श्री मद्भागवत-महापुराण - प्रथम अध्याय - देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट
सच्चिदानंद स्वरुप भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार करके कहते हैं, जो जगत की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के हेतु तथा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधीभौतिक - तीनो प्रकार की तापों का नाश करने वाले हैं।
ओ ओ जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था तथा लौकिक-वैदिक कर्मों के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था, तभी उन्हें अकेले ही सन्यास लेने के लिये घर से जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे - 'बेटा! बेटा! तुम कहाँ जा रहे हो? उस समय वृक्षों ने तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेवजी की ओर से उत्तर दिया था। ऐसे सर्वभूत - ह्रदयस्वरुप श्रीशुकदेवजी को मैं नमस्कार करता हूँ।
एक बार भगवत्कथामृत का रसास्वादन करने में कुशल मुनिवर शौनकजी नैमीशारण्य क्षेत्र में विराजमान महामति सूतजी को नमस्कार करके उनसे पूछा।
शौनकजी बोले - सूतजी! आपका ज्ञान अज्ञानान्धकार को नष्ट करने के लिये करोड़ों सूर्यों के समान है। आप हमारे कानों के लिये रसायन - अमृतस्वरूप सारगर्भित कथा कहिये। भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से प्राप्त होने वाले महान विवेक की वृद्धि किस प्रकार होती है तथा वैष्णव लोग किस तरह इस माया-मोह से अपना पीछा छुडाते हैं? इस घोर कलिकाल में जीव प्राय: आसुरी स्वाभाव के हो गए हैं, विविध क्लेशों से आक्रांत इन जीवों को शुद्ध (दैवीशक्ति संपन्न) बनाने का सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है?
सूतजी! आप हमें कोई ऐसा शाश्वत साधन बताइए, जो सबसे अधिक कल्याणकारी तथा पवित्र करने वालों में भी पवित्र हो तथा जो भगवान् श्रीकृष्ण की प्राप्ति करा दे। चिंतामणि केवल लौकिक सुख दे सकती है और कल्पवृक्ष अधिक से अधिक स्वर्गीय संपत्ति दे सकता है; परन्तु गुरुदेव प्रसन्न होकर भगवान् का योगिदुर्लभ नित्य वैकुण्ठ धाम दे देते है।
सूतजी ने कहा - शौनकजी! तुम्हारे हृदय में भगवान् का प्रेम है; इसलिए मैं विचारकर तुम्हें सम्पूर्ण सिद्धांतों का निष्कर्ष सुनाता हूँ, जो जन्म-मृत्यु के भय का नाश कर देता है। जो भक्ति के प्रवाह को बढाता है और भगवान् श्रीकृष्ण की प्रसन्नता का प्रधान कारण है, मैं तुम्हें वह साधन बतलाता हूँ; उसे सावधान होकर सुनो। श्रीशुकदेवजी ने कलियुग में जीवों के कालरूपी सर्प के मुख का ग्रास होने के तरस का आत्यंतिक नाश करने के लिये श्रीमद्भागवत शास्त्र का प्रवचन किया है। मन कि शुद्धि के लिये इससे बढ़कर कोई साधन नहीं है। जब मनुष्य के जन्म-जन्मान्तर का पुण्य उदय होता है, तभी उसे इस भागवतशास्त्र की प्राप्ति होती है। जब शुकदेव जी राजा परीक्षित को यह कथा सुनाने के लिये सभा में विराजमान हुए, तब देवता लोग उनके पास अमृत का कलश लेकर आये। देवता अपना काम बनाने में बड़े कुशल होते हैं; अतः यहाँ भी सबने शुकदेव मुनि को नमस्कार करके कहा; आप यह अमृत लेकर बदले में हमें कथामृत का दान दीजिये। इस प्रकार परस्पर विनिमय (अदला-बदली) हो जाने पर राजा परीक्षित अमृत का पान करें और हम सब श्रीमद्भागवतरूप अमृत का पान करेंगे। इस सन्सार में कहाँ कांच और कहाँ महामुल्य मणि तथा कहाँ सुधा और कहाँ कथा? श्रीशुकदेव जी ने (यह सोचकर) उस समय देवताओं कि हंसी उड़ा दी। उन्हें भक्तिशुन्य (कथा का अनधिकारी) जानकर कथामृत का दान नहीं किया। इस प्रकार श्रीमद्भागवत की कथा देवताओं को भी दुर्लभ है।
