Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २२
[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता- १-४ अश्विनी कुमार,५-८ सविता,९-१० अग्नि,११ देवियाँ, १२ इन्द्राणी,वरुणानी,अग्यानी,१३-१४ द्यावा-पृथ्वी,१६ विष्णु(देवगण) १७-२१ विष्णु। छन्द -गायत्री]
२०९.प्रातर्युजा वि बोधयाश्विनावेह गच्छताम् । अस्य सोमस्य पीतये॥१॥हे अध्वर्युगण! प्रातःकाल चेतनता को प्राप्त होने वाले अश्विनीकुमारो को जगायें। वे हमारे इस यज्ञ मे सोमपान करने के निमित्त पधारें॥१॥
२१०.या सुरथा रथीतमोभा देवा दिविस्पृशा । अश्विना ता हवामहे ॥२॥ये दोनो अश्विनीकुमार सुसज्जित रथो से युक्त महान रथी है। ये आकाश मे गमन करते है। इन दोनो का हम आवाहन करते है॥२॥
[यहाँ मंत्र शक्ति से चालित, आकाश मार्ग से चलने वाले यान (रथ) का उल्लेख किया गया है।]
२११.या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती । तया यज्ञं मिमिक्षतम्॥३॥हे अश्विनीकुमारो। आपकी जो मधुर सत्यवचन युक्त कशा (चाबुक वाणी) है, उससे यज्ञ को सिंचित करने की कृपा करें॥३॥
[वाणी रूपी चाबुक से स्पष्ट होता है कि अश्विनीकुमारो के यान मंत्र चालित है। मधुर एवं सत्यवचनो से यज्ञ का सिंचन भी किया जाता है। कशा - चाबुक से यज्ञ के सिंचन का भाव अटपटा लगते हुये भी युक्ति संगत है।]
२१२.नहि वामस्ति दूरके यत्रा रथेन गच्छथः । अश्विना सोमिनो गृहम् ॥४॥हे अश्विनीकुमारो। आप रथ पर आरूढ होकर जिस मार्ग से जाते है वहाँ सोमयाग करने वाले जातक का घर दूर नही है॥४॥
[पूर्वोक्त मंत्र मे वर्णित यान के तिव्र वेग का वर्णन है।]
२१३.हिरण्यपाणिमूतये सवितारमुप ह्वये । स चेत्ता देवता पदम् ॥५॥
यजमान को (प्रकाश-उर्जा आदि) देने वाले हिरण्यगर्भ(हाथ मे सुवर्ण धारण करने वाले या सुनहरी किरणो वाले) सवितादेव का हम अपनी रक्षा के लिये आवाहन करते है। वे ही यजमान के द्वारा प्राप्तव्य(गन्तव्य) स्थान को विज्ञापित करनेवाले हैं॥५॥
२१४.अपां नपातमवसे सवितारमुप स्तुहि । तस्य व्रतान्युश्मसि ॥६॥हे ऋत्विज! आप हमारी रक्षा के लिये सविता देवता की स्तुति करे। हम उनके लिये सोमयागादि लर्म सम्पन्न करना चाहते है। वे सवितादेव जलो को सुखा कर पुनः सहस्त्रो गुणा बरसाने वाले है॥६॥
[सौर शक्ति से जल के शोधन,वर्षण एवं शोचन की प्रक्रिया का वर्णन इस ऋचा मे है।]
२१५.विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः । सवितारं नृचक्षसम् ॥७॥
समस्त प्राणियो के आश्रयभूत,विविध धनो के प्रदाता,मानवमात्र के प्रकाशक सूर्यदेव का हम आवाहन करते हैं॥७॥
२१६.सखाय आ नि षीदत सविता स्तोम्यो नु नः । दाता राधांसि शुम्भति॥८॥
हे मित्रो! हम सब बैठकर सवितादेव की स्तुति करें। धन-ऐश्वर्य के दाता सूर्यदेव अत्यन्त शोभायमान है॥८॥
२१७.अग्ने पत्नीरिहा वह देवानामुशतीरुप । त्वष्टारं सोमपीतये ॥९॥हे अग्निदेव! यहाँ आने की अभिलाषा रखनेवाली देवो की पत्नियो को यहाँ ले आएँ और त्वष्टादेव को भी सोमपान के निमित्त बुलायेँ॥९॥
२१८. आ ग्ना अग्न इहावसे होत्रां यविष्ठ भारतीम् । वरूत्रीं धिषणां वह ॥१०॥
हे अग्निदेव! देवपत्नियो को हमारी सुरक्षा के निमित्त यहाँ ले आयेँ। आप हमारी रक्षा के लिये अग्निपत्नि होत्रा, आदित्यपत्नि भारती, वरणीय वाग्देवी धिवणा आदि देवियो को भी यहाँ ले आयें॥१०॥
२१९.अभि नो देवीरवसा महः शर्मणा नृपत्नीः । अच्छिन्नपत्राः सचन्ताम् ॥११॥अनवरुद्ध मार्ग वाली देवपत्नियाँ मनुष्यो को ऐश्वर्य देने मे समर्थ है। वे महान सुखो एवं रक्षण सामर्थ्यो से युक्त होकर हमारी ओर अभिमुख हो॥११॥
२२०.इहेन्द्राणीमुप ह्वये वरुणानीं स्वस्तये । अग्नायीं सोमपीतये॥१२॥
अपने कल्याण के लिए सोमपान के लिए हम इन्द्राणी, वरुणानी, और अग्नायी का आवाहन करते है॥१२॥
२२१.मही द्यौः पृथिवी च न इमं यज्ञं मिमिक्षताम् । पिपृतां नो भरीमभिः ॥१३॥अति विस्तारयुक्त पृथ्वी और द्युलोक हमारे इस यज्ञकर्म को अपने अपने अंशो द्वारा परिपूर्ण करें। वे भरण-पोषण करनेवाली सामग्रीयो(सुख-साधनो) से हम सभी को तृप्त करें॥१३॥
२२२.तयोरिद्घृतवत्पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः । गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे ॥१४॥
गंधर्वलोक के ध्रुवस्थान मे आकाश और पृथ्वी के मध्य मे अवस्थित घृत के समान(सार रूप) जलो (पोषक प्रवाहो) को ज्ञानी जन अपने विवेकयुक्त कर्मो (प्रयासो) द्वारा प्राप्त करते है॥१४॥
२२३.स्योना पृथिवि भवानृक्षरा निवेशनी । यच्छा नः शर्म सप्रथः॥१५॥
हे पृथ्वी देवी! आप सुख देने वाली, बाधा हरने वाली और उत्तमवास देने वाली है। आप हमे विपुल परिमाण मे सुख प्रदान करें॥१५॥
