राजा पृथु का चरित्र
मुनियों ने कहा - लोमहर्षण जी! पृथु के जन्म की कथा विस्तार से कहिये। उन महात्मा ने इस पृथ्वी का किस प्रकार दोहन किया था?
लोमहर्षण जी बोले - द्विजवरों! मैं वेनकुमार पृथु कि कथा विस्तार के साथ सुनाता हूँ। आप लोग एकाग्रचित्त होकर सुने। ब्राह्मणों! जो पवित्र नहीं रहता, जिसका हृदय खोटा है, जो अपने शासन में नहीं है, जो व्रत का पालन नहीं करता तथा जो कृतघ्न और अहितकारी है - ऐसे पुरुष को मैं यह प्रसंग नहीं सुना सकता। यह स्वर्ग देने वाला, यश और आयु की वृद्धि करने वाला, परम धन्य, वेदों के तुल्य, माननीय तथा गूढ़ रहस्य है। ऋषियों ने जैसा कहा है, वह सब मैं ज्यों-का-त्यों सुना रहा हूँ; सुनो। जो प्रतिदिन वेनकुमार पृथु के चरित्र का विस्तारपूर्वक कीर्तन करता है, उसे 'अमुक कर्म मैंने किया और अमुक नहीं किया'- इस बात का शोक नहीं होता। पूर्वकाल की बात है, अत्रि-कुल में उत्पन्न प्रजापति अंग बड़े धर्मात्मा और धर्म के रक्षक थे। वे अत्रि के सामान ही तेजस्वी थे। उनका पुत्र वेन था, जो धर्म के तत्त्व को बिलकुल नहीं समझता था। उसका जन्म मृत्युकन्या सुनीथा के गर्भ से हुआ था। अपने नाना के स्वाभाव दोष के कारण वह धर्म को पीछे रखकर काम और लोभ में प्रवृत्त हो गया। उसने धर्म की मर्यादा भंग कर दी और वैदिक धर्मों का उल्लंघन करके वह अधर्म में तत्पर हो गया। विनाशकाल उपस्थिति होने के कारण उसने यह क्रूर प्रतिज्ञा कर ली थी कि 'किसी को यज्ञ और होम नहीं करने दिया जायेगा। यजन करने योग्य, यज्ञ करने वाला भी यज्ञ मैं ही हूँ। मेरे ही उद्देश्य से हवन होना चाहिए।' इस प्रकार मर्यादा का उल्लंघन करके सब कुछ ग्रहण करने वाले अयोग्य वेन से मरीचि आदि सब महर्षियों ने कहा - 'वेन! हम अनेक वर्षों के लिए यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करने वाले हैं। तुम अधर्म न करो। यह यज्ञ आदि कार्य सनातन धर्म है।'
महर्षियों को यों कहते देख खोटी बुद्धिवाले वेन ने हंस कर कहा - 'अरे! मेरे सिवाय दूसरा कौन धर्म का स्रस्टा है। मैं किसकी बात सुनूं। विद्या, पराक्रम, तपस्या और सत्य के द्वारा मेरी समानता करने वाला इस भूतल पर कौन है? मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों की और विशेषतः सब धर्मों की उत्पत्ति का कारण हूँ। तुम सब लोग मुर्ख और अचेत हो, इसलिए मुझे नहीं जानते। यदि मैं चाहूं तो इस पृथ्वी को भस्म कर दूँ, जल में बहा दूँ या भूलोक तथा द्युलोक को भी रूंध डालू। इसमें तनिक भी अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। जब महर्षिगण वेन को मोह और अहंकार से किसी तरह हटा न सके, तब उन्हें बड़ा क्रोध हुआ। उन महात्माओं ने महाबली वेन को पकड़कर बाँध दिया। उस समय वह बहुत उछल-कूद मचा रहा था। महर्षि कुपित तो थे ही, वेन कि बायीं जंघा का मंथन करने लगे। इससे एक काले रंग का पुरुष का उत्पन्न हुआ, जो बहुत ही नाटा था। वह भयभीत हो हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। उसे व्याकुल देख अत्रि ने कहा - 'निषिद (बैठ जा)।' इससे वह निषाद वंश का प्रवर्त्तक हुआ और वेन के पाप से उत्पन्न हुए धीवरों की सृष्टि करने लगा। तत्पश्चात महात्माओं ने पुनः अरणि की भांति वेन की दाहिनी भुजा का मंथन किया। उससे अग्नि के सामान तेजस्वी पृथु का प्रादुर्भाव हुआ। वे भयानक टंकार करने वाले आजगव नामक धनुष, दिव्य बाण तथा रक्षार्थ कवच धारण किये थे। उनके उत्पन्न होने पर समस्त प्राणी बड़े प्रसन्न हुए और सब और से वहाँ एकत्रित होने लगे। वेन स्वर्गगामी हुआ।