पूर्वकाल में श्रीमद्भागवत के श्रवण से ही राजा परीक्षित की मुक्ति देखकर ब्रह्माजी को भी बड़ा आश्चर्य हुआ था। उन्होंने सत्यलोक में तराजू बांधकर सब साधनों को तौला। अन्य सभी साधन तौल में हलके पड़ गए, अपने महत्त्व के कारण ही भागवत ही सबसे भारी रहा। यह देखकर सभी ऋषियों को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने कलियुग में इस भगवद्रूप भागवत शास्त्र को ही पढने-सुनने से तत्काल मोक्ष देने वाला निश्चय किया। सप्ताह-विधि से श्रवण करने पर यह निश्चय भक्ति प्रदान करता है। पूर्वकाल में इसे दयापरायण सनकादि ने देवर्षि नारद को सुनाया था। यद्यपि देवर्षि ने पहले ब्रह्मा जी के मुख से इसे श्रवण कर्र लिया था, तथापि सप्ताहश्रवण की विधि तो उन्हें सनकादि ने ही बताई थी।
शौनक जी ने पूछा - सांसारिक प्रपंच से मुक्त एवं विचरणशील नारदजी का सनकादि के साथ संयोग कहाँ हुआ और विधि-विधान के श्रवण में उनकी प्रीती कैसे हुई?
सूतजी ने कहा - अब मैं तुम्हें वह भक्तिपूर्ण कथानक सुनाता हूँ, जो श्रीशुकदेव जी ने मुझे अपना अनन्य शिष्य जानकार एकांत में सुनाया था। एक दिन विशालापुरी में वे चारों निर्मल ऋषि सत्संग के लिये आये। वहां उन्होंने नारद जी को देखा।
सनकादि ने पूछा - ब्रह्मन! आपका मुख उदास क्यों हो रहा है? आप चिंतातुर कैसे है? इतनी जल्दी-जल्दी आप कहाँ जा रहे है? और आपका आगमन कहाँ से हो रहा है? इस समय तो आप उस पुरुष के सामान व्याकुल जान पड़ते हैं जिसका सारा धन लुट गया ही; आप-जैसे आसक्ति रहित पुरुषों के लिये यह उचित नहीं है। इसका कारण बताईये।
ओ ओ जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था तथा लौकिक-वैदिक कर्मों के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था, तभी उन्हें अकेले ही सन्यास लेने के लिये घर से जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे - 'बेटा! बेटा! तुम कहाँ जा रहे हो? उस समय वृक्षों ने तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेवजी की ओर से उत्तर दिया था। ऐसे सर्वभूत - ह्रदयस्वरुप श्रीशुकदेवजी को मैं नमस्कार करता हूँ।
एक बार भगवत्कथामृत का रसास्वादन करने में कुशल मुनिवर शौनकजी नैमीशारण्य क्षेत्र में विराजमान महामति सूतजी को नमस्कार करके उनसे पूछा।
शौनकजी बोले - सूतजी! आपका ज्ञान अज्ञानान्धकार को नष्ट करने के लिये करोड़ों सूर्यों के समान है। आप हमारे कानों के लिये रसायन - अमृतस्वरूप सारगर्भित कथा कहिये। भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से प्राप्त होने वाले महान विवेक की वृद्धि किस प्रकार होती है तथा वैष्णव लोग किस तरह इस माया-मोह से अपना पीछा छुडाते हैं? इस घोर कलिकाल में जीव प्राय: आसुरी स्वाभाव के हो गए हैं, विविध क्लेशों से आक्रांत इन जीवों को शुद्ध (दैवीशक्ति संपन्न) बनाने का सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है?
