बौध दर्शन
बोध दर्शन यदि कोई शंका करे की अन्वय व्यतिरेक से अविनाभाव का निश्चय हो जायेगा पुनः कार्य कारण भाव को नियामक क्यों मानते हो जिस वस्तु के रहने से जो अवश्य रहै वह अन्वय यथा धूम के रहने पर वह्रि अवश्य रहती है जिसके न रहने परर जो न रहे वह व्यतिरेक कहाता है। यथा अग्नि के न रहने से धूम नहीं रहता है।
उत्तर - इस पक्ष में साध्य साधन के व्यभिचाराभाव का निर्णय न होगा क्योंकि अतीत अनागत, दूर व्यवहितादिस्थित वर्तमान का प्रत्यक्ष न होने से उसमें व्यभिचार शंका का कारण असंभव है यदि कहो तादृशस्थल में कार्यकारणभाव वादि के मत में भी उक्त दोष समान ही है अतः एक ही पक्ष में निर्भय रहना अनुचित है।
ऐसे नहीं कह सकते क्योंकि कारण के बिना भी कार्य उत्पन्न होगा ऐसा कहना अपनी माता को वन्ध्या कहने के सामान व्याघात है।
शंका यदि हो सकती है जिसमें व्याघात दोष न आवे अतः एव इस विषय में उदयानाचार्य की भी सम्मति कहते है। "व्याधातेति"- "शंकाचेदनुमास्त्येव नचेच्छंका कुतस्तराम व्याधातावधिराशंका तर्कः शंका निवर्त्तक:"। कालांतर और देशांतर में व्यभिचार था उपाधि में अन्य शंका हो तो अनुमान अवश्य है, क्योंकि अनुमान के बिना व्यभिचार और उपाधि का ज्ञान नहीं हो सकता यदि देशांतर और कालांतर में उपाधि की आशंका नहीं है तो अनुमान अवश्य होगा, शंका के निवारण की आवश्यकता ही नहीं है "वादकथाभिप्रायसे" शंका निवर्तक कहते है.. "व्याधातेती"। शंका की अवधि तर्क है क्योंकि तर्क शंका का निवर्तक है - अतः उत्पत्ति के निश्चय से अविनाभाव का निश्चय होता है। उत्पत्ति निर्णय भी कार्यकारण का प्रत्येक्षापलम्भ अनुपलम्भ रूप कारण पंचक से निश्चित होता है यथा उत्पत्ति के पूर्व में कार्य उपलब्ध नहीं होता, कारण के उपलब्धि से उपलब्ध होता है। उपलब्ध कार्य भी कारण के अनुपलम्भ के पश्चात् उपलब्ध नहीं होता, इत्यादि क्रम है उत्पत्ति के पूर्व अनुपलम्भ कारणों पलम्भ २- कार्योलम्भ ३-कारणानुपलम्भ ४-कार्यानुपलम्भ ५ यही कारण पंचक है इसी प्रकार वह्री के बिना धूम उपलब्ध नहीं होता हहै वह्री के नष्ट होने पर धूम भी नष्ट हो जाता है। अतः धूम वह्री से उत्पन्न और वह्री धूम की व्याप्ति निश्चित है।
उत्तर - इस पक्ष में साध्य साधन के व्यभिचाराभाव का निर्णय न होगा क्योंकि अतीत अनागत, दूर व्यवहितादिस्थित वर्तमान का प्रत्यक्ष न होने से उसमें व्यभिचार शंका का कारण असंभव है यदि कहो तादृशस्थल में कार्यकारणभाव वादि के मत में भी उक्त दोष समान ही है अतः एक ही पक्ष में निर्भय रहना अनुचित है।
ऐसे नहीं कह सकते क्योंकि कारण के बिना भी कार्य उत्पन्न होगा ऐसा कहना अपनी माता को वन्ध्या कहने के सामान व्याघात है।
