मुण्डकोपनिषद
प्रथम मुण्डक
प्रथम खंड
आचार्य परंपरा
सम्पूर्ण देवताओं में पहले ब्रह्मा उत्पन्न हुआ। वह विश्व का रचयिता और त्रिभुवन का रक्षक था। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को समस्त विद्याओं की आश्रयभूत ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया।
अथर्वा को ब्रह्मा ने जिसका उपदेश किया था वह ब्रह्मविद्या पूर्वकाल में अथर्वा ने अंगी को सिखायी। अंगी ने उसे भरद्वाज के पुत्र सत्यवह से कहा तथा भरद्वाजपुत्र (सत्यवह) ने इस प्रकार श्रेष्ठ से कनिष्ठ को प्राप्त होती हुई वह विद्या अंगिरा से कही।
शौनक की गुरुपसत्ति और प्रश्न
शौनक नामक प्रसिद्ध महागृहस्थ ने अंगीरा के पास विधिपूर्वक जाकर पूछा - 'भगवन! किस के जान लिए जाने पर यह सब कुछ जान लिया जाता है?
अंगिरा का उत्तर-विद्या दो प्रकार की है
उससे उस ने कहा - 'ब्रह्मवेत्ताओं ने कहा है कि दो विद्याएँ जानने योग्य है - एक परा और दूसरी अपरा॥
परा और अपरा विद्या का स्वरूप
उनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष-यह अपरा है तथा जिससे उस अक्षर परमात्मा का ज्ञान होता है वह परा है।
परविद्या प्रदर्शन
वह जो अदृश्य, अग्राह्य, अगोत्र, अवर्ण और चक्षु: श्रोत्रादिहीन है, इसी प्रकार अपाणिपाद, नित्य, विभु, सर्वगत, अत्यंत सूक्षम और अव्यय है तथा जो सम्पूर्ण भूतों का कारण है उसे विवेकी लोग सब और देखते है।
अक्षर ब्रह्म का विश्व - कारणत्व
जिस प्रकार मकड़ी जाले को बनाती और निगल जाती है, जैसे पृथिवी में ओषधियाँ उत्पन्न होती है और जैसे सजीव पुरुष से केश एवं लोम उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार उस अक्षर से यह विश्व प्रकट होता है।
सृष्टिक्रम
तप के द्वारा ब्रह्म कुछ उपचय (स्थूलता) - को प्राप्त हो जाता है, उसी से अन्न उत्पन्न होता है। फिर अन्न से क्रमशः प्राण, मन सत्य, लोक, कर्म और कर्म से अमृत संज्ञक कर्मफल उत्पन्न होता है।
प्रकरण का उपसंहार
जो सबको (सामान्य रूप से) जानने वाला और सबका विशेषज्ञ है तथा जिस का ज्ञानमय ताप है उस (अक्षर ब्रह्म) - से ही यह ब्रह्म (हिरण्यगर्भ), नाम, रूप और अन्न उत्पन्न होता है।
सम्पूर्ण देवताओं में पहले ब्रह्मा उत्पन्न हुआ। वह विश्व का रचयिता और त्रिभुवन का रक्षक था। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को समस्त विद्याओं की आश्रयभूत ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया।
अथर्वा को ब्रह्मा ने जिसका उपदेश किया था वह ब्रह्मविद्या पूर्वकाल में अथर्वा ने अंगी को सिखायी। अंगी ने उसे भरद्वाज के पुत्र सत्यवह से कहा तथा भरद्वाजपुत्र (सत्यवह) ने इस प्रकार श्रेष्ठ से कनिष्ठ को प्राप्त होती हुई वह विद्या अंगिरा से कही।
शौनक की गुरुपसत्ति और प्रश्न
शौनक नामक प्रसिद्ध महागृहस्थ ने अंगीरा के पास विधिपूर्वक जाकर पूछा - 'भगवन! किस के जान लिए जाने पर यह सब कुछ जान लिया जाता है?