२२४.अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्याः सप्त धामभिः ॥१६॥जहाँ से (यज्ञ स्थल या पृथ्वी से) विष्णुदेव ने (पोषण परक) पराक्रम दिखाया, वहाँ (उस यज्ञीय क्रम से) पृथ्वी से सप्तधामो से देवतागण हमारी रक्षा करें॥१६॥
२२५.इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् । समूळ्हमस्य पांसुरे ॥१७॥यह सब विष्णुदेव का पराक्रम है,तीन प्रकार के (त्रिविध-त्रियामी) उनके चरण है। इसका मर्म धूलि भरे प्रदेश मे निहित है॥१७॥
[त्रिआयामी सृष्टि के पोषण का जो पराक्रम दिखाता है। उसका रहस्य अंतरिक्ष धूलि (सुक्ष्म कणो) के प्रवाह मे सन्निहित है। उसी प्रवाह से सभी प्रकार के पोषक पदार्थ बनते बदलते रहते है।]
२२६.त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥विश्वरक्षक, अविनाशी, विष्णुदेव तीनो लोको मे यज्ञादि कर्मो को पोषित करते हुये तीन चरणोसे जग मे व्याप्त है अर्थात तीन शक्ति धाराओ (सृजन, पोषण और परिवर्तन) द्वारा विश्व का संचालन करते है॥१८॥
२२७.विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा॥१९॥
हे याजको! सर्वव्यापक भगवान विष्णु के सृष्टि संचालन संबंधी कार्यो(सृजन, पोषण और परिवर्तन) ध्यान से देखो। इसमे अनेकोनेक व्रतो(नियमो,अनुशासनो) का दर्शन किया जा सकता है। इन्द्र(आत्मा) के योग्य मित्र उस परम सत्ता के अनुकूल बनकर रहे।(ईश्वरीय अनुशासनो का पालन करें)॥१९॥
२२८.तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥जिस प्रकार सामान्य नेत्रो से आकाश मे स्थित सूर्यदेव को सहजता से देखा जाता है, उसी प्रकार विद्वज्जन अपने ज्ञान चक्षुओ से विष्णुदेव(देवत्व के परमपद) के श्रेष्ठ स्थान को देखते हैं॥२०॥
[ईश्वर दृष्टिमय भले ही न हो, अनुभूतिजन्य अवश्य है।]
२२९.तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम्॥२१॥जागरूक विद्वान स्तोतागण विष्णूदेव के उस परमपद को प्रकाशित करते हैं,अर्थात जन सामान्य के लिये प्रकट करते है॥ २१॥
२०९.प्रातर्युजा वि बोधयाश्विनावेह गच्छताम् । अस्य सोमस्य पीतये॥१॥हे अध्वर्युगण! प्रातःकाल चेतनता को प्राप्त होने वाले अश्विनीकुमारो को जगायें। वे हमारे इस यज्ञ मे सोमपान करने के निमित्त पधारें॥१॥
२१०.या सुरथा रथीतमोभा देवा दिविस्पृशा । अश्विना ता हवामहे ॥२॥ये दोनो अश्विनीकुमार सुसज्जित रथो से युक्त महान रथी है। ये आकाश मे गमन करते है। इन दोनो का हम आवाहन करते है॥२॥
[यहाँ मंत्र शक्ति से चालित, आकाश मार्ग से चलने वाले यान (रथ) का उल्लेख किया गया है।]
२११.या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती । तया यज्ञं मिमिक्षतम्॥३॥हे अश्विनीकुमारो। आपकी जो मधुर सत्यवचन युक्त कशा (चाबुक वाणी) है, उससे यज्ञ को सिंचित करने की कृपा करें॥३॥
[वाणी रूपी चाबुक से स्पष्ट होता है कि अश्विनीकुमारो के यान मंत्र चालित है। मधुर एवं सत्यवचनो से यज्ञ का सिंचन भी किया जाता है। कशा - चाबुक से यज्ञ के सिंचन का भाव अटपटा लगते हुये भी युक्ति संगत है।]
२१२.नहि वामस्ति दूरके यत्रा रथेन गच्छथः । अश्विना सोमिनो गृहम् ॥४॥हे अश्विनीकुमारो। आप रथ पर आरूढ होकर जिस मार्ग से जाते है वहाँ सोमयाग करने वाले जातक का घर दूर नही है॥४॥
[पूर्वोक्त मंत्र मे वर्णित यान के तिव्र वेग का वर्णन है।]
२१३.हिरण्यपाणिमूतये सवितारमुप ह्वये । स चेत्ता देवता पदम् ॥५॥
यजमान को (प्रकाश-उर्जा आदि) देने वाले हिरण्यगर्भ(हाथ मे सुवर्ण धारण करने वाले या सुनहरी किरणो वाले) सवितादेव का हम अपनी रक्षा के लिये आवाहन करते है। वे ही यजमान के द्वारा प्राप्तव्य(गन्तव्य) स्थान को विज्ञापित करनेवाले हैं॥५॥
२१४.अपां नपातमवसे सवितारमुप स्तुहि । तस्य व्रतान्युश्मसि ॥६॥हे ऋत्विज! आप हमारी रक्षा के लिये सविता देवता की स्तुति करे। हम उनके लिये सोमयागादि लर्म सम्पन्न करना चाहते है। वे सवितादेव जलो को सुखा कर पुनः सहस्त्रो गुणा बरसाने वाले है॥६॥
[सौर शक्ति से जल के शोधन,वर्षण एवं शोचन की प्रक्रिया का वर्णन इस ऋचा मे है।]
२१५.विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः । सवितारं नृचक्षसम् ॥७॥
समस्त प्राणियो के आश्रयभूत,विविध धनो के प्रदाता,मानवमात्र के प्रकाशक सूर्यदेव का हम आवाहन करते हैं॥७॥
२१६.सखाय आ नि षीदत सविता स्तोम्यो नु नः । दाता राधांसि शुम्भति॥८॥
हे मित्रो! हम सब बैठकर सवितादेव की स्तुति करें। धन-ऐश्वर्य के दाता सूर्यदेव अत्यन्त शोभायमान है॥८॥