महात्मा पृथु - जैसे सत्पुत्र ने उत्पन्न होकर वेन को 'पुम' नामक नरक से छुड़ा लिया। उनका अभिषेक करने के लिए समुद्र और सभी नदियां रत्न एवं जल लेकर स्वयं ही उपस्थित हुई। अंगिरस देवताओं के साथ भगवान् ब्रह्माजी तथा समस्त चराचर भूतों ने वहाँ आकर राजा पृथु का राज्याभिषेक किया। उन महाराज ने सभी प्रजा का मनोरंजन किया। उनके पिता ने प्रजा को बहुत दुखी किया था, किन्तु पृथु ने उन सबको प्रसन्न कर लिया; प्रजा का मनोरंजन करने के कारण ही उनका नाम राजा हुआ। वे जब समुद्र की यात्रा करते तब उसका जल स्थिर हो जाता था। पर्वत उन्हें जेन के लिए मार्ग दे देते थे और उनके रथ की ध्वजा कभी भंग नहीं होती थी। उनके राज्य में पृथ्वी बिना जोते-बोये ही अन्न पैदा करती थी। राजा का चिंतन करने मात्र से अन्न सिद्ध हो जाता था। सभी गौएँ कामधेनु बन गयी थी और पत्तों के दोने-दोने में मधु भरा रहता था। उसी समय पृथु ने पैतामह (ब्रह्मा जी से सम्बन्ध रखने वाला) यज्ञ किया। उसमें सॊमाभिषव के दिन सूति (सोमरस निकालने की भूमि) से परम बुद्धिमान सूत की उत्पत्ति हुई। उसी महायज्ञ में विद्वान् माधव का भी प्रादुर्भाव हुआ। उन दोनों को महर्षियों ने पृथु की स्तुति करने के लिए बुलाया और कहा - 'तुम लोग इन महाराज की स्तुति करो। यह कार्य तुम्हारे अनुरूप है और ये महाराज भी इसके योग्य पात्र हैं।' यह सुनकर सूट और मागध ने उन महर्षियों से कहा -'हम अपने कर्मों से देवताओं तथा ऋषियों को प्रसन्न करते हैं। इन महहराज का नाम, कर्म, लक्षण और यश - कुछ भी हमें ज्ञात नहीं है, जिससे इन तेजस्वी नरेश की हम स्तुति कर सकें। तब ऋषियों ने कहा - 'भविष्य में होने वाले गुणों का उल्लेख करते हुए स्तुति करो।' उन्होंने वैसा ही किया। उन्होंने जो-जो कर्म बताये, उन्हीं को महाबली पृथु ने पीछे से पूर्ण किया। तभी से लोक में सूत, मागध और वन्दीजनों के द्वारा आशीर्वाद दिलाने की परिपाटी चल पड़ी। वे दोनों जब स्तुति कर चुके, तब महाराज पृथु ने अत्यंत प्रसन्न होकर अनूप देश का राज्य सूत को और मगध का मागध को दिया। पृथु को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुयी प्रजा से महर्षियों ने कहा-'ये महाराज तुम्हें जीविका प्रदान करने वाले होंगे। यह सुनकर सारी प्रजा महात्मा राजा पृथु की और दौड़ी और बोली - 'आप हमारे लिए जीविका का प्रबंध कर दें।' जब प्रजाओं ने उन्हें इस प्रकार घेरा, तब वे उनका हित करने की इच्छा से धनुष-बाण हाथ में लेकर पृथ्वी की ओर दौड़े। पृथ्वी उनके भय से थर्रा उठी और गौ का रूप धारण करके भागी। तब पृथु ने धनुष लेकर भागती हुयी पृथ्वी का पीछा किया। पृथ्वी उनके भय से ब्रह्मलोक आदि अनेक लोकों में गयी, किन्तु सब जगह उसने धनुष