विष्णु पुराण - दूसरा अध्याय
श्री पराशर जी बोले - जो ब्रह्मा, विष्णु और शंकररूप से जगत की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण है तथा अपने भक्तों को संसार-सागर से तारने वाले है, उन विकार रहित, शुद्ध, अविनाशी, परमात्मा, सर्वदा एकरस, सर्व विजयी भगवान वासुदेव विष्णु को नमस्कार है| जो एक होकर भी नाना रूप वाले है, स्थूल सूक्षम्मय है, अव्यक्त एवं व्यक्त रूप तथा मुक्ति के कारण है, उन श्री वविष्णु भगवान को नमस्कार है| जो विश्वरूप प्रभु विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के मूल कारण है, उन परमात्मा विष्णु भगवान को नमस्कार है| जो विश्व के अधिष्ठान है, अति सुक्षम से सूक्ष्म है, सर्व प्राणियों मे स्थित पुरुषोत्तम और अविनाशी है, जो परमार्थतः अति निर्मल ज्ञान स्वरूप हैं, किन्तु अज्ञानवश नाना पदार्थरूप से प्रतीत होते हैं, तथा जो जगत की उत्पत्ति और स्थिति मे समर्थ एवं उसका संहार करने वाले है, उन जगदीश्वर, अजन्मा, अक्षय और अव्यय भगवान विष्णु को प्रणाम करके तुम्हे वह सारा प्रसंग क्रमशः सुनता हूँ जो दक्ष आदि मुनि श्रेष्ठों के पूछने पर पितामह भगवान ब्रह्माजी ने उनसे कहा था|
वह प्रसंग दक्ष आदि मुनिओ ने नर्मदा तट पर राजा पुरुकुत्स सो सुनाया था तथा पुरुकुत्स ने सारस्वत से और सारस्वत ने मुझसे कहा था| जो पर से भी पर, परमश्रेष्ठ, अंतरात्मा मे स्थित परमात्मा, रूप, वर्ण, नांम और विशेषण आदि से रहित है, जिसमे जन्म, वृद्धि, परिणाम, क्षय और नाश - इन छ: विकर्रों का सर्वथा अभाव है; जिसको सर्वदा केवल 'है' इतना ही कहा जा सकता है| जिनके लिये यह प्रसिद्ध है की 'वे सर्वत्र है और उनमे समस्त विश्व बसा हुआ है इसलिये ही विद्वान जिसको वासुदेव कहते है' वही नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, एकरस और हेय गुणों के अभाव के कारण निर्मल परब्रह्म है| वही इन सब व्यक्त और अव्यक्त जगत के रूप से, तथा इसके साक्षी पुरुष और महाकारण काल के रूप मे पुरुष है, अव्यक्त और व्यक्त उसके अन्य रूप है तथा काल उसका परमरूप है|
इस प्रकार जो प्रधान, पुरुष, व्यक्त और काल - इन चारो से परे है तथा जिसे पंडितजन ही देख पाते है वही भगवान विष्णु का परमपद है| प्रधान, पुरुष, व्यक्त और काल - ये रूप पृथक-पृथक संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार के प्रकाश तथा उत्पादन मे कारण है| भगवान विष्णु जो व्यक्त, अव्यक्त, पुरुष और कालरूप से स्थित होते है, उसे उनकी बालवत क्रीडा ही समझो|
उनमे से अव्यक्त कारण को, जो सदसदृप और नित्य है, श्रेष्ठ मुनिजन प्रधान तथा सूक्ष्म प्रकृति कहते है| वह क्षयरहित है, उसका कोई अन्य आधार भी नहीं है तथा अप्रमेय, अजर, निश्चल शब्द-स्पर्शादिशून्य और रूपादि रहित है| वह त्रिगुणमय और जगत का कारण है तथा स्वयं अनादी एवं उत्पत्ति और लय से रहित है| वह सम्पूर्ण प्रपंच प्रलय काल से लेकर सृष्टि के आदि तक उसी से व्याप्त था| हे विद्वन्! श्रुति के मर्म को जानने वाले, श्रुति परायण ब्रह्मवेत्ता महात्मागण इसी अर्थ को लक्ष्य करके प्रधान के प्रतिपादन इस श्लोक को कहा करते है - नाहो न रात्रिर्न नभो ना भूमि-र्नासीत्तमोज्योतिरभूद्य नान्यत| श्रोत्रादिबुद्धयानुपलभ्यमेक प्राधानिकं ब्रह्म पुमांस्तदासीत||
