सिद्धाश्रम में शौनकादि महर्षियों का सूतजी से प्रश्न, तथा सूतजी के द्वारा नारदपुराण का वर्णन
ॐ वेद व्यासाय नमः
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम। देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत्॥
वंदे वृन्दावनासीनमिन्दिरानन्दमंदिरम। उपेन्द्र सांद्रकारुण्यं परानन्दं परात्परं॥
ब्रह्माविष्णुमहेशाख्यम् यस्यांशा लोकसाधकाः। तमादिदेवं चिद्रूपं विशुद्धं परमं भजे॥
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम। देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत्॥
वंदे वृन्दावनासीनमिन्दिरानन्दमंदिरम। उपेन्द्र सांद्रकारुण्यं परानन्दं परात्परं॥
ब्रह्माविष्णुमहेशाख्यम् यस्यांशा लोकसाधकाः। तमादिदेवं चिद्रूपं विशुद्धं परमं भजे॥
नैमिषारण्य नामक विशाल वैन में महात्मा शौनक आदि ब्रह्मवादी मुनि मुक्ति की इच्छा से तपस्या में संलग्न थे। उन्होंने इंद्रियों को वश में कर लिया था। उनका भोजन नियमित था। वे सच्चे संत थे और सत्य सवरूप परमात्मा की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करते थे। आदि पुरुष सनातन भगवान् विष्णु का वे बड़ी भक्ति से यजन-पूजन करते रहते थे। उनमें ईर्ष्या का नाम नहीं था। वे सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता और समस्त लोकों पर अनुग्रह करने वाले थे। ममता और अहंकार उन्हें छू भी नहीं सके थे। उनका चित्त निरंतर परमात्मा के चिंतन में तत्पर रहता था। वे समस्त कामनाओं का त्याग करके सर्वथा निस्पाप हो गए थे। उनमे शाम, दम आदि सद्गुणों का सहज विकास था। काले मृग चर्म की चादर ओढ़े, सर पर जटा बढ़ाये तथा निरंतर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वे महर्षिगण सदा परब्रह्म का जप एवं कीर्तन करते थे। सूर्य के समान प्रतापी, धर्म शास्त्रों का यथार्थ तत्त्व जाने वाले वे महात्मा नैमिषारण्य में तप करते थे। उनमे से कुछ लोग यज्ञों द्वारा यज्ञपति भगवान् विष्णु का यजन करते थे। कुछ लोग ज्ञानयोग के साधनो द्वारा ज्ञान स्वरूप श्री हरि की उपासना करते थे और कुछ लोग भक्ति के मार्ग पर चलते हुए परा-भक्ति के द्वारा भगवान् नारायण की पूजा करते थे।
एक समय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का उपाय जानने की इच्छा से उन श्रेष्ठ महात्माओं ने एक बड़ी भारी सभा की। उसमे छब्बीस हजार ऊघर्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले) मुनि सम्मिलित हुए थे। उनके शिष्य-प्रशिष्यों की संख्या तो बतायी ही नहीं जा सकती। पवित्र अंतःकरण वाले वे महातेजस्वी महर्षि लोकों पर अनुग्रह करने के लिए ही एकत्र हुए थे। उनमे राग और मात्सर्य का सर्वथा अभाव था। वे शौनक जी से यह पूछना चाहते थे कि इस पृथ्वी पर कौन-कौन से पुण्यक्षेत्र और पवित्र तीर्थ हैं। त्रिविध ताप से पीड़ित चित्तवाले मनुष्यों को मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है। लोगों को भगवान विष्णु की अविचल भक्ति कैसे प्राप्त होगी तथा सात्विक, राजस और तामस - भेद से तीन प्रकार के कर्मों का फल किसके द्वारा प्राप्त होता है। उन मुनियों को अपने से इस प्रकार प्रश्न करने के लिए उद्यत देखकर उत्तम बुद्धिवाले शौनक जी विनय से झुक गए और हाथ जोड़कर बोले।
