Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ७
[ऋषि-मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता - इन्द्र। छन्द- गायत्री।]
६१.इन्द्रमिद् गाथिनो बृहदिन्द्रमर्केभिरर्किण:। इन्द्रं वाणीरनूषत॥१॥
सामगान के साधको ने गाये जाने योग्य बृहत्साम की स्तुतियो (गाथा) से देवराज इन्द्र को प्रसन्न किया जाता है। इसी तरह याज्ञिको ने भी मन्त्रोच्चारण के द्वारा इन्द्रदेव की प्रार्थना की है ॥१॥
६२. इन्द्र इद्धर्यो: सचा सम्मिश्ल आ वचोयुजा। इन्द्रो वज्री हिरण्य:॥२॥
संयुक्त करने की क्षमता वाले वज्रधारी,स्वर्ण मण्डित इन्द्रदेव, वचन मात्र के इशारे से जुड़ जाने वाले अश्वो के साथी है ॥२॥
[वीर्य वा अश्व: के अनुसार पराक्रम ही अश्व है। जो पराक्रमी समय के संकेत मात्र से संगठित हो जायें, इन्द्र देवता उनके साथी है, जो अंहकारवश बिखरे रहते है, वे इन्द्रके प्रिय नही है।]
६३. इन्द्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्य रोहयद् दिवि। वि गोभिरद्रियमैरयत्॥३॥
देवशक्तियो के संगठक इन्द्रदेव ने विश्व को प्रकशित करने के महान उद्देश्य से सूर्यदेव को उच्चाकाश मे स्थापित किया, जिनने अपनी किरणो से पर्वत आदि समस्त विश्व को दर्शनार्थ प्रेरित किया॥३॥
६४. इन्द्र वाजेषु नो२व सहस्त्रप्रधेनेषु च । उग्र उग्राभिरूतिभि:॥४॥
हे वीर इन्द्रदेव। आप सहस्त्रो प्रकार के धन लाभ वाले छोटे बड़े संग्रामो मे वीरता पूर्वक हमारी रक्षा करें ॥४॥
६५. इन्द्र वयं महाधन इन्द्रमभें हवामहे। युंज वृत्रेषु वज्रिणम् ॥५॥
हम छोटे बड़े सभी जिवन संग्रामो मे वृत्रासुर के संहारक, वज्रपाणि इन्द्रदेव जो सहायतार्थ बुलाते है॥५॥
६६. स नो वृषन्नमुं चरुं सत्रापदावन्नापा वृधि। अस्मभ्यमप्रतिष्कुत:॥६॥
सतत दानशील,सदैव अपराजित हे इन्द्रदेव ! आप हमारे लिये मेघ से जल की वृष्टि करें ॥६॥
६७. तुञ्जेतुञ्जे य उत्तरे स्तोमा इन्द्रस्य वज्रिण: । न विन्धे अस्य सुष्टुतिम्॥७॥
प्रत्येक दान के समय, वज्रधारी इन्द्र के सदृश दान की (दानी की) उपमा कहीं अन्यंत्र नही मिलती। इन्द्रदेव की इससे अधिक उत्तम स्तुति करने मे हम समर्थ नही है ॥७॥
६८.वृषा यूथेव वंसग: कृष्टीरियर्त्योजसा । ईशानो अप्रतिष्कुत: ॥८॥
सबके स्वामी, हमारे विरूद्ध कार्य न करने वाले, शक्तिमान इन्द्रदेव अपनी सामर्थ्य के अनुसार, अनुदान बाँटने के लिये मनुष्यो के पास उसी प्रकार जाते है, जैसे वृषभ गायो के समूह मे जाता है॥८॥
६९. य एकश्चर्षणीनां वसूनामिरन्यति । इन्द्र: पञ्व क्षितिनाम् ॥९॥
इन्द्रदेव, पाँचो श्रेणीयो के मनुष्य (ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र और निषाद ) और सब ऐश्वर्य संपदाओ के अद्वितिय स्वामी है॥९॥