२१७.अग्ने पत्नीरिहा वह देवानामुशतीरुप । त्वष्टारं सोमपीतये ॥९॥हे अग्निदेव! यहाँ आने की अभिलाषा रखनेवाली देवो की पत्नियो को यहाँ ले आएँ और त्वष्टादेव को भी सोमपान के निमित्त बुलायेँ॥९॥
२१८. आ ग्ना अग्न इहावसे होत्रां यविष्ठ भारतीम् । वरूत्रीं धिषणां वह ॥१०॥
हे अग्निदेव! देवपत्नियो को हमारी सुरक्षा के निमित्त यहाँ ले आयेँ। आप हमारी रक्षा के लिये अग्निपत्नि होत्रा, आदित्यपत्नि भारती, वरणीय वाग्देवी धिवणा आदि देवियो को भी यहाँ ले आयें॥१०॥
२१९.अभि नो देवीरवसा महः शर्मणा नृपत्नीः । अच्छिन्नपत्राः सचन्ताम् ॥११॥अनवरुद्ध मार्ग वाली देवपत्नियाँ मनुष्यो को ऐश्वर्य देने मे समर्थ है। वे महान सुखो एवं रक्षण सामर्थ्यो से युक्त होकर हमारी ओर अभिमुख हो॥११॥
२२०.इहेन्द्राणीमुप ह्वये वरुणानीं स्वस्तये । अग्नायीं सोमपीतये॥१२॥
अपने कल्याण के लिए सोमपान के लिए हम इन्द्राणी, वरुणानी, और अग्नायी का आवाहन करते है॥१२॥
२२१.मही द्यौः पृथिवी च न इमं यज्ञं मिमिक्षताम् । पिपृतां नो भरीमभिः ॥१३॥अति विस्तारयुक्त पृथ्वी और द्युलोक हमारे इस यज्ञकर्म को अपने अपने अंशो द्वारा परिपूर्ण करें। वे भरण-पोषण करनेवाली सामग्रीयो(सुख-साधनो) से हम सभी को तृप्त करें॥१३॥
२२२.तयोरिद्घृतवत्पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः । गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे ॥१४॥
गंधर्वलोक के ध्रुवस्थान मे आकाश और पृथ्वी के मध्य मे अवस्थित घृत के समान(सार रूप) जलो (पोषक प्रवाहो) को ज्ञानी जन अपने विवेकयुक्त कर्मो (प्रयासो) द्वारा प्राप्त करते है॥१४॥
२२३.स्योना पृथिवि भवानृक्षरा निवेशनी । यच्छा नः शर्म सप्रथः॥१५॥
हे पृथ्वी देवी! आप सुख देने वाली, बाधा हरने वाली और उत्तमवास देने वाली है। आप हमे विपुल परिमाण मे सुख प्रदान करें॥१५॥
२२४.अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्याः सप्त धामभिः ॥१६॥जहाँ से (यज्ञ स्थल या पृथ्वी से) विष्णुदेव ने (पोषण परक) पराक्रम दिखाया, वहाँ (उस यज्ञीय क्रम से) पृथ्वी से सप्तधामो से देवतागण हमारी रक्षा करें॥१६॥
२२५.इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् । समूळ्हमस्य पांसुरे ॥१७॥यह सब विष्णुदेव का पराक्रम है,तीन प्रकार के (त्रिविध-त्रियामी) उनके चरण है। इसका मर्म धूलि भरे प्रदेश मे निहित है॥१७॥
[त्रिआयामी सृष्टि के पोषण का जो पराक्रम दिखाता है। उसका रहस्य अंतरिक्ष धूलि (सुक्ष्म कणो) के प्रवाह मे सन्निहित है। उसी प्रवाह से सभी प्रकार के पोषक पदार्थ बनते बदलते रहते है।]
२२६.त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥विश्वरक्षक, अविनाशी, विष्णुदेव तीनो लोको मे यज्ञादि कर्मो को पोषित करते हुये तीन चरणोसे जग मे व्याप्त है अर्थात तीन शक्ति धाराओ (सृजन, पोषण और परिवर्तन) द्वारा विश्व का संचालन करते है॥१८॥
२२७.विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा॥१९॥
हे याजको! सर्वव्यापक भगवान विष्णु के सृष्टि संचालन संबंधी कार्यो(सृजन, पोषण और परिवर्तन) ध्यान से देखो। इसमे अनेकोनेक व्रतो(नियमो,अनुशासनो) का दर्शन किया जा सकता है। इन्द्र(आत्मा) के योग्य मित्र उस परम सत्ता के अनुकूल बनकर रहे।(ईश्वरीय अनुशासनो का पालन करें)॥१९॥
२२८.तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥जिस प्रकार सामान्य नेत्रो से आकाश मे स्थित सूर्यदेव को सहजता से देखा जाता है, उसी प्रकार विद्वज्जन अपने ज्ञान चक्षुओ से विष्णुदेव(देवत्व के परमपद) के श्रेष्ठ स्थान को देखते हैं॥२०॥
[ईश्वर दृष्टिमय भले ही न हो, अनुभूतिजन्य अवश्य है।]
२२९.तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम्॥२१॥जागरूक विद्वान स्तोतागण विष्णूदेव के उस परमपद को प्रकाशित करते हैं,अर्थात जन सामान्य के लिये प्रकट करते है॥ २१॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २३
[ऋषि- मेधातिथि काण्व। देवता १-वायु,२-३ इन्द्रवायु,४-६ मित्रावरुण, ७-९ इन्द्र-मरुत्वान,१०-१२ विश्वेदेवा,१३-१५ पूषा,१६-२३ आपः देवता, २३-२४ अग्नि। छन्द १-१८-अग्नि, १९ पुर उष्णिक्, २१ प्रतिष्ठा तथा २२-२४ अनुष्टुप।]
२३०.तीव्राः सोमास आ गह्याशीर्वन्तः सुता इमे। वायो तान्प्रस्थितान्पिब॥१॥
हे वायुदेव! अभिषुत सोमरस तीखा होने से दुग्ध मिश्रित करके तैयार किया गया है, आप आएँ और उत्तर वेदी के पास लाये गये इस सोम रस का पान करें॥१॥
२३१.उभा देवा दिविस्पृशेन्द्रवायू हवामहे। अस्य सोमस्य पीतये॥२॥
जिनका यश दिव्यलोक तक विस्तृत है,ऐसे इन्द्र और वायुदेवो को हम सोमरस पीने के लिये आमंत्रित करते है॥२॥
