माण्डूक्योपनिषद आगम प्रकरण
जो अपनी चराचर व्यापिनी ज्ञान रश्मियों के विस्तार से सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त कर (जागृत-अवस्था में) स्थूल विषयों का भोग करने के अनन्तर फिर (स्वप्नावस्था में) बुद्धि से प्रकाशित वासनाजनित सम्पूर्ण भोगों का पैन कर माया से हम सब जीवों को भोग कराता हुआ (स्वयं) आनंद का भोक्ता होकर शयन करता हा तथा जो परम अमृत और अजन्मा ब्रह्म माया से 'तुरीय' (चौथी) संख्या वाला है, उसे हम नमस्कार करते हैं। जो सर्वात्मा शुभाशुभ कर्मजनित स्थूल भोगों को भोगकर फिर अंपनी बुद्धि से परिकल्पित सूक्ष्म विषयों को (सूर्य आदि बाह्य ज्योतियों का आभाव होने के कारण) अपने ही प्रकाश से भोगता है और फिर धीरे-धीरे इन सभी को अपने में स्थापित कर सम्पूर्ण विशेषों को छोड़कर निर्गुण रूप से स्थित हो जाता है, वह तुरीय परमात्मा हमारी रक्षा करे।
ॐ ही सब कुछ है
ॐ यह अक्षर ही सब कुछ है। यह जो कुछ भूत, भविष्यत् और वर्तमान है उसी की व्याख्या है; इसलिए यह सब औंकार ही है। इसके सिवा जो अन्य त्रिकालातीत वास्तु है वह भी ओंकार ही है।
ओंकारवाच्य ब्रह्म की सर्वात्मकता
यह सब ब्रह्म ही है। यह आत्मा भी ब्रह्म ही है। वह यह आत्मा चार पादों वाला है।
आत्मा प्रथम पाद - वैश्वानर
जाग्रत-अवस्था जिस का स्थान है, जो बही:प्रज्ञ सात अंगों वाला, उन्नीस मुखों वाला और स्थूल विषयों का भोक्ता है, वह वैश्वानर पहला पाद है।
आत्मा द्वितीय पोआद- तैजस
स्वप्न जिस का स्थान है तथा जो अन्तःप्रज्ञ, सात अंगों वाला, उन्नीस मुख वाला और सूक्षम विषयों का भोक्ता है, वह तैजस दूसरा पाद है।
आत्मा तृतीय पद- प्राज्ञ
जिस अवस्था में सोया हुआ पुरुष किसी भोग की इच्छा नहीं करता और न कोई स्वप्न ही देखता है उसे सुषुप्ति कहते हैं। वह सुषुप्ति जिसका स्थान है तथा जो एकीभूत प्रकृष्ट ज्ञानसवरूप होता हुआ ही आनंदमय, आनंद का भोक्ता और चेतनारूप मुखवाला है वह प्राज्ञ ही तीसरा पाद है।
प्राज्ञ का सर्वकारणत्व
यह सबका ईश्वर है, यह सर्वज्ञ है, यह अंतर्यामी है और समस्त जीवों की उत्पत्ति तथा लय का स्थान होने के कारण यह सब का कारण भी है।
एक ही आत्मा के तीन भेद
विभु विश्व बहिष्प्रज्ञ है, तैजस अन्तःप्रज्ञ है तथा प्रज्ञा घनप्रज्ञ (प्रज्ञानघन) है। इस प्रकार एक ही आत्मा तीन प्रकार से कहा जाता है।
विश्वादि के विभिन्न स्थान
दक्षिण नेत्ररूप द्वार में विश्व रहता है, तैजस मन के भीतर रहता है, प्राज्ञ हृदयाकाश में उपलब्ध होता है। इस प्रकार यह शरीर में तीन प्रकार से स्थित है।
ॐ ही सब कुछ है
ॐ यह अक्षर ही सब कुछ है। यह जो कुछ भूत, भविष्यत् और वर्तमान है उसी की व्याख्या है; इसलिए यह सब औंकार ही है। इसके सिवा जो अन्य त्रिकालातीत वास्तु है वह भी ओंकार ही है।
ओंकारवाच्य ब्रह्म की सर्वात्मकता