अंगिरा का उत्तर-विद्या दो प्रकार की है
उससे उस ने कहा - 'ब्रह्मवेत्ताओं ने कहा है कि दो विद्याएँ जानने योग्य है - एक परा और दूसरी अपरा॥
परा और अपरा विद्या का स्वरूप
उनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष-यह अपरा है तथा जिससे उस अक्षर परमात्मा का ज्ञान होता है वह परा है।
परविद्या प्रदर्शन
वह जो अदृश्य, अग्राह्य, अगोत्र, अवर्ण और चक्षु: श्रोत्रादिहीन है, इसी प्रकार अपाणिपाद, नित्य, विभु, सर्वगत, अत्यंत सूक्षम और अव्यय है तथा जो सम्पूर्ण भूतों का कारण है उसे विवेकी लोग सब और देखते है।
अक्षर ब्रह्म का विश्व - कारणत्व
जिस प्रकार मकड़ी जाले को बनाती और निगल जाती है, जैसे पृथिवी में ओषधियाँ उत्पन्न होती है और जैसे सजीव पुरुष से केश एवं लोम उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार उस अक्षर से यह विश्व प्रकट होता है।
सृष्टिक्रम
तप के द्वारा ब्रह्म कुछ उपचय (स्थूलता) - को प्राप्त हो जाता है, उसी से अन्न उत्पन्न होता है। फिर अन्न से क्रमशः प्राण, मन सत्य, लोक, कर्म और कर्म से अमृत संज्ञक कर्मफल उत्पन्न होता है।
प्रकरण का उपसंहार
जो सबको (सामान्य रूप से) जानने वाला और सबका विशेषज्ञ है तथा जिस का ज्ञानमय ताप है उस (अक्षर ब्रह्म) - से ही यह ब्रह्म (हिरण्यगर्भ), नाम, रूप और अन्न उत्पन्न होता है।
द्वितीय खंड
बुद्धिमान ऋषियों ने जिन कर्मों का मन्त्रों में साक्षात्कार किया था वही यह सत्य है, त्रेतायुग में उन कर्मों का अनेक प्रकार विस्तार हुआ। सत्य (कर्मफल)- की कामना से युक्त होकर उनका नित्य आचरण करो; लोक में यही तुम्हारे लिए सुकृत (कर्मफल की प्राप्ति) का मार्ग है।
अग्निहोत्र का वर्णन
जिस समय अग्नि के प्रदीप्त होने पर उसकी ज्वाला उठने लगे उस समय दोनों आज्य भागों के मध्य में (प्रातः और सायंकाल) आहुतियाँ डाले।
विधिहीन कर्म का कुफल
जिस का अग्निहोत्र दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य और अग्रयण - इन कर्मों से रहित, अतिथि - पूजन से वर्जित, यथासमय किये जाने वाले हवन और वैश्वदेव से रहित अथवा अविधिपूर्वक हवन किया होता है, उसकी मानो सात पीढ़ियों का वह नाश कर देता है।
अग्नि की सात जिह्वाएं
काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, सुधूम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरुची देवी- ये उस (अग्नि) - की लपलपाती हुई सात जिह्वाएँ हैं।
विधिवत अग्निहोत्रादि से स्वर्गप्राप्ति
जो पुरुष इन देदीप्यमान अग्निशिखाओं में यथासमय आहुतियाँ देता हुआ (अग्निहोत्रादि कर्म का) आचरण करता है उसे ये सूर्य की किरणें होकर वहां ले जाती है जहाँ देवताओं का एकमात्र स्वामी रहता है।
वे दिप्तिमती आहुतियाँ 'आओ, आओ, यह तुम्हारे सुकृत से प्राप्त हुआ पवित्र ब्रह्मलोक है' ऐसी प्रिय वाणी कहकर यजमान का अर्चन (सत्कार) करती हुई उसे ले जाती है।
ज्ञान रहित कर्म की निंदा
जिनमें (ज्ञान बाह्य होने से) अवर - निकृष्टकर्म आश्रित कहा गया है, वे [सोलह ऋत्विक तथा यजमान और यजमानपत्नी] ये अठारह यज्ञरूप (यज्ञ के साधन) अस्थिर एवं नाशवान बतलाये गए हैं। जो मूढ़ 'यही श्रेय है' इस प्रकार इन का अभिनन्दन करते हैं, वे फिर भी जरा - मरण को प्राप्त होते हैं।
अविद्याग्रस्त कर्मठों की दुर्दशा
अविद्या के मध्य में रहने वाले और अपने को बड़ा बुद्धिमान तथा पंडित मानने वाले वे मूढ़ पुरुष अंधे से ले जाये जाते हुए अंधे के समान पीड़ित होते सब और भटकते रहते हैं।
बहुधा अविद्या में ही रहने वाले वे मूर्ख लोग 'हम कृतार्थ हो गए हैं' इस प्रकार अभिमान किया करते हैं। क्योंकि कर्मठ लोगों को कर्म फल विषयक राग के कारण तत्त्व का ज्ञान नहीं होता, इसलिए वे दुःखार्त्त होकर (कर्मफल क्षीण होने पर) स्वर्ग से च्युत हो जाते हैं।
इष्ट और पूर्त कर्मों को ही सर्वोत्तम मानने वाले वे महामूढ किसी अन्य वस्तु को श्रेयस्कर नहीं समझते। वे स्वर्गलोक के उच्च स्थान में अपने कर्मफलों का अनुभव कर इस (मनुष्य) लोक अथवा इससे भी निकृष्ट लोक में प्रवेश करते हैं।