२३२.इन्द्रवायू मनोजुवा विप्रा हवन्त ऊतये। सहस्राक्षा धियस्पती॥३॥
मन के तुल्य वेग वाले, सहस्त्र चक्षु वाले,बुद्धि के अधीश्वर इन्द्र एवं वायु देवो का ज्ञानीजन अपनी सुरक्षा के लिये आवाहन करते हैं॥३॥
२३३.मित्रं वयं हवामहे वरुणं सोमपीतये। जज्ञाना पूतदक्षसा॥४॥
सोमरस पीने के लिये यज्ञ स्थल पर प्रकट होने वाले परमपवित्र एवं बलशाली मित्र और वरुणदेवो का हम आवाहन करते है॥४॥
२३४.ऋतेन यावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती। ता मित्रावरुणा हुवे॥५॥
सत्यमार्ग पर चलनेवालो का उत्साह बढाने वाले, तेजस्वी मित्रावरुणो का हम आवाहन करते है॥५॥
२३५.वरुणः प्राविता भुवन्मित्रो विश्वाभिरूतिभिः। करतां नः सुराधसः॥६॥
वरुण एवं मित्र देवता अपने समस्त रक्षा साधनो से हम सबकी रक्षा करते है। वे हमे महान वैभव सम्पन्न करें॥६॥
२३६.मरुत्वन्तं हवामह इन्द्रमा सोमपीतये। सजूर्गणेन तृम्पतु॥७॥
मरुद्गणो के सहित इन्द्रदेव को सोमपान के निमित्त बुलाते है। वे मतुद्गणो के साथ आकर तृप्त हों॥७॥
२३७.इन्द्रज्येष्ठा मरुद्गणा देवासः पूषरातयः। विश्वे मम श्रुता हवम्॥८॥
दानी पूषादेव के समान इन्द्रदेव दान देने मे श्रेष्ठ है। वे सब मरुद्गणो के साथ हमारे आवाहन को सुने॥८॥
२३८.हत वृत्रं सुदानव इन्द्रेण सहसा युजा। मा नो दुःशंस ईशत॥९॥
हे उत्तम दानदाता मरुतो ! आप अपने उत्तम साथी और् बलवान इन्द्र के साथ दुष्टो का हनन करें। दुष्टता हमारा अतिक्रमण न कर सके॥९।
२३९.विश्वान्देवान्हवामहे मरुतः सोमपीतये। उग्रा हि पृश्निमातरः॥१०॥
सभी मरुद्गणो को हम सोमपान के निमित बुलाते है। वे सभी अनेक रंगो वाली पृथ्वी के पुत्र महान् वीर एवं पराक्रमी है॥१०॥
२४०.जयतामिव तन्यतुर्मरुतामेति धृष्णुया। यच्छुभं याथना नरः॥११॥
वेग से प्रवाहित होने वाले मरुतो का शब्द विजयवाद के सदृश गुन्जित होता है, उससे सभी मनुष्यो का मंगल होता है॥११॥
२४१.हस्काराद्विद्युतस्पर्यतो जाता अवन्तु नः। मरुतो मृळयन्तु नः॥१२॥
चमकने वाली विद्युतसे उप्पन्न मरुद्गण हमारी रक्षा करें और् प्रसन्नता प्रदान करें॥१२॥
२४२.आ पूषञ्चित्रबर्हिषमाघृणे धरुणं दिवः। आजा नष्टं यथा पशुम्॥१३॥
हे दिप्तीमान पूषादेव आप अद्भूत तेजो से युक्त एवं धारण शक्ति से सम्पन्न है। अत: सोम को द्युलोक से वैसे ही लायें जैसे खोये हुये पशु को ढुंढकर लाते है॥१३॥
२४३.पूषा राजानमाघृणिरपगूळ्हं गुहा हितम्। अविन्दच्चित्रबर्हिषम्॥१४॥
दीप्तिमान पूषादेव ने अंतरिक्ष गुहा मे छिपे हुये शुभ्र तेजो से युक्त सोमराजा को प्राप्त किया॥१४॥
२४४.उतो स मह्यमिन्दुभिः षड्युक्ताँ अनुसेषिधत्। गोभिर्यवं न चर्कृषत्॥१५॥
वे पूषादेव हमारे लिये याग के हेतुभूत सोमो के साथ वसंतादि षट्ऋतुओ को क्रमशः वैसे ही प्राप्त कराते है, जैसे यवो (अनाजो) के लिये कृषक बार-बार खेत जोतता है॥१५॥
२४५.अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम्। पृञ्चतीर्मधुना पयः॥१६॥
यज्ञ की इच्छा करनेवालो के सहायक, मधुर रसरूप जलप्रवाह माताओ के सदृश पुष्टिप्रद है। वे दुग्ध को पुष्ट करते हुये यज्ञमार्ग से गमन करते है॥१६॥
[यज्ञ द्वारा पुष्टि प्रदायक रस प्रवाहो के विस्तार का उल्लेख है।]
२४६.अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह। ता नो हिन्वन्त्वध्वरम्॥१७॥
जो ये जल सूर्य मे (सूर्य किरणो मे) समाहित है, अथवा जिन जलो के साथ सूर्य का सान्निध्य है, ऐसे वे पवित्र जल हमारे यज्ञ को उपलब्ध हों॥१७॥
[उक्त दो मंत्रो मे अंतरिक्ष किरणो द्वारा कृषि का वर्णन है। खेत मे अन्न दिखता नही, किन्तु उससे उत्पन्न होता है। पूषा-पोषण देने वाले देवो (यज्ञ एवं सूर्प आदि) द्वारा सोम (सूक्षम पोषक तत्व) बोया और उपजाया जाता है।]
२४७.अपो देवीरुप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः। सिन्धुभ्यः कर्त्वं हविः॥१८॥
हमारी गायें जिस जल का सेवन करती है, उन जलो का हम स्तुतिगान करते है। (अंतरिक्ष एवं भूमी पर) प्रवाहमान उन जलो के निमित्त हम हवि अर्पण करते है॥१८॥
२४८.अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये। देवा भवत वाजिनः॥१९॥
जल मे अमृतोपम गुण है। जल मे औषधीय गुण है। हे देवो! ऐसे जल की प्रशंसा से आप उत्साह प्राप्त करें॥१९॥
२४९.अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः॥२०॥
मुझ (मंत्र द्रष्टा मुनि) से सोमदेव ने कहा है कि जल समूह मे सभी औषधियाँ समाहित हैं। जल मे ही सर्व सुख प्रदायक अग्नितत्व समाहित है। सभी औषधियाँ जलोसे ही प्राप्त होती हैं॥२०॥