यह सब ब्रह्म ही है। यह आत्मा भी ब्रह्म ही है। वह यह आत्मा चार पादों वाला है।
आत्मा प्रथम पाद - वैश्वानर
जाग्रत-अवस्था जिस का स्थान है, जो बही:प्रज्ञ सात अंगों वाला, उन्नीस मुखों वाला और स्थूल विषयों का भोक्ता है, वह वैश्वानर पहला पाद है।
आत्मा द्वितीय पोआद- तैजस
स्वप्न जिस का स्थान है तथा जो अन्तःप्रज्ञ, सात अंगों वाला, उन्नीस मुख वाला और सूक्षम विषयों का भोक्ता है, वह तैजस दूसरा पाद है।
आत्मा तृतीय पद- प्राज्ञ
जिस अवस्था में सोया हुआ पुरुष किसी भोग की इच्छा नहीं करता और न कोई स्वप्न ही देखता है उसे सुषुप्ति कहते हैं। वह सुषुप्ति जिसका स्थान है तथा जो एकीभूत प्रकृष्ट ज्ञानसवरूप होता हुआ ही आनंदमय, आनंद का भोक्ता और चेतनारूप मुखवाला है वह प्राज्ञ ही तीसरा पाद है।
प्राज्ञ का सर्वकारणत्व
यह सबका ईश्वर है, यह सर्वज्ञ है, यह अंतर्यामी है और समस्त जीवों की उत्पत्ति तथा लय का स्थान होने के कारण यह सब का कारण भी है।
एक ही आत्मा के तीन भेद
विभु विश्व बहिष्प्रज्ञ है, तैजस अन्तःप्रज्ञ है तथा प्रज्ञा घनप्रज्ञ (प्रज्ञानघन) है। इस प्रकार एक ही आत्मा तीन प्रकार से कहा जाता है।
विश्वादि के विभिन्न स्थान
दक्षिण नेत्ररूप द्वार में विश्व रहता है, तैजस मन के भीतर रहता है, प्राज्ञ हृदयाकाश में उपलब्ध होता है। इस प्रकार यह शरीर में तीन प्रकार से स्थित है।
विश्वादि का त्रिविध भोग
विश्व सर्वदा स्थूल पदार्थों को ही भोगने वाला है, तैजस सूक्षम पदार्थों का भोक्ता है तथा प्राज्ञ आनंद को भोगने वाला है; इस प्रकार इनका तीन तरह का भोग जानो।
स्थूल पदार्थ विश्व को तृप्त करता है, सूक्षम तैजस की तृप्ति करने वाला है तथा आनंद प्राज्ञ की; इस प्रकार इनकी तृप्ति भी तीन तरह की समझो।
त्रिविध भोक्ता और भोग्य के ज्ञान का फल
(जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति-इन) तीनों स्थानों में जो भोज्य और भोक्ता बतलाये गए हैं- इन दोनों को जो जानता है, वह (भोगों को) भोगते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता।
प्राण ही सबकी सृष्टि करता है
यह सुनिश्चित बात है कि जो पदार्थ विद्यमान होते हैं उन्हीं सब की उत्पत्ति हुआ करती है। बिजात्मक प्राण ही सबकी उत्पत्ति करता है और चेतनात्मक पुरुष चैतन्य के आभासभूत जीवों को अलग-अलग प्रकट करता है।
सृष्टि के विषय में भिन्न-भिन्न विकल्प
सृष्टि के विषय में विचार करने वाले दूसरे लोग भगवन की विभूति को ही जगत की उत्पत्ति मानते हैं तथा दूसरे लोगों द्वारा यह सृष्टि स्वप्न और माया के समान मानी गयी है।
विश्व सर्वदा स्थूल पदार्थों को ही भोगने वाला है, तैजस सूक्षम पदार्थों का भोक्ता है तथा प्राज्ञ आनंद को भोगने वाला है; इस प्रकार इनका तीन तरह का भोग जानो।
स्थूल पदार्थ विश्व को तृप्त करता है, सूक्षम तैजस की तृप्ति करने वाला है तथा आनंद प्राज्ञ की; इस प्रकार इनकी तृप्ति भी तीन तरह की समझो।
