Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १३
[ऋषि - मेधातिथि काण्व। देवता १-इध्म अथवा समिद्ध अग्नि, २-तनूनपात्, ३-नराशंस, ४-इळा, ५-बर्हि, ६-दिव्यद्वार्, ७-उषासानक्ता, ८ दिव्यहोता प्रचेतस, ९- तीन देवियाँ- सरस्वती, इळा , भारती, १०-त्वष्टा, ११ वनस्पति, १२ स्वाहाकृति । छन्द-गायत्री।]
१२३.सुसमिद्धो न आ वह देवाँ अग्ने हविष्मते । होतः पावक यक्षि च॥१॥
पवित्रकर्ता यज्ञ सम्पादन कर्ता हे अग्निदेव। आप अच्छी तरह प्रज्वलित होकर यजमान के कल्याण के लिये देवताओ का आवाहन करें और उनको लक्ष्य करके यज्ञ सम्पन्न करे अर्थात देवो के पोषण के लिये हविष्यान्न ग्रहण करें ॥१॥
१२४.मधुमन्तं तनूनपाद् यज्ञं देवेषु नः कवे । अद्या कृणुहि वीतये॥२॥
उर्ध्वगामी, मेधावी हे अग्निदेव ! हमारी रक्षा के लिये प्राणवर्धक-मधुर् हवियो को देवो के निमित्त प्राप्त करें और उन तक पहुँचायेँ ॥२॥
१२५.नराशंसमिह प्रियमस्मिन्यज्ञ उप ह्वये । मधुजिह्वं हविष्कृतम्॥३॥
हम इस यज्ञ मे देवताओ के प्रिय और् आह्लादक (मदुजिह्ल) अग्निदेव का आवाहन करते है। वह हमारी हवियो को देवताओं तक पहुँचाने वाले है, अस्तु , वे स्तुत्य हैं॥३॥
१२६.अग्ने सुखतमे रथे देवाँ ईळित आ वह । असि होता मनुर्हितः॥४॥
मानवमात्र के हितैषी हे अग्निदेव! आप अपने श्रेष्ठ-सुखदायी रथ से देवताओ को लेकर (यज्ञस्थल पर) पधारे। हम आपकी वन्दना करते है।
१२७.स्तृणीत बर्हिरानुषग्घृतपृष्ठं मनीषिणः । यत्रामृतस्य चक्षणम्॥५॥
हे मेधावी पुरुषो ! आप इस यज्ञ मे कुशा के आसनो को परस्पर मिलाकर इस तरह से बिछाये कि उस पर घृतपात्र को भली प्रकार से रखा जा सके, जिससे अमृततुल्य घृत का सम्यक् दर्शन हो सके॥५॥
१२८.वि श्रयन्तामृतावृधो द्वारो देवीरसश्चतः । अद्या नूनं च यष्टवे॥६॥
आज यज्ञ करने के लिये निश्चित रूप से ऋत(यज्ञीय वातावरण) की वृद्धि करने वाले अविनाशी दिव्यद्वार खुल जाएँ॥६॥
१२९.नक्तोषासा सुपेशसास्मिन्यज्ञ उप ह्वये । इदं नो बर्हिरासदे॥७॥
सुन्दर रूपवती रात्रि और उषा का हम इस यज्ञ मे आवाहन करते है। हमारी ओर से आसन रूप मे यह बर्हि (कुश) प्रस्तुत है॥७॥
१३०.ता सुजिह्वा उप ह्वये होतारा दैव्या कवी । यज्ञं नो यक्षतामिमम्॥८॥
उन उत्तम वचन वाले और मेधावी दोनो(अग्नियो) दिव्य होताओ को यज्ञ मे यजन के निमित्त हम बुलाते हैं॥८॥
१३१.इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः । बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः॥९॥
इळा सरस्वती और मही ये तीनो देवियाँ सुखकारी और क्षयरहित है! ये तीनो बिछे हुए दीप्तिमान कुश के आसनो पर विराजमान् हों॥९॥