२५०.आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे मम। ज्योक्च सूर्यं दृशे॥२१॥
हे जल समूह! जीवन रक्षक औषधियो को हमारे शरीर मे स्थित करें, जिससे हम निरोग होकर चिरकाल तक सूर्यदेव का दर्शन करते रहें॥२१॥
२५१.इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि। यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेप उतानृतम्॥२२॥
हे जलदेवो! हम याजको ने अज्ञानवश जो दुष्कृत्य किये हो, जानबुझकर किसी से द्रोह किया हो, सत्पुरुषो पर आक्रोश किया हो या असत्य आचरण किया हो तथा इस प्रकार के हमारे हो भी दोष हो, उन सबको बहाकर दूर करें॥२२॥
२५२.आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि। पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा॥२३॥
आज हमने जल मे प्रविष्ट होकर अवभृथ स्नान किया है, इस प्रकार जल मे प्रवेश करके हम रस से आप्लावित हुये है! हे पयस्वान ! हे अग्निदेव! आप हमे वर्चस्वी बनाएँ, हम आपका स्वागत करते है॥२३॥
२५३.सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा। विद्युर्मे अस्य देवा इन्द्रो विद्यात्सह ऋषिभिः॥२४॥
हे अग्निदेव! आप हमे तेजस्विता प्रदान करें। हमे प्रजा और दीर्घ आयु से युक्त करें। देवगण हमारे अनुष्ठान को जाने और् इन्द्रदेव ऋषियो के साथ इसे जाने॥२४॥
२३०.तीव्राः सोमास आ गह्याशीर्वन्तः सुता इमे। वायो तान्प्रस्थितान्पिब॥१॥
हे वायुदेव! अभिषुत सोमरस तीखा होने से दुग्ध मिश्रित करके तैयार किया गया है, आप आएँ और उत्तर वेदी के पास लाये गये इस सोम रस का पान करें॥१॥
२३१.उभा देवा दिविस्पृशेन्द्रवायू हवामहे। अस्य सोमस्य पीतये॥२॥
जिनका यश दिव्यलोक तक विस्तृत है,ऐसे इन्द्र और वायुदेवो को हम सोमरस पीने के लिये आमंत्रित करते है॥२॥
२३२.इन्द्रवायू मनोजुवा विप्रा हवन्त ऊतये। सहस्राक्षा धियस्पती॥३॥
मन के तुल्य वेग वाले, सहस्त्र चक्षु वाले,बुद्धि के अधीश्वर इन्द्र एवं वायु देवो का ज्ञानीजन अपनी सुरक्षा के लिये आवाहन करते हैं॥३॥
२३३.मित्रं वयं हवामहे वरुणं सोमपीतये। जज्ञाना पूतदक्षसा॥४॥
सोमरस पीने के लिये यज्ञ स्थल पर प्रकट होने वाले परमपवित्र एवं बलशाली मित्र और वरुणदेवो का हम आवाहन करते है॥४॥
२३४.ऋतेन यावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती। ता मित्रावरुणा हुवे॥५॥
सत्यमार्ग पर चलनेवालो का उत्साह बढाने वाले, तेजस्वी मित्रावरुणो का हम आवाहन करते है॥५॥
२३५.वरुणः प्राविता भुवन्मित्रो विश्वाभिरूतिभिः। करतां नः सुराधसः॥६॥
वरुण एवं मित्र देवता अपने समस्त रक्षा साधनो से हम सबकी रक्षा करते है। वे हमे महान वैभव सम्पन्न करें॥६॥
२३६.मरुत्वन्तं हवामह इन्द्रमा सोमपीतये। सजूर्गणेन तृम्पतु॥७॥
मरुद्गणो के सहित इन्द्रदेव को सोमपान के निमित्त बुलाते है। वे मतुद्गणो के साथ आकर तृप्त हों॥७॥
२३७.इन्द्रज्येष्ठा मरुद्गणा देवासः पूषरातयः। विश्वे मम श्रुता हवम्॥८॥
दानी पूषादेव के समान इन्द्रदेव दान देने मे श्रेष्ठ है। वे सब मरुद्गणो के साथ हमारे आवाहन को सुने॥८॥
२३८.हत वृत्रं सुदानव इन्द्रेण सहसा युजा। मा नो दुःशंस ईशत॥९॥
हे उत्तम दानदाता मरुतो ! आप अपने उत्तम साथी और् बलवान इन्द्र के साथ दुष्टो का हनन करें। दुष्टता हमारा अतिक्रमण न कर सके॥९।
२३९.विश्वान्देवान्हवामहे मरुतः सोमपीतये। उग्रा हि पृश्निमातरः॥१०॥
सभी मरुद्गणो को हम सोमपान के निमित बुलाते है। वे सभी अनेक रंगो वाली पृथ्वी के पुत्र महान् वीर एवं पराक्रमी है॥१०॥
२४०.जयतामिव तन्यतुर्मरुतामेति धृष्णुया। यच्छुभं याथना नरः॥११॥
वेग से प्रवाहित होने वाले मरुतो का शब्द विजयवाद के सदृश गुन्जित होता है, उससे सभी मनुष्यो का मंगल होता है॥११॥
२४१.हस्काराद्विद्युतस्पर्यतो जाता अवन्तु नः। मरुतो मृळयन्तु नः॥१२॥
चमकने वाली विद्युतसे उप्पन्न मरुद्गण हमारी रक्षा करें और् प्रसन्नता प्रदान करें॥१२॥
२४२.आ पूषञ्चित्रबर्हिषमाघृणे धरुणं दिवः। आजा नष्टं यथा पशुम्॥१३॥
हे दिप्तीमान पूषादेव आप अद्भूत तेजो से युक्त एवं धारण शक्ति से सम्पन्न है। अत: सोम को द्युलोक से वैसे ही लायें जैसे खोये हुये पशु को ढुंढकर लाते है॥१३॥
२४३.पूषा राजानमाघृणिरपगूळ्हं गुहा हितम्। अविन्दच्चित्रबर्हिषम्॥१४॥
दीप्तिमान पूषादेव ने अंतरिक्ष गुहा मे छिपे हुये शुभ्र तेजो से युक्त सोमराजा को प्राप्त किया॥१४॥
२४४.उतो स मह्यमिन्दुभिः षड्युक्ताँ अनुसेषिधत्। गोभिर्यवं न चर्कृषत्॥१५॥
वे पूषादेव हमारे लिये याग के हेतुभूत सोमो के साथ वसंतादि षट्ऋतुओ को क्रमशः वैसे ही प्राप्त कराते है, जैसे यवो (अनाजो) के लिये कृषक बार-बार खेत जोतता है॥१५॥