७०. इन्द्र वो विश्वतस्परि हवामहे जनेभ्य:। अस्माकमस्तु केवल:॥१०॥
हे ऋत्विजो! हे यजमानो ! सभी लोगो मे उत्तम, इन्द्रदेव को, आप सब के कल्याण के लिये हम आमंत्रित करते है, वे हमारे ऊपर विशेष कृपा करें ॥१०॥
६१.इन्द्रमिद् गाथिनो बृहदिन्द्रमर्केभिरर्किण:। इन्द्रं वाणीरनूषत॥१॥
सामगान के साधको ने गाये जाने योग्य बृहत्साम की स्तुतियो (गाथा) से देवराज इन्द्र को प्रसन्न किया जाता है। इसी तरह याज्ञिको ने भी मन्त्रोच्चारण के द्वारा इन्द्रदेव की प्रार्थना की है ॥१॥
६२. इन्द्र इद्धर्यो: सचा सम्मिश्ल आ वचोयुजा। इन्द्रो वज्री हिरण्य:॥२॥
संयुक्त करने की क्षमता वाले वज्रधारी,स्वर्ण मण्डित इन्द्रदेव, वचन मात्र के इशारे से जुड़ जाने वाले अश्वो के साथी है ॥२॥
[वीर्य वा अश्व: के अनुसार पराक्रम ही अश्व है। जो पराक्रमी समय के संकेत मात्र से संगठित हो जायें, इन्द्र देवता उनके साथी है, जो अंहकारवश बिखरे रहते है, वे इन्द्रके प्रिय नही है।]
६३. इन्द्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्य रोहयद् दिवि। वि गोभिरद्रियमैरयत्॥३॥
देवशक्तियो के संगठक इन्द्रदेव ने विश्व को प्रकशित करने के महान उद्देश्य से सूर्यदेव को उच्चाकाश मे स्थापित किया, जिनने अपनी किरणो से पर्वत आदि समस्त विश्व को दर्शनार्थ प्रेरित किया॥३॥
६४. इन्द्र वाजेषु नो२व सहस्त्रप्रधेनेषु च । उग्र उग्राभिरूतिभि:॥४॥
हे वीर इन्द्रदेव। आप सहस्त्रो प्रकार के धन लाभ वाले छोटे बड़े संग्रामो मे वीरता पूर्वक हमारी रक्षा करें ॥४॥
६५. इन्द्र वयं महाधन इन्द्रमभें हवामहे। युंज वृत्रेषु वज्रिणम् ॥५॥
हम छोटे बड़े सभी जिवन संग्रामो मे वृत्रासुर के संहारक, वज्रपाणि इन्द्रदेव जो सहायतार्थ बुलाते है॥५॥
६६. स नो वृषन्नमुं चरुं सत्रापदावन्नापा वृधि। अस्मभ्यमप्रतिष्कुत:॥६॥
सतत दानशील,सदैव अपराजित हे इन्द्रदेव ! आप हमारे लिये मेघ से जल की वृष्टि करें ॥६॥
६७. तुञ्जेतुञ्जे य उत्तरे स्तोमा इन्द्रस्य वज्रिण: । न विन्धे अस्य सुष्टुतिम्॥७॥
प्रत्येक दान के समय, वज्रधारी इन्द्र के सदृश दान की (दानी की) उपमा कहीं अन्यंत्र नही मिलती। इन्द्रदेव की इससे अधिक उत्तम स्तुति करने मे हम समर्थ नही है ॥७॥
६८.वृषा यूथेव वंसग: कृष्टीरियर्त्योजसा । ईशानो अप्रतिष्कुत: ॥८॥
सबके स्वामी, हमारे विरूद्ध कार्य न करने वाले, शक्तिमान इन्द्रदेव अपनी सामर्थ्य के अनुसार, अनुदान बाँटने के लिये मनुष्यो के पास उसी प्रकार जाते है, जैसे वृषभ गायो के समूह मे जाता है॥८॥
६९. य एकश्चर्षणीनां वसूनामिरन्यति । इन्द्र: पञ्व क्षितिनाम् ॥९॥