शंका यदि हो सकती है जिसमें व्याघात दोष न आवे अतः एव इस विषय में उदयानाचार्य की भी सम्मति कहते है। "व्याधातेति"- "शंकाचेदनुमास्त्येव नचेच्छंका कुतस्तराम व्याधातावधिराशंका तर्कः शंका निवर्त्तक:"। कालांतर और देशांतर में व्यभिचार था उपाधि में अन्य शंका हो तो अनुमान अवश्य है, क्योंकि अनुमान के बिना व्यभिचार और उपाधि का ज्ञान नहीं हो सकता यदि देशांतर और कालांतर में उपाधि की आशंका नहीं है तो अनुमान अवश्य होगा, शंका के निवारण की आवश्यकता ही नहीं है "वादकथाभिप्रायसे" शंका निवर्तक कहते है.. "व्याधातेती"। शंका की अवधि तर्क है क्योंकि तर्क शंका का निवर्तक है - अतः उत्पत्ति के निश्चय से अविनाभाव का निश्चय होता है। उत्पत्ति निर्णय भी कार्यकारण का प्रत्येक्षापलम्भ अनुपलम्भ रूप कारण पंचक से निश्चित होता है यथा उत्पत्ति के पूर्व में कार्य उपलब्ध नहीं होता, कारण के उपलब्धि से उपलब्ध होता है। उपलब्ध कार्य भी कारण के अनुपलम्भ के पश्चात् उपलब्ध नहीं होता, इत्यादि क्रम है उत्पत्ति के पूर्व अनुपलम्भ कारणों पलम्भ २- कार्योलम्भ ३-कारणानुपलम्भ ४-कार्यानुपलम्भ ५ यही कारण पंचक है इसी प्रकार वह्री के बिना धूम उपलब्ध नहीं होता हहै वह्री के नष्ट होने पर धूम भी नष्ट हो जाता है। अतः धूम वह्री से उत्पन्न और वह्री धूम की व्याप्ति निश्चित है।
इस प्रकार स्वभाव से भी व्याप्ति निश्चित होती है। यथा शिंशपा वृक्ष है यहाँ पर शिंशपा यदि वृक्ष का अतिक्रमण करेगा अर्थात शिंशपा में वृक्षत्व न रहेगा तो शिंशपा का स्वरूप ही नष्ट हो जायेगा ऐसा बाधक होता है, क्योंकि वृक्ष विशेष ही शिंशपा है अतः वृक्षत्व शिंशपा का असाधारण धर्म है। स्वभाव के नाश से स्वरूप नाश होता है यथा उष्णत्व अग्नि का स्वभाव है उसका नाश होने से अग्नि भी नष्ट होता है। यदि बाधक न हो तो बहुधा साहचर्य देखने से भी व्यभिचार शंका को कोई भी वारण नहीं कर सकते।
यह शिंशपा वृक्ष है इत्यादि सामानाधिकरण्य से शिंशपा और वृक्ष का रूप करा नहीं निश्चय होता है प्रवृत्ति निमित्त भिन्न होकर एक विशेष्य का बोध करने वाले दो शब्दों को सामानाधिकरण्य कहते है। जैसे नील घाट यहाँ नील शब्द का प्रवृत्ति निमित्त नीलत्व नीलगुण है क्योंकि नील शब्द अर्शआद्यजंत होने से नील्वान परक है नीलवान में नील विशेषण है त्व तलादि भाव प्रत्यय का अर्थ विशेषण है क्यों "प्रकृतिजन्यबोधे प्रकारीभूतोभावः" ऐसा अनुशासन है घाट शब्द का प्रवृत्ति निमित्त घटत्व है घटत्व और नीलगुण दोनों घाट में रहने से नील घट इन दोनों का सामानाधिकरण्य लक्षण संगत होता है। एवं मृद-घट, धूम-धूमध्वजादि कार्य कारण भाव स्थल में भी सामानाधिकरण्य से तादात्म्य निश्चित होता है।
दोनों वस्तुएं अत्यंत अभिन्न होने पर तादात्म्य असंभव है क्योंक अत्यंत अभेद में पर्य्याय होता है पर्य्यायवाचक अनेक शब्दों का एक साथ प्रयोग नहीं होता है यथा घट कलश इत्यादि अत्यंत भेद में भी तादात्म्य नहीं होता कोई भी अश्व महिष को तादात्म्य नहीं कहते अतः भेदाभेद समनियत तादात्म्य है तथाच कार्य रूप से भेद और कारण रूप से अभेद होने पर कार्य वस्तु कारण का अनुमान करता है यह सिद्ध हुआ।