त्रिविध भोक्ता और भोग्य के ज्ञान का फल
(जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति-इन) तीनों स्थानों में जो भोज्य और भोक्ता बतलाये गए हैं- इन दोनों को जो जानता है, वह (भोगों को) भोगते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता।
प्राण ही सबकी सृष्टि करता है
यह सुनिश्चित बात है कि जो पदार्थ विद्यमान होते हैं उन्हीं सब की उत्पत्ति हुआ करती है। बिजात्मक प्राण ही सबकी उत्पत्ति करता है और चेतनात्मक पुरुष चैतन्य के आभासभूत जीवों को अलग-अलग प्रकट करता है।
सृष्टि के विषय में भिन्न-भिन्न विकल्प
सृष्टि के विषय में विचार करने वाले दूसरे लोग भगवन की विभूति को ही जगत की उत्पत्ति मानते हैं तथा दूसरे लोगों द्वारा यह सृष्टि स्वप्न और माया के समान मानी गयी है।
कोई-कोई सृष्टि के विषय में ऐसा निश्चय रखते हैं कि 'प्रभु की सृष्टि है। तथा काल के विष्य मे विचार करने वाले काल से ही जीवों की उत्पत्ति मानते हैं।
कुछ लोग 'सृष्टि भोग के लिये है' ऐसा मानते हैं और कुछ 'क्रीडा के लिये है' ऐसा समझते हैं। (परंतु वास्तव मे तो) यह भगवान का स्वभाव ही है क्योंकि पूर्ण काम को इच्छा ही क्या हो सकती है?
तुरीय क़ा स्वरूप
(विवेकीजन) तुरीय को ऐसा समझते हैं कि वह न तो अन्तःप्रज्ञ है, न बहिष्प्रज्ञ है, न उभयतः (अन्तरबहि)- प्रज्ञ है, ना प्रज्ञानघन है, न प्रज्ञ है न अप्रज्ञ है बल्कि अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य, एकात्मप्रत्यसार, प्रपञ्च क़ा उपशम, शांत, शिव और अद्वैतरूप है। वही आत्मा है और वही साक्षात जानने योग्य है।
तुरीय क़ा प्रभाव
तुरीय आत्मा सब प्रकार के दुखों की निवृत्ति मे ईशान - प्रभु (समर्थ) है। वह अविकारी, सब पदार्थों क़ा अद्वैतरूप, देव, तुरीय और व्यापक माना गया है।
विश्व और तैजस से तुरिया क़ा भेद
विश्व और तैजस-ये दोनों कार्य और कारण से बांधे हुये माने जाते हैं; किन्तु प्रगा केवल कारणावस्था से ही बद्ध है। तथा तुरीय मे तो ये दोनों ही नहीं है।
प्राज्ञ से तुरीय क़ा भेद
प्राज्ञ तो ना अपने को, न पराये को और न सत्य को अथवा अनृत को ही जानता है किन्तु वह तुरीय सर्वदा सर्वदृक है।
द्वैत का अग्रहण् तो प्राज्ञ और तुरिया दोनो को ही समान है, किन्तु प्राज्ञबीज स्वरूपा निद्रा से युक्त है और तुरीय मे वह निद्रा है नहीं।
तुरीय क़ा स्वप्न -निद्रा शून्यत्व
विश्व और तैजस-ये स्वप्न और निद्रा से युक्त हैं तथा प्राज्ञ स्वप्न रहित निद्रा से युक्त है; किन्तु निश्चित पुरुष तुरीय मे न निद्रा ही देखते हैं और न स्वप्न ही।
अन्यथा ग्रहण करने से स्वप्न होता है तथा तत्व को न जानने से निद्रा होती है और इन दोनों विपरीत ज्ञानों क़ा क्षय हो जाने पर तुरीय पद की प्राप्ति होती है।
बोध कब होता है?