१३२.इह त्वष्टारमग्रियं विश्वरूपमुप ह्वये । अस्माकमस्तु केवलः॥१०॥
प्रथम पूज्य, विविध रूप वाले त्वष्टादेव का इस यज्ञ मे आवाहन करते है, वे देव केवल हमारे ही हो॥१०॥
१३३.अव सृजा वनस्पते देव देवेभ्यो हविः । प्र दातुरस्तु चेतनम्॥११॥
हे वनस्पतिदेव! आप देवो के लिये नित्य हविष्यान्न प्रदान करने वाले दाता को प्राणरूप उत्साह प्रदान करें॥११॥
१३४.स्वाहा यज्ञं कृणोतनेन्द्राय यज्वनो गृहे । तत्र देवाँ उप ह्वये॥१२॥
(हे अध्वर्यु !) आप याजको के घर मे इन्द्रदेव की तुष्टी के लिये आहुतियाँ समर्पित करें। हम होता वहाँ देवो को आमन्त्रित करते है॥१२॥
१२३.सुसमिद्धो न आ वह देवाँ अग्ने हविष्मते । होतः पावक यक्षि च॥१॥
पवित्रकर्ता यज्ञ सम्पादन कर्ता हे अग्निदेव। आप अच्छी तरह प्रज्वलित होकर यजमान के कल्याण के लिये देवताओ का आवाहन करें और उनको लक्ष्य करके यज्ञ सम्पन्न करे अर्थात देवो के पोषण के लिये हविष्यान्न ग्रहण करें ॥१॥
१२४.मधुमन्तं तनूनपाद् यज्ञं देवेषु नः कवे । अद्या कृणुहि वीतये॥२॥
उर्ध्वगामी, मेधावी हे अग्निदेव ! हमारी रक्षा के लिये प्राणवर्धक-मधुर् हवियो को देवो के निमित्त प्राप्त करें और उन तक पहुँचायेँ ॥२॥
१२५.नराशंसमिह प्रियमस्मिन्यज्ञ उप ह्वये । मधुजिह्वं हविष्कृतम्॥३॥
हम इस यज्ञ मे देवताओ के प्रिय और् आह्लादक (मदुजिह्ल) अग्निदेव का आवाहन करते है। वह हमारी हवियो को देवताओं तक पहुँचाने वाले है, अस्तु , वे स्तुत्य हैं॥३॥
१२६.अग्ने सुखतमे रथे देवाँ ईळित आ वह । असि होता मनुर्हितः॥४॥
मानवमात्र के हितैषी हे अग्निदेव! आप अपने श्रेष्ठ-सुखदायी रथ से देवताओ को लेकर (यज्ञस्थल पर) पधारे। हम आपकी वन्दना करते है।
१२७.स्तृणीत बर्हिरानुषग्घृतपृष्ठं मनीषिणः । यत्रामृतस्य चक्षणम्॥५॥
हे मेधावी पुरुषो ! आप इस यज्ञ मे कुशा के आसनो को परस्पर मिलाकर इस तरह से बिछाये कि उस पर घृतपात्र को भली प्रकार से रखा जा सके, जिससे अमृततुल्य घृत का सम्यक् दर्शन हो सके॥५॥
१२८.वि श्रयन्तामृतावृधो द्वारो देवीरसश्चतः । अद्या नूनं च यष्टवे॥६॥
आज यज्ञ करने के लिये निश्चित रूप से ऋत(यज्ञीय वातावरण) की वृद्धि करने वाले अविनाशी दिव्यद्वार खुल जाएँ॥६॥
१२९.नक्तोषासा सुपेशसास्मिन्यज्ञ उप ह्वये । इदं नो बर्हिरासदे॥७॥
सुन्दर रूपवती रात्रि और उषा का हम इस यज्ञ मे आवाहन करते है। हमारी ओर से आसन रूप मे यह बर्हि (कुश) प्रस्तुत है॥७॥
१३०.ता सुजिह्वा उप ह्वये होतारा दैव्या कवी । यज्ञं नो यक्षतामिमम्॥८॥
उन उत्तम वचन वाले और मेधावी दोनो(अग्नियो) दिव्य होताओ को यज्ञ मे यजन के निमित्त हम बुलाते हैं॥८॥