इन्द्रदेव, पाँचो श्रेणीयो के मनुष्य (ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र और निषाद ) और सब ऐश्वर्य संपदाओ के अद्वितिय स्वामी है॥९॥
७०. इन्द्र वो विश्वतस्परि हवामहे जनेभ्य:। अस्माकमस्तु केवल:॥१०॥
हे ऋत्विजो! हे यजमानो ! सभी लोगो मे उत्तम, इन्द्रदेव को, आप सब के कल्याण के लिये हम आमंत्रित करते है, वे हमारे ऊपर विशेष कृपा करें ॥१०॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ८
[ऋषि-मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता - इन्द्र। छन्द- गायत्री।]
७१। एन्द्र सानसिं रयिं सजित्वानं सदासहम् । वर्षिष्ठमूतये भर ॥१॥
हे इन्द्रदेव । आप हमारे जीवन संरक्षण के लिये तथा शत्रुओ को पराभूत करने के निमित्त हमे ऐश्वर्य से पूर्ण करें ॥१॥
७२. नि येन मुष्टिहत्यया नि वृत्रा रुणधामहै। त्वोतासो न्यवर्ता ॥२॥
उस ऐश्वर्य के प्रभाव और् आपके द्वारा रक्षित अश्वो के सहयोग से हम मुक्के का प्रहार् लर (शक्ति प्रयोअग द्वारा) शत्रुओ को भगा दे ॥२॥
७३. इन्द्र त्वोतास आ वयं वज्रं घना ददीमहि । जयेम सं युधि स्पृध: ॥३॥
हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित होकर तीक्ष्ण वज्रो को धारण् कर हम युद्ध मे स्पर्धा करने वाले शत्रुओ पर् विजय प्राप्त करें ॥३॥
७४. वयं शूरेबिरस्तृभिरिन्द्र त्व्या युजा वयम्। सासह्याम पृतन्यत: ॥४॥
हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित कुशल शस्त्रचालक वीरो के साथ हम अपने शत्रुओ को पराजित करे ॥४॥
७५. महाँ इन्द्र: परश्च नु महित्वमस्तु वज्रिणे। द्यौर्न प्रथिना शव: ॥५॥
हमारे इन्द्रदेव श्रेष्ठ और महान है। वज्रधारी इन्द्रदेव का यश द्युलोक् के समान व्यापक होकर फैले तथा इनके बल की चतुर्दिक प्रशंसा हो ॥५॥
७६.समोहे वा य आशत नरस्तोकस्य सनितौ। विप्रासो वा धियायव: ॥६॥
जो संग्राम मे जुटते है, जो पुत्र के निर्माण् मे जुटते है और् बुद्धीपूर्वक ज्ञान-प्राप्ति के लिये यत्न करते है, वे सब इन्द्रदेव जी स्तुति से इष्टफल पाते है॥६॥
७७. य: कुक्षि: सोमपातम: समुद्र इव पिन्वते। उर्वीरापो ब काकुद: ॥७॥
अत्याधिक सोमपान करने वाले इन्द्रदेव का उदर समुद्र की तरह विशाल हो जाता है । वह (सोमरस) जीभ से प्रवाहित होने वाले रसो की तरह सतत् द्रवित होता रहता है । सद आद्र बनाये रहता है ॥७॥
७८. एवा ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही। पक्वा शाखा न दाशुषे॥८॥
इन्द्रदेव की अति मधुर और् सत्यवाणी उसी प्रकार सुख देती है, जिस प्रकार गो धन के दाता और पके फल वाली शाखाओ से युक्त वृक्ष यजमानो (हविदाता) को सुख देते है ॥८॥
७९. एवा हि ते विभूतय ऊतय इन्द्र मावते। सद्यश्चित् सन्ति दाशुषे॥९॥