जिस समय अनादि माया से सोया हुआ जीव जागता है उसी समय उसे अज, अनिद्र और स्वप्नरहित अद्वैत आत्मतत्त्व क़ा बोध होता है।
प्रपंच का अत्यन्ताभाव
प्रपंच यदि होता तो निवृत हो जाता- इसमें संदेह नहीं। किन्तु (वास्तव में) यह द्वैत तो मायामात्र है, परमार्थतः तो अद्वैत ही है।
गुरु-शिष्यादि विकल्प व्यवहारिक है
इस विकल्प की यदि किसी ने कल्पना की होती तो यह निवृत भी हो जाता। यह वाद तो उपदेश के ही लिए है। आत्मज्ञान हो जेन पर द्वैत नहीं रहता।
आत्मा और उसके पादों के साथ ओंकार और उसकी मात्राओं का तादात्म्य
वह यह आत्मा अक्षर दृष्टि से ओंकार है; वह मात्राओं को विषय करके स्थित है। पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है; वे मात्रा अकार, उकार और मकार है।
अकार और विश्व का तादात्म्य
जिसका जागृत स्थान है वह वैश्वानर व्याप्ति और आदिमत्त्व के कारण (ओंकार की) पहली मात्र अकार है। जो उपासक इस प्रकार जानता है वह सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है और आदि होता है।
उकार और तैजस का तादात्म्य
स्व्प्न जिसका स्थान ऐ वह तैजस उत्कर्ष तथा मध्यवर्तित्व के कारण ओंकार की द्वितीय मात्रा उकार है। जो उपासक ऐसा जानता है वह अपनी ज्ञान संतान का उत्कर्ष करता है, सबके प्रति समान होता है और उसके वंश में कोई ब्रह्मज्ञान हीं पुरुष नहीं होता।
मकार और प्राज्ञ मान और लय के कारण ओंकार की तीसरी मात्रा मकार है। जो उपासक ऐसा जानता है वह इस सम्पूर्ण जगत का मान-प्रमाण कर लेता है और उसका लय स्थान हो जाता है।
इसी अर्थ में ये श्लोक भी है
जिस समय विश्व का अत्व - अकारमात्रत्व बतलाना इष्ट हो, अर्थात वह अकार मात्रारूप है ऐसा जाना जाय तो उनके प्राथमिकत्व की समानता स्पष्ट ही है तथा उनकी व्याप्तिरूप समानता भी स्फुट ही है।
तैजस को उकार रूप जानने पर अर्थात तैजस उकार मात्रा रूप है ऐसा जानने पर उनका उत्कर्ष दिखायी देता है। तथा उनका उभयत्व भी स्पष्ट ही है।
प्राज्ञ की मकार रूपता में अर्थात प्राज्ञ मकार मात्रा रूप है- ऐसा जानने में उनकी मान करने की समानता स्पष्ट है। इसी प्रकार उनमे लय स्थान होने की समानता भी स्पष्ट ही है।
ओंकारोपासना का प्रभाव
जो पुरुष तीनों स्थानों में तुल्यता अथवा समानता को निश्चय पूर्वक जानता है वह महामुनि समस्त प्राणियों का पूजनीय और वंदनीय होता है।
अमात्र और आत्मा का तादात्म्य
मात्रा रहित ओंकार तुरीय आत्मा ही है। वह अव्यवहार्य, प्रपंचोपशम, शिव और अद्वैत है। इस प्रकार ओंकार आत्मा ही है। जो उसे इस प्रकार जानता है वह स्वतः अपने आत्मा में ही प्रवेश कर जाता है।
समस्त और व्यस्त ओंकारोपासना
ओंकार को एक-एक पाद करके जेन; पाद ही मात्राएँ हैं - इसमें संदेह नहीं। इस प्रकार औंकार को पादकर्म से जानकार कुछ भी चिंतन न करें।
चित्त को ओंकार में समाहित करे; ओंकार निर्भय ब्रह्मपद है। ओंकार में नित्य समाहित रहने वाले पुरुष को कहीं भी भय नहीं होता।
ओंकार ही परब्रह्म है और ओंकार ही अपरब्रह्म माना गया है। वह ओंकार अपूर्व(अकारण), अंतर्बाह्य शुन्य, अकार्य तथा अव्यय है।
प्रणव ही सबका आदि, मध्य और अंत है। प्रणव को इस प्रकार जानने के अनन्तर तद्रूपता को प्राप्त हो जाता है।
प्रणव को ही सबके ह्रदय में स्थित ईश्वर जाने। इस प्रकार सर्वव्यापी ओंकार को जानकर बुद्धिमान पुरुष शोक नहीं करता।
ओंकारार्थज्ञ ही मुनि है
जिसने मात्राहीन, अनंत मात्रावाले, द्वैत के उपशम स्थान और मंगलमय ओंकार को जाना है वाही मुनि है; और कोई पुरुष नहीं।
कुछ लोग 'सृष्टि भोग के लिये है' ऐसा मानते हैं और कुछ 'क्रीडा के लिये है' ऐसा समझते हैं। (परंतु वास्तव मे तो) यह भगवान का स्वभाव ही है क्योंकि पूर्ण काम को इच्छा ही क्या हो सकती है?