१३१.इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः । बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः॥९॥
इळा सरस्वती और मही ये तीनो देवियाँ सुखकारी और क्षयरहित है! ये तीनो बिछे हुए दीप्तिमान कुश के आसनो पर विराजमान् हों॥९॥
१३२.इह त्वष्टारमग्रियं विश्वरूपमुप ह्वये । अस्माकमस्तु केवलः॥१०॥
प्रथम पूज्य, विविध रूप वाले त्वष्टादेव का इस यज्ञ मे आवाहन करते है, वे देव केवल हमारे ही हो॥१०॥
१३३.अव सृजा वनस्पते देव देवेभ्यो हविः । प्र दातुरस्तु चेतनम्॥११॥
हे वनस्पतिदेव! आप देवो के लिये नित्य हविष्यान्न प्रदान करने वाले दाता को प्राणरूप उत्साह प्रदान करें॥११॥
१३४.स्वाहा यज्ञं कृणोतनेन्द्राय यज्वनो गृहे । तत्र देवाँ उप ह्वये॥१२॥
(हे अध्वर्यु !) आप याजको के घर मे इन्द्रदेव की तुष्टी के लिये आहुतियाँ समर्पित करें। हम होता वहाँ देवो को आमन्त्रित करते है॥१२॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १४
[ऋषि - मेधातिथि काण्व। देवता विश्वेदेवता। छन्द-गायत्री।]
१३५.ऐभिरग्ने दुवो गिरो विश्वेभिः सोमपीतये । देवेभिर्याहि यक्षि च ॥१॥
हे अग्निदेव! आप समस्त देवो के साथ इस यज्ञ मे सोम पीने के लिये आएँ एव हमारी परिचर्या उअर् स्तुतियो को ग्रहण करके यज्ञ कार्य सम्पन्न करें ॥१॥
१३६. आ त्वा कण्वा अहूषत गृणन्ति विप्र ते धियः । देवेभिरग्न आ गहि ॥२॥
हे मेधावी अग्निदेव! कण्व ऋषि आपको बुला रहे हैं, वे आपके कार्यो की प्रशंसा करते हौ। अतः आप देवो के साथ यहाँ पधारे ॥२॥
१३७.इन्द्रवायू बृहस्पतिं मित्राग्निं पूषणं भगम् । आदित्यान्मारुतं गणम् ॥३॥
यज्ञशाला मे हम इन्द्र, वायु, बृहस्पति,मित्र, अग्नि, पूषा,भग, आदित्यगण और मरुद्गण आदि देवो का आवाहन करते है॥३॥
१३८.प्र वो भ्रियन्त इन्दवो मत्सरा मादयिष्णवः । द्रप्सा मध्वश्चमूषदः ॥४॥
कूटपीसकर तैयार किया हुआ, आनन्द और हर्ष बढा़ने वाला यह मधुर सोमरस अग्निदेव के लिये चमसादि पात्रो मे भरा हुआ है॥४॥
१३९.ईळते त्वामवस्यवः कण्वासो वृक्तबर्हिषः । हविष्मन्तो अरंकृतः ॥५॥
कण्व ऋषि के वंशज अपनी सुरक्षा की कामना से, कुश आसन बिछाकर हविष्यान्न व अलंकारो से युक्त होकर अग्निदेव की स्तुति करते हैं॥५॥
१४०.घृतपृष्ठा मनोयुजो ये त्वा वहन्ति वह्नयः । आ देवान्सोमपीतये ॥६॥
अतिदीप्तिमान पृष्ठभाग वाले, मन के संकल्प मात्र से ही रथ मे नियोजित हो जाने वाले अश्वो(से नियोजित रथ) द्वारा आप सोमपान के निमित्त देवो को ले आएँ॥६॥
१४१.तान्यजत्राँ ऋतावृधोऽग्ने पत्नीवतस्कृधि । मध्वः सुजिह्व पायय ॥७॥
हे अग्निदेव! आप यज्ञ की समृद्धी एंव शोभा बढा़ने वाले पूजनीय इन्द्रादि देव को सपत्नीक इस यज्ञ मे बुलायें तथा उन्हे मधुर् सोमरस का पान करायें॥७॥