हे इन्द्रदेव ! हमारे लिये इष्टदायी और संरक्षण प्रदान करने वाली जो आपकी विभूतियाँ है, वे सभी दान देने(श्रेष्ठ कार्य मे नियोजन करने) वालो को भी तत्काल प्राप्त होती है ॥९॥
८०. एवा ह्यस्य काम्या स्तोम् उक्थं च शंस्या। इन्द्राय सोमपीतये॥१०॥
दाता की स्तुतियाँ और उक्त वचन अति मनोरम एवं प्रशंसनीय है। ये सब सोमपान करने वाले इन्द्रदेव के लिये है ॥१०॥
७१। एन्द्र सानसिं रयिं सजित्वानं सदासहम् । वर्षिष्ठमूतये भर ॥१॥
हे इन्द्रदेव । आप हमारे जीवन संरक्षण के लिये तथा शत्रुओ को पराभूत करने के निमित्त हमे ऐश्वर्य से पूर्ण करें ॥१॥
७२. नि येन मुष्टिहत्यया नि वृत्रा रुणधामहै। त्वोतासो न्यवर्ता ॥२॥
उस ऐश्वर्य के प्रभाव और् आपके द्वारा रक्षित अश्वो के सहयोग से हम मुक्के का प्रहार् लर (शक्ति प्रयोअग द्वारा) शत्रुओ को भगा दे ॥२॥
७३. इन्द्र त्वोतास आ वयं वज्रं घना ददीमहि । जयेम सं युधि स्पृध: ॥३॥
हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित होकर तीक्ष्ण वज्रो को धारण् कर हम युद्ध मे स्पर्धा करने वाले शत्रुओ पर् विजय प्राप्त करें ॥३॥
७४. वयं शूरेबिरस्तृभिरिन्द्र त्व्या युजा वयम्। सासह्याम पृतन्यत: ॥४॥
हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित कुशल शस्त्रचालक वीरो के साथ हम अपने शत्रुओ को पराजित करे ॥४॥
७५. महाँ इन्द्र: परश्च नु महित्वमस्तु वज्रिणे। द्यौर्न प्रथिना शव: ॥५॥
हमारे इन्द्रदेव श्रेष्ठ और महान है। वज्रधारी इन्द्रदेव का यश द्युलोक् के समान व्यापक होकर फैले तथा इनके बल की चतुर्दिक प्रशंसा हो ॥५॥
७६.समोहे वा य आशत नरस्तोकस्य सनितौ। विप्रासो वा धियायव: ॥६॥
जो संग्राम मे जुटते है, जो पुत्र के निर्माण् मे जुटते है और् बुद्धीपूर्वक ज्ञान-प्राप्ति के लिये यत्न करते है, वे सब इन्द्रदेव जी स्तुति से इष्टफल पाते है॥६॥
७७. य: कुक्षि: सोमपातम: समुद्र इव पिन्वते। उर्वीरापो ब काकुद: ॥७॥
अत्याधिक सोमपान करने वाले इन्द्रदेव का उदर समुद्र की तरह विशाल हो जाता है । वह (सोमरस) जीभ से प्रवाहित होने वाले रसो की तरह सतत् द्रवित होता रहता है । सद आद्र बनाये रहता है ॥७॥
७८. एवा ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही। पक्वा शाखा न दाशुषे॥८॥
इन्द्रदेव की अति मधुर और् सत्यवाणी उसी प्रकार सुख देती है, जिस प्रकार गो धन के दाता और पके फल वाली शाखाओ से युक्त वृक्ष यजमानो (हविदाता) को सुख देते है ॥८॥
७९. एवा हि ते विभूतय ऊतय इन्द्र मावते। सद्यश्चित् सन्ति दाशुषे॥९॥
हे इन्द्रदेव ! हमारे लिये इष्टदायी और संरक्षण प्रदान करने वाली जो आपकी विभूतियाँ है, वे सभी दान देने(श्रेष्ठ कार्य मे नियोजन करने) वालो को भी तत्काल प्राप्त होती है ॥९॥