शौनक जी ने कहा - महर्षियों! पवित्र सिद्धाश्रम तीर्थ में पौराणिकों में श्रेष्ठ सूतजी रहते हैं। वे वहाँ अनेक प्रकार के यज्ञों द्वारा विश्व रूप भगवान् विस्नु का यजन किया करते हैं। महामुनि सूतजी व्यासजी के शिष्य हैं। वे यह सब विषय अच्छी तरह जानते हैं। उनका नाम रोमहर्षण है। वे बड़े शांत स्वाभाव के हैं और पुराणसहिंता के वक्ता हैं। भगवान् मधुसूदन प्रत्येक युग में धर्मों का ह्रास देखकर वेदव्यास के रूप में प्रकट होते और एक ही वेद के अनेक विभाग करते हैं। विप्रगण! हमने सब शास्त्रों में यह सुना है कि वेदव्यास मुनि साक्षात भगवान् नारायण ही हैं। उन्हीं भगवान् व्यास ने सूतजी को पुराणो का उपदेश दिया है। परम बुद्धिमान वेदव्यास जी के द्वारा भलीभांति उपदेश पाकर सूतजी सब धर्मों के ज्ञाता हो गए हैं। संसार में उनसे बढ़कर दूसरा कोई पुराणों का ज्ञाता नहीं है।क्योंकि इस लोक में सूतजी ही पुराणों के तात्त्विक अर्थ को जानने वाले, सर्वज्ञ और बुद्धिमान हैं। उनका स्वभाव शांत है। वे मोक्षधर्म के ज्ञाता तो है ही, कर्म और भक्ति के विविध साधनो को भी जानते हैं। मुनिवरों! वेद , वेदांग, और शास्त्रों का जो सारभूत है, वह सब मुनिवर व्यास ने जगत के हित के लिए पुराणों में बता दिया है और ज्ञानसागर सूतजी उन सबका यथार्थ तत्त्व जानने में कुशल हैं, इसलिए हैम लोग उन्हीं से सब बातें पूछें।
इस प्रकार शौनक जी ने मुनियों से जब अपना अभिप्राय निवेदन किया, तब वे सब महर्षि विद्वानों में श्रेष्ठ शौनकजी को आलिंगन करके बहुत प्रसन्न हुए। और उन्हें साधुवाद देने लगे। तदनन्तर सब मुनि वैन के भीतर पवित्र सिद्धाश्रम तीर्थ में गए और वहाँ उन्होंने देखा कि सूतजी अग्निष्टोम यज्ञ के द्वारा अनंत अपराजित भगवान् नारायण का यजन कर रहे हैं। सूतजी ने उन विख्यात तेजस्वी महात्माओं का यथोचित सत्कार किया। ततपश्चात उनमे नैमिषारण्य निवासी मुनियों ने इस प्रकार पूछा -
ऋषि बोले - उत्तम व्रत का पालन करने वाले सूतजी! हैम आपके यहाँ अतिथि रूप में आये हैं, अतः आपसे आतिथ्य सत्कार पाने के अधिकारी हैं। आप ज्ञान-दान रूपी पूजन-सामग्री के द्वारा हमारा पूजन कीजिये। मुने! देवतलोग चंद्रमा की किरणों से निकला हुआ अमृत पीकर जीवन धारण करते हैं; परन्तु इस पृथ्वी के देवता ब्राह्मण आपके मुख से निकले हुए ज्ञानरूपी अमृत को पीकर तृप्त होते हैं। तात! हम यह जानना चाहते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत किससे उत्पन्न हुआ है? इसका आधार और स्वरूप क्या है? यह किस्मे स्थित है? और किस में इसका लय है? भगवान विष्णु किस साधन से प्रसन्न होते हैं? मनुष्यों द्वारा उनकी पूजा कैसे की जा सकती है? भिन्न-भिन्न वर्णो और आश्रमों का आचार क्या है? अतिथि की पूजा कैसे की जाती है, जिससे सब कर्म सफल हो जाते हैं? वह मोक्ष का उपाय मनुष्यों को कैसे सुलभ है? पुरुषों को भक्ति से कौन-सा फल प्राप्त होता है और भक्ति का सवरूप क्या है? मुनिश्रेष्ठ! ये सब बातें आप हमें इस प्रकार समझा कर बतावें कि फिर इनके विषय में कोई संदेह न रह जाये, आप[के अमृत के सामान वचनो को सुनने के लिए किसके मन में श्रद्धा न होगी?