१४२.ये यजत्रा य ईड्यास्ते ते पिबन्तु जिह्वया । मधोरग्ने वषट्कृति ॥८॥
हे अग्निदेव! यजन किये जाने योग्य और् स्तुति किये जाने योग्य जो देवगण है, वे यज्ञ मे आपकी जिह्वा से आनन्दपूर्वक मधुर सोमरस का पान करें ॥८॥
१४३.आकीं सूर्यस्य रोचनाद्विश्वान्देवाँ उषर्बुधः । विप्रो होतेह वक्षति ॥९॥
हे मेधावी होतारूप अग्निदेव! आप प्रातः काल मे जागने वाले विश्वदेवि को सूर्य रश्मियो से युक्त करके हमारे पास लाते है॥९॥
१४४.विश्वेभिः सोम्यं मध्वग्न इन्द्रेण वायुना । पिबा मित्रस्य धामभिः ॥१०॥
हे अग्निदेव ! आप इन्द्र वायु मित्र आदि देवो के सम्पूर्ण तेजो के साथ मधुर् सोमरस का पान करें ॥१०॥
१४५.त्वं होता मनुर्हितोऽग्ने यज्ञेषु सीदसि । सेमं नो अध्वरं यज ॥११॥
हे मनुष्यो के हितैषी अग्निदेव! आप होता के रूप मे यज्ञ मे प्रतिष्ठ हों और हमारे इस् हिंसारहित यज्ञ हि सम्पन्न करें॥११॥
१४६.युक्ष्वा ह्यरुषी रथे हरितो देव रोहितः । ताभिर्देवाँ इहा वह ॥१२॥
हे अग्निदेव ! आप रोहित नामक रथ को ले जाने मे सक्षम, तेजगति वाली घोड़ीयो को रथ मे जोते एवं उनके द्वारा देवताओ को इस यज्ञ मे लाएँ॥१२॥
१३५.ऐभिरग्ने दुवो गिरो विश्वेभिः सोमपीतये । देवेभिर्याहि यक्षि च ॥१॥
हे अग्निदेव! आप समस्त देवो के साथ इस यज्ञ मे सोम पीने के लिये आएँ एव हमारी परिचर्या उअर् स्तुतियो को ग्रहण करके यज्ञ कार्य सम्पन्न करें ॥१॥
१३६. आ त्वा कण्वा अहूषत गृणन्ति विप्र ते धियः । देवेभिरग्न आ गहि ॥२॥
हे मेधावी अग्निदेव! कण्व ऋषि आपको बुला रहे हैं, वे आपके कार्यो की प्रशंसा करते हौ। अतः आप देवो के साथ यहाँ पधारे ॥२॥
१३७.इन्द्रवायू बृहस्पतिं मित्राग्निं पूषणं भगम् । आदित्यान्मारुतं गणम् ॥३॥
यज्ञशाला मे हम इन्द्र, वायु, बृहस्पति,मित्र, अग्नि, पूषा,भग, आदित्यगण और मरुद्गण आदि देवो का आवाहन करते है॥३॥
१३८.प्र वो भ्रियन्त इन्दवो मत्सरा मादयिष्णवः । द्रप्सा मध्वश्चमूषदः ॥४॥
कूटपीसकर तैयार किया हुआ, आनन्द और हर्ष बढा़ने वाला यह मधुर सोमरस अग्निदेव के लिये चमसादि पात्रो मे भरा हुआ है॥४॥
१३९.ईळते त्वामवस्यवः कण्वासो वृक्तबर्हिषः । हविष्मन्तो अरंकृतः ॥५॥
कण्व ऋषि के वंशज अपनी सुरक्षा की कामना से, कुश आसन बिछाकर हविष्यान्न व अलंकारो से युक्त होकर अग्निदेव की स्तुति करते हैं॥५॥
१४०.घृतपृष्ठा मनोयुजो ये त्वा वहन्ति वह्नयः । आ देवान्सोमपीतये ॥६॥
अतिदीप्तिमान पृष्ठभाग वाले, मन के संकल्प मात्र से ही रथ मे नियोजित हो जाने वाले अश्वो(से नियोजित रथ) द्वारा आप सोमपान के निमित्त देवो को ले आएँ॥६॥
