Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त 43
५०९.कद्रुद्राय प्रचेतसे मीळ्हुष्टमाय तव्यसे । वोचेम शंतमं हृदे ॥१॥
विशिष्ट ज्ञान से सम्पन्न, सुखी एवं बलशाली रूद्रदेव के निमित्त किन सुखप्रद स्तोत्रो का पाठ करें ॥१॥
५१०.यथा नो अदितिः करत्पश्वे नृभ्यो यथा गवे । यथा तोकाय रुद्रियम् ॥२॥
अदिति हमारे लिये और हमारे पशुओं, सम्बन्धियों, गौओं और सन्तानो के लिये आरोग्य-वर्धक औषधियो का उपाय (अन्वेषण-व्यवस्था) करें॥२॥
५११.यथा नो मित्रो वरुणो यथा रुद्रश्चिकेतति । यथा विश्वे सजोषसः ॥३॥
मित्र,वरुण और रूद्रदेव जिस प्रकार हमारे हितार्थ प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार अन्य समस्त देवगण भी हमारा कल्याण करें॥३॥
५१२.गाथपतिं मेधपतिं रुद्रं जलाषभेषजम् । तच्छंयोः सुम्नमीमहे ॥४॥
हम सुखद जल एवं औषधियों से युक्त, स्तुतियों के स्वामी, रूद्रदेव से आरोग्यसुख की कामना करते हैं॥४॥
५१३.यः शुक्र इव सूर्यो हिरण्यमिव रोचते । श्रेष्ठो देवानां वसुः ॥५॥
सूर्य सदृश सामर्थ्यवान ऐर स्वर्ण सदृश दीप्तिमान रूद्रदेव सभी देवो मे श्रेष्ठ और ऐश्वर्यवान है॥५॥
५१४.शं नः करत्यर्वते सुगं मेषाय मेष्ये । नृभ्यो नारिभ्यो गवे ॥६॥
हमारे अश्वों, मेढो़, भेड़ो, पुरुषो, नारियो और गौओ के लिए वे रूद्रदेव सब प्रकार से मंगलकारी है॥६॥
५१५.अस्मे सोम श्रियमधि नि धेहि शतस्य नृणाम् । महि श्रवस्तुविनृम्णम् ॥७॥
हे सोमदेव! हम मनुष्यो को सैकड़ो प्रकार का ऐश्वर्य, तेजयुक्त अन्न, बल और महान यश प्रदान करें ॥७॥
५१६.मा नः सोमपरिबाधो मारातयो जुहुरन्त । आ न इन्दो वाजे भज ॥८॥
सोमयाग मे बाधा देने वाले शत्रु हमें प्रताड़ित न करें। कृपण और दुष्टो से हम पिड़ित न हों। हे सोमदेव! आप हमारे बल मे वृद्धि करें॥८॥
५१७.यास्ते प्रजा अमृतस्य परस्मिन्धामन्नृतस्य । मूर्धा नाभा सोम वेन आभूषन्तीः सोम वेदः ॥९॥
हे सोमदेव! यज्ञ के श्रेष्ठ स्थान मे प्रतिष्ठित आप अंमृत से युक्त हैं। यजन कार्य मे सर्वोच्च स्थान पर विभूषित प्रज्ञा को आप जानें॥९॥
विशिष्ट ज्ञान से सम्पन्न, सुखी एवं बलशाली रूद्रदेव के निमित्त किन सुखप्रद स्तोत्रो का पाठ करें ॥१॥
५१०.यथा नो अदितिः करत्पश्वे नृभ्यो यथा गवे । यथा तोकाय रुद्रियम् ॥२॥
अदिति हमारे लिये और हमारे पशुओं, सम्बन्धियों, गौओं और सन्तानो के लिये आरोग्य-वर्धक औषधियो का उपाय (अन्वेषण-व्यवस्था) करें॥२॥
५११.यथा नो मित्रो वरुणो यथा रुद्रश्चिकेतति । यथा विश्वे सजोषसः ॥३॥
मित्र,वरुण और रूद्रदेव जिस प्रकार हमारे हितार्थ प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार अन्य समस्त देवगण भी हमारा कल्याण करें॥३॥
५१२.गाथपतिं मेधपतिं रुद्रं जलाषभेषजम् । तच्छंयोः सुम्नमीमहे ॥४॥
हम सुखद जल एवं औषधियों से युक्त, स्तुतियों के स्वामी, रूद्रदेव से आरोग्यसुख की कामना करते हैं॥४॥
५१३.यः शुक्र इव सूर्यो हिरण्यमिव रोचते । श्रेष्ठो देवानां वसुः ॥५॥
सूर्य सदृश सामर्थ्यवान ऐर स्वर्ण सदृश दीप्तिमान रूद्रदेव सभी देवो मे श्रेष्ठ और ऐश्वर्यवान है॥५॥
५१४.शं नः करत्यर्वते सुगं मेषाय मेष्ये । नृभ्यो नारिभ्यो गवे ॥६॥
हमारे अश्वों, मेढो़, भेड़ो, पुरुषो, नारियो और गौओ के लिए वे रूद्रदेव सब प्रकार से मंगलकारी है॥६॥
५१५.अस्मे सोम श्रियमधि नि धेहि शतस्य नृणाम् । महि श्रवस्तुविनृम्णम् ॥७॥
हे सोमदेव! हम मनुष्यो को सैकड़ो प्रकार का ऐश्वर्य, तेजयुक्त अन्न, बल और महान यश प्रदान करें ॥७॥
५१६.मा नः सोमपरिबाधो मारातयो जुहुरन्त । आ न इन्दो वाजे भज ॥८॥
सोमयाग मे बाधा देने वाले शत्रु हमें प्रताड़ित न करें। कृपण और दुष्टो से हम पिड़ित न हों। हे सोमदेव! आप हमारे बल मे वृद्धि करें॥८॥
५१७.यास्ते प्रजा अमृतस्य परस्मिन्धामन्नृतस्य । मूर्धा नाभा सोम वेन आभूषन्तीः सोम वेदः ॥९॥
हे सोमदेव! यज्ञ के श्रेष्ठ स्थान मे प्रतिष्ठित आप अंमृत से युक्त हैं। यजन कार्य मे सर्वोच्च स्थान पर विभूषित प्रज्ञा को आप जानें॥९॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त 44
[ऋषि - प्रस्कण्व काण्व। देवता - अग्नि, १-२ अग्नि,अश्विनीकुमार, उषा। छन्द बाहर्त प्रगाथ(विषमा बृहती, समासतो बृहती)।]
५१८.अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य ।आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः ॥१॥
हे अमर अग्निदेव! उषा काल मे विलक्षण शक्तियां प्रवाहित होती हैं, यह दैवी सम्पदा नित्यदान करने वाले व्यक्ति को दें। हे सर्वज्ञ ! उषाकाल मे जाग्रत हुए देवताओं को भी यहां लायें॥१॥
५१९.जुष्टो हि दूतो असि हव्यवाहनोऽग्ने रथीरध्वराणाम् । सजूरश्विभ्यामुषसा सुवीर्यमस्मे धेहि श्रवो बृहत् ॥२॥
हे अग्निदेव! आप सेवा के योग्य देवों तक हवि पहुंचाने वाले दूत और यज्ञ मे देवो को लाने वाले रथ के समान हैं। आप अश्विनिकुमारो और देवी उषा के साथ हमे श्रेष्ठ, पराक्रमी एवं यशस्वी बनायें॥२॥
५२०.अद्या दूतं वृणीमहे वसुमग्निं पुरुप्रियम् । धूमकेतुं भाऋजीकं व्युष्टिषु यज्ञानामध्वरश्रियम् ॥३॥
उषाकाल मे सम्पन्न होने वाले यज्ञ, जो धूम्र की पताका एवं ज्वालाओ से सुशोभित है, ऐसे सर्वप्रिय देवदूत, सबके आश्रय एवं महान अग्निदेव को हम ग्रहण करते हैं और श्री सम्पन्न बनते हैं॥३॥
५२१.श्रेष्ठं यविष्ठमतिथिं स्वाहुतं जुष्टं जनाय दाशुषे । देवाँ अच्छा यातवे जातवेदसमग्निमीळे व्युष्टिषु ॥४॥
हम सर्वश्रेष्ठ, अतियुवा, अतिथिरूप, वन्दनीय, हविदाता, यजमान द्वारा पूजनीय, आहवनीय, सर्वज्ञ अग्निदेव की प्रतिदिन स्तुति करते हैं। वे हमे देवत्व की ओर ले चलें॥४॥
५२३.स्तविष्यामि त्वामहं विश्वस्यामृत भोजन ।अग्ने त्रातारममृतं मियेध्य यजिष्ठं हव्यवाहन ॥५॥
अविनाशी, सबको जीवन(भोजन) देने वाले, हविवाहक, विश्व का त्राण करने वाले, सबके आराध्य, युवा हे अग्निदेव! हम आपकी स्तुति करते हैं॥५॥
५२४.सुशंसो बोधि गृणते यविष्ठ्य मधुजिह्वः स्वाहुतः । प्रस्कण्वस्य प्रतिरन्नायुर्जीवसे नमस्या दैव्यं जनम् ॥६॥
मधुर जिह्वावाले, याजको की स्तुति के पात्र, हे तरुण अग्निदेव ! भली प्रकार आहुतियां प्राप्त करते हुए आप याजको की आकांक्षा को जाने। प्रस्कण्व(ज्ञानियों) को दीर्घ जीवन प्रदान करते हुए आप देवगणो को सम्मानित करें॥६॥
५२५.होतारं विश्ववेदसं सं हि त्वा विश इन्धते । स आ वह पुरुहूत प्रचेतसोऽग्ने देवाँ इह द्रवत् ॥७॥
होता रूप सर्वभूतो के ज्ञाता,हे अग्निदेव! आपको मनुष्यगण सम्यक रूप से प्रज्वलित करते हैं। बहुतो द्वारा अहूत किये जाने वाले हे अग्निदेव! प्रकृष्ट ज्ञान सम्पन्न देवो को त्रीव गति से यज्ञ मे लायें॥७॥
५२६.सवितारमुषसमश्विना भगमग्निं व्युष्टिषु क्षपः । कण्वासस्त्वा सुतसोमास इन्धते हव्यवाहं स्वध्वर ॥८॥
श्रेष्ठ यज्ञों को सम्पन्न कराने वाले हे अग्निदेव! रात्रि के पश्चात उषाकाल मे आप सविता, उषा, दोनो अश्विनीकुमारो, भग और अन्य देवों के साथ यहां आयें। सोम को अभिषुत करने वाले ततहा हवियों को पहुंचाने वाले ऋत्विग्गण आपको प्रज्वलित करते है॥८॥
५२७.पतिर्ह्यध्वराणामग्ने दूतो विशामसि । उषर्बुध आ वह सोमपीतये देवाँ अद्य स्वर्दृशः ॥९॥
हे अग्निदेव! आप साधको द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञो के अधिपति और देवों के दूत हैं। उषाकाल मे जाग्रत देव आत्माओं को आज सोमपान के निमित्त यहां यज्ञस्थल पर लायें॥९॥
५२८.अग्ने पूर्वा अनूषसो विभावसो दीदेथ विश्वदर्शतः । असि ग्रामेष्वविता पुरोहितोऽसि यज्ञेषु मानुषः ॥१०॥
हे विशिष्ट दीप्तिमान अग्निदेव! विश्वदर्शनीय आप उषाकाल के पूर्व ही प्रदीप्त होते है। आप ग्रामो की रक्षा करने वाले तथा यज्ञों , मानवो के अग्रनी नेता के समान पूजनीय हैं॥१०॥
५२९.नि त्वा यज्ञस्य साधनमग्ने होतारमृत्विजम् । मनुष्वद्देव धीमहि प्रचेतसं जीरं दूतममर्त्यम् ॥११॥
हे अग्निदेव! हम मनुष्यो की भांति आपको यज्ञ के साधन रूप, होता रूप, ऋत्विज रूप, प्रकृष्ट ज्ञानी रूप, चिर पुरातन और अविनाशी रूप मे स्थापित करतें है॥११॥
५३०.यद्देवानां मित्रमहः पुरोहितोऽन्तरो यासि दूत्यम् । सिन्धोरिव प्रस्वनितास ऊर्मयोऽग्नेर्भ्राजन्ते अर्चयः ॥१२॥
हे मित्रो मे महान अग्निदेव! आप जब यज्ञ के पुरोहित रूप मे देवों के बीच दूत कर्म के निमित्त जाते हैं, तब आपकी ज्वालायें समुद्र की प्रचण्ड लहरो के समान शब्द करती प्रदीप्त होती हैं ॥१२॥
५३१.श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवैरग्ने सयावभिः । आ सीदन्तु बर्हिषि मित्रो अर्यमा प्रातर्यावाणो अध्वरम् ॥१३॥
प्रार्थना पर ध्यान देने वाले हे अग्निदेव! आप हमारी स्तुति स्वीकार करें। दिव्य अग्निदेव के साथ समान गति से चलने वाले, मित्र और अर्यमा आदि देवगण भी प्रातःकालीन यज्ञ मे आसीन हों॥१३॥
५३२.शृण्वन्तु स्तोमं मरुतः सुदानवोऽग्निजिह्वा ऋतावृधः । पिबतु सोमं वरुणो धृतव्रतोऽश्विभ्यामुषसा सजूः ॥१४॥
उत्तम दानशील, अग्निरूप जिह्वा से यज्ञ को प्रवृद्ध करने वाले मरुद्गण इन स्तोत्रो का श्रवण करें। नियमपालक वरुणदेव, अश्विनीकुमारो और देवी उषा के साथ सोमरस का पान करें॥१४॥
५१८.अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य ।आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः ॥१॥
हे अमर अग्निदेव! उषा काल मे विलक्षण शक्तियां प्रवाहित होती हैं, यह दैवी सम्पदा नित्यदान करने वाले व्यक्ति को दें। हे सर्वज्ञ ! उषाकाल मे जाग्रत हुए देवताओं को भी यहां लायें॥१॥
५१९.जुष्टो हि दूतो असि हव्यवाहनोऽग्ने रथीरध्वराणाम् । सजूरश्विभ्यामुषसा सुवीर्यमस्मे धेहि श्रवो बृहत् ॥२॥
हे अग्निदेव! आप सेवा के योग्य देवों तक हवि पहुंचाने वाले दूत और यज्ञ मे देवो को लाने वाले रथ के समान हैं। आप अश्विनिकुमारो और देवी उषा के साथ हमे श्रेष्ठ, पराक्रमी एवं यशस्वी बनायें॥२॥
५२०.अद्या दूतं वृणीमहे वसुमग्निं पुरुप्रियम् । धूमकेतुं भाऋजीकं व्युष्टिषु यज्ञानामध्वरश्रियम् ॥३॥
उषाकाल मे सम्पन्न होने वाले यज्ञ, जो धूम्र की पताका एवं ज्वालाओ से सुशोभित है, ऐसे सर्वप्रिय देवदूत, सबके आश्रय एवं महान अग्निदेव को हम ग्रहण करते हैं और श्री सम्पन्न बनते हैं॥३॥
५२१.श्रेष्ठं यविष्ठमतिथिं स्वाहुतं जुष्टं जनाय दाशुषे । देवाँ अच्छा यातवे जातवेदसमग्निमीळे व्युष्टिषु ॥४॥
हम सर्वश्रेष्ठ, अतियुवा, अतिथिरूप, वन्दनीय, हविदाता, यजमान द्वारा पूजनीय, आहवनीय, सर्वज्ञ अग्निदेव की प्रतिदिन स्तुति करते हैं। वे हमे देवत्व की ओर ले चलें॥४॥
५२३.स्तविष्यामि त्वामहं विश्वस्यामृत भोजन ।अग्ने त्रातारममृतं मियेध्य यजिष्ठं हव्यवाहन ॥५॥
अविनाशी, सबको जीवन(भोजन) देने वाले, हविवाहक, विश्व का त्राण करने वाले, सबके आराध्य, युवा हे अग्निदेव! हम आपकी स्तुति करते हैं॥५॥
५२४.सुशंसो बोधि गृणते यविष्ठ्य मधुजिह्वः स्वाहुतः । प्रस्कण्वस्य प्रतिरन्नायुर्जीवसे नमस्या दैव्यं जनम् ॥६॥
मधुर जिह्वावाले, याजको की स्तुति के पात्र, हे तरुण अग्निदेव ! भली प्रकार आहुतियां प्राप्त करते हुए आप याजको की आकांक्षा को जाने। प्रस्कण्व(ज्ञानियों) को दीर्घ जीवन प्रदान करते हुए आप देवगणो को सम्मानित करें॥६॥
५२५.होतारं विश्ववेदसं सं हि त्वा विश इन्धते । स आ वह पुरुहूत प्रचेतसोऽग्ने देवाँ इह द्रवत् ॥७॥
होता रूप सर्वभूतो के ज्ञाता,हे अग्निदेव! आपको मनुष्यगण सम्यक रूप से प्रज्वलित करते हैं। बहुतो द्वारा अहूत किये जाने वाले हे अग्निदेव! प्रकृष्ट ज्ञान सम्पन्न देवो को त्रीव गति से यज्ञ मे लायें॥७॥
५२६.सवितारमुषसमश्विना भगमग्निं व्युष्टिषु क्षपः । कण्वासस्त्वा सुतसोमास इन्धते हव्यवाहं स्वध्वर ॥८॥
श्रेष्ठ यज्ञों को सम्पन्न कराने वाले हे अग्निदेव! रात्रि के पश्चात उषाकाल मे आप सविता, उषा, दोनो अश्विनीकुमारो, भग और अन्य देवों के साथ यहां आयें। सोम को अभिषुत करने वाले ततहा हवियों को पहुंचाने वाले ऋत्विग्गण आपको प्रज्वलित करते है॥८॥
५२७.पतिर्ह्यध्वराणामग्ने दूतो विशामसि । उषर्बुध आ वह सोमपीतये देवाँ अद्य स्वर्दृशः ॥९॥
हे अग्निदेव! आप साधको द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञो के अधिपति और देवों के दूत हैं। उषाकाल मे जाग्रत देव आत्माओं को आज सोमपान के निमित्त यहां यज्ञस्थल पर लायें॥९॥
५२८.अग्ने पूर्वा अनूषसो विभावसो दीदेथ विश्वदर्शतः । असि ग्रामेष्वविता पुरोहितोऽसि यज्ञेषु मानुषः ॥१०॥
हे विशिष्ट दीप्तिमान अग्निदेव! विश्वदर्शनीय आप उषाकाल के पूर्व ही प्रदीप्त होते है। आप ग्रामो की रक्षा करने वाले तथा यज्ञों , मानवो के अग्रनी नेता के समान पूजनीय हैं॥१०॥
५२९.नि त्वा यज्ञस्य साधनमग्ने होतारमृत्विजम् । मनुष्वद्देव धीमहि प्रचेतसं जीरं दूतममर्त्यम् ॥११॥
हे अग्निदेव! हम मनुष्यो की भांति आपको यज्ञ के साधन रूप, होता रूप, ऋत्विज रूप, प्रकृष्ट ज्ञानी रूप, चिर पुरातन और अविनाशी रूप मे स्थापित करतें है॥११॥
५३०.यद्देवानां मित्रमहः पुरोहितोऽन्तरो यासि दूत्यम् । सिन्धोरिव प्रस्वनितास ऊर्मयोऽग्नेर्भ्राजन्ते अर्चयः ॥१२॥
हे मित्रो मे महान अग्निदेव! आप जब यज्ञ के पुरोहित रूप मे देवों के बीच दूत कर्म के निमित्त जाते हैं, तब आपकी ज्वालायें समुद्र की प्रचण्ड लहरो के समान शब्द करती प्रदीप्त होती हैं ॥१२॥
५३१.श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवैरग्ने सयावभिः । आ सीदन्तु बर्हिषि मित्रो अर्यमा प्रातर्यावाणो अध्वरम् ॥१३॥
प्रार्थना पर ध्यान देने वाले हे अग्निदेव! आप हमारी स्तुति स्वीकार करें। दिव्य अग्निदेव के साथ समान गति से चलने वाले, मित्र और अर्यमा आदि देवगण भी प्रातःकालीन यज्ञ मे आसीन हों॥१३॥
५३२.शृण्वन्तु स्तोमं मरुतः सुदानवोऽग्निजिह्वा ऋतावृधः । पिबतु सोमं वरुणो धृतव्रतोऽश्विभ्यामुषसा सजूः ॥१४॥
उत्तम दानशील, अग्निरूप जिह्वा से यज्ञ को प्रवृद्ध करने वाले मरुद्गण इन स्तोत्रो का श्रवण करें। नियमपालक वरुणदेव, अश्विनीकुमारो और देवी उषा के साथ सोमरस का पान करें॥१४॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त 45
[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - अग्नि, १० उत्तरार्ध- देवगण । छन्द अनुष्टुप् ]
५३२.त्वमग्ने वसूँरिह रुद्राँ आदित्याँ उत । यजा स्वध्वरं जनं मनुजातं घृतप्रुषम् ॥१॥
वसु रुद्र और आदित्य आदि देवताओं की प्रसन्नता के निमित्त यज्ञ करने वाले हे अग्निदेव! आप घृताहुति से श्रेष्ठ यज्ञ सम्पन्न करने वाले मनु संतानो का सत्कार करें॥१॥
५३३.श्रुष्टीवानो हि दाशुषे देवा अग्ने विचेतसः । तान्रोहिदश्व गिर्वणस्त्रयस्त्रिंशतमा वह ॥२॥
हे अग्निदेव! विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न देवगण, हविदाता के लिए उत्तम सुख देते हैं। हे रोहित वर्ण अश्व वाके(अर्थात रक्तवर्ण की ज्वालाओं से सुशोभित) स्तुत्य अग्निदेव! उन तैंतीस कोटि देवों को यहाँ यज्ञस्थल पर लेकर आयें॥२॥
५३४.प्रियमेधवदत्रिवज्जातवेदो विरूपवत् । अङ्गिरस्वन्महिव्रत प्रस्कण्वस्य श्रुधी हवम् ॥३॥
हे श्रेष्ठकर्मा ज्ञान सम्पन्न अग्निदेव! जैसे आपने प्रियमेधा, अत्रि, विरूप और अंगिरा के आवाहनो को सुना था वैसे ही अब प्रस्कण्व के आवाहन को भी सुनें॥३॥
५३५.महिकेरव ऊतये प्रियमेधा अहूषत । राजन्तमध्वराणामग्निं शुक्रेण शोचिषा ॥४॥
दिव्य प्रकाश से युक्त अग्निदेव यज्ञ मे तेजस्वी रूप मे प्रदिप्त हुए। महान कर्मवाले प्रियमेधा ऋषियों ने अपनी रक्षा के निमित्त अग्निदेव का आवाहन किया॥४॥
५३६.घृताहवन सन्त्येमा उ षु श्रुधी गिरः । याभिः कण्वस्य सूनवो हवन्तेऽवसे त्वा ॥५॥
घृत आहुति भक्षक हे अग्निदेव! कण्व के वंशज, अपनी रक्षा के लिए जो स्तुतियाँ करते है, उन्ही स्तुतियों को आप सम्यक रूप से सुने॥।५॥
५३७.त्वां चित्रश्रवस्तम हवन्ते विक्षु जन्तवः । शोचिष्केशं पुरुप्रियाग्ने हव्याय वोळ्हवे ॥६॥
प्रेमपूर्वक हविष्य को ग्रहण करने वाले हे यशस्वी अग्निदेव! आप आश्चर्यजनक वैभव से सम्पन्न हैं। सम्पूर्ण मनुष्य एवं ऋत्विग्गण यज्ञ सम्पादन के निमित्त आपका आवाहन करते हुए हवि समर्पित करते हैं॥६॥
५३८.नि त्वा होतारमृत्विजं दधिरे वसुवित्तमम् । श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं विप्रा अग्ने दिविष्टिषु ॥७॥
हे अग्निदेव! होता रूप,ऋत्विजरूप, धन को धारण करने वाले स्तुति सुनने वाले, महान यशस्वी आपको विद्वज्जन स्वर्ग की कामना से यज्ञा मे स्थापित करते हैं॥७॥
५३९.आ त्वा विप्रा अचुच्यवुः सुतसोमा अभि प्रयः । बृहद्भा बिभ्रतो हविरग्ने मर्ताय दाशुषे ॥८॥
हे अग्निदेव! हविष्यान्न और सोम को तैयार रखने वाले विद्वान, दानशील याजक के लिये महान तेजस्वी आपको स्थापित करते है॥८॥
५४०.प्रातर्याव्णः सहस्कृत सोमपेयाय सन्त्य । इहाद्य दैव्यं जनं बर्हिरा सादया वसो ॥९॥
हे बल उत्पादक अग्निदेव! आप धनो के स्वामी और दानशील हैं। आज प्रातःकाल सोमपान के निमित्त यहाँ यज्ञस्थल पर आने को उद्यत देवो को बुलाकर कुश के आसनो पर बिठायें॥९॥
५४१.अर्वाञ्चं दैव्यं जनमग्ने यक्ष्व सहूतिभिः । अयं सोमः सुदानवस्तं पात तिरोअह्न्यम् ॥१०॥
हे अग्निदेव! यज्ञ के सम्क्ष प्रत्यक्ष उपस्थित देवगणो का उत्तम वचनो से अभिवादन कर यजन करें। हे श्रेष्ठ देवो! यह सोम आपके लिए प्रस्तुत है, इसका पान करें॥१०॥
५३२.त्वमग्ने वसूँरिह रुद्राँ आदित्याँ उत । यजा स्वध्वरं जनं मनुजातं घृतप्रुषम् ॥१॥
वसु रुद्र और आदित्य आदि देवताओं की प्रसन्नता के निमित्त यज्ञ करने वाले हे अग्निदेव! आप घृताहुति से श्रेष्ठ यज्ञ सम्पन्न करने वाले मनु संतानो का सत्कार करें॥१॥
५३३.श्रुष्टीवानो हि दाशुषे देवा अग्ने विचेतसः । तान्रोहिदश्व गिर्वणस्त्रयस्त्रिंशतमा वह ॥२॥
हे अग्निदेव! विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न देवगण, हविदाता के लिए उत्तम सुख देते हैं। हे रोहित वर्ण अश्व वाके(अर्थात रक्तवर्ण की ज्वालाओं से सुशोभित) स्तुत्य अग्निदेव! उन तैंतीस कोटि देवों को यहाँ यज्ञस्थल पर लेकर आयें॥२॥
५३४.प्रियमेधवदत्रिवज्जातवेदो विरूपवत् । अङ्गिरस्वन्महिव्रत प्रस्कण्वस्य श्रुधी हवम् ॥३॥
हे श्रेष्ठकर्मा ज्ञान सम्पन्न अग्निदेव! जैसे आपने प्रियमेधा, अत्रि, विरूप और अंगिरा के आवाहनो को सुना था वैसे ही अब प्रस्कण्व के आवाहन को भी सुनें॥३॥
५३५.महिकेरव ऊतये प्रियमेधा अहूषत । राजन्तमध्वराणामग्निं शुक्रेण शोचिषा ॥४॥
दिव्य प्रकाश से युक्त अग्निदेव यज्ञ मे तेजस्वी रूप मे प्रदिप्त हुए। महान कर्मवाले प्रियमेधा ऋषियों ने अपनी रक्षा के निमित्त अग्निदेव का आवाहन किया॥४॥
५३६.घृताहवन सन्त्येमा उ षु श्रुधी गिरः । याभिः कण्वस्य सूनवो हवन्तेऽवसे त्वा ॥५॥
घृत आहुति भक्षक हे अग्निदेव! कण्व के वंशज, अपनी रक्षा के लिए जो स्तुतियाँ करते है, उन्ही स्तुतियों को आप सम्यक रूप से सुने॥।५॥
५३७.त्वां चित्रश्रवस्तम हवन्ते विक्षु जन्तवः । शोचिष्केशं पुरुप्रियाग्ने हव्याय वोळ्हवे ॥६॥
प्रेमपूर्वक हविष्य को ग्रहण करने वाले हे यशस्वी अग्निदेव! आप आश्चर्यजनक वैभव से सम्पन्न हैं। सम्पूर्ण मनुष्य एवं ऋत्विग्गण यज्ञ सम्पादन के निमित्त आपका आवाहन करते हुए हवि समर्पित करते हैं॥६॥
५३८.नि त्वा होतारमृत्विजं दधिरे वसुवित्तमम् । श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं विप्रा अग्ने दिविष्टिषु ॥७॥
हे अग्निदेव! होता रूप,ऋत्विजरूप, धन को धारण करने वाले स्तुति सुनने वाले, महान यशस्वी आपको विद्वज्जन स्वर्ग की कामना से यज्ञा मे स्थापित करते हैं॥७॥
५३९.आ त्वा विप्रा अचुच्यवुः सुतसोमा अभि प्रयः । बृहद्भा बिभ्रतो हविरग्ने मर्ताय दाशुषे ॥८॥
हे अग्निदेव! हविष्यान्न और सोम को तैयार रखने वाले विद्वान, दानशील याजक के लिये महान तेजस्वी आपको स्थापित करते है॥८॥
५४०.प्रातर्याव्णः सहस्कृत सोमपेयाय सन्त्य । इहाद्य दैव्यं जनं बर्हिरा सादया वसो ॥९॥
हे बल उत्पादक अग्निदेव! आप धनो के स्वामी और दानशील हैं। आज प्रातःकाल सोमपान के निमित्त यहाँ यज्ञस्थल पर आने को उद्यत देवो को बुलाकर कुश के आसनो पर बिठायें॥९॥
५४१.अर्वाञ्चं दैव्यं जनमग्ने यक्ष्व सहूतिभिः । अयं सोमः सुदानवस्तं पात तिरोअह्न्यम् ॥१०॥
हे अग्निदेव! यज्ञ के सम्क्ष प्रत्यक्ष उपस्थित देवगणो का उत्तम वचनो से अभिवादन कर यजन करें। हे श्रेष्ठ देवो! यह सोम आपके लिए प्रस्तुत है, इसका पान करें॥१०॥