Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १०
[ऋषि- मधुच्छन्दा वैश्वामित्र। देवता-इन्द्र । छन्द- अनुष्टुप्]
९१.गायन्ति त्वा गायत्रिणो ऽर्चन्त्यर्कमर्किण: । ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे॥१॥
हे शतक्रतो (सौ यज्ञ या श्रेष्ठ कर्म करने वाले) इन्द्रदेव ।उद्गातागण आपका आवाहन करते है। स्तोतागण पूज्य इन्द्रदेव का मंत्रोच्चारण द्वारा आदर करते है। बाँस के ऊपर कला प्रदर्शन करने वाले नट के समान ब्रम्हा नामक ऋत्विज श्रेष्ठ स्तुतियो द्वारा इन्द्रदेव को प्रोत्साहित करते हैं॥१॥
९२. यत्सानो: सानुमारुहद् भूर्यस्पष्ट कर्त्वम् तदिन्द्रो अर्थं चेतति यूथेन वृष्णिरेजति ॥२॥
जब यजमान सोमवल्ली , समिधादि के निमित्त एक पर्वत शिखर से दूसरे पर्वत शिखर पर जाते है और् यजन कर्म करते है, तब उनके मनोरथ को जानने वाले इष्टप्रदायक इन्द्रदेव यज्ञ मे जाने को उद्यत होते है॥२॥
९३. युक्ष्वा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्यप्रा। अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुअपश्रुतिं चर ॥३॥
हे सोमरस ग्रहिता इन्द्रदेव। आप लम्बे केशयुक्त,शक्तिमान, गन्तव्य तक ले जाने वाले दोनो घोड़ो को रथ मे नियोजित करें। तपश्चात् सोमपान से तृप्त होकर हमारे द्वारा की गयी प्रार्थनायेँ सुने ॥३॥
९४. एहि स्तोमाँ अभि स्वराभि गृणीह्या रुव। ब्रम्ह च नो वसो सचेन्द्र यज्ञं च वर्धय॥४॥
हे सर्वनिवासक इन्द्रदेव । हमारी स्तुतियो का श्रवण कर आप उद्गाताओं, होताओ एवं अध्वर्युवो को प्रशंसा से प्रोत्साहित करें॥४॥
९५. उक्थमिन्द्राय शंस्यं वर्धनं पुतुनिष्षिधे। शक्रो यथा सुतेषु णो रारणत् सख्येषु च ॥५॥
हे स्तोताओ। आप शत्रुसंहारक, सामर्थ्यवान् इन्द्रदेव के लिये , उनके यश को बढ़ाने वाले उत्तम स्तोत्रो का पाठ करे जिससे उनकी कृपा हमारी सन्तानो एवं मित्रो पर सदैव बनी रहे ॥५॥
९६. तमित् सखित्व ईमहे तं राते त्ं सुवीर्ये । स शक्र उत न्: शकदिन्द्रो वसु गयमानः ॥६॥
हम उन इन्द्रदेव के पास मित्रता के लिये धनप्राप्ति और उत्तमबल वृद्धि के किये स्तुति करने जाते है। वे इन्द्रदेव बल एवं धन प्रदान करते हुये हमे संरक्षित करते है॥६॥
९७. सुविवृत्तं सुनिरजमिन्द्र त्वादातमिद्यशः। गवामप व्रजं वृधि कृणुष्व राधो अद्रिवः ॥७॥
हे इन्द्रदेव। आपके द्वारा प्रदत्त यश सब दिशाओ मे सुविस्तृत हुवा है । हे वज्रधारक इन्द्रदेव। गौओ को बाड़े से छोड़ने के समान हमारे लिये धन को प्रसारित करें ॥७॥
९८. नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः। जेषः स्वर्वतीरपः सं गा अस्मभ्यं धूनुहि॥८॥
हे इन्द्रदेव! युद्ध के समय आपके यश का विस्तार पृथ्वी और् द्युलोक तक होता है। दिव्य जल प्रवाहो पर आपका ही अधिकार है। उनसे अभिषिक्त कर हमे तृप्त करें ॥८॥
