Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त 46
[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - अश्विनीकुमार । छन्द - गायत्री]
५४२.एषो उषा अपूर्व्या व्युच्छति प्रिया दिवः । स्तुषे वामश्विना बृहत् ॥१॥
यह प्रिय अपूर्व(अलौकिक) देवी उषा आकाश के तम का नाश करती है। देवी उषा के कार्य मे सहयोगी हे अश्विनीकुमारो ! हम महान स्तोत्रो द्वारा आपकी स्तुति करते हैं॥१॥
५४३.या दस्रा सिन्धुमातरा मनोतरा रयीणाम् । धिया देवा वसुविदा ॥२॥
हे अश्विनीकुमारो! आप शत्रुओं के नाशक एवं नदियों के उत्पत्तिकर्ता है। आप विवेकपूर्वक कर्म करने वालो को अपार सम्पति देने वाले हैं॥२॥
५४४.वच्यन्ते वां ककुहासो जूर्णायामधि विष्टपि । यद्वां रथो विभिष्पतात् ॥३॥
हे अश्विनीकुमारो ! जब आपका रथ पक्षियों की तरह आकाश मे पहुँचता है, तब प्रशसनीय स्वर्गलोक मे भी आप के लिये स्तोत्रों का पाठ किया जाता है॥३॥
५४५.हविषा जारो अपां पिपर्ति पपुरिर्नरा । पिता कुटस्य चर्षणिः ॥४॥
हे देवपुरुषो ! जलों को सुखाने वाले, पितारूप, कार्यद्रष्टा सूर्यदेव (हमारे द्वारा प्रदत्त) हवि से आपको संतुष्ट करते हैं,अर्थात सूर्यदेव प्राणिमात्र ले पोषण ले लिए अन्नादि पदार्थ उत्पन्न करके प्रकृति के विराट यज्ञ मे आहुति दे रहे हैं॥४॥
५४६.आदारो वां मतीनां नासत्या मतवचसा । पातं सोमस्य धृष्णुया ॥५॥
असत्यहीन, मननपूर्वक वचन बोलने वाले हे अश्विनीकुमारों ! आप अपनी बुद्धि को प्रेरित करने वाले एवं संघर्ष शक्ति बढ़ाने वाले इस सोमरस का पान करें॥५॥
५४७.या नः पीपरदश्विना ज्योतिष्मती तमस्तिरः । तामस्मे रासाथामिषम् ॥६॥
हे अश्विनीकुमारों ! जो पोषक अन्न हमारे जीवन के अंधकार को दूर कर प्रकाशित करने वाला हो, वह हमे प्रदान करें॥६॥
५४८.आ नो नावा मतीनां यातं पाराय गन्तवे । युञ्जाथामश्विना रथम् ॥७॥
हे अश्विनीकुमारों ! आप दोनो अपना रथ नियोजितकर हमारे पास आयें। अपनी श्रेष्ठ बुद्धि से हमे दुःखो के सागर से पार ले चलें॥७॥
५४९.अरित्रं वां दिवस्पृथु तीर्थे सिन्धूनां रथः । धिया युयुज्र इन्दवः ॥८॥
हे अश्विनीकुमारों ! आपके आवागमन के साधन द्युलोक (की सीमा) से भी विस्तृत हैं। (तीनो लोकों मे आपकी गति है।) नदियों, तीर्थ प्रदेशो मे भी आपके साधन है,(पृथ्वी पर भी) आपके लिये रथ तैयार है। (आप किसी भी साधन से पहुँचने मे समर्थ हैं।) आप के लिये यहाँ विचारयुक्त कर्म द्वारा सोमरस तैयार किया गया है॥८॥
५५०.दिवस्कण्वास इन्दवो वसु सिन्धूनां पदे । स्वं वव्रिं कुह धित्सथः ॥९॥
कण्व वंशजो द्वारा तैयार सोम दिव्यता से परिपूर्ण है। नदियो के तट पर ऐश्वर्य रखा है। हे अश्विनीकुमारो ! अब आप अपना स्वरूप कहाँ प्रदर्शित करना चाहते हैं?॥९॥
५५१.अभूदु भा उ अंशवे हिरण्यं प्रति सूर्यः । व्यख्यज्जिह्वयासितः ॥१०॥