२४५.अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम्। पृञ्चतीर्मधुना पयः॥१६॥
यज्ञ की इच्छा करनेवालो के सहायक, मधुर रसरूप जलप्रवाह माताओ के सदृश पुष्टिप्रद है। वे दुग्ध को पुष्ट करते हुये यज्ञमार्ग से गमन करते है॥१६॥
[यज्ञ द्वारा पुष्टि प्रदायक रस प्रवाहो के विस्तार का उल्लेख है।]
२४६.अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह। ता नो हिन्वन्त्वध्वरम्॥१७॥
जो ये जल सूर्य मे (सूर्य किरणो मे) समाहित है, अथवा जिन जलो के साथ सूर्य का सान्निध्य है, ऐसे वे पवित्र जल हमारे यज्ञ को उपलब्ध हों॥१७॥
[उक्त दो मंत्रो मे अंतरिक्ष किरणो द्वारा कृषि का वर्णन है। खेत मे अन्न दिखता नही, किन्तु उससे उत्पन्न होता है। पूषा-पोषण देने वाले देवो (यज्ञ एवं सूर्प आदि) द्वारा सोम (सूक्षम पोषक तत्व) बोया और उपजाया जाता है।]
२४७.अपो देवीरुप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः। सिन्धुभ्यः कर्त्वं हविः॥१८॥
हमारी गायें जिस जल का सेवन करती है, उन जलो का हम स्तुतिगान करते है। (अंतरिक्ष एवं भूमी पर) प्रवाहमान उन जलो के निमित्त हम हवि अर्पण करते है॥१८॥
२४८.अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये। देवा भवत वाजिनः॥१९॥
जल मे अमृतोपम गुण है। जल मे औषधीय गुण है। हे देवो! ऐसे जल की प्रशंसा से आप उत्साह प्राप्त करें॥१९॥
२४९.अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः॥२०॥
मुझ (मंत्र द्रष्टा मुनि) से सोमदेव ने कहा है कि जल समूह मे सभी औषधियाँ समाहित हैं। जल मे ही सर्व सुख प्रदायक अग्नितत्व समाहित है। सभी औषधियाँ जलोसे ही प्राप्त होती हैं॥२०॥
२५०.आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे मम। ज्योक्च सूर्यं दृशे॥२१॥
हे जल समूह! जीवन रक्षक औषधियो को हमारे शरीर मे स्थित करें, जिससे हम निरोग होकर चिरकाल तक सूर्यदेव का दर्शन करते रहें॥२१॥
२५१.इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि। यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेप उतानृतम्॥२२॥
हे जलदेवो! हम याजको ने अज्ञानवश जो दुष्कृत्य किये हो, जानबुझकर किसी से द्रोह किया हो, सत्पुरुषो पर आक्रोश किया हो या असत्य आचरण किया हो तथा इस प्रकार के हमारे हो भी दोष हो, उन सबको बहाकर दूर करें॥२२॥
२५२.आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि। पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा॥२३॥
आज हमने जल मे प्रविष्ट होकर अवभृथ स्नान किया है, इस प्रकार जल मे प्रवेश करके हम रस से आप्लावित हुये है! हे पयस्वान ! हे अग्निदेव! आप हमे वर्चस्वी बनाएँ, हम आपका स्वागत करते है॥२३॥
२५३.सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा। विद्युर्मे अस्य देवा इन्द्रो विद्यात्सह ऋषिभिः॥२४॥
हे अग्निदेव! आप हमे तेजस्विता प्रदान करें। हमे प्रजा और दीर्घ आयु से युक्त करें। देवगण हमारे अनुष्ठान को जाने और् इन्द्रदेव ऋषियो के साथ इसे जाने॥२४॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २४
[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति(कृत्रिम देवरात वैश्वामित्र)। देवता १-प्रजापति,२अग्नि,३-४ सविता, ५ सविता अथवा भग,६-१५ वरुण।छन्द १,२,६-१५-त्रिष्टुप, ३-५ गायत्री।]
२५४.कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम। को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च॥१॥
हम अमरदेवो मे से किस देव के सुन्दर नाम का स्मरण करें ? कौन से देव हमे महती अदिति पृथ्वी को प्राप्त करायेंगे? जिअससे हम अपने पिता और माता को देख सकेंगे॥१॥
२५५.अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम। स नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च॥२॥
हम अमरदेवो मे प्रथम अग्निदेव के सुन्दर नाम का मनन करें। वह हमे महती अदिति को प्राप्त करायेंगे, जिससे हम अपने माता-पिता को देख सकेंगे॥२॥
२५६.अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम्। सदावन्भागमीमहे॥३॥
हे सर्वदा रक्षणशील सवितादेव! आप वरण करने वाले योग्य धनो के स्वामी है, अतः हम आपसे ऐश्वर्यो के उत्तम भाग को मांगते है॥३॥
२५७.यश्चिद्धि त इत्था भगः शशमानः पुरा निदः। अद्वेषो हस्तयोर्दधे॥४॥
हे सवितादेव! आप तेजस्विता युक्त निन्दा रहित,द्वेष रहित,वरण करने योग्य धनो को दोनो हाथो से धारण करने वाले हैं॥४॥
२५८.भगभक्तस्य ते वयमुदशेम तवावसा। मूर्धानं राय आरभे॥५॥