१४१.तान्यजत्राँ ऋतावृधोऽग्ने पत्नीवतस्कृधि । मध्वः सुजिह्व पायय ॥७॥
हे अग्निदेव! आप यज्ञ की समृद्धी एंव शोभा बढा़ने वाले पूजनीय इन्द्रादि देव को सपत्नीक इस यज्ञ मे बुलायें तथा उन्हे मधुर् सोमरस का पान करायें॥७॥
१४२.ये यजत्रा य ईड्यास्ते ते पिबन्तु जिह्वया । मधोरग्ने वषट्कृति ॥८॥
हे अग्निदेव! यजन किये जाने योग्य और् स्तुति किये जाने योग्य जो देवगण है, वे यज्ञ मे आपकी जिह्वा से आनन्दपूर्वक मधुर सोमरस का पान करें ॥८॥
१४३.आकीं सूर्यस्य रोचनाद्विश्वान्देवाँ उषर्बुधः । विप्रो होतेह वक्षति ॥९॥
हे मेधावी होतारूप अग्निदेव! आप प्रातः काल मे जागने वाले विश्वदेवि को सूर्य रश्मियो से युक्त करके हमारे पास लाते है॥९॥
१४४.विश्वेभिः सोम्यं मध्वग्न इन्द्रेण वायुना । पिबा मित्रस्य धामभिः ॥१०॥
हे अग्निदेव ! आप इन्द्र वायु मित्र आदि देवो के सम्पूर्ण तेजो के साथ मधुर् सोमरस का पान करें ॥१०॥
१४५.त्वं होता मनुर्हितोऽग्ने यज्ञेषु सीदसि । सेमं नो अध्वरं यज ॥११॥
हे मनुष्यो के हितैषी अग्निदेव! आप होता के रूप मे यज्ञ मे प्रतिष्ठ हों और हमारे इस् हिंसारहित यज्ञ हि सम्पन्न करें॥११॥
१४६.युक्ष्वा ह्यरुषी रथे हरितो देव रोहितः । ताभिर्देवाँ इहा वह ॥१२॥
हे अग्निदेव ! आप रोहित नामक रथ को ले जाने मे सक्षम, तेजगति वाली घोड़ीयो को रथ मे जोते एवं उनके द्वारा देवताओ को इस यज्ञ मे लाएँ॥१२॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १५
[ऋषि - मेधातिथि काण्व। देवता-(प्रतिदेवता ऋतु सहित) १-५ इन्द्रदेव, २ मरुद्गण,३ त्वष्टा, ४,१२ अग्नि,६ मित्रावरुण, ७,१० द्रविणोदा,११ अश्विनीकुमार। छन्द-गायत्री।]
१४७.इन्द्र सोमं पिब ऋतुना त्वा विशन्त्विन्दवः । मत्सरासस्तदोकसः॥१॥
हे इन्द्रदेव! ऋतुओ के अनुकूल सोमरस का पान करें, ये सोमरस आपके शरीर मे प्रविष्ट हो; क्योंकि आपकी तृप्ति का आश्रयभूत साधन यही सोम है ॥१॥
१४८.मरुतः पिबत ऋतुना पोत्राद्यज्ञं पुनीतन । यूयं हि ष्ठा सुदानवः॥२॥
दानियो मे श्रेष्ठ हे मरुतो! आप पोता नामक ऋत्विज् के पात्र से ऋतु के अनुकूल सोमरस का पान करें एवं हमारे इस यज्ञ को पवित्रता प्रदान करें ॥२॥
१४९.अभि यज्ञं गृणीहि नो ग्नावो नेष्टः पिब ऋतुना । त्वं हि रत्नधा असि॥३॥
हे त्वष्टादेव! आप पत्नि सहित हमारे यज्ञ की प्रशंसा करे, ऋतु के अनुकूल सोमरस का पान करें! आप निश्चय ही रत्नो को देनेवाले है॥३॥
१५०.अग्ने देवाँ इहा वह सादया योनिषु त्रिषु । परि भूष पिब ऋतुना॥४॥
हे अग्निदेव! आप देवो को यहाँ बुलाकर उन्हे यज्ञ के तीनो सवनो (प्रातः, माध्यन्दिन एवं सांय) मे आसीन करें। उन्हे विभूषित करके ऋतु के अनुकूल सोम का पान करें ॥४॥