९९. आशुत्कर्ण श्रुधी हवं नू चिद्दधिष्व मे गिरः। इन्द्र स्तोममिमं मम कृष्वा युजश्चिदन्तरम्॥९॥
भक्तो की स्तुति सुनने वाले हे इन्द्रदेव। हमारे आवाहन को सुने। हमारी वाणियो को चित्त मे धारण करें। हमारे स्तोत्रो को अपने मित्र के वचनो से भी अधिक प्रीतिपूर्वक धारण करें॥९॥
१००. विद्मा हि त्वा वृषन्तमं वाजेषु हवनश्रुतम् । वृषन्तमस्य हूमह ऊर्तिं सहस्त्रासातमाम्॥१०॥
हे इन्द्रदेव। हम जानते है कि आप बल सम्पन्न हैं तथा युद्धो मे हमारे आवाहन को आप सुनते हैं। हे बलशाली इन्द्रदेव ! आपके सहस्त्रो प्रकार के धन के साथ हम आपका संरक्षण भी चाहते है ॥१०॥
१०१ . आ तू न इन्द्र कौशिक मन्दसानः सुतं पिब। नव्यमायुः प्र सू तिर कृधी सहस्त्रासामृषिम् ॥११॥
हे कुशिक के पुत्र इन्द्रदेव। आप इस निष्पादित सोम का पान करने के लिये हमारे पास शीघ्र आयें। हमे कर्म करने की सामर्थ्य के साथ नविन आयु भी दे। इस ऋषि को सहस्त्र धनो से पूर्ण करें॥१॥
[कुशिक पुत्र विश्वामित्र के समान उत्त्पत्ति के कारण इन्द्र को कुशिक पुत्र सम्बोधन दिया गया है।]
१०२. परि त्वा गिर्वणो गिर इमा भवन्तु विश्वतः। वृद्धायुमनु वृद्द्यो जुष्ता भवन्तु जुष्टयः॥१२॥
हे स्तुत्य इन्द्रदेव। हमारे द्वारा की गई स्तुतियां सब ओर् से आपकी आयु को बढाने वाली सिद्ध हो ॥१२॥
९१.गायन्ति त्वा गायत्रिणो ऽर्चन्त्यर्कमर्किण: । ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे॥१॥
हे शतक्रतो (सौ यज्ञ या श्रेष्ठ कर्म करने वाले) इन्द्रदेव ।उद्गातागण आपका आवाहन करते है। स्तोतागण पूज्य इन्द्रदेव का मंत्रोच्चारण द्वारा आदर करते है। बाँस के ऊपर कला प्रदर्शन करने वाले नट के समान ब्रम्हा नामक ऋत्विज श्रेष्ठ स्तुतियो द्वारा इन्द्रदेव को प्रोत्साहित करते हैं॥१॥
९२. यत्सानो: सानुमारुहद् भूर्यस्पष्ट कर्त्वम् तदिन्द्रो अर्थं चेतति यूथेन वृष्णिरेजति ॥२॥
जब यजमान सोमवल्ली , समिधादि के निमित्त एक पर्वत शिखर से दूसरे पर्वत शिखर पर जाते है और् यजन कर्म करते है, तब उनके मनोरथ को जानने वाले इष्टप्रदायक इन्द्रदेव यज्ञ मे जाने को उद्यत होते है॥२॥
९३. युक्ष्वा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्यप्रा। अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुअपश्रुतिं चर ॥३॥
हे सोमरस ग्रहिता इन्द्रदेव। आप लम्बे केशयुक्त,शक्तिमान, गन्तव्य तक ले जाने वाले दोनो घोड़ो को रथ मे नियोजित करें। तपश्चात् सोमपान से तृप्त होकर हमारे द्वारा की गयी प्रार्थनायेँ सुने ॥३॥
९४. एहि स्तोमाँ अभि स्वराभि गृणीह्या रुव। ब्रम्ह च नो वसो सचेन्द्र यज्ञं च वर्धय॥४॥
हे सर्वनिवासक इन्द्रदेव । हमारी स्तुतियो का श्रवण कर आप उद्गाताओं, होताओ एवं अध्वर्युवो को प्रशंसा से प्रोत्साहित करें॥४॥
९५. उक्थमिन्द्राय शंस्यं वर्धनं पुतुनिष्षिधे। शक्रो यथा सुतेषु णो रारणत् सख्येषु च ॥५॥
हे स्तोताओ। आप शत्रुसंहारक, सामर्थ्यवान् इन्द्रदेव के लिये , उनके यश को बढ़ाने वाले उत्तम स्तोत्रो का पाठ करे जिससे उनकी कृपा हमारी सन्तानो एवं मित्रो पर सदैव बनी रहे ॥५॥
९६. तमित् सखित्व ईमहे तं राते त्ं सुवीर्ये । स शक्र उत न्: शकदिन्द्रो वसु गयमानः ॥६॥
हम उन इन्द्रदेव के पास मित्रता के लिये धनप्राप्ति और उत्तमबल वृद्धि के किये स्तुति करने जाते है। वे इन्द्रदेव बल एवं धन प्रदान करते हुये हमे संरक्षित करते है॥६॥
९७. सुविवृत्तं सुनिरजमिन्द्र त्वादातमिद्यशः। गवामप व्रजं वृधि कृणुष्व राधो अद्रिवः ॥७॥
हे इन्द्रदेव। आपके द्वारा प्रदत्त यश सब दिशाओ मे सुविस्तृत हुवा है । हे वज्रधारक इन्द्रदेव। गौओ को बाड़े से छोड़ने के समान हमारे लिये धन को प्रसारित करें ॥७॥
९८. नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः। जेषः स्वर्वतीरपः सं गा अस्मभ्यं धूनुहि॥८॥
हे इन्द्रदेव! युद्ध के समय आपके यश का विस्तार पृथ्वी और् द्युलोक तक होता है। दिव्य जल प्रवाहो पर आपका ही अधिकार है। उनसे अभिषिक्त कर हमे तृप्त करें ॥८॥
९९. आशुत्कर्ण श्रुधी हवं नू चिद्दधिष्व मे गिरः। इन्द्र स्तोममिमं मम कृष्वा युजश्चिदन्तरम्॥९॥
भक्तो की स्तुति सुनने वाले हे इन्द्रदेव। हमारे आवाहन को सुने। हमारी वाणियो को चित्त मे धारण करें। हमारे स्तोत्रो को अपने मित्र के वचनो से भी अधिक प्रीतिपूर्वक धारण करें॥९॥
१००. विद्मा हि त्वा वृषन्तमं वाजेषु हवनश्रुतम् । वृषन्तमस्य हूमह ऊर्तिं सहस्त्रासातमाम्॥१०॥
हे इन्द्रदेव। हम जानते है कि आप बल सम्पन्न हैं तथा युद्धो मे हमारे आवाहन को आप सुनते हैं। हे बलशाली इन्द्रदेव ! आपके सहस्त्रो प्रकार के धन के साथ हम आपका संरक्षण भी चाहते है ॥१०॥
१०१ . आ तू न इन्द्र कौशिक मन्दसानः सुतं पिब। नव्यमायुः प्र सू तिर कृधी सहस्त्रासामृषिम् ॥११॥
हे कुशिक के पुत्र इन्द्रदेव। आप इस निष्पादित सोम का पान करने के लिये हमारे पास शीघ्र आयें। हमे कर्म करने की सामर्थ्य के साथ नविन आयु भी दे। इस ऋषि को सहस्त्र धनो से पूर्ण करें॥१॥
[कुशिक पुत्र विश्वामित्र के समान उत्त्पत्ति के कारण इन्द्र को कुशिक पुत्र सम्बोधन दिया गया है।]
१०२. परि त्वा गिर्वणो गिर इमा भवन्तु विश्वतः। वृद्धायुमनु वृद्द्यो जुष्ता भवन्तु जुष्टयः॥१२॥
हे स्तुत्य इन्द्रदेव। हमारे द्वारा की गई स्तुतियां सब ओर् से आपकी आयु को बढाने वाली सिद्ध हो ॥१२॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ११
[ऋषि-जेतामाधुच्छन्दस । देवता - इन्द्र। छन्द- अनुष्टुप्।]
१०३. इन्द्रं विश्वा अवीवृधन्त्समुद्रव्यचसं गिरः। रथीतमं रथीनां वाजानां
सतपर्ति पतिम्॥१॥
समुद्र के तुल्य व्यापक, सब रथियो मे महानतम, अन्नो के स्वामी और सत्प्रवृत्तियो के पालक इन्द्रदेव को समस्त स्तुतियां अभिवृद्धि प्रदान करती हैं ॥१॥
१०४. सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते। त्वामभि प्र णोनुमो
जेतारमपराजितम्॥२॥
हे बलरक्षक इन्द्रदेव! आपकी मित्रता से हम बलशाली होकर किसी से न डरें। हे अपराजेय - विजयी इन्द्रदेव! हम साधक गण आपको प्रणाम करते हैं ॥२॥
१०५. पूर्वीरिन्द्रस्य रातयो न वि दस्तन्त्यूतयः। यदी वाजस्य गोमतः
स्तोतृभ्यो मंहते मघम्॥३॥
देवराज इन्द्र की दानशिलता सनातन है। ऐसी स्थिति मे आज के यजमान भी स्तोताओ को गवादि सहित अन्न दान करते है तो इन्द्रदेव द्वारा की गई सुरक्षा अक्षुण्ण रहती है ॥३॥
१०६. पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत। इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्ता
वज्री पुरुष्टुतः॥४॥
शत्रु के नगरो को विनष्ट करने वाले हे इन्द्रदेव युवा ज्ञाता, अतिशक्तिशाली, शुभ कार्यो के आश्रयदाता तथा सर्वाधिक कीर्ति-युक्त होकर विविधगुण समपन्न हुये हैं॥४॥
१०७. त्वं वलस्य गोमतोऽपावरद्रिवो बिलम् । त्वा देवा अबिभ्युषस्तुज्यमानस
आविषुः॥५॥
हे वज्रधारी इन्द्रदेव। आपने गौओ (सूर्य किरणो) को चुराने वाले असुरो के व्युह को नष्ट किया, तब असुरो से पराजित हुये देवगण आपके साथ आकर संगठित हुए॥५॥
१०८. तवांह शूर रातिभिःप्रत्यायं सिन्धुमावदन्। उपातिष्ठन्त गिर्वणो
विदुष्टे तस्य कारवः ॥६॥
संग्रामशूर हे इन्द्रदेव आपकी दानशीलता से आकृष्ट होकर हम होतागण पुनः आपके पास आये है। हे स्तुत्य इन्द्रदेव! सोमयाग मे आपकी प्रशंसा करते हुये ये ऋत्विज एवं यजमान आपकी दानशिलता को जानते है ॥६॥
१०९. मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिर:। विदुष्टे तस्य मेधिरास्तेषां
श्रवांस्युत्तिर॥७॥
हे इन्द्रदेव! अपनी माता द्वारा आपने ’शुष्ण’(एक राक्षस) को पराजित किया। जो बुद्धीमान आपकी इस माया को जानते है, उन्हे यश और बल देकर वृद्धि प्रदान करें ॥७॥
११० इन्द्रमीशानमोजसाभि स्तोमा अनूषत। सहस्त्र यस्य रातय उत वा सन्ति भूयसी: ॥८॥
स्तोतागण, असंख्यो अनुदान देनेवाले, ओजस् (बल प्राक्रम) के कारण जगत् के नियन्ता इन्द्रदेव की स्तुति करने लगे ॥८॥
१०३. इन्द्रं विश्वा अवीवृधन्त्समुद्रव्यचसं गिरः। रथीतमं रथीनां वाजानां
सतपर्ति पतिम्॥१॥
समुद्र के तुल्य व्यापक, सब रथियो मे महानतम, अन्नो के स्वामी और सत्प्रवृत्तियो के पालक इन्द्रदेव को समस्त स्तुतियां अभिवृद्धि प्रदान करती हैं ॥१॥
१०४. सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भेम शवसस्पते। त्वामभि प्र णोनुमो
जेतारमपराजितम्॥२॥
हे बलरक्षक इन्द्रदेव! आपकी मित्रता से हम बलशाली होकर किसी से न डरें। हे अपराजेय - विजयी इन्द्रदेव! हम साधक गण आपको प्रणाम करते हैं ॥२॥
१०५. पूर्वीरिन्द्रस्य रातयो न वि दस्तन्त्यूतयः। यदी वाजस्य गोमतः
स्तोतृभ्यो मंहते मघम्॥३॥
देवराज इन्द्र की दानशिलता सनातन है। ऐसी स्थिति मे आज के यजमान भी स्तोताओ को गवादि सहित अन्न दान करते है तो इन्द्रदेव द्वारा की गई सुरक्षा अक्षुण्ण रहती है ॥३॥
१०६. पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत। इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्ता
वज्री पुरुष्टुतः॥४॥
शत्रु के नगरो को विनष्ट करने वाले हे इन्द्रदेव युवा ज्ञाता, अतिशक्तिशाली, शुभ कार्यो के आश्रयदाता तथा सर्वाधिक कीर्ति-युक्त होकर विविधगुण समपन्न हुये हैं॥४॥
१०७. त्वं वलस्य गोमतोऽपावरद्रिवो बिलम् । त्वा देवा अबिभ्युषस्तुज्यमानस
आविषुः॥५॥
हे वज्रधारी इन्द्रदेव। आपने गौओ (सूर्य किरणो) को चुराने वाले असुरो के व्युह को नष्ट किया, तब असुरो से पराजित हुये देवगण आपके साथ आकर संगठित हुए॥५॥
१०८. तवांह शूर रातिभिःप्रत्यायं सिन्धुमावदन्। उपातिष्ठन्त गिर्वणो
विदुष्टे तस्य कारवः ॥६॥
संग्रामशूर हे इन्द्रदेव आपकी दानशीलता से आकृष्ट होकर हम होतागण पुनः आपके पास आये है। हे स्तुत्य इन्द्रदेव! सोमयाग मे आपकी प्रशंसा करते हुये ये ऋत्विज एवं यजमान आपकी दानशिलता को जानते है ॥६॥
१०९. मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिर:। विदुष्टे तस्य मेधिरास्तेषां
श्रवांस्युत्तिर॥७॥
हे इन्द्रदेव! अपनी माता द्वारा आपने ’शुष्ण’(एक राक्षस) को पराजित किया। जो बुद्धीमान आपकी इस माया को जानते है, उन्हे यश और बल देकर वृद्धि प्रदान करें ॥७॥
११० इन्द्रमीशानमोजसाभि स्तोमा अनूषत। सहस्त्र यस्य रातय उत वा सन्ति भूयसी: ॥८॥
स्तोतागण, असंख्यो अनुदान देनेवाले, ओजस् (बल प्राक्रम) के कारण जगत् के नियन्ता इन्द्रदेव की स्तुति करने लगे ॥८॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १२
[ऋषि-मेधातिथि काण्व । देवता -अग्नि, छटवी ऋचा के प्रथम पाद के देवता निर्मथ्य अग्नि और आहवनीय अग्नि। छन्द-गायत्री।]
१११.अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥१॥
हे सर्वज्ञाता अग्निदेव! आप यज्ञ के विधाता है, समस्त देवशक्तियों को तुष्ट करने की सामर्थ्य रखते हैं। आप यज्ञ की विधि व्यवस्था के स्वामी है। ऐसे समर्थ आपको हम देव दूत रूप मे स्वीकार करते है॥१॥
११२.अग्निमग्निं हवीमभिः सदा हवन्त विश्पतिम् । हव्यवाहं पुरुप्रियम्॥२॥
प्रजापालक, देवो तक हवि पहुंचाने वाले, परमप्रिय, कुशल नेतृत्व प्रदान करने वाले हे अग्निदेव! हम याजक गण हवनीय मंत्रो से आपको सदा बुलाते है॥२॥
११३.अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे । असि होता न ईड्यः॥३॥
हे स्तुत्य अग्निदेव ! आप अरणि मन्थन से उत्पन्न हुये है। आस्तीर्ण (बिछे हुये) कुशाओ पर बैठे हुये यजमान पर अनुग्रह करने हेतु आप (यज्ञ की) हवि ग्रहण करने वाले देवताओ को इस यज्ञ मे बुलायें॥३॥
११४.ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम् । देवैरा सत्सि बर्हिषि॥४॥
हे अग्निदेव! आप हवि की कामना करने वाले देवो को यहाँ बुलाएँ और इन कुशा के आसन पर देवो के साथ प्रतिष्ठित हों॥४॥
११५.घृताहवन दीदिवः प्रति ष्म रिषतो दह । अग्ने त्वं रक्षस्विनः॥५॥
घृत आहुतियो से प्रदीप्त हे अग्निदेव ! आप राक्षसी प्रवृत्तियो वाले शत्रुओं को सम्यक रूप से भस्म करे॥५॥
११६.अग्निनाग्निः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा । हव्यवाड्जुह्वास्यः॥६॥
यज्ञ स्थल के रक्षक, दूरदर्शी, चिरयुवा, आहुतियो को देवो तक पहुंचाने वाले, ज्वालायुक्त आहवनीय यज्ञाग्नि को अरणि मन्थन द्वारा उत्पन्न अग्नि से प्रज्वलित किया जाता है॥६॥
११७.कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे । देवममीवचातनम्॥७॥
हे ऋत्विजो ! लोक हितकारी यज्ञ मे रोगो को नष्ट करने वाले, ज्ञानवान अग्निदेव की स्तुति आप सब विशेष रूप से करें॥७॥
११८.यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति । तस्य स्म प्राविता भव॥८॥
देवगणो तक हविष्यान्न पहुँचाने वाले हे अग्निदेव ! जो याजक, आप (देवदूत० की उत्तम विधि से अर्चना करते हौ, आप उनकी भली भाँति रक्षा करें॥८॥
११९.यो अग्निं देववीतये हविष्माँ आविवासति । तस्मै पावक मृळय॥९॥
हे शोधक अग्निदेव! देवो के लिए हवि प्रदान करने वाले जो यजमान आपकी प्रार्थना करते है, आप उन्हे सुखी बनाये॥९॥
१२०.स नः पावक दीदिवोऽग्ने देवाँ इहा वह । उप यज्ञं हविश्च नः॥१०॥
हे पवित्र दीप्तिमान अग्निदेव ! आप देवो को हमारे यज्ञ मे हवि ग्रहण करने के निमित्त ले आएँ॥१०॥
१२१.स न स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा । रयिं वीरवतीमिषम्॥११॥
हे अग्निदेव! नवीनतम गायत्री छन्द वाले सूक्त से स्तुति किये जाते हुये आप हमारे लिये पुत्रादि ऐश्वर्य और् बलयुक्त् अन्नो को भरपूर प्रदान करें॥११॥
१२२.अग्ने शुक्रेण शोचिषा विश्वाभिर्देवहूतिभिः । इमं स्तोमं जुषस्व नः॥१२॥
हे अग्निदेव! अपनि कान्तिमान् दीप्तियो से देवो को बुलाने निमित्त हमारी स्तुतियो को स्वीकार् करें॥१२॥
१११.अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥१॥
हे सर्वज्ञाता अग्निदेव! आप यज्ञ के विधाता है, समस्त देवशक्तियों को तुष्ट करने की सामर्थ्य रखते हैं। आप यज्ञ की विधि व्यवस्था के स्वामी है। ऐसे समर्थ आपको हम देव दूत रूप मे स्वीकार करते है॥१॥
११२.अग्निमग्निं हवीमभिः सदा हवन्त विश्पतिम् । हव्यवाहं पुरुप्रियम्॥२॥
प्रजापालक, देवो तक हवि पहुंचाने वाले, परमप्रिय, कुशल नेतृत्व प्रदान करने वाले हे अग्निदेव! हम याजक गण हवनीय मंत्रो से आपको सदा बुलाते है॥२॥
११३.अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे । असि होता न ईड्यः॥३॥
हे स्तुत्य अग्निदेव ! आप अरणि मन्थन से उत्पन्न हुये है। आस्तीर्ण (बिछे हुये) कुशाओ पर बैठे हुये यजमान पर अनुग्रह करने हेतु आप (यज्ञ की) हवि ग्रहण करने वाले देवताओ को इस यज्ञ मे बुलायें॥३॥
११४.ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम् । देवैरा सत्सि बर्हिषि॥४॥
हे अग्निदेव! आप हवि की कामना करने वाले देवो को यहाँ बुलाएँ और इन कुशा के आसन पर देवो के साथ प्रतिष्ठित हों॥४॥
११५.घृताहवन दीदिवः प्रति ष्म रिषतो दह । अग्ने त्वं रक्षस्विनः॥५॥
घृत आहुतियो से प्रदीप्त हे अग्निदेव ! आप राक्षसी प्रवृत्तियो वाले शत्रुओं को सम्यक रूप से भस्म करे॥५॥
११६.अग्निनाग्निः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा । हव्यवाड्जुह्वास्यः॥६॥
यज्ञ स्थल के रक्षक, दूरदर्शी, चिरयुवा, आहुतियो को देवो तक पहुंचाने वाले, ज्वालायुक्त आहवनीय यज्ञाग्नि को अरणि मन्थन द्वारा उत्पन्न अग्नि से प्रज्वलित किया जाता है॥६॥
११७.कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे । देवममीवचातनम्॥७॥
हे ऋत्विजो ! लोक हितकारी यज्ञ मे रोगो को नष्ट करने वाले, ज्ञानवान अग्निदेव की स्तुति आप सब विशेष रूप से करें॥७॥
११८.यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति । तस्य स्म प्राविता भव॥८॥
देवगणो तक हविष्यान्न पहुँचाने वाले हे अग्निदेव ! जो याजक, आप (देवदूत० की उत्तम विधि से अर्चना करते हौ, आप उनकी भली भाँति रक्षा करें॥८॥
११९.यो अग्निं देववीतये हविष्माँ आविवासति । तस्मै पावक मृळय॥९॥
हे शोधक अग्निदेव! देवो के लिए हवि प्रदान करने वाले जो यजमान आपकी प्रार्थना करते है, आप उन्हे सुखी बनाये॥९॥
१२०.स नः पावक दीदिवोऽग्ने देवाँ इहा वह । उप यज्ञं हविश्च नः॥१०॥
हे पवित्र दीप्तिमान अग्निदेव ! आप देवो को हमारे यज्ञ मे हवि ग्रहण करने के निमित्त ले आएँ॥१०॥
१२१.स न स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा । रयिं वीरवतीमिषम्॥११॥
हे अग्निदेव! नवीनतम गायत्री छन्द वाले सूक्त से स्तुति किये जाते हुये आप हमारे लिये पुत्रादि ऐश्वर्य और् बलयुक्त् अन्नो को भरपूर प्रदान करें॥११॥
१२२.अग्ने शुक्रेण शोचिषा विश्वाभिर्देवहूतिभिः । इमं स्तोमं जुषस्व नः॥१२॥
हे अग्निदेव! अपनि कान्तिमान् दीप्तियो से देवो को बुलाने निमित्त हमारी स्तुतियो को स्वीकार् करें॥१२॥