हे सवितादेव! हम आपके ऐश्वर्य की छाया मे रहकर संरक्षण को प्राप्त करें। उन्नति करते हुये सफलताओ के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचकर भी अपने कर्तव्यो को पूरा करते रहे॥५॥
२५९.नहि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपुः। नेमा आपो अनिमिषं चरन्तीर्न ये वातस्य प्रमिनन्त्यभ्वम्॥६॥
हे वरुणदेव! ये उड़ने वाले पक्षी आपके पराक्रम ,आपके बल और सुनिति युक्त क्रोध(मन्युं) को नही जान पाते। सतत गमनशील जलप्रवाह आपकी गति को नही जान सकते और प्रबल वायु के वेग भी आपको नही रोक सकते॥६॥
२६०.अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः। नीचीना स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः॥७॥
पवित्र पराक्रम युक्त राजा वरुण(सबको आच्छादित करने वाले) दिव्त तेज पुञ्ज सूर्यदेव को आधारहित आकाश मे धारण करते है। इस तेज पुञ्ज सूर्यदेव का मुख नीचे की ओर और मूल ऊपर की ओर है। इसले मध्य मे दिव्य किरणे विस्तीर्ण होती चलती हैं॥७॥
२६१.उरुं हि राजा वरुणश्चकार सूर्याय पन्थामन्वेतवा उ। अपदे पादा प्रतिधातवेऽकरुतापवक्ता हृदयाविधश्चित्॥८॥
राजा वरुणदेव ने सूर्य गमन के लिये विस्तृतमार्ग निर्धारित किया है, जहाँ पैर भी स्थापित न हो, ऐसे अंतरिक्ष स्थान पर भी चलने के लिये मार्ग विनिर्मित करदेते है। और वे हृदय की पीड़ा का निवारण करने वाले हैं॥८॥
२६२.शतं ते राजन्भिषजः सहस्रमुर्वी गभीरा सुमतिष्टे अस्तु। बाधस्व दूरे निरृतिं पराचैः कृतं चिदेनः प्र मुमुग्ध्यस्मत्॥९॥
हे वरुणदेव! आपके पास असंख्य उपाय है। आपकी उत्तम बुद्धि अत्यन्त व्यापक और गम्भीर है। आप हमारी पाप वृत्तियो को हमसे दूर करें। किये हुए पापो से हमे विमुक्त करें॥९॥
२६३.अमी य ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृश्रे कुह चिद्दिवेयुः।अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशच्चन्द्रमा नक्तमेति॥१०॥
ये नक्षत्रगण आकाश मे रात्रि के समय दिखते हौ, परन्तु दिन मे कहाँ विलीन होते हैं? विशेष प्रकाशित चन्द्रमा रात मे आता है। वरुण राजा के नियम कभी नष्ट नही होते है॥१०॥
२६४.तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः॥११॥
हे वरुणदेव! मन्त्ररूप वाणी से आपकी स्तुति करते हुये आपसे याचना करते है। यजमान हविस्यात्र अर्पित करते हुये कहता है - हे बहुप्रशंसित देव! हमारी उपेक्षा न करें, हमारी स्तुतियो को जाने। हमारी आयु को क्षीण न करें॥११॥
२६५.तदिन्नक्तं तद्दिवा मह्यमाहुस्तदयं केतो हृद आ वि चष्टे। शुनःशेपो यमह्वद्गृभीतः सो अस्मान्राजा वरुणो मुमोक्तु॥१२॥
रातदिन मे (अनवरत) ज्ञानियो के कहे अनुसार यही ज्ञान(चिन्तन) हमारे हृदय मे होते रहता है कि बन्धन मे पड़े शुनःशेप ने जिस वरुणदेव को बुलाकर मुक्ति को प्राप्त किया, वही वरुणदेव हमे भी बन्धनो से मुक्त करें॥१२॥
२६६.शुनःशेपो ह्यह्वद्गृभीतस्त्रिष्वादित्यं द्रुपदेषु बद्धः। अवैनं राजा वरुणः ससृज्याद्विद्वाँ अदब्धो वि मुमोक्तु पाशान्॥१३॥
तीन स्तम्भो मे बधेँ हुये शुनःशेप ने अदिति पुत्र वरुणदेव का आवाहन करके उनसे निवेदन किया कि वे ज्ञानी और अटल वरुणदेव हमारे पाशो को काटकर हमे मुक्त करें॥१३॥
२६७.अव ते हेळो वरुण नमोभिरव यज्ञेभिरीमहे हविर्भिः। क्षयन्नस्मभ्यमसुर प्रचेता राजन्नेनांसि शिश्रथः कृतानि॥१४॥
हे वरुणदेव! आपके क्रोध को शान्त करने के लिये हम स्तुति रूप वचनो को सुनाते है। हविर्द्रव्यो के द्वारा यज्ञ मे सन्तुष्ट होकर हे प्रखर बुद्धि वाले राजन! आप हमारे यहाँ वास करते हुये हमे पापो के बन्धन से मुक्त करें॥१४॥
२६८.उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम॥१५॥
हे वरुणदेव! आप तीनो तापो रूपी बन्धनो से हमे मुक्त करे। आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक पाश हमसे दूर हों तथा मध्य के एवं नीचे के बन्धन अलग करें! हे सूर्यपुत्र! पापो से रहित होकर हम आपके कर्मफल सिद्धांत मे अनुशासित हो, दयनीय स्थिति मे हम न रहें॥१५॥
२५४.कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम। को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च॥१॥
हम अमरदेवो मे से किस देव के सुन्दर नाम का स्मरण करें ? कौन से देव हमे महती अदिति पृथ्वी को प्राप्त करायेंगे? जिअससे हम अपने पिता और माता को देख सकेंगे॥१॥
२५५.अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम। स नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च॥२॥
हम अमरदेवो मे प्रथम अग्निदेव के सुन्दर नाम का मनन करें। वह हमे महती अदिति को प्राप्त करायेंगे, जिससे हम अपने माता-पिता को देख सकेंगे॥२॥