१५१.ब्राह्मणादिन्द्र राधसः पिबा सोममृतूँरनु । तवेद्धि सख्यमस्तृतम्॥५॥
हे इन्द्रदेव! आप ब्रह्मा को जानने वाले साधक के पात्र से सोमरस का पान करे, क्योंकि उनके साथ आपकी अविच्छिन्न मित्रता है॥५॥
१५२.युवं दक्षं धृतव्रत मित्रावरुण दूळभम् । ऋतुना यज्ञमाशाथे ॥६॥
हे अटल व्रत वाले मित्रावरुण! आप दोनो ऋतु के अनुसार बल प्रदान करने वाले है। आप कठिनाई से सिद्ध होने वाले इस यज्ञ को सम्पन्न करते हैं॥६॥
१५३.द्रविणोदा द्रविणसो ग्रावहस्तासो अध्वरे । यज्ञेषु देवमीळते॥७॥
धन की कामना वाले याजक सोमरस तैयार करने के निमित्त हाथ मे पत्थर धारण् करके पवित्र यज्ञ मे धनप्रदायक अग्निदेव की स्तुति करते है॥७॥
१५४.द्रविणोदा ददातु नो वसूनि यानि शृण्विरे । देवेषु ता वनामहे॥८॥
हे धन प्रदायक अग्निदेव! हमे वे सभी धन प्रदान करे, जिनके विषय मे हमने श्रवण किया है। वे समस्त धन हम देवगणो को ही अर्पित करते हैं॥८॥
[देव शक्तियो से प्राप्त विभूतियो का उपयोग देवकार्यो के लिये ही करने का भाव व्यक्त किया गया है।]
१५५.द्रविणोदाः पिपीषति जुहोत प्र च तिष्ठत । नेष्ट्रादृतुभिरिष्यत॥९॥
हे धन प्रदायक अग्निदेव! नेष्टापात्र (नेष्टधिष्ण्या स्थान-यज्ञ कुण्ड) से ऋतु के अनुसार सोमरस पीने की इच्छा करते है। अतः हे याजक गण! आप वहाँ जाकर यज्ञ करें और पुन: अपने निवास स्थान के लिये प्रस्थान करें ॥९॥
१५६.यत्त्वा तुरीयमृतुभिर्द्रविणोदो यजामहे । अध स्मा नो ददिर्भव॥१०॥
हे धन प्रदायक अग्निदेव! ऋतुओ के अनुगुत होकर हम आपके निमित्त सोम के चौथे भाग को अर्पित करते है, इसलिये आप हमारे लिये धन प्रदान करने वाले हो ॥१०॥
१५७.अश्विना पिबतं मधु दीद्यग्नी शुचिव्रता । ऋतुना यज्ञवाहसा॥११॥
दिप्तिमान, शुद्ध कर्म करने वाले, ऋतु के अनुसार यज्ञवाहक हे अश्विनीकुमारो! आप इस मधुर सोमरस का पान करें॥११॥
१५८.गार्हपत्येन सन्त्य ऋतुना यज्ञनीरसि । देवान्देवयते यज ॥१२॥
हे इष्टप्रद अग्निदेव! आप गार्हपत्य के नियमन मे ऋतुओ के अनुगत यज्ञ का निर्वाह करने वाले हैं, अतः देवत्व प्राप्ति की कामना वाले याजको के निमित्त देवो का यजन करें॥१२॥
१४७.इन्द्र सोमं पिब ऋतुना त्वा विशन्त्विन्दवः । मत्सरासस्तदोकसः॥१॥
हे इन्द्रदेव! ऋतुओ के अनुकूल सोमरस का पान करें, ये सोमरस आपके शरीर मे प्रविष्ट हो; क्योंकि आपकी तृप्ति का आश्रयभूत साधन यही सोम है ॥१॥
१४८.मरुतः पिबत ऋतुना पोत्राद्यज्ञं पुनीतन । यूयं हि ष्ठा सुदानवः॥२॥
दानियो मे श्रेष्ठ हे मरुतो! आप पोता नामक ऋत्विज् के पात्र से ऋतु के अनुकूल सोमरस का पान करें एवं हमारे इस यज्ञ को पवित्रता प्रदान करें ॥२॥