८०. एवा ह्यस्य काम्या स्तोम् उक्थं च शंस्या। इन्द्राय सोमपीतये॥१०॥
दाता की स्तुतियाँ और उक्त वचन अति मनोरम एवं प्रशंसनीय है। ये सब सोमपान करने वाले इन्द्रदेव के लिये है ॥१०॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ९
[ऋषि-मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता - इन्द्र। छन्द- गायत्री।]
८१. इन्द्रेहि ,मत्स्यन्धसो विश्वेभि: सोमपर्वभि:। महाँ अभिष्टिरोजसा ॥१॥
हे इन्द्रदेव! सोमरूपी अन्नो से आप प्रफुल्लित होते है, अत: अपनी शक्ति से दुर्दान्त शत्रुओ पर विजय श्री वरण करने की क्षमता प्राप्त करने हेतु आप (यज्ञशाला मे) पधारें ॥१॥
८२. एमेनं सृजता सुते मन्दिमिन्द्राय मन्दिने । चक्रिं विश्वानि चक्रये॥२॥
(हे याजको !) प्रसन्नता देने वाले सोमरस को निचोड़कर तैयार् करो तथा सम्पूरण कार्यो के कर्ता इन्द्र देव के सामर्थ्य बढ़ाने वाले इस सोम को अर्पित करो॥२॥
८३. मतस्वा सुशिप्र मन्दिभि: स्तोमेभिर्विश्वचर्षणे। सचैषु सवनेष्वा॥३॥
हे उत्तम शस्त्रो से सुसज्जित (अथवा शोभन नासिका वाले), इन्द्रदेव ! हमारे इन यज्ञो मे आकर प्रफुल्लता प्रदान करने वाले स्तोत्रो से आप आनन्दित हो ॥३॥
८४.असृग्रमिन्द्र ते गिर: प्रति त्वामुदहासत। अजोषा वृषभं पतिम्॥४॥
हे इन्द्रदेव । आपकी स्तुति के लिये हमने स्तोत्रो की रचना की है। हे बलशाली और पालनकर्ता इन्द्रदेव ! इन स्तुतियो द्वारा की गई प्रार्थना को आप स्वीकार करें ॥४॥
८५.सं चोदय चित्रमर्वाग्राध इन्द्र वरेण्यम् । असदित्ते विभु प्रभु॥५॥
हे इन्द्रदेव ! आप ही विपुल् ऐश्वर्यो के अधिपति हैं,अत: विविध प्रकार के श्रेष्ठ ऐश्वर्यो को हमारे पास प्रेरित् करें; अर्थात हमे श्रेष्ठ ऐश्वर्य प्रदान करें ॥५॥
८६.अस्मान्त्सु तत्र चोदयेन्द्र राते रभस्वत:। तुविद्युम्न यशस्वत:॥६॥
हे प्रभूत् ऐश्वर्य सम्पन्न इन्द्रदेव! आप वैभव की प्राप्ति के लिये हमे श्रेष्ठ कर्मो मे प्रेरित करें, जिससे हम परिश्रमी और यशस्वी हो सकें॥६॥
८७. सं गोमदिन्द्र वाजवदस्मे पृथु श्रवो बृहत्। विश्वायुर्धेह्याक्षितम्॥७॥
हे इन्द्रदेव ! आप हमे गौओ, धन धान्य से युक्त अपार वैभव एवं अक्षय पूर्णायु प्रदान करें॥७॥
८८. अस्मे धेहि श्रवो बृहद् द्युम्न सहस्रसातमम् । इन्द्र रा रथिनीरिष:॥८॥
हे इन्द्रदेव ! आप हमे प्रभूत यश एवं विपुल ऐश्वर्य प्रदान करें तथा बहुत से रथो मे भरकर अन्नादि प्रदान करें॥८॥
८९. वसोरिन्द्र वसुपतिं गीर्भिर्गृणन्त ऋग्मियम्।होम गन्तारमूतये॥९॥
धनो के अधिपति,ऐश्वर्यो के स्वामी,ऋचाओ से स्तुत्य इन्द्रदेव का हम स्तुतिपूर्वक आवाहन करते हैं। वे हमारे यज्ञ मे पधार कर, हमारे ऐश्वर्य की रक्षा करें॥९॥