लिए हुए पृथु को अपने आगे ही देखा। अग्नि के समान प्रज्वलित तीखे बाणों के कारण उनका तेज और भी उद्दीप्त दिखायी देता था। वे महान योगी महात्मा देवताओं के लिए भी दुर्धर्ष प्रतीत होते थे। जब और कहीं रक्षा न हो सकी, तब तीनों लोकों की पूजनीय पृथ्वी हाथ जोड़कर फिर महाराज पृथु की ही शरण में आयी और इस प्रकार बोली-'राजन! सब लोक मेरे ही ऊपर स्थित है। मैं ही इस जगत को धारण करती हूँ। यदि मेरा नाश हो जाये तो समस्त प्रजा ही नष्ट हो जायेगी। इस बात को अच्छी तरह समझ लेना। भूपाल! यदि तुम प्रजा का कल्याण चाहते हो तो मेरा वध न करो। मैं जो बात कहती हूँ, उसे सुनो; ठीक उपाय से आरम्भ किये हुए सब कार्य सिद्ध होते हैं। तुम उस उपाय पर दृष्टिपात करो, जिससे इस प्रजा को जीवित रख सको। मेरी हत्या करके भी तुम प्रजा के पालन-पोषण में समर्थ न होंगे। महामते! तुम क्रोध का त्याग करो, मैं तुम्हारे अनुकूल हो जाऊंगी। तिर्यग्योनि में भी स्त्री को अवध्य बताया गया है; यदि यह बात सत्य है तो तुम्हें धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए।
पृथु ने कहा - भद्रे! जो अपने या पराये किसी एक के लिए बहुत से प्राणियों का वध करता है, उसे अनंत पातक लगता है; परन्तु जिस अशुभ व्यक्ति का वध करने पर बहुत से लोग सुखी हों, उसके मारने से पातक या उपपातक नहीं लगता। अतः वसुन्धरे! मैं प्रजा का कल्याण करने के लिए तुम्हारा वध करूँगा। यदि मेरे कहने से आज संसार का कल्याण नहीं करोगी तो अपने बाण से तुम्हारा नाश कर दूंगा और अपने को ही पृथ्वी रूप प्रकट करके स्वयं ही प्रजा को धारण करूँगा; इसलिए तुम मेरी आज्ञा मानकर समस्त प्रजा की जीवन-रक्षा करो; क्योंकि तुम सबके धारण में समर्थ हो। इस समय मेरी पुत्री बन जाओ; तभी मैं इस भयंकर बाण को, जो तुम्हारे वध के लिए उद्यत है, रोकूंगा।
पृथ्वी बोली - वीर! निसंदेह मैं यह सब कुछ करुँगी। मेरे लिए कोई बछड़ा देखो, जिसके प्रति स्नेहयुक्त होकर मैं दूध दे सकूँ। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भूपाल! तुम मेरे सब और बराबर कर दो, जिससे मेरा दूध सब और बह सके।
तब राजा पृथु ने अपने धनुष की नोक से लाखों पर्वतों को उखाड़ा और उन्हें एक स्थान पर एकत्रित किया। इससे पर्वत बढ़ गए। इससे पहले की सृष्टि में भूमि समतल न होने के कारण पुरों अथवा ग्रामों का कोई सीमाबद्ध विभाग नहीं हो सकता था। उस समय अन्न, गोरक्षा, खेती और व्यापार भी नहीं होते थे। यह सब तो वेन-कुमार पृथु के समय से ही आरम्भ हुआ। भूमि का जो-जो भाग समतल था, वहीँ-वहीँ पर समस्त प्रजा का आहार केवल फल-मूल ही था और वह भी बड़ी कठिनाई से मिलता था। रजा पृथु ने स्वायम्भुव मनु को बछड़ा बनाकर अपने हाथ में ही पृथ्वी को दुहा। उन प्रतापी नरेश ने पृथ्वी से सब प्रकार के अन्नो का दोहन किया। उसी अन्न से आज भी सब प्रजा जीवन धारण करती है। उस समय ऋषि, देवता, पिटर, नाग, दैत्य, यक्ष, पुण्यजन, गन्धर्व, पर्वत और वृक्ष-सबने पृथ्वी को दुहा। उनके दूध, बछड़ा, पात्र और दुहने वाले - ये सभी पृथक-पृथक थे। ऋषियों के चन्द्रमा बछड़ा बने, वृहस्पति ने दुहने का काम किया। तपोमय