अमृतमयी किरणो वाले हे सूर्यदेव! अपनी आभा से स्वर्णतुल्य प्रकट हो रहे हैं। इसी समय श्यामल अग्निदेव, ज्वालारूप जिह्वा से विशेष प्रकाशित हो चुके हैं। हे अश्विनीकुमारो ! यही आपके शुभागमन का समय है॥१०॥
५५२.अभूदु पारमेतवे पन्था ऋतस्य साधुया । अदर्शि वि स्रुतिर्दिवः ॥११॥
द्युलोक से अंधकार को पार करती हुई, विशिष्ट प्रभा प्रकट होने लगी है, जिससे यज्ञ के मार्ग अच्छी तरह से प्रकाशित हुए हैं। अतः हे अश्विनीकुमारो ! आपको आना चाहिये॥११॥
५५३.तत्तदिदश्विनोरवो जरिता प्रति भूषति । मदे सोमस्य पिप्रतोः ॥१२॥
सोम के हर्ष से पूर्ण होने वाले अश्विनीकुमारो के उत्तम संरक्षण का स्तोतागण भली प्रकार वर्णन करते हैं॥१२॥
५५४.वावसाना विवस्वति सोमस्य पीत्या गिरा । मनुष्वच्छम्भू आ गतम् ॥१३॥
हे दीप्तीमान(यजमानो के) मन मे निवास करने वाले, सुखदायक अश्विनीकुमारो ! मनु के समान श्रेष्ठ परिचर्या करने वाले यजमान के समीप निवास करने वाले(सुखप्रदान करने वाले हे अश्विनीकुमारो !) आप दोनो सोमपान के निमित्त एवं स्तुतियों के निमित्त इस याग मे पधारें॥१३॥
५५५.युवोरुषा अनु श्रियं परिज्मनोरुपाचरत् । ऋता वनथो अक्तुभिः ॥१४॥
हे अश्विनीकुमारों ! चारो ओर गमन करने वाले आप दोनो की शोभा के पीछे पीछे देवी उषा अनुगमन कर रहीं हैं। आप रात्रि मे भी यज्ञों का सेवन करतें है॥१४॥
५५६.उभा पिबतमश्विनोभा नः शर्म यच्छतम् । अविद्रियाभिरूतिभिः ॥१५॥
हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनो सोमरस का पान करें। आलस्य न करते हुये हमारी रक्षा करें तथा हमे सुख प्रदान करें॥१५॥
५४२.एषो उषा अपूर्व्या व्युच्छति प्रिया दिवः । स्तुषे वामश्विना बृहत् ॥१॥
यह प्रिय अपूर्व(अलौकिक) देवी उषा आकाश के तम का नाश करती है। देवी उषा के कार्य मे सहयोगी हे अश्विनीकुमारो ! हम महान स्तोत्रो द्वारा आपकी स्तुति करते हैं॥१॥
५४३.या दस्रा सिन्धुमातरा मनोतरा रयीणाम् । धिया देवा वसुविदा ॥२॥
हे अश्विनीकुमारो! आप शत्रुओं के नाशक एवं नदियों के उत्पत्तिकर्ता है। आप विवेकपूर्वक कर्म करने वालो को अपार सम्पति देने वाले हैं॥२॥
५४४.वच्यन्ते वां ककुहासो जूर्णायामधि विष्टपि । यद्वां रथो विभिष्पतात् ॥३॥
हे अश्विनीकुमारो ! जब आपका रथ पक्षियों की तरह आकाश मे पहुँचता है, तब प्रशसनीय स्वर्गलोक मे भी आप के लिये स्तोत्रों का पाठ किया जाता है॥३॥
५४५.हविषा जारो अपां पिपर्ति पपुरिर्नरा । पिता कुटस्य चर्षणिः ॥४॥
हे देवपुरुषो ! जलों को सुखाने वाले, पितारूप, कार्यद्रष्टा सूर्यदेव (हमारे द्वारा प्रदत्त) हवि से आपको संतुष्ट करते हैं,अर्थात सूर्यदेव प्राणिमात्र ले पोषण ले लिए अन्नादि पदार्थ उत्पन्न करके प्रकृति के विराट यज्ञ मे आहुति दे रहे हैं॥४॥
५४६.आदारो वां मतीनां नासत्या मतवचसा । पातं सोमस्य धृष्णुया ॥५॥