२५६.अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम्। सदावन्भागमीमहे॥३॥
हे सर्वदा रक्षणशील सवितादेव! आप वरण करने वाले योग्य धनो के स्वामी है, अतः हम आपसे ऐश्वर्यो के उत्तम भाग को मांगते है॥३॥
२५७.यश्चिद्धि त इत्था भगः शशमानः पुरा निदः। अद्वेषो हस्तयोर्दधे॥४॥
हे सवितादेव! आप तेजस्विता युक्त निन्दा रहित,द्वेष रहित,वरण करने योग्य धनो को दोनो हाथो से धारण करने वाले हैं॥४॥
२५८.भगभक्तस्य ते वयमुदशेम तवावसा। मूर्धानं राय आरभे॥५॥
हे सवितादेव! हम आपके ऐश्वर्य की छाया मे रहकर संरक्षण को प्राप्त करें। उन्नति करते हुये सफलताओ के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचकर भी अपने कर्तव्यो को पूरा करते रहे॥५॥
२५९.नहि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपुः। नेमा आपो अनिमिषं चरन्तीर्न ये वातस्य प्रमिनन्त्यभ्वम्॥६॥
हे वरुणदेव! ये उड़ने वाले पक्षी आपके पराक्रम ,आपके बल और सुनिति युक्त क्रोध(मन्युं) को नही जान पाते। सतत गमनशील जलप्रवाह आपकी गति को नही जान सकते और प्रबल वायु के वेग भी आपको नही रोक सकते॥६॥
२६०.अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः। नीचीना स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः॥७॥
पवित्र पराक्रम युक्त राजा वरुण(सबको आच्छादित करने वाले) दिव्त तेज पुञ्ज सूर्यदेव को आधारहित आकाश मे धारण करते है। इस तेज पुञ्ज सूर्यदेव का मुख नीचे की ओर और मूल ऊपर की ओर है। इसले मध्य मे दिव्य किरणे विस्तीर्ण होती चलती हैं॥७॥
२६१.उरुं हि राजा वरुणश्चकार सूर्याय पन्थामन्वेतवा उ। अपदे पादा प्रतिधातवेऽकरुतापवक्ता हृदयाविधश्चित्॥८॥
राजा वरुणदेव ने सूर्य गमन के लिये विस्तृतमार्ग निर्धारित किया है, जहाँ पैर भी स्थापित न हो, ऐसे अंतरिक्ष स्थान पर भी चलने के लिये मार्ग विनिर्मित करदेते है। और वे हृदय की पीड़ा का निवारण करने वाले हैं॥८॥
२६२.शतं ते राजन्भिषजः सहस्रमुर्वी गभीरा सुमतिष्टे अस्तु। बाधस्व दूरे निरृतिं पराचैः कृतं चिदेनः प्र मुमुग्ध्यस्मत्॥९॥
हे वरुणदेव! आपके पास असंख्य उपाय है। आपकी उत्तम बुद्धि अत्यन्त व्यापक और गम्भीर है। आप हमारी पाप वृत्तियो को हमसे दूर करें। किये हुए पापो से हमे विमुक्त करें॥९॥
२६३.अमी य ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृश्रे कुह चिद्दिवेयुः।अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशच्चन्द्रमा नक्तमेति॥१०॥
ये नक्षत्रगण आकाश मे रात्रि के समय दिखते हौ, परन्तु दिन मे कहाँ विलीन होते हैं? विशेष प्रकाशित चन्द्रमा रात मे आता है। वरुण राजा के नियम कभी नष्ट नही होते है॥१०॥
२६४.तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः॥११॥
हे वरुणदेव! मन्त्ररूप वाणी से आपकी स्तुति करते हुये आपसे याचना करते है। यजमान हविस्यात्र अर्पित करते हुये कहता है - हे बहुप्रशंसित देव! हमारी उपेक्षा न करें, हमारी स्तुतियो को जाने। हमारी आयु को क्षीण न करें॥११॥
२६५.तदिन्नक्तं तद्दिवा मह्यमाहुस्तदयं केतो हृद आ वि चष्टे। शुनःशेपो यमह्वद्गृभीतः सो अस्मान्राजा वरुणो मुमोक्तु॥१२॥
रातदिन मे (अनवरत) ज्ञानियो के कहे अनुसार यही ज्ञान(चिन्तन) हमारे हृदय मे होते रहता है कि बन्धन मे पड़े शुनःशेप ने जिस वरुणदेव को बुलाकर मुक्ति को प्राप्त किया, वही वरुणदेव हमे भी बन्धनो से मुक्त करें॥१२॥
२६६.शुनःशेपो ह्यह्वद्गृभीतस्त्रिष्वादित्यं द्रुपदेषु बद्धः। अवैनं राजा वरुणः ससृज्याद्विद्वाँ अदब्धो वि मुमोक्तु पाशान्॥१३॥
तीन स्तम्भो मे बधेँ हुये शुनःशेप ने अदिति पुत्र वरुणदेव का आवाहन करके उनसे निवेदन किया कि वे ज्ञानी और अटल वरुणदेव हमारे पाशो को काटकर हमे मुक्त करें॥१३॥
२६७.अव ते हेळो वरुण नमोभिरव यज्ञेभिरीमहे हविर्भिः। क्षयन्नस्मभ्यमसुर प्रचेता राजन्नेनांसि शिश्रथः कृतानि॥१४॥
हे वरुणदेव! आपके क्रोध को शान्त करने के लिये हम स्तुति रूप वचनो को सुनाते है। हविर्द्रव्यो के द्वारा यज्ञ मे सन्तुष्ट होकर हे प्रखर बुद्धि वाले राजन! आप हमारे यहाँ वास करते हुये हमे पापो के बन्धन से मुक्त करें॥१४॥
२६८.उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम॥१५॥
हे वरुणदेव! आप तीनो तापो रूपी बन्धनो से हमे मुक्त करे। आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक पाश हमसे दूर हों तथा मध्य के एवं नीचे के बन्धन अलग करें! हे सूर्यपुत्र! पापो से रहित होकर हम आपके कर्मफल सिद्धांत मे अनुशासित हो, दयनीय स्थिति मे हम न रहें॥१५॥