सूतजी ने कहा - महर्षियों! आप सब लोग सुने। आप लोगों को जो अभीष्ट है, वह मैं बतलाता हूँ। सनकादि मुनीश्वरों ने महात्मा नारदजी से जिसका वर्णन किया था, वह नारदपुराण आप सुने। यह वदर्घ से परिपूर्ण है - इसमें वेड के सिद्धांतों का ही प्रतिपादन किया गया है। यह समस्त पापों की शांति तथा दुष्ट ग्रहों की बाधा का निवारण करने वाला है। दुःस्व्पनों का नाश करने वाला, धर्मसम्मत तथा भोग एवं मोक्ष को देने वाला है। इसमें भगवान नारायण की पवित्र कथा का वर्णन है। यह नारद पुराण सब प्रकार के कल्याण की प्राप्ति हेतु है। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का भी कारण है। इसके द्वारा महान फलों की भी प्राप्ति होती है, यह अपूर्व पुण्यफल प्रदान करने वाला है। आप सब लोग एकाग्रचित होकर इस महापुराण को सुनें। महापातकों तथा उपपातकों से युक्त मनुष्य भी महर्षि व्यासप्रोक्त इस दिव्य पुराण का श्रवण करके शुद्धि को प्राप्त होते हैं। इसके एक अध्याय का पाठ करने से अश्वमेघ यज्ञ का और दो अध्यायों के पाठ से राजसूय यज्ञ का फल मिलता है। ब्राह्मणो! ज्येष्ठ के महीने में पूर्णिमा तिथि को मूल नक्षत्र का योग होने पर मनुष्य इन्द्रिय संयमपूर्वक मथुरापुरी की यमुना के जल में स्नान करके निराहार व्रत रहे और विधिपूर्वक भगवान् श्रीकृष्ण का पूजन करे तो इससे उसे जिस फल की प्राप्ति होती है, उसी को वह इस पुराण के तीन अध्यायों का पाठ करके प्राप्त कर लेता है। इसके दस अध्यायों का भक्तिभाव से श्रवण करके मनुष्य निर्वाण मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। यह पुराण कल्याण-प्राप्ति के साधनों में सबसे श्रेष्ठ है। पवित्र ग्रंथों में इसका स्थान सर्वोत्तम है। यह बुरे स्वप्नों का नाशक और परम पवित्र है। ब्रहर्षियों!इसका यत्नपूर्वक श्रवण करना चाहिए। यदि मनुष्य श्रद्धापूर्वक इसके एक श्लोक या आधे श्लोक का भी पाठ कर ले तो वह महापातकों के समूह से तत्काल मुक्त हो जाता है।
साधू पुरुषों के समक्ष ही इस पुराण का वर्णन करना चाहिए; क्योंकि यह गोपनीय से भी अत्यंत गोपनीय है। भगवान् विष्णु के समक्ष, किसी पुण्य क्षेत्र में तथा ब्राह्मण आदि द्विजातियों के निकट इस पुराण की कथा बांचनी चाहिए। जिन्होंने काम-क्रोध आदि दोषों का त्याग किया हो, जिनका मन भगवान् विष्णु की भक्ति में लगा है तथा जो सदाचारपरायण हैं। उन्हीं को यह मोक्ष साधक पुराण सुनाना चाहिए। भगवान् विष्णु सर्वदेवमय हैं। वे अपना स्मरण करने वाले भक्तों की समस्त पीड़ा हर लेते हैं। श्रेष्ठ भक्तों पर उनकी स्नेह-धारा सदा प्रवाहित होती रहती है। ब्राहाणों! विष्णु केवल भक्ति से ही संतुष्ट होते हैं, दूसरे किसी उपाय से नहीं। उनके नाम का बिना श्रद्दा के भी कीर्तन अथवा श्रवण कर लेने पर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो बैकुण्ड धाम को प्राप्त हो जाता है। भगवान मधुसूदन संसाररूपी भयंकर एवं दुर्गम वैन को दग्ध करने के लिए दावानलरूप हैं। महर्षियों! भगवान् श्रीहरि अपना स्मरण करने वाले पुरुषों के सब पापों का उसी क्षण नाश कर देते हैं। उनके तत्त्व का प्रकाश करने वाले इस उत्तम पुराण का श्रवण अवश्य करना चाहिए। सुनने अथवा पाठ करने से भी यह पुराण सब पापों का नाश करने वाला है। ब्रह्मणो! जिसकी बुद्धि भक्तिपूर्वक इस पुराण के सुनने में लग जाती है, वही कृतकृत्य है। वही सम्पूर्ण शास्त्रों का मर्मज्ञ पंडित है तथा उसी के द्वारा किये हुए तप और पुण्य को मैं सफल मानता हूँ; क्योंकि बिना तप और पुण्य के इस पुराण को सुनने में प्रेम नहीं हो सकता। जो संसार का हित करने वाले साधू पुरुष