किन्तु जो शांत और विद्वान् लोग वन में रहकर भिक्षावृत्ति का आचरण करते हुए तप और श्रद्धा का सेवन करते हैं वे पापरहित होकर सूर्यद्वार (उत्तरायण मार्ग) - से वहां जाते हैं जहाँ वह अमृत और अव्ययस्वरूप पुरुष रहता है।
ऐहिक और पारलौकिक भोगों की असारता देखने वाले पुरुष के लिए संन्यास और गुरुपसदन का विधान
कर्म द्वारा प्राप्त हुए लोकों की परीक्षा कर ब्राह्मण निर्वेद को प्राप्त हो जाये, (क्योंकि संसार में) अकृत (नित्य पदार्थ) नहीं है, और कृत से (हमें प्रयोजन क्या है?) अतः उस नित्य वस्तु का साक्षात ज्ञान प्राप्त करने के लिए तो हाथ में समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के ही पास जाना चाहिए।
गुरु के लिए उपदेश प्रदान की विधी
वह विद्वान् गुरु अपने समीप आये हुए उस पूर्णतया शांतचित्त एवं जितेन्द्रिय शिष्य को उस ब्रह्म विद्या का तत्त्वतः उपदेश करें जिससे उस सत्य और अक्षर पुरुष का ज्ञान होता है।
अग्निहोत्र का वर्णन
जिस समय अग्नि के प्रदीप्त होने पर उसकी ज्वाला उठने लगे उस समय दोनों आज्य भागों के मध्य में (प्रातः और सायंकाल) आहुतियाँ डाले।
विधिहीन कर्म का कुफल
जिस का अग्निहोत्र दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य और अग्रयण - इन कर्मों से रहित, अतिथि - पूजन से वर्जित, यथासमय किये जाने वाले हवन और वैश्वदेव से रहित अथवा अविधिपूर्वक हवन किया होता है, उसकी मानो सात पीढ़ियों का वह नाश कर देता है।
अग्नि की सात जिह्वाएं
काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, सुधूम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरुची देवी- ये उस (अग्नि) - की लपलपाती हुई सात जिह्वाएँ हैं।
विधिवत अग्निहोत्रादि से स्वर्गप्राप्ति
जो पुरुष इन देदीप्यमान अग्निशिखाओं में यथासमय आहुतियाँ देता हुआ (अग्निहोत्रादि कर्म का) आचरण करता है उसे ये सूर्य की किरणें होकर वहां ले जाती है जहाँ देवताओं का एकमात्र स्वामी रहता है।
वे दिप्तिमती आहुतियाँ 'आओ, आओ, यह तुम्हारे सुकृत से प्राप्त हुआ पवित्र ब्रह्मलोक है' ऐसी प्रिय वाणी कहकर यजमान का अर्चन (सत्कार) करती हुई उसे ले जाती है।
ज्ञान रहित कर्म की निंदा
जिनमें (ज्ञान बाह्य होने से) अवर - निकृष्टकर्म आश्रित कहा गया है, वे [सोलह ऋत्विक तथा यजमान और यजमानपत्नी] ये अठारह यज्ञरूप (यज्ञ के साधन) अस्थिर एवं नाशवान बतलाये गए हैं। जो मूढ़ 'यही श्रेय है' इस प्रकार इन का अभिनन्दन करते हैं, वे फिर भी जरा - मरण को प्राप्त होते हैं।
अविद्याग्रस्त कर्मठों की दुर्दशा
अविद्या के मध्य में रहने वाले और अपने को बड़ा बुद्धिमान तथा पंडित मानने वाले वे मूढ़ पुरुष अंधे से ले जाये जाते हुए अंधे के समान पीड़ित होते सब और भटकते रहते हैं।
बहुधा अविद्या में ही रहने वाले वे मूर्ख लोग 'हम कृतार्थ हो गए हैं' इस प्रकार अभिमान किया करते हैं। क्योंकि कर्मठ लोगों को कर्म फल विषयक राग के कारण तत्त्व का ज्ञान नहीं होता, इसलिए वे दुःखार्त्त होकर (कर्मफल क्षीण होने पर) स्वर्ग से च्युत हो जाते हैं।
इष्ट और पूर्त कर्मों को ही सर्वोत्तम मानने वाले वे महामूढ किसी अन्य वस्तु को श्रेयस्कर नहीं समझते। वे स्वर्गलोक के उच्च स्थान में अपने कर्मफलों का अनुभव कर इस (मनुष्य) लोक अथवा इससे भी निकृष्ट लोक में प्रवेश करते हैं।
किन्तु जो शांत और विद्वान् लोग वन में रहकर भिक्षावृत्ति का आचरण करते हुए तप और श्रद्धा का सेवन करते हैं वे पापरहित होकर सूर्यद्वार (उत्तरायण मार्ग) - से वहां जाते हैं जहाँ वह अमृत और अव्ययस्वरूप पुरुष रहता है।
ऐहिक और पारलौकिक भोगों की असारता देखने वाले पुरुष के लिए संन्यास और गुरुपसदन का विधान
कर्म द्वारा प्राप्त हुए लोकों की परीक्षा कर ब्राह्मण निर्वेद को प्राप्त हो जाये, (क्योंकि संसार में) अकृत (नित्य पदार्थ) नहीं है, और कृत से (हमें प्रयोजन क्या है?) अतः उस नित्य वस्तु का साक्षात ज्ञान प्राप्त करने के लिए तो हाथ में समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के ही पास जाना चाहिए।
गुरु के लिए उपदेश प्रदान की विधी
वह विद्वान् गुरु अपने समीप आये हुए उस पूर्णतया शांतचित्त एवं जितेन्द्रिय शिष्य को उस ब्रह्म विद्या का तत्त्वतः उपदेश करें जिससे उस सत्य और अक्षर पुरुष का ज्ञान होता है।