यह शिंशपा वृक्ष है इत्यादि सामानाधिकरण्य से शिंशपा और वृक्ष का रूप करा नहीं निश्चय होता है प्रवृत्ति निमित्त भिन्न होकर एक विशेष्य का बोध करने वाले दो शब्दों को सामानाधिकरण्य कहते है। जैसे नील घाट यहाँ नील शब्द का प्रवृत्ति निमित्त नीलत्व नीलगुण है क्योंकि नील शब्द अर्शआद्यजंत होने से नील्वान परक है नीलवान में नील विशेषण है त्व तलादि भाव प्रत्यय का अर्थ विशेषण है क्यों "प्रकृतिजन्यबोधे प्रकारीभूतोभावः" ऐसा अनुशासन है घाट शब्द का प्रवृत्ति निमित्त घटत्व है घटत्व और नीलगुण दोनों घाट में रहने से नील घट इन दोनों का सामानाधिकरण्य लक्षण संगत होता है। एवं मृद-घट, धूम-धूमध्वजादि कार्य कारण भाव स्थल में भी सामानाधिकरण्य से तादात्म्य निश्चित होता है।
दोनों वस्तुएं अत्यंत अभिन्न होने पर तादात्म्य असंभव है क्योंक अत्यंत अभेद में पर्य्याय होता है पर्य्यायवाचक अनेक शब्दों का एक साथ प्रयोग नहीं होता है यथा घट कलश इत्यादि अत्यंत भेद में भी तादात्म्य नहीं होता कोई भी अश्व महिष को तादात्म्य नहीं कहते अतः भेदाभेद समनियत तादात्म्य है तथाच कार्य रूप से भेद और कारण रूप से अभेद होने पर कार्य वस्तु कारण का अनुमान करता है यह सिद्ध हुआ।
यदि कोई अनुमान प्रमाण न माने तो उससे पूछना चाहिए क्या अनुमान प्रमाण नहीं इतना ही कहते हो या कुछ हेतु का भी उपन्यास करते हो, ऐसा नियम है केवल प्रतिज्ञा मात्र से वस्तु सिद्धि नहीं होती है पर्वत में अग्नि है इस प्रतिज्ञा मात्र से कोई संतुष्ट न होगा ढूमादी हेतु को भी दिखाना पड़ेगा अतः प्रथम विकल्प असंभव है। द्वितीय पक्ष में अनुमान अप्रमाण है परमितिकरणवतावच्छेदकधर्मशुन्य होने से इत्यादि हेतु और साध्य दिखाकर अनुमान ही करोगे, तब तो अनुमान को अप्रामाण्य साधन में भी अनुमान ही प्रमाण होने से अपनी माता को वन्ध्या कहने के समान वदतो व्याघात होगा।
"किन्चेति" - दूर से नहीं आदि में जल को देखकर यह जल है ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमाण है। अन्यत्र दृष्ट जल के सजातीय होने से एवं मृगत्रिश्नादि में जल प्रत्यक्ष ज्ञान अप्रमाण है अर्थात प्रमाणाभास है। इस भांति कहकर स्वयं स्वभावानुमान को स्वीकार कर लिया। एवं अन्यदीय विरुद्धाभिप्राय: वचन रूप हेतु से अवगत होता है, इस प्रकार कह कर कार्य से कारण का अनुमान भी मान लिया, अनुपलब्धि हेतु से घटादि वस्तु का प्रतिषेध करने से अनुपलब्धिलिंगक अनुमान को भी स्वीकार ही किया। प्रमाणान्तर सामान्य पर से प्रलय प्रमाद तद्भव व्यवस्थापन रूप स्वभावानुमान "अन्यधिय गते:" इन शब्दों से कार्य लिंगक अनुमान अवशिष्ट से अनुपलब्धि लिंगक अनुमान हो गए है।
"किन्चेति" - दूर से नहीं आदि में जल को देखकर यह जल है ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमाण है। अन्यत्र दृष्ट जल के सजातीय होने से एवं मृगत्रिश्नादि में जल प्रत्यक्ष ज्ञान अप्रमाण है अर्थात प्रमाणाभास है। इस भांति कहकर स्वयं स्वभावानुमान को स्वीकार कर लिया। एवं अन्यदीय विरुद्धाभिप्राय: वचन रूप हेतु से अवगत होता है, इस प्रकार कह कर कार्य से कारण का अनुमान भी मान लिया, अनुपलब्धि हेतु से घटादि वस्तु का प्रतिषेध करने से अनुपलब्धिलिंगक अनुमान को भी स्वीकार ही किया। प्रमाणान्तर सामान्य पर से प्रलय प्रमाद तद्भव व्यवस्थापन रूप स्वभावानुमान "अन्यधिय गते:" इन शब्दों से कार्य लिंगक अनुमान अवशिष्ट से अनुपलब्धि लिंगक अनुमान हो गए है।