हैं, वे ही उत्तम कथाओं के कहने-सुनने में प्रवृत्त होते हैं। पापपरायण दुष्ट पुरुष तो सदा दूसरों की निंदा और दूसरों के साथ कलह करने में ही लगे रहते हैं। द्विजवरों! जो नराधम पुराणो में अर्थवाद होने की शंका करते हैं, उनके किये हुए समस्त पुण्य नष्ट हो जाते हैं। विप्रवरो! मोहग्रस्त मानव दूसरे-दूसरे कार्यों के साधन में लगे रहते हैं, परन्तु पुराण श्रवणरूप पुण्य का अनुष्ठान नहीं करते हैं। श्रेष्ठ ब्रह्मणो! जो मनुष्य बिना किसी परिश्रम के यहाँ अनंत पुण्य प्राप्त करना चाहता हो, उसको भक्ति भाव से निश्चय ही पुराणों का श्रवण करना चाहिए। जिस पुरुष की चित्तवृत्ति पुराण सुनने में लग जाती है, उसके पूर्व जन्मोपार्जित समस्त पाप निसंदेह नष्ट हो जाते हैं। जो मानव सत्संग, देवपूजा, पुराणकथा और हितकारी उपदेशों में तत्पर रहता हैं, वह इस देह का नाश होने पर भगवन विष्णु के सामान तेजस्वी स्वरूप धारण करके उन्हीं के परम धाम में चला जाता है। अतः विप्रवरो! आप लोग इस परम पवित्र नारद पुराण का श्रवण करें। इसके श्रवण करने से मनुष्य का मन भगवान विष्णु में संलग्न होता है और वह जन्म-मृत्यु तथा जरा आदि के बंधन से जाता है।
आदिदेव भगवान् नारायण श्रेष्ठ, वरणीय, वरदाता तथा पुराण पुरुष हैं। उन्होंने अपने प्रभाव से सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त कर रखा है। वे भक्त जनों के मनोवांछित पदार्थ को देने वाला है। उनका स्मरण करके मनुष्य मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है। ब्राह्मणों! जो ब्रह्मा, शिव तथा विष्णु आदि भिन्न-भिन्न रूप धारण करके इस जगत की सृष्टि, संहार और पालन करते हैं, उन आदिदेव परम पुरुष परमेश्वेर को अपने हृदय में स्थापित करके मनुष्य मुक्ति पा लेता है। जो नाम और जाति आदि की कल्पनाओं से रहित है, सर्वश्रेष्ठ तत्त्वों से भी परम उत्कृष्ट है, परात्पर पुरुष है, उपनिषदों के द्वारा जिनके तत्त्व का ज्ञान होता है तथा जो अपने प्रेमी भक्तों के समक्ष ही सगुण साकार रूप में प्रकट होते हैं, उन्हीं परमेश्वर की समस्त पुराणो और वेदों के द्वारा स्तुति की जाती है। अतः जो सम्पूर्ण जगत के ईश्वर, मोक्षस्वरूप, उपासना के योग्य, अजन्मा, परमरहस्यरूप तथा समस्त पुरुषार्थों के हेतु हैं, उन भगवान् विष्णु का स्मरण करके मनुष्य भवसागर से पार हो जाता है। धर्मात्मा, श्रद्धालु,मुमुक्षु, यति तथा वीतराग पुरुष ही यह पुराण सुनने के अधिकारी है। उन्हीं को इसका उपदेश करना चाहिए। पवित्र देश में, देव मंदिर के सभा मंडप में, पुण्य क्षेत्र में, पुण्य तीर्थ में तथा देवताओं और विद्वानों के समीप पुराण का प्रवचन करना चाहिए। जो मनुष्य पुराण कथा के बीच में दूसरों से बातचीत करता है, वह भयंकर नर्क में पड़ता है। जिसका चित्त एकाग्र नहीं है, वह सुनकर भी कुछ नहीं समझता। अतः एकचित्त होकर भगवतकथामृत का पान करना चाहिए। जिस्म मन इधर-उधर भटक रहा हो, उसे कथा रस का आस्वादन कैसे हो सकता है? संसार में चंचल चित्तवाले मनुष्य को क्या सुख मिलता है? अतः दुःख की साधनभूत समस्त कामनाओं का त्याग करके एकाग्रचित्त हो भगवान् विष्णु का चिंतन करना चाहिए। जिस किसी उपाय से भी यदि अविनाशी भगवान् नारायण का स्मरण किया जाये तो वे पातकी मनुष्य पर भी निःसंदेह प्रसन्न हो जाते हैं। सम्पूर्ण जगत के स्वामी तथा सर्वत्र व्यापक अविनाशी भगवान विष्णु में जिसकी भक्ति है, उसका जन्म सफल हो गया और मुक्ति उसके हाथ में है। विप्रवरो! भगवान् विष्णु के भजन में संलग्न रहें वाले पुरुषों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थ प्राप्त होते हैं।