९०.सुतेसुते न्योकसे बृहद् बृहत एदरि:। इन्द्राय शूषमर्चति ॥१०॥
सोम को सिद्ध(तैयार) करने के स्थान यज्ञस्थल पर यज्ञकर्ता, इन्द्रदेव के पराक्रम की प्रशंसा करते है॥१०॥
८१. इन्द्रेहि ,मत्स्यन्धसो विश्वेभि: सोमपर्वभि:। महाँ अभिष्टिरोजसा ॥१॥
हे इन्द्रदेव! सोमरूपी अन्नो से आप प्रफुल्लित होते है, अत: अपनी शक्ति से दुर्दान्त शत्रुओ पर विजय श्री वरण करने की क्षमता प्राप्त करने हेतु आप (यज्ञशाला मे) पधारें ॥१॥
८२. एमेनं सृजता सुते मन्दिमिन्द्राय मन्दिने । चक्रिं विश्वानि चक्रये॥२॥
(हे याजको !) प्रसन्नता देने वाले सोमरस को निचोड़कर तैयार् करो तथा सम्पूरण कार्यो के कर्ता इन्द्र देव के सामर्थ्य बढ़ाने वाले इस सोम को अर्पित करो॥२॥
८३. मतस्वा सुशिप्र मन्दिभि: स्तोमेभिर्विश्वचर्षणे। सचैषु सवनेष्वा॥३॥
हे उत्तम शस्त्रो से सुसज्जित (अथवा शोभन नासिका वाले), इन्द्रदेव ! हमारे इन यज्ञो मे आकर प्रफुल्लता प्रदान करने वाले स्तोत्रो से आप आनन्दित हो ॥३॥
८४.असृग्रमिन्द्र ते गिर: प्रति त्वामुदहासत। अजोषा वृषभं पतिम्॥४॥
हे इन्द्रदेव । आपकी स्तुति के लिये हमने स्तोत्रो की रचना की है। हे बलशाली और पालनकर्ता इन्द्रदेव ! इन स्तुतियो द्वारा की गई प्रार्थना को आप स्वीकार करें ॥४॥
८५.सं चोदय चित्रमर्वाग्राध इन्द्र वरेण्यम् । असदित्ते विभु प्रभु॥५॥
हे इन्द्रदेव ! आप ही विपुल् ऐश्वर्यो के अधिपति हैं,अत: विविध प्रकार के श्रेष्ठ ऐश्वर्यो को हमारे पास प्रेरित् करें; अर्थात हमे श्रेष्ठ ऐश्वर्य प्रदान करें ॥५॥
८६.अस्मान्त्सु तत्र चोदयेन्द्र राते रभस्वत:। तुविद्युम्न यशस्वत:॥६॥
हे प्रभूत् ऐश्वर्य सम्पन्न इन्द्रदेव! आप वैभव की प्राप्ति के लिये हमे श्रेष्ठ कर्मो मे प्रेरित करें, जिससे हम परिश्रमी और यशस्वी हो सकें॥६॥
८७. सं गोमदिन्द्र वाजवदस्मे पृथु श्रवो बृहत्। विश्वायुर्धेह्याक्षितम्॥७॥
हे इन्द्रदेव ! आप हमे गौओ, धन धान्य से युक्त अपार वैभव एवं अक्षय पूर्णायु प्रदान करें॥७॥
८८. अस्मे धेहि श्रवो बृहद् द्युम्न सहस्रसातमम् । इन्द्र रा रथिनीरिष:॥८॥
हे इन्द्रदेव ! आप हमे प्रभूत यश एवं विपुल ऐश्वर्य प्रदान करें तथा बहुत से रथो मे भरकर अन्नादि प्रदान करें॥८॥
८९. वसोरिन्द्र वसुपतिं गीर्भिर्गृणन्त ऋग्मियम्।होम गन्तारमूतये॥९॥
धनो के अधिपति,ऐश्वर्यो के स्वामी,ऋचाओ से स्तुत्य इन्द्रदेव का हम स्तुतिपूर्वक आवाहन करते हैं। वे हमारे यज्ञ मे पधार कर, हमारे ऐश्वर्य की रक्षा करें॥९॥
९०.सुतेसुते न्योकसे बृहद् बृहत एदरि:। इन्द्राय शूषमर्चति ॥१०॥
सोम को सिद्ध(तैयार) करने के स्थान यज्ञस्थल पर यज्ञकर्ता, इन्द्रदेव के पराक्रम की प्रशंसा करते है॥१०॥