हे विप्र! विष्णु के परम स्वरूप से प्रधान और पुरुष - ये दो रूप हुये; उसी के जिस अन्य रूप के द्वारा वे दोनो संयुक्त और वियुक्त होते हैं, उस रूपान्तर का ही नाम 'काल' है| बीते हुये प्रलयकाल मे यह व्यक्त प्रपंच प्रकृति मे लीन था, इसलिये प्रपंच के इस प्रलय को प्राकृत प्रलय कहते हैं| हे द्विज! काल रूप भगवान अनादि है| इनका अंत नहीं है इसलिये संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं रुकते|
हे मैत्रेय! प्रलय काल मे प्रधान के साम्यावस्था मे स्थित हो जाने पर और पुरुष के प्रकृति से पृथक स्थित हो जाने पर विष्णु भगवान का कालरूप प्रवृत्त होता है| तदनन्तर उन परब्रह्म परमात्मा विश्वरूप सर्वव्यापी सार्वभूतेश्वर सर्वात्मा परमेश्वर स्वेच्छा से विकारी प्रधान और अविकारी पुरुष मे प्रविष्ट होकर उनको क्षोभित किया| जिस पर क्रियाशील ना होने पर भी गंध अपनी स्थितिमात्र से ही मन को क्षुभित कर देता है उसी प्रकार परमेश्वर अपनी स्थितिमात्र से ही प्रधान और पुरुष को प्रेरित करते हैं| हे ब्राहमण! वह पुरुषोतम ही इनको क्षोभित करने वेल है और वे ही क्षुब्ध होते है तथा संकोच और विकास युक्त प्रधानरूप से भी वे ही स्थित है| ब्रह्मादि समस्त ईश के ईश्वर विष्णु ही समष्टि-व्यष्टि रूप, ब्रह्मादि जीवरूप तथा महातत्त्व रूप से स्थित है|
हे द्विजश्रेष्ठ! सर्ग काल के प्राप्त होने पर गुणों की साम्यावस्थारूप प्रधान जय विष्णु के क्षेत्रज्ञरूप से अधिष्ठित हुआ तो उससे महतत्त्व की उत्पत्ती हुई है| उत्पन्न हुये प्रधान को प्रधानतत्त्व ने आवृत किया; महत्त्व सात्त्विक, राजस और तामस, भेद से टीन प्रकार का है| किन्तु जिस प्रकार बीज छिलके से साम्ब्भव से ढका रहता है वैसे ही यह त्रिविध महत्त्व प्रधान तत्त्व से सब और व्याप्त है| फिर त्रिविध महतत्त्व से ही वैकारिक तैजस और तामस भूतादि टीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ| हे महामुने! वह त्रिगुणात्मक होने से भूत और इन्द्रिया आदि का कारण है और प्रधान से जैसे महतत्त्व व्याप्त है, वैसे ही महतत्त्वसे वह व्याप्त है| भूतादि नामक कामस अहंकार ने विकृत होकर शब्द-तन्मात्रा और उस से शब्द - गुण वाले आकाश की रचना की| उस भूतादि तामस अहंकार ने शब्द-तन्मात्रा रूप आकाश को व्याप्त किया| फ़िर आकाश ने विकृत होकर स्पर्श-तन्मात्रा को रचा। उस से बलवान वायु हुआ, उसका गुन स्पर्श मन गया है। शब्द-तन्मात्रा रूप आकाश ने स्पर्श-तन्मात्रा वाले वायु को आवृत किया है। फिर वायु ने विकृत होकर रूप - तन्मात्रा की सृष्टि की। वायु से तेज उत्पन्न हुआ है। उसका गुण रूप कहा जाता है। स्पर्श-तन्मात्रा रूप वायु ने रूप-तन्मात्रा वाले तेज को आवृत किया। फिर तेज ने भी विकृत होकर रस-तन्मात्रा की रचना की। उस से रस -गुण वाला जल हुआ। रस - तन्मात्रा वाले जल को रुप - तन्मात्रामय तेज ने आवृत्त किया। जल विकार को प्राप्त होकर गंध-तन्मात्रा तेज ने आवृत्त किया| जल ने विकार को प्राप्त होकर गंध-तन्मात्रा की सृष्टि की| उससे पृथिवी उत्पन्न हुई है जिसका गुण गंध माना जाता है| उन-उन आकाशादि भूतों ने तन्मात्रा है| इसलिये वे तन्मात्रा ही कहे गये है| तन्मात्राओं मे विशेष भाव नहीं है इसलिये उनकी अविशेष संज्ञा है| वे अविशेष तन्मात्राएं शांत, घोर अथवा मूढ़ नहीं है, इस प्रकार तामस अहंकार से यह भूत - तन्मात्रा रूप सर्ग हुआ है|