१४९.अभि यज्ञं गृणीहि नो ग्नावो नेष्टः पिब ऋतुना । त्वं हि रत्नधा असि॥३॥
हे त्वष्टादेव! आप पत्नि सहित हमारे यज्ञ की प्रशंसा करे, ऋतु के अनुकूल सोमरस का पान करें! आप निश्चय ही रत्नो को देनेवाले है॥३॥
१५०.अग्ने देवाँ इहा वह सादया योनिषु त्रिषु । परि भूष पिब ऋतुना॥४॥
हे अग्निदेव! आप देवो को यहाँ बुलाकर उन्हे यज्ञ के तीनो सवनो (प्रातः, माध्यन्दिन एवं सांय) मे आसीन करें। उन्हे विभूषित करके ऋतु के अनुकूल सोम का पान करें ॥४॥
१५१.ब्राह्मणादिन्द्र राधसः पिबा सोममृतूँरनु । तवेद्धि सख्यमस्तृतम्॥५॥
हे इन्द्रदेव! आप ब्रह्मा को जानने वाले साधक के पात्र से सोमरस का पान करे, क्योंकि उनके साथ आपकी अविच्छिन्न मित्रता है॥५॥
१५२.युवं दक्षं धृतव्रत मित्रावरुण दूळभम् । ऋतुना यज्ञमाशाथे ॥६॥
हे अटल व्रत वाले मित्रावरुण! आप दोनो ऋतु के अनुसार बल प्रदान करने वाले है। आप कठिनाई से सिद्ध होने वाले इस यज्ञ को सम्पन्न करते हैं॥६॥
१५३.द्रविणोदा द्रविणसो ग्रावहस्तासो अध्वरे । यज्ञेषु देवमीळते॥७॥
धन की कामना वाले याजक सोमरस तैयार करने के निमित्त हाथ मे पत्थर धारण् करके पवित्र यज्ञ मे धनप्रदायक अग्निदेव की स्तुति करते है॥७॥
१५४.द्रविणोदा ददातु नो वसूनि यानि शृण्विरे । देवेषु ता वनामहे॥८॥
हे धन प्रदायक अग्निदेव! हमे वे सभी धन प्रदान करे, जिनके विषय मे हमने श्रवण किया है। वे समस्त धन हम देवगणो को ही अर्पित करते हैं॥८॥
[देव शक्तियो से प्राप्त विभूतियो का उपयोग देवकार्यो के लिये ही करने का भाव व्यक्त किया गया है।]
१५५.द्रविणोदाः पिपीषति जुहोत प्र च तिष्ठत । नेष्ट्रादृतुभिरिष्यत॥९॥
हे धन प्रदायक अग्निदेव! नेष्टापात्र (नेष्टधिष्ण्या स्थान-यज्ञ कुण्ड) से ऋतु के अनुसार सोमरस पीने की इच्छा करते है। अतः हे याजक गण! आप वहाँ जाकर यज्ञ करें और पुन: अपने निवास स्थान के लिये प्रस्थान करें ॥९॥
१५६.यत्त्वा तुरीयमृतुभिर्द्रविणोदो यजामहे । अध स्मा नो ददिर्भव॥१०॥
हे धन प्रदायक अग्निदेव! ऋतुओ के अनुगुत होकर हम आपके निमित्त सोम के चौथे भाग को अर्पित करते है, इसलिये आप हमारे लिये धन प्रदान करने वाले हो ॥१०॥
१५७.अश्विना पिबतं मधु दीद्यग्नी शुचिव्रता । ऋतुना यज्ञवाहसा॥११॥
दिप्तिमान, शुद्ध कर्म करने वाले, ऋतु के अनुसार यज्ञवाहक हे अश्विनीकुमारो! आप इस मधुर सोमरस का पान करें॥११॥
१५८.गार्हपत्येन सन्त्य ऋतुना यज्ञनीरसि । देवान्देवयते यज ॥१२॥
हे इष्टप्रद अग्निदेव! आप गार्हपत्य के नियमन मे ऋतुओ के अनुगत यज्ञ का निर्वाह करने वाले हैं, अतः देवत्व प्राप्ति की कामना वाले याजको के निमित्त देवो का यजन करें॥१२॥