सूतजी! आप हमें कोई ऐसा शाश्वत साधन बताइए, जो सबसे अधिक कल्याणकारी तथा पवित्र करने वालों में भी पवित्र हो तथा जो भगवान् श्रीकृष्ण की प्राप्ति करा दे। चिंतामणि केवल लौकिक सुख दे सकती है और कल्पवृक्ष अधिक से अधिक स्वर्गीय संपत्ति दे सकता है; परन्तु गुरुदेव प्रसन्न होकर भगवान् का योगिदुर्लभ नित्य वैकुण्ठ धाम दे देते है।
सूतजी ने कहा - शौनकजी! तुम्हारे हृदय में भगवान् का प्रेम है; इसलिए मैं विचारकर तुम्हें सम्पूर्ण सिद्धांतों का निष्कर्ष सुनाता हूँ, जो जन्म-मृत्यु के भय का नाश कर देता है। जो भक्ति के प्रवाह को बढाता है और भगवान् श्रीकृष्ण की प्रसन्नता का प्रधान कारण है, मैं तुम्हें वह साधन बतलाता हूँ; उसे सावधान होकर सुनो। श्रीशुकदेवजी ने कलियुग में जीवों के कालरूपी सर्प के मुख का ग्रास होने के तरस का आत्यंतिक नाश करने के लिये श्रीमद्भागवत शास्त्र का प्रवचन किया है। मन कि शुद्धि के लिये इससे बढ़कर कोई साधन नहीं है। जब मनुष्य के जन्म-जन्मान्तर का पुण्य उदय होता है, तभी उसे इस भागवतशास्त्र की प्राप्ति होती है। जब शुकदेव जी राजा परीक्षित को यह कथा सुनाने के लिये सभा में विराजमान हुए, तब देवता लोग उनके पास अमृत का कलश लेकर आये। देवता अपना काम बनाने में बड़े कुशल होते हैं; अतः यहाँ भी सबने शुकदेव मुनि को नमस्कार करके कहा; आप यह अमृत लेकर बदले में हमें कथामृत का दान दीजिये। इस प्रकार परस्पर विनिमय (अदला-बदली) हो जाने पर राजा परीक्षित अमृत का पान करें और हम सब श्रीमद्भागवतरूप अमृत का पान करेंगे। इस सन्सार में कहाँ कांच और कहाँ महामुल्य मणि तथा कहाँ सुधा और कहाँ कथा? श्रीशुकदेव जी ने (यह सोचकर) उस समय देवताओं कि हंसी उड़ा दी। उन्हें भक्तिशुन्य (कथा का अनधिकारी) जानकर कथामृत का दान नहीं किया। इस प्रकार श्रीमद्भागवत की कथा देवताओं को भी दुर्लभ है।
पूर्वकाल में श्रीमद्भागवत के श्रवण से ही राजा परीक्षित की मुक्ति देखकर ब्रह्माजी को भी बड़ा आश्चर्य हुआ था। उन्होंने सत्यलोक में तराजू बांधकर सब साधनों को तौला। अन्य सभी साधन तौल में हलके पड़ गए, अपने महत्त्व के कारण ही भागवत ही सबसे भारी रहा। यह देखकर सभी ऋषियों को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने कलियुग में इस भगवद्रूप भागवत शास्त्र को ही पढने-सुनने से तत्काल मोक्ष देने वाला निश्चय किया। सप्ताह-विधि से श्रवण करने पर यह निश्चय भक्ति प्रदान करता है। पूर्वकाल में इसे दयापरायण सनकादि ने देवर्षि नारद को सुनाया था। यद्यपि देवर्षि ने पहले ब्रह्मा जी के मुख से इसे श्रवण कर्र लिया था, तथापि सप्ताहश्रवण की विधि तो उन्हें सनकादि ने ही बताई थी।
शौनक जी ने पूछा - सांसारिक प्रपंच से मुक्त एवं विचरणशील नारदजी का सनकादि के साथ संयोग कहाँ हुआ और विधि-विधान के श्रवण में उनकी प्रीती कैसे हुई?
सूतजी ने कहा - अब मैं तुम्हें वह भक्तिपूर्ण कथानक सुनाता हूँ, जो श्रीशुकदेव जी ने मुझे अपना अनन्य शिष्य जानकार एकांत में सुनाया था। एक दिन विशालापुरी में वे चारों निर्मल ऋषि सत्संग के लिये आये। वहां उन्होंने नारद जी को देखा।
सनकादि ने पूछा - ब्रह्मन! आपका मुख उदास क्यों हो रहा है? आप चिंतातुर कैसे है? इतनी जल्दी-जल्दी आप कहाँ जा रहे है? और आपका आगमन कहाँ से हो रहा है? इस समय तो आप उस पुरुष के सामान व्याकुल जान पड़ते हैं जिसका सारा धन लुट गया ही; आप-जैसे आसक्ति रहित पुरुषों के लिये यह उचित नहीं है। इसका कारण बताईये।