दस इन्द्रियां तैजस अर्थात राजस अहंकार से और उनके अधिष्ठाता देवता वैकारिक अर्थात सात्विक अहंकर से उत्पन्न हुये कहे जाते है| इस प्रकार इन्द्रियों के अधिष्ठाता दस देवता और ग्यारहवां मन वैकारिक है| हे द्विज! त्वक, चक्षु, नासिका, जिह्वा और श्रोत - ये पांचो बुद्धि की सहायता से शब्दादि विषयों को ग्रहण करने वाली पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं| हे मैत्रेय! वायु, उपस्थ, हस्त, पाद और वाक - ये पांच कर्मेन्द्रियां हैं| इनके कर्म त्याग, शिल्प, गति और वचन बतलाये जाते है| आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी-ये पाँचों भूत उत्तरोत्तर शब्द -स्पर्श आदि पांच गुणों से युक्त हैं| ये पाँचों भूत शांत घोर और मूढ़ है| अतः ये विशेष कहलाते हैं|
इन भूतों मे पृथक-पृथक नाना शक्तियाँ है| अतः वे परस्पर पूर्णतया मिले बिना संसार की रचना नहीं कर सके| इसलिये एक-दूसरे के आश्रय रहने वेल और एक ही संघात की उत्पत्ति के लक्ष्य वाले महत्तत्त्व से लेकर विशेष प्रयंत प्रकृति के इन सभी विकारों ने पुरुष से अधिष्ठित होने के कारण परस्पर मिलकर सर्वथा एक होकर प्रधान-तत्त्व के अनुग्रह से अंड की उत्पत्ति की| हे महाबुद्धे! जल के बुलबुले के समान क्रमशः भूतों से बढ़ा हुआ यह गोलाकार और जल पर स्थित महान अंड ब्रह्म रूप विष्णु का अति उत्तम प्राकृत आधार हुआ| उसमे वे अव्यक्त -स्वरूप जगतपति विष्णु व्यक्त हिरण्यगर्भरूप से स्वयं ही विराजमान हुये| उन महात्मा हिरण्यगर्भ का सुमेरु उल्ब, अन्य पर्वत, जरायू तथा समुद्र गर्भाश्यस्थ रस था| हे विप्र! उस अंड मे ही पर्वत और द्वीपादि के सहित समुद्र, मह-गण के सहित सम्पूर्ण लोक तथा देव, असुर और मनुष्य आदि विविध प्राणीवर्ग प्रकट हुये| वह अंड पूर्व-पूर्व की अपेक्षा दस-दस गुण अधिक जल, अग्नि, वायु, आकाश और भूतादि अर्थात तामस-अहंकार से आवृत है तथा भूतादि महत्तत्व भी अव्यक्त प्रधान से आवृत है| इस प्रकार जैसे नारियल के फल का भीतरी बीज बाहर से कितने ही छिलकों से ढंका रहता है वैसे ही यह अंड इन सात प्राकृत आवरणों से घिरा हुआ है|
उसमें स्थित हुये स्वयं विश्वेशर भगवान विष्णु ब्रह्मा होकर रजोगुण का आश्रय लेकर इस संसार की रचना मे प्रवृत्त होते हैं| तथा रचना हो जाने पर सत्वगुण-विशिष्ट अतुल प्रक्रमी भगवान विष्णु उसका कल्पांत प्रयंत युग-युग मे पालन करते है| हे मैत्रेय! फिर कल्प का अंत होने पर अति दारुण तमः प्रधान रुद्र रूप धारण कर वे जनार्दन विष्णु ही समस्त भूतों का भक्षण कर लेते हैं| इस प्रकार समस्त भूतों का भक्षण कर लेते हैं| इस प्रकार समस्त भूतो का भक्षण कर संसार को जलमय करके वे परमेश्वर शेष-शय्या पर शयन करते हैं| जागने पर ब्रहमरूप होकर वे फिर जगत की रचना करते है| वह एक ही भगवान जनार्दन जगत की सृष्टि, स्थिति और संहार के लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिव - इन तीन संज्ञाओं को धारण करते है| वे प्रभु विष्णु स्रष्टा होकर अपनी ही सृष्टि करते है, पालक विष्णु होकर पाल्य रूप अपना ही पालन करते है और अंत मे स्वयम् ही संहारक तथा स्वयं ही लीन होते हैं| पृथिवी, जल, तेज, आकाश तथा समस्त इन्द्रियां और अंतःकरण आदि जितना जगत है सब पुरुषरूप है और क्योंकि वह अव्यय विष्णु ही विश्वरूप और सब भूतों के अंतरात्मा है, इसलिये ब्रह्मादि प्राणियों मे स्थित सरगादिक भी उन्ही के उपकारक हैं| वे सर्वस्वरूप, श्रेष्ठ, वरदायक और वरेण्य भगवान विष्णु ही ब्रह्मा आदि अवस्थाओं द्वारा रचने वाले है, वे ही रहे जाते हैं, वे ही पालते है, वे ही पालित होते हैं तथा वे ही संहार करते हैं|