तुरीय क़ा स्वरूप
(विवेकीजन) तुरीय को ऐसा समझते हैं कि वह न तो अन्तःप्रज्ञ है, न बहिष्प्रज्ञ है, न उभयतः (अन्तरबहि)- प्रज्ञ है, ना प्रज्ञानघन है, न प्रज्ञ है न अप्रज्ञ है बल्कि अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य, एकात्मप्रत्यसार, प्रपञ्च क़ा उपशम, शांत, शिव और अद्वैतरूप है। वही आत्मा है और वही साक्षात जानने योग्य है।
तुरीय क़ा प्रभाव
तुरीय आत्मा सब प्रकार के दुखों की निवृत्ति मे ईशान - प्रभु (समर्थ) है। वह अविकारी, सब पदार्थों क़ा अद्वैतरूप, देव, तुरीय और व्यापक माना गया है।
विश्व और तैजस से तुरिया क़ा भेद
विश्व और तैजस-ये दोनों कार्य और कारण से बांधे हुये माने जाते हैं; किन्तु प्रगा केवल कारणावस्था से ही बद्ध है। तथा तुरीय मे तो ये दोनों ही नहीं है।
प्राज्ञ से तुरीय क़ा भेद
प्राज्ञ तो ना अपने को, न पराये को और न सत्य को अथवा अनृत को ही जानता है किन्तु वह तुरीय सर्वदा सर्वदृक है।
द्वैत का अग्रहण् तो प्राज्ञ और तुरिया दोनो को ही समान है, किन्तु प्राज्ञबीज स्वरूपा निद्रा से युक्त है और तुरीय मे वह निद्रा है नहीं।
तुरीय क़ा स्वप्न -निद्रा शून्यत्व
विश्व और तैजस-ये स्वप्न और निद्रा से युक्त हैं तथा प्राज्ञ स्वप्न रहित निद्रा से युक्त है; किन्तु निश्चित पुरुष तुरीय मे न निद्रा ही देखते हैं और न स्वप्न ही।
अन्यथा ग्रहण करने से स्वप्न होता है तथा तत्व को न जानने से निद्रा होती है और इन दोनों विपरीत ज्ञानों क़ा क्षय हो जाने पर तुरीय पद की प्राप्ति होती है।
बोध कब होता है?