ब्रह्म उनका दूध था और वेड ही उनके पात्र थे। देवताओं ने सुवर्णमय पात्र लेकर पुष्टिकारक दूध दुहा। उनके लिए इंद्र बछड़ा बने और भगवन सूर्य ने दुहने का काम किया। पितरों का चंडी का पात्र था। प्रतापी यम बछड़ा बने, अंतक ने दूध दुहा। उनके दूध को 'स्वधा' नाम दिया गया है। नागों ने तक्षक को बछड़ा बनाया। तुम्बी का पात्र रखा। ऐरावत नाग से दुहने का काम लिया और विषरूपी दुग्ध का दोहन किया। असुरों में मधु दुहने वाला बना। उसने मायामय दूध दुहा। उस समय विरोचन बछड़ा बना था और लोहे के पात्र में दूध दुहा गया था। यक्षों का कच्चा पात्र था। कुबेर बछड़ा बने थे। रजतनाभ यक्ष दुहने वाला था और अंतर्धान होने की विद्या ही उनका दूध था। राक्षसेन्द्रों में सुमाली नाम का राक्षस बछड़ा बना। रजतनाभ दुहने वाला था। उसने कपाल रूपी पात्र में शोणित रूपी दूध का दोहन किया। गन्धर्वों में चित्ररथ ने बछड़े का काम पूरा किया। कमल ही उनका पात्र था। सुरुचि दुहने वाला था और पवित्र सुगंध ही उनका दूध था। पर्वतों में महागिरी मेरु ने हिमवान को बछहड़ा बनाया और स्वयं दुहने वाला बनकर शिलामय पात्र में रत्नों एवं औषधियों को दूध के रूप में दुहा। वृक्षों में प्लक्ष (पाकड़) बछड़ा बना। खिले हुए शाल के वृक्ष ने दुहने का काम किया। पलाश का पात्र था और जलने तथा काटने पर पुनः अंकुरित हो जाना ही उनका दूध था।
इस प्रकार सब का धारण-पोषण करने वाली यह पावन वसुंधरा समस्त चराचर जगत की आधारभूता तथा उत्पत्तिस्थान है। यह सब कामनाओं को देने वाली तथा सब प्रकार के अन्नो को अंकुरित करने वाली है। गोरूपा पृथ्वी मेदिनी के नाम से विख्यात है। यह समुद्र तक पृथु के ही अधिकार में थी। मधु और कैटभ के भेद से व्यास होने के कारण यह मेदिनी कहलाती है। फिर राजा पृथु कि आज्ञा के अनुसार भूदेवी उनकी पुत्री बन गयी थी, इसलिए इसे पृथ्वी भी कहते हैं। पृथु ने इस पृथ्वी का विभाग और शोधन किया, जिससे यह अन्न की खान और समृद्धिशालिनी बन गयी। गांवों और नगरो के कारण इसकी बड़ी शोभा होने लगी। वेनकुमार महाराज पृथु का ऐसा ही प्रभाव था। इसमें संदेह नहीं कि वे समस्त प्राणियों के पूजनीय और वंदनीय हैं। वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों को भी महाराज पृथु की ही वंदना करनी चाहिए, क्योंकि वे सनातन ब्रह्मयोनि हैं। राज्य की इच्छा रखने वाले राजाओं के लिए भी परम प्रतापी महाराज पृथु ही वंदनीय है। युद्ध में विजय की कामना करने वाले पराकर्मी योद्धाओं को भी उन्हें मस्तक झुकाना चाहिए। क्योंकि योद्धाओं में वे अग्रगण्य थे। जो सैनिक राजा पृथु का नाम लेकरर संग्राम में जाता है, वह भयंकर संग्राम से भी सकुशल लौटता है और यशस्वी होता है। वैश्यवृत्ति करने वाले धनी वैश्यों को भी चाहिए कि वे महाराज पृथु को नमस्कार करें, क्योंकि राजा पृथु सबके वृत्तिकल्याण की इच्छा रखने वाले तथा तीनों वर्णों की सेवा में लगे रहने वाले पवित्र शूद्रों के लिए भी राजा पृथु ही वंदनीय है। इस प्रकार जहाँ पृथ्वी को दुहने के लिए जो विशेष-विशेष बछड़े, दुहनेवाले, दूध तथा पात्र कल्पित किये गए थे, उन सबका मैंने वर्णन किया।