द्वितीय प्रश्न
17 प्राण का सर्वाश्रयत्व
जैसे रथ की नाभि में अरे लगे रहते हैं उसी तरह ऋक, यजु, साम, यज्ञ तथा क्षत्रिय और ब्राह्मण - ये सब प्राण में ही स्थित हैं। 18 प्राण की स्तुति हे प्राण! तू ही प्रजापति है, तू ही गर्भ में संचार करता है और तू ही जन्म ग्रहण करता है। यह (मनुष्यादि) सम्पूर्ण प्रजा तुझे ही बलि समर्पण करती है। क्योंकि तू समस्त इन्द्रियों के साथ स्थित रहता है। तू देवताओं के लिए वहीँतम है, पित्रिगन के लिए प्रथम स्वधा है और अथर्वाङ्गिरस ऋषियों (यानी च्चाक्शु आदि प्राणों) - के लिए सत्य आचरण है। हे प्राण! तू इंद्र है, अपने (संहारक) तेज के कारण रूद्र है, और (सौम्यरूप से) सब और से रक्षा करने वाला है। तू ज्योतिर्गण का अधिपति सूर्य है और अन्तरिक्ष में संचार करता है। हे प्राण! जिस समय तू मेघरूप होकर बरसता है उस समय तेरी यह सम्पूर्ण प्रजा यह समझकर कि 'अब यथेच्छ अन्न होगा' आनंदरूप से स्थित होती है। हे प्राण! तू व्रात्य, (संस्कारहीन) एकर्षि नामक अग्नि, भोक्ता और विश्व का सत्पति है, हम तेरा भक्ष्य देने वाले हैं। हे वायो! तू हमारा पिता है। तेरा जो स्वरूप वाणी में स्थित है तथा जो श्रोत, नेत्र और मन में व्याप्त है उसे तू शांत कर। तू उत्क्रमण न कर। यह सब तथा स्वर्गलोक में जो कुछ स्थित है वह प्राण के ही अधीन है। जिस प्रकार माता पुत्र की रक्षा करती है उसी प्रकार तू हमारी रक्षा कर तथा हमें श्री और बुद्धि प्रदान कर। 14 भार्गव का प्रश्न - प्रजा के आधारभूत कौन-कौन से देवता हैं? तदनन्तर उन पिप्पलाद मुनि से विदर्भदेशीय भार्गव ने पूछा - 'भगवन! इस प्रजा को कितने देवता धारण करते हैं? उनमें से कौन-कौन इसे प्रकाशित करते हैं? और कौन उनमें सर्वश्रेष्ठ है? 15 शरीर के आधारभूत - आकाशादि तब उस से आचार्य पिप्पलाद ने कहा-वह देव आकाश है। वायु, अग्नि,जल , पृथ्वी, वाक् (सम्पूर्ण कर्मेन्द्रियाँ), मन (अंतःकरण) और चक्षु (ज्ञानेन्द्रिय समूह) {ये भी देव ही है}। वे सभी अपनी महिमा को प्रकट करते हुए कहते हैं - 'हम ही इस शरीर को आश्रय देकर धारण करते हैं।' 16 प्राण का प्राधान्य बताने वाली आख्यायिका (एक बार) उनसे सर्वश्रेष्ठ प्राण ने कहा - 'तुम मोह को प्राप्त मत होओ; मैं ही अपने को पञ्च प्रकार से विभक्त कर इस शरीर को आश्रय देकर धारण करता हूँ। किन्तु उन्होंने उसका विश्वास न किया। |
तब वह अभिमानपूर्वक मनो ऊपर को उठने लगा। उसके ऊपर उठने के साथ और सब भी उठने लगे, तथा उसके स्थित होने पर सब स्थित हो जाते। जिस प्रकार मधुकर राज के ऊपर उठने पर सभी मक्खियाँ ऊपर चढ़ने लगती है और उसके बैठ जाने पर सभी बैठ जाती है उसी प्रकार वाक्, मन, चक्षु और श्रोत्रादि भी (प्राण के साथ उठने और प्रतिष्ठित होने लगे)। तब वे संतुष्ट होकर प्राण की स्तुति करने लगे।
यह प्राण अग्नि होकर तपता है, यह सूर्य है, यह मेघ है, यही इंद्र और वायु है तथा यह देव ही पृथिवी, रयि और जो कुछ सत, असत एवं अमृत है, वह सब कुछ है। 17 प्राण का सर्वाश्रयत्व जैसे रथ की नाभि में अरे लगे रहते हैं उसी तरह ऋक, यजु, साम, यज्ञ तथा क्षत्रिय और ब्राह्मण - ये सब प्राण में ही स्थित हैं। 18 प्राण की स्तुति हे प्राण! तू ही प्रजापति है, तू ही गर्भ में संचार करता है और तू ही जन्म ग्रहण करता है। यह (मनुष्यादि) सम्पूर्ण प्रजा तुझे ही बलि समर्पण करती है। क्योंकि तू समस्त इन्द्रियों के साथ स्थित रहता है। तू देवताओं के लिए वहीँतम है, पित्रिगन के लिए प्रथम स्वधा है और अथर्वाङ्गिरस ऋषियों (यानी च्चाक्शु आदि प्राणों) - के लिए सत्य आचरण है। हे प्राण! तू इंद्र है, अपने (संहारक) तेज के कारण रूद्र है, और (सौम्यरूप से) सब और से रक्षा करने वाला है। तू ज्योतिर्गण का अधिपति सूर्य है और अन्तरिक्ष में संचार करता है। हे प्राण! जिस समय तू मेघरूप होकर बरसता है उस समय तेरी यह सम्पूर्ण प्रजा यह समझकर कि 'अब यथेच्छ अन्न होगा' आनंदरूप से स्थित होती है। हे प्राण! तू व्रात्य, (संस्कारहीन) एकर्षि नामक अग्नि, भोक्ता और विश्व का सत्पति है, हम तेरा भक्ष्य देने वाले हैं। हे वायो! तू हमारा पिता है। तेरा जो स्वरूप वाणी में स्थित है तथा जो श्रोत, नेत्र और मन में व्याप्त है उसे तू शांत कर। तू उत्क्रमण न कर। यह सब तथा स्वर्गलोक में जो कुछ स्थित है वह प्राण के ही अधीन है। जिस प्रकार माता पुत्र की रक्षा करती है उसी प्रकार तू हमारी रक्षा कर तथा हमें श्री और बुद्धि प्रदान कर। |