असत्यहीन, मननपूर्वक वचन बोलने वाले हे अश्विनीकुमारों ! आप अपनी बुद्धि को प्रेरित करने वाले एवं संघर्ष शक्ति बढ़ाने वाले इस सोमरस का पान करें॥५॥
५४७.या नः पीपरदश्विना ज्योतिष्मती तमस्तिरः । तामस्मे रासाथामिषम् ॥६॥
हे अश्विनीकुमारों ! जो पोषक अन्न हमारे जीवन के अंधकार को दूर कर प्रकाशित करने वाला हो, वह हमे प्रदान करें॥६॥
५४८.आ नो नावा मतीनां यातं पाराय गन्तवे । युञ्जाथामश्विना रथम् ॥७॥
हे अश्विनीकुमारों ! आप दोनो अपना रथ नियोजितकर हमारे पास आयें। अपनी श्रेष्ठ बुद्धि से हमे दुःखो के सागर से पार ले चलें॥७॥
५४९.अरित्रं वां दिवस्पृथु तीर्थे सिन्धूनां रथः । धिया युयुज्र इन्दवः ॥८॥
हे अश्विनीकुमारों ! आपके आवागमन के साधन द्युलोक (की सीमा) से भी विस्तृत हैं। (तीनो लोकों मे आपकी गति है।) नदियों, तीर्थ प्रदेशो मे भी आपके साधन है,(पृथ्वी पर भी) आपके लिये रथ तैयार है। (आप किसी भी साधन से पहुँचने मे समर्थ हैं।) आप के लिये यहाँ विचारयुक्त कर्म द्वारा सोमरस तैयार किया गया है॥८॥
५५०.दिवस्कण्वास इन्दवो वसु सिन्धूनां पदे । स्वं वव्रिं कुह धित्सथः ॥९॥
कण्व वंशजो द्वारा तैयार सोम दिव्यता से परिपूर्ण है। नदियो के तट पर ऐश्वर्य रखा है। हे अश्विनीकुमारो ! अब आप अपना स्वरूप कहाँ प्रदर्शित करना चाहते हैं?॥९॥
५५१.अभूदु भा उ अंशवे हिरण्यं प्रति सूर्यः । व्यख्यज्जिह्वयासितः ॥१०॥
अमृतमयी किरणो वाले हे सूर्यदेव! अपनी आभा से स्वर्णतुल्य प्रकट हो रहे हैं। इसी समय श्यामल अग्निदेव, ज्वालारूप जिह्वा से विशेष प्रकाशित हो चुके हैं। हे अश्विनीकुमारो ! यही आपके शुभागमन का समय है॥१०॥
५५२.अभूदु पारमेतवे पन्था ऋतस्य साधुया । अदर्शि वि स्रुतिर्दिवः ॥११॥
द्युलोक से अंधकार को पार करती हुई, विशिष्ट प्रभा प्रकट होने लगी है, जिससे यज्ञ के मार्ग अच्छी तरह से प्रकाशित हुए हैं। अतः हे अश्विनीकुमारो ! आपको आना चाहिये॥११॥
५५३.तत्तदिदश्विनोरवो जरिता प्रति भूषति । मदे सोमस्य पिप्रतोः ॥१२॥
सोम के हर्ष से पूर्ण होने वाले अश्विनीकुमारो के उत्तम संरक्षण का स्तोतागण भली प्रकार वर्णन करते हैं॥१२॥
५५४.वावसाना विवस्वति सोमस्य पीत्या गिरा । मनुष्वच्छम्भू आ गतम् ॥१३॥
हे दीप्तीमान(यजमानो के) मन मे निवास करने वाले, सुखदायक अश्विनीकुमारो ! मनु के समान श्रेष्ठ परिचर्या करने वाले यजमान के समीप निवास करने वाले(सुखप्रदान करने वाले हे अश्विनीकुमारो !) आप दोनो सोमपान के निमित्त एवं स्तुतियों के निमित्त इस याग मे पधारें॥१३॥
५५५.युवोरुषा अनु श्रियं परिज्मनोरुपाचरत् । ऋता वनथो अक्तुभिः ॥१४॥
हे अश्विनीकुमारों ! चारो ओर गमन करने वाले आप दोनो की शोभा के पीछे पीछे देवी उषा अनुगमन कर रहीं हैं। आप रात्रि मे भी यज्ञों का सेवन करतें है॥१४॥
५५६.उभा पिबतमश्विनोभा नः शर्म यच्छतम् । अविद्रियाभिरूतिभिः ॥१५॥
हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनो सोमरस का