जिस समय अनादि माया से सोया हुआ जीव जागता है उसी समय उसे अज, अनिद्र और स्वप्नरहित अद्वैत आत्मतत्त्व क़ा बोध होता है।
प्रपंच का अत्यन्ताभाव
प्रपंच यदि होता तो निवृत हो जाता- इसमें संदेह नहीं। किन्तु (वास्तव में) यह द्वैत तो मायामात्र है, परमार्थतः तो अद्वैत ही है।
गुरु-शिष्यादि विकल्प व्यवहारिक है
इस विकल्प की यदि किसी ने कल्पना की होती तो यह निवृत भी हो जाता। यह वाद तो उपदेश के ही लिए है। आत्मज्ञान हो जेन पर द्वैत नहीं रहता।
आत्मा और उसके पादों के साथ ओंकार और उसकी मात्राओं का तादात्म्य
वह यह आत्मा अक्षर दृष्टि से ओंकार है; वह मात्राओं को विषय करके स्थित है। पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है; वे मात्रा अकार, उकार और मकार है।
अकार और विश्व का तादात्म्य
जिसका जागृत स्थान है वह वैश्वानर व्याप्ति और आदिमत्त्व के कारण (ओंकार की) पहली मात्र अकार है। जो उपासक इस प्रकार जानता है वह सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है और आदि होता है।
उकार और तैजस का तादात्म्य
स्व्प्न जिसका स्थान ऐ वह तैजस उत्कर्ष तथा मध्यवर्तित्व के कारण ओंकार की द्वितीय मात्रा उकार है। जो उपासक ऐसा जानता है वह अपनी ज्ञान संतान का उत्कर्ष करता है, सबके प्रति समान होता है और उसके वंश में कोई ब्रह्मज्ञान हीं पुरुष नहीं होता।
मकार और प्राज्ञ मान और लय के कारण ओंकार की तीसरी मात्रा मकार है। जो उपासक ऐसा जानता है वह इस सम्पूर्ण जगत का मान-प्रमाण कर लेता है और उसका लय स्थान हो जाता है।
इसी अर्थ में ये श्लोक भी है
जिस समय विश्व का अत्व - अकारमात्रत्व बतलाना इष्ट हो, अर्थात वह अकार मात्रारूप है ऐसा जाना जाय तो उनके प्राथमिकत्व की समानता स्पष्ट ही है तथा उनकी व्याप्तिरूप समानता भी स्फुट ही है।
तैजस को उकार रूप जानने पर अर्थात तैजस उकार मात्रा रूप है ऐसा जानने पर उनका उत्कर्ष दिखायी देता है। तथा उनका उभयत्व भी स्पष्ट ही है।
प्राज्ञ की मकार रूपता में अर्थात प्राज्ञ मकार मात्रा रूप है- ऐसा जानने में उनकी मान करने की समानता स्पष्ट है। इसी प्रकार उनमे लय स्थान होने की समानता भी स्पष्ट ही है।
ओंकारोपासना का प्रभाव
जो पुरुष तीनों स्थानों में तुल्यता अथवा समानता को निश्चय पूर्वक जानता है वह महामुनि समस्त प्राणियों का पूजनीय और वंदनीय होता है।
अमात्र और आत्मा का तादात्म्य
मात्रा रहित ओंकार तुरीय आत्मा ही है। वह अव्यवहार्य, प्रपंचोपशम, शिव और अद्वैत है। इस प्रकार ओंकार आत्मा ही है। जो उसे इस प्रकार जानता है वह स्वतः अपने आत्मा में ही प्रवेश कर जाता है।
समस्त और व्यस्त ओंकारोपासना
ओंकार को एक-एक पाद करके जेन; पाद ही मात्राएँ हैं - इसमें संदेह नहीं। इस प्रकार औंकार को पादकर्म से जानकार कुछ भी चिंतन न करें।
चित्त को ओंकार में समाहित करे; ओंकार निर्भय ब्रह्मपद है। ओंकार में नित्य समाहित रहने वाले पुरुष को कहीं भी भय नहीं होता।
ओंकार ही परब्रह्म है और ओंकार ही अपरब्रह्म माना गया है। वह ओंकार अपूर्व(अकारण), अंतर्बाह्य शुन्य, अकार्य तथा अव्यय है।
प्रणव ही सबका आदि, मध्य और अंत है। प्रणव को इस प्रकार जानने के अनन्तर तद्रूपता को प्राप्त हो जाता है।
प्रणव को ही सबके ह्रदय में स्थित ईश्वर जाने। इस प्रकार सर्वव्यापी ओंकार को जानकर बुद्धिमान पुरुष शोक नहीं करता।
ओंकारार्थज्ञ ही मुनि है
जिसने मात्राहीन, अनंत मात्रावाले, द्वैत के उपशम स्थान और मंगलमय ओंकार को जाना है वाही मुनि है; और कोई पुरुष नहीं।