Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १९
[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता- अग्नि और मरुद्गण। छन्द -गायत्री]
१८६.प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे । मरुद्भिरग्न आ गहि॥१॥
हे अग्निदेव! श्रेष्ठ यज्ञो की गरिमा के संरक्षण के लिये हम आपका आवाहन करते हैं, आपको मरुतो के साथ आमंत्रित करते हौ, अतः देवताओ के इस यज्ञ मे आप पधारे॥१॥
१८७. नहि देवो न मर्त्यो महस्तव क्रतुं परः । मरुद्भिरग्न आ गहि॥२॥
हे अग्निदेव! ऐसा न कोइ देव है, न ही कोई मनुष्य, जो आपके द्वारा सम्पादित महान् कर्म को कर सके। ऐसे समर्थ आप मरुद्गणो से साथ आप इस यज्ञ मे पधारे॥२॥
१८८.ये महो रजसो विदुर्विश्वे देवासो अद्रुहः । मरुद्भिरग्न आ गहि॥३॥
जो मरुद्गण पृथ्वी पर श्रेष्ठ जल वृष्टि की विधि जानते है या क्षमता से सम्पन्न है। हे अग्निदेव आप उन द्रोह रहित मरुद्गणो के साथ इस यज्ञ मे पधारें॥३॥
१८९. य उग्रा अर्कमानृचुरनाधृष्टास ओजसा । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥४॥
हे अग्निदेव! जो अतिबलशाली, अजेय और अत्यन्त प्रचण्ड सूर्य के सदृश प्रकाशक है। आप उन मरुद्गणो के साथ यहाँ पधारें॥४॥
१९०.ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः । मरुद्भिरग्न आ गहि॥५॥
जो शुभ्र तेजो से युक्त तीक्ष्ण,वेधक रूप वाले, श्रेष्ठ बल-सम्पन्न और शत्रु का संहार करने वाले है। हे अग्निदेव! आप उन मरुतो के साथ यहाँ पधारें॥५॥
१९१.ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥६॥
हे अग्निदेव! ये जो मरुद्गण सबके उपर अधिष्ठित,प्रकाशक,द्युलोक के निवासी है, आप उन मरुदगणो के साथ पधारें॥७॥
१९२.य ईङ्खयन्ति पर्वतान्तिरः समुद्रमर्णवम् । मरुद्भिरग्न आ गहि॥७॥
हे अग्निदेव! जो पर्वत सदृश विशाल मेघो को एक स्थान से दूसरे सुदूरस्थ दूसरे स्थान पर ले जाते हैं तथा जो शान्त समुद्रो मे भी ज्वार पैदा कर देते है(हलचल पैदा कर देते है), ऐसे उन मरुद्गणो ले साथ आप इस यज्ञ मे पधारे॥७॥
१९३. आ ये तन्वन्ति रश्मिभिस्तिरः समुद्रमोजसा । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥८॥
हे अग्निदेव! जो सूर्य की रश्मियो के साथ सर्व व्याप्त होकर समुद्र को अपने ओज से प्रभावित करते हैं उन मरुतो के साथ आप यहाँ पधारें॥८॥
१९४. अभि त्वा पूर्वपीतये सृजामि सोम्यं मधु । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥९॥
हे अग्निदेव! सर्वप्रथम आपके सेवनार्थ यह मधुर सोमरस हम अर्पित करते हैं, अतः आप मरुतों के साथ यहाँ पधारें॥९॥
१८६.प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे । मरुद्भिरग्न आ गहि॥१॥
हे अग्निदेव! श्रेष्ठ यज्ञो की गरिमा के संरक्षण के लिये हम आपका आवाहन करते हैं, आपको मरुतो के साथ आमंत्रित करते हौ, अतः देवताओ के इस यज्ञ मे आप पधारे॥१॥
१८७. नहि देवो न मर्त्यो महस्तव क्रतुं परः । मरुद्भिरग्न आ गहि॥२॥
हे अग्निदेव! ऐसा न कोइ देव है, न ही कोई मनुष्य, जो आपके द्वारा सम्पादित महान् कर्म को कर सके। ऐसे समर्थ आप मरुद्गणो से साथ आप इस यज्ञ मे पधारे॥२॥
१८८.ये महो रजसो विदुर्विश्वे देवासो अद्रुहः । मरुद्भिरग्न आ गहि॥३॥
जो मरुद्गण पृथ्वी पर श्रेष्ठ जल वृष्टि की विधि जानते है या क्षमता से सम्पन्न है। हे अग्निदेव आप उन द्रोह रहित मरुद्गणो के साथ इस यज्ञ मे पधारें॥३॥
१८९. य उग्रा अर्कमानृचुरनाधृष्टास ओजसा । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥४॥
हे अग्निदेव! जो अतिबलशाली, अजेय और अत्यन्त प्रचण्ड सूर्य के सदृश प्रकाशक है। आप उन मरुद्गणो के साथ यहाँ पधारें॥४॥
१९०.ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः । मरुद्भिरग्न आ गहि॥५॥
जो शुभ्र तेजो से युक्त तीक्ष्ण,वेधक रूप वाले, श्रेष्ठ बल-सम्पन्न और शत्रु का संहार करने वाले है। हे अग्निदेव! आप उन मरुतो के साथ यहाँ पधारें॥५॥
१९१.ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥६॥
हे अग्निदेव! ये जो मरुद्गण सबके उपर अधिष्ठित,प्रकाशक,द्युलोक के निवासी है, आप उन मरुदगणो के साथ पधारें॥७॥
१९२.य ईङ्खयन्ति पर्वतान्तिरः समुद्रमर्णवम् । मरुद्भिरग्न आ गहि॥७॥
हे अग्निदेव! जो पर्वत सदृश विशाल मेघो को एक स्थान से दूसरे सुदूरस्थ दूसरे स्थान पर ले जाते हैं तथा जो शान्त समुद्रो मे भी ज्वार पैदा कर देते है(हलचल पैदा कर देते है), ऐसे उन मरुद्गणो ले साथ आप इस यज्ञ मे पधारे॥७॥
१९३. आ ये तन्वन्ति रश्मिभिस्तिरः समुद्रमोजसा । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥८॥
हे अग्निदेव! जो सूर्य की रश्मियो के साथ सर्व व्याप्त होकर समुद्र को अपने ओज से प्रभावित करते हैं उन मरुतो के साथ आप यहाँ पधारें॥८॥
१९४. अभि त्वा पूर्वपीतये सृजामि सोम्यं मधु । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥९॥
हे अग्निदेव! सर्वप्रथम आपके सेवनार्थ यह मधुर सोमरस हम अर्पित करते हैं, अतः आप मरुतों के साथ यहाँ पधारें॥९॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २०
[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता- ऋभुगण। छन्द -गायत्री]
१९५.अयं देवाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया । अकारि रत्नधातमः॥१॥
ऋभुदेवो के निमित्त ज्ञानियो ने अपने मुख से इन रमणीय स्तोत्रो की रचना की तथा उनका पाठ किया॥१॥
१९६.य इन्द्राय वचोयुजा ततक्षुर्मनसा हरी । शमीभिर्यज्ञमाशत ॥२॥
जिन ऋभुदेवो ने अतिकुशलतापूर्वक इन्द्रदेव के लिये वचन मात्र से नियोजित होकर चलनेवाले अश्वो की रचना की, ये शमी आदि यज्ञ (यज्ञ पात्र अथवा पाप शमन करने वाले देवों) के साथ यज्ञ मे सुशोभित होते हैं॥२॥
[चमस एक प्रकार के पात्र का नाम है, जिसे भी देव भाव से सम्बोधित् किया गया है।]
१९७.तक्षन्नासत्याभ्यां परिज्मानं सुखं रथम् । तक्षन्धेनुं सबर्दुघाम्॥३॥
जिन ऋभुदेवो ने अश्विनीकुमारो के लिये अति सुखप्रद सर्वत्र गमनशील रथ का निर्माण किया और गौओ को उत्तम दूध देने वाली बनाया॥३॥
१९८. युवाना पितरा पुनः सत्यमन्त्रा ऋजूयवः । ऋभवो विष्ट्यक्रत ॥४॥
अमोघ मन्त्र सामर्थ्य से युक्त, सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले ऋभुदेवो ने मातापिता मे स्नेहभाव संचरित कर उन्हे पुनः जवान बनाया॥४॥
[यहाँ जरावस्था दूर करने की मन्त्र विद्या का संकेत है।]
१९९.सं वो मदासो अग्मतेन्द्रेण च मरुत्वता । आदित्येभिश्च राजभिः॥५॥
हे ऋभुदेवो! यह हर्षप्रद सोमरस इन्द्रदेव, मरुतो और दीप्तिमान् आदित्यो के साथ आपको अर्पित किया जाता है॥५॥
२००. उत त्यं चमसं नवं त्वष्टुर्देवस्य निष्कृतम् । अकर्त चतुरः पुनः ॥६॥
त्वष्टादेव के द्वारा एक ही चमस तैयार किया गया था, ऋभुदेवो ने उसे चार प्रकार का बनाकर प्रयुक्त किया॥६॥
२०१.ते नो रत्नानि धत्तन त्रिरा साप्तानि सुन्वते । एकमेकं सुशस्तिभिः ॥७॥
वे उत्तम स्तुतियो से प्रशंसित होने वाले ऋभुदेव! सोमयाग करने वाले प्रत्येक याजक को तीनो कोटि के सप्तरत्नो अर्थात इक्कीस प्रकार के रत्नो (विशिष्ट कर्मो) को प्रदान करें। (यज्ञ के तीन विभाग है - हविर्यज्ञ, पाकयज्ञ एवं सोमयज्ञ। तीनो के सात-सात प्रकार है। इस प्रकार यज्ञ के इक्कीस प्रकार कहे गये हैं।)।७॥
२०२.अधारयन्त वह्नयोऽभजन्त सुकृत्यया । भागं देवेषु यज्ञियम् ॥८॥
तेजस्वी ऋभुदेवो ने अपने उत्तम कर्मो से देवो के स्थान पर अधिष्ठित होकर यज्ञ के भाग को धारण कर् उसका सेवन किया॥८॥
१९५.अयं देवाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया । अकारि रत्नधातमः॥१॥
ऋभुदेवो के निमित्त ज्ञानियो ने अपने मुख से इन रमणीय स्तोत्रो की रचना की तथा उनका पाठ किया॥१॥
१९६.य इन्द्राय वचोयुजा ततक्षुर्मनसा हरी । शमीभिर्यज्ञमाशत ॥२॥
जिन ऋभुदेवो ने अतिकुशलतापूर्वक इन्द्रदेव के लिये वचन मात्र से नियोजित होकर चलनेवाले अश्वो की रचना की, ये शमी आदि यज्ञ (यज्ञ पात्र अथवा पाप शमन करने वाले देवों) के साथ यज्ञ मे सुशोभित होते हैं॥२॥
[चमस एक प्रकार के पात्र का नाम है, जिसे भी देव भाव से सम्बोधित् किया गया है।]
१९७.तक्षन्नासत्याभ्यां परिज्मानं सुखं रथम् । तक्षन्धेनुं सबर्दुघाम्॥३॥
जिन ऋभुदेवो ने अश्विनीकुमारो के लिये अति सुखप्रद सर्वत्र गमनशील रथ का निर्माण किया और गौओ को उत्तम दूध देने वाली बनाया॥३॥
१९८. युवाना पितरा पुनः सत्यमन्त्रा ऋजूयवः । ऋभवो विष्ट्यक्रत ॥४॥
अमोघ मन्त्र सामर्थ्य से युक्त, सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले ऋभुदेवो ने मातापिता मे स्नेहभाव संचरित कर उन्हे पुनः जवान बनाया॥४॥
[यहाँ जरावस्था दूर करने की मन्त्र विद्या का संकेत है।]
१९९.सं वो मदासो अग्मतेन्द्रेण च मरुत्वता । आदित्येभिश्च राजभिः॥५॥
हे ऋभुदेवो! यह हर्षप्रद सोमरस इन्द्रदेव, मरुतो और दीप्तिमान् आदित्यो के साथ आपको अर्पित किया जाता है॥५॥
२००. उत त्यं चमसं नवं त्वष्टुर्देवस्य निष्कृतम् । अकर्त चतुरः पुनः ॥६॥
त्वष्टादेव के द्वारा एक ही चमस तैयार किया गया था, ऋभुदेवो ने उसे चार प्रकार का बनाकर प्रयुक्त किया॥६॥
२०१.ते नो रत्नानि धत्तन त्रिरा साप्तानि सुन्वते । एकमेकं सुशस्तिभिः ॥७॥
वे उत्तम स्तुतियो से प्रशंसित होने वाले ऋभुदेव! सोमयाग करने वाले प्रत्येक याजक को तीनो कोटि के सप्तरत्नो अर्थात इक्कीस प्रकार के रत्नो (विशिष्ट कर्मो) को प्रदान करें। (यज्ञ के तीन विभाग है - हविर्यज्ञ, पाकयज्ञ एवं सोमयज्ञ। तीनो के सात-सात प्रकार है। इस प्रकार यज्ञ के इक्कीस प्रकार कहे गये हैं।)।७॥
२०२.अधारयन्त वह्नयोऽभजन्त सुकृत्यया । भागं देवेषु यज्ञियम् ॥८॥
तेजस्वी ऋभुदेवो ने अपने उत्तम कर्मो से देवो के स्थान पर अधिष्ठित होकर यज्ञ के भाग को धारण कर् उसका सेवन किया॥८॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २१
[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता- इन्द्राग्नि। छन्द -गायत्री]
२०३.इहेन्द्राग्नी उप ह्वये तयोरित्स्तोममुश्मसि । ता सोमं ओमापातामा ॥१॥
इस यज्ञ स्थल पर हम इन्द्र एवं अग्निदेवो का आवाहन करते हैं, सोमपान के उन अभिलाषियो की स्तुति करते हुए सोमरस पीने का निवेदन करते हैं॥१॥
२०४.ता यज्ञेषु प्र शंसतेन्द्राग्नी शुम्भता नरः । ता गायत्रेषु गायत ॥२॥
हे ऋत्विजो! आप यज्ञानुष्ठान करते हुये इन्द्र एवं अग्निदेवो की शस्त्रो (स्तोत्रो) से स्तुति करे, विविध अंलकारो से उन्हे विभूषित करे तथा गायत्री छन्दवाले सामगान (गायत्र साम) करते हुये उन्हे प्रसन्न करें॥२॥
२०५.ता मित्रस्य प्रशस्तय इन्द्राग्नी ता हवामहे । सोमपा सोमपीतये ॥३॥
सोमपान की इच्छा करनेवाले मित्रता एवं प्रशंसा के योग्य उन इन्द्र एवं अग्निदेवो को हम सोमरस पीने के लिये बुलाते हैं॥३॥
२०६.उग्रा सन्ता हवामह उपेदं सवनं सुतम् । इन्द्राग्नी एह गच्छताम् ॥४॥अति उग्र देवगण एवं अग्निदेवो को सोम के अभिषव स्थान(यज्ञस्थल) पर आमन्त्रित करते हैं, वे यहाँ पधारें॥४॥
२०७.ता महान्ता सदस्पती इन्द्राग्नी रक्ष उब्जतम् । अप्रजाः सन्त्वत्रिणः॥५॥
देवो मे महान वे इन्द्र अग्निदेव सत्पुरुषो के स्वामी(रक्षक) हैं। वे राक्षसो को वशीभूत कर सरल स्वभाव वाला बनाएँ और मनुष्य भक्षक राक्षसो को मित्र-बांधवो से रहित करके निर्बल बनाएँ॥५॥
२०८.तेन सत्येन जागृतमधि प्रचेतुने पदे । इन्द्राग्नी शर्म यच्छतम् ॥६॥
हे इन्द्राग्ने! सत्य और चैतन्य रूप यज्ञस्थान पर आप संरक्षक के रूप मे जागते रहें और हमे सुख प्रदान करें॥६॥
२०३.इहेन्द्राग्नी उप ह्वये तयोरित्स्तोममुश्मसि । ता सोमं ओमापातामा ॥१॥
इस यज्ञ स्थल पर हम इन्द्र एवं अग्निदेवो का आवाहन करते हैं, सोमपान के उन अभिलाषियो की स्तुति करते हुए सोमरस पीने का निवेदन करते हैं॥१॥
२०४.ता यज्ञेषु प्र शंसतेन्द्राग्नी शुम्भता नरः । ता गायत्रेषु गायत ॥२॥
हे ऋत्विजो! आप यज्ञानुष्ठान करते हुये इन्द्र एवं अग्निदेवो की शस्त्रो (स्तोत्रो) से स्तुति करे, विविध अंलकारो से उन्हे विभूषित करे तथा गायत्री छन्दवाले सामगान (गायत्र साम) करते हुये उन्हे प्रसन्न करें॥२॥
२०५.ता मित्रस्य प्रशस्तय इन्द्राग्नी ता हवामहे । सोमपा सोमपीतये ॥३॥
सोमपान की इच्छा करनेवाले मित्रता एवं प्रशंसा के योग्य उन इन्द्र एवं अग्निदेवो को हम सोमरस पीने के लिये बुलाते हैं॥३॥
२०६.उग्रा सन्ता हवामह उपेदं सवनं सुतम् । इन्द्राग्नी एह गच्छताम् ॥४॥अति उग्र देवगण एवं अग्निदेवो को सोम के अभिषव स्थान(यज्ञस्थल) पर आमन्त्रित करते हैं, वे यहाँ पधारें॥४॥
२०७.ता महान्ता सदस्पती इन्द्राग्नी रक्ष उब्जतम् । अप्रजाः सन्त्वत्रिणः॥५॥
देवो मे महान वे इन्द्र अग्निदेव सत्पुरुषो के स्वामी(रक्षक) हैं। वे राक्षसो को वशीभूत कर सरल स्वभाव वाला बनाएँ और मनुष्य भक्षक राक्षसो को मित्र-बांधवो से रहित करके निर्बल बनाएँ॥५॥
२०८.तेन सत्येन जागृतमधि प्रचेतुने पदे । इन्द्राग्नी शर्म यच्छतम् ॥६॥
हे इन्द्राग्ने! सत्य और चैतन्य रूप यज्ञस्थान पर आप संरक्षक के रूप मे जागते रहें और हमे सुख प्रदान करें॥६॥