् ॥२॥
हे इन्द्रदेव और वरुणदेवो! आप दोनो मनुष्यो के सम्राट, धारक एवं पोषक हैं। हम जैसे ब्राह्मणो के आवाहन पर सुरक्षा ले लिये आप निश्चय ही आने को उद्यत रहते हैं॥२॥
१७०.अनुकामं तर्पयेथामिन्द्रावरुण राय आ । ता वां नेदिष्ठमीमहे॥३॥
हे इन्द्रदेव और वरुणदेवो! हमारी कामनाओ के अनुरूप धन देकर हमें संतुष्ट करें। आप दोनो के समीप पहुचँकर हम प्रार्थना करते हैं॥३॥
१७१.युवाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम् । भूयाम वाजदाव्नाम् ॥४॥
हमारे कर्म संगठित हो, हमारी सद्बुद्धीयाँ संगठित हो, हम अग्रगण्य होकर दान करने वाले बनें॥४॥
१७२.इन्द्रः सहस्रदाव्नां वरुणः शंस्यानाम् । क्रतुर्भवत्युक्थ्यः॥५॥
इन्द्रदेव सहस्त्रो दाताओ मे सर्वश्रेष्ठ है और् वरुणदेव सहस्त्रो प्रशंसनीय देवो मे सर्वश्रेष्ठ हैं॥५॥
१७३.तयोरिदवसा वयं सनेम नि च धीमहि । स्यादुत प्ररेचनम्॥६॥
आपके द्वारा सुरक्षित धन को प्राप्त कर हम उसका श्रेष्ठतम उपयोग करें। वह धन हमे विपुल मात्रा मे प्राप्त हो॥६॥
१७४.इन्द्रावरुण वामहं हुवे चित्राय राधसे । अस्मान्सु जिग्युषस्कृतम्॥७॥
हे इन्द्रावरुण देवो! विविध प्रकार के धन की कामना से हम आपका आवाहन करते है। आप हमे उत्तम विजय प्राप्त कराएँ॥७॥
१७५.इन्द्रावरुण नू नु वां सिषासन्तीषु धीष्वा । अस्मभ्यं शर्म यच्छतम्॥८॥
हे इन्द्रावरुण देवो! हमारी बुद्धियाँ सम्यक् रूप से आपकी सेवा करने की इच्छा करती है, अतः हमे शीघ्र ही निश्चयपूर्वक सुख प्रदान करें॥८॥
१७६.प्र वामश्नोतु सुष्टुतिरिन्द्रावरुण यां हुवे । यामृधाथे सधस्तुतिम्॥९॥
हे इन्द्रावरुण देवो! जिन उत्तम स्तुतियों के लिये हम आप दोनो का आवाहन करते हैं एवं जिन स्तुतियो को साथ साथ प्राप्त करके आप दोनो पुष्ट होते हैं, वे स्तुतियाँ आपको प्राप्त हों॥९॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १८
[ऋषि-मेधातिथी काण्व। देवता- १-३ ब्रह्मणस्पति, ४ इन्द्र,ब्रह्मणस्पति,सोम ५-ब्रह्मणस्पति,दक्षिणा, ६-८ सदसस्पति,९,नराशंस। छन्द -गायत्री]
१७७. सोमानं स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते । कक्षीवन्तं य औशिजः ॥१॥
हे सम्पूर्ण ज्ञान के अधिपति ब्रह्मणस्पति देव! सोम का सेवन करने वाले यजमान को आप उशिज् के पुत्र कक्षीवान की तरह श्रेष्ठ प्रकाश से युक्त करें॥१॥
१७८. यो रेवान्यो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्धनः । स नः सिषक्तु यस्तुरः ॥२॥
ऐश्वर्यवान, रोगो का नाश करने वाले,धन प्रदाता और् पुष्टिवर्धक तथा जो शीघ्रफलदायक है, वे ब्रह्मणस्पति देव हम पर कृपा करें॥२॥
१७९. मा नः शंसो अररुषो धूर्तिः प्रणङ्मर्त्यस्य । रक्षा णो ब्रह्मणस्पते ॥३॥
हे ब्रह्मणस्पति देव! यज्ञ न करनेवाले तथा अनिष्ट चिन्तन करनेवाले दुष्ट शत्रु का हिंसक, दुष्ट प्रभाव हम पर न पड़े। आप हमारी रक्षा करें॥३॥
१८०. स घा वीरो न रिष्यति यमिन्द्रो ब्रह्मणस्पतिः । सोमो हिनोति मर्त्यम् ॥४॥
जिस मनुष्य को इन्द्रदेव,ब्रह्मणस्पतिदेव और सोमदेव प्रेरित करते है, वह वीर कभी नष्ट नही होता॥४॥
[इन्द्र से संगठन की, ब्रह्मणस्पतिदेव से श्रेष्ठ मार्गदर्शन की एव सोम से पोषण की प्राप्ति होती है। इनसे युक्त मनुष्य क्षीण नही होता। ये तीनो देव यज्ञ मे एकत्रित होते हैं। यज्ञ से प्रेरित मनुष्य दुःखी नही होता वरन् देवत्व प्राप्त करता है।
१८१. त्वं तं ब्रह्मणस्पते सोम इन्द्रश्च मर्त्यम् । दक्षिणा पात्वंहसः॥५॥
हे ब्रह्मणस्पतिदेव। आप सोमदेव, इन्द्रदेव और दक्षिणादेवी के साथ मिलकर् यज्ञादि अनुष्ठान करने वाले मनुष्य़ की पापो से रक्षा करें॥५॥
१८२. सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् । सनिं मेधामयासिषम् ॥६॥
इन्द्रदेव के प्रिय मित्र, अभीष्ट पदार्थो को देने मे समर्थ, लोको का मर्म समझने मे सक्षम सदसस्पतिदेव (सत्प्रवृत्तियो के स्वामी) से हम अद्भूत मेधा प्राप्त करना चाहते है॥६॥
१८३. यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन । स धीनां योगमिन्वति ॥७॥
जिनकी कृपा के बिना ज्ञानी का भी यज्ञ पूर्ण नही होता, वे सदसस्पतिदेव हमारी बुद्धि को उत्तम प्रेरणाओ से युक्त करते है॥७॥
[सदाशयता जिनमे नही, ऐसे विद्वानो द्वारा यज्ञीय प्रयोजनो की पूर्ति नही होती।]
१८४. आदृध्नोति हविष्कृतिं प्राञ्चं कृणोत्यध्वरम् । होत्रा देवेषु गच्छति॥८॥
वे सदसस्पतिदेव हविष्यान्न तैयार करने वाले साधको तथा यज्ञ को प्रवृद्ध करते है और वे ही हमारी स्तुतियों को देवो तक पहुंचाते हौ॥८॥
१८५. नराशंसं सुधृष्टममपश्यं सप्रथस्तमम् । दिवो न सद्ममखसम् ॥९॥
द्युलोक से सदृश अतिदीप्तिमान्, तेजवान,यशस्वी और् मनुष्यो द्वारा प्रशंसित वे सदसस्पतिदेव को हमने देखा है॥९॥
१७७. सोमानं स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते । कक्षीवन्तं य औशिजः ॥१॥
हे सम्पूर्ण ज्ञान के अधिपति ब्रह्मणस्पति देव! सोम का सेवन करने वाले यजमान को आप उशिज् के पुत्र कक्षीवान की तरह श्रेष्ठ प्रकाश से युक्त करें॥१॥
१७८. यो रेवान्यो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्धनः । स नः सिषक्तु यस्तुरः ॥२॥
ऐश्वर्यवान, रोगो का नाश करने वाले,धन प्रदाता और् पुष्टिवर्धक तथा जो शीघ्रफलदायक है, वे ब्रह्मणस्पति देव हम पर कृपा करें॥२॥
१७९. मा नः शंसो अररुषो धूर्तिः प्रणङ्मर्त्यस्य । रक्षा णो ब्रह्मणस्पते ॥३॥
हे ब्रह्मणस्पति देव! यज्ञ न करनेवाले तथा अनिष्ट चिन्तन करनेवाले दुष्ट शत्रु का हिंसक, दुष्ट प्रभाव हम पर न पड़े। आप हमारी रक्षा करें॥३॥
१८०. स घा वीरो न रिष्यति यमिन्द्रो ब्रह्मणस्पतिः । सोमो हिनोति मर्त्यम् ॥४॥
जिस मनुष्य को इन्द्रदेव,ब्रह्मणस्पतिदेव और सोमदेव प्रेरित करते है, वह वीर कभी नष्ट नही होता॥४॥
[इन्द्र से संगठन की, ब्रह्मणस्पतिदेव से श्रेष्ठ मार्गदर्शन की एव सोम से पोषण की प्राप्ति होती है। इनसे युक्त मनुष्य क्षीण नही होता। ये तीनो देव यज्ञ मे एकत्रित होते हैं। यज्ञ से प्रेरित मनुष्य दुःखी नही होता वरन् देवत्व प्राप्त करता है।
१८१. त्वं तं ब्रह्मणस्पते सोम इन्द्रश्च मर्त्यम् । दक्षिणा पात्वंहसः॥५॥
हे ब्रह्मणस्पतिदेव। आप सोमदेव, इन्द्रदेव और दक्षिणादेवी के साथ मिलकर् यज्ञादि अनुष्ठान करने वाले मनुष्य़ की पापो से रक्षा करें॥५॥
१८२. सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् । सनिं मेधामयासिषम् ॥६॥
इन्द्रदेव के प्रिय मित्र, अभीष्ट पदार्थो को देने मे समर्थ, लोको का मर्म समझने मे सक्षम सदसस्पतिदेव (सत्प्रवृत्तियो के स्वामी) से हम अद्भूत मेधा प्राप्त करना चाहते है॥६॥
१८३. यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन । स धीनां योगमिन्वति ॥७॥
जिनकी कृपा के बिना ज्ञानी का भी यज्ञ पूर्ण नही होता, वे सदसस्पतिदेव हमारी बुद्धि को उत्तम प्रेरणाओ से युक्त करते है॥७॥
[सदाशयता जिनमे नही, ऐसे विद्वानो द्वारा यज्ञीय प्रयोजनो की पूर्ति नही होती।]
१८४. आदृध्नोति हविष्कृतिं प्राञ्चं कृणोत्यध्वरम् । होत्रा देवेषु गच्छति॥८॥
वे सदसस्पतिदेव हविष्यान्न तैयार करने वाले साधको तथा यज्ञ को प्रवृद्ध करते है और वे ही हमारी स्तुतियों को देवो तक पहुंचाते हौ॥८॥
१८५. नराशंसं सुधृष्टममपश्यं सप्रथस्तमम् । दिवो न सद्ममखसम् ॥९॥
द्युलोक से सदृश अतिदीप्तिमान्, तेजवान,यशस्वी और् मनुष्यो द्वारा प्रशंसित वे सदसस्पतिदेव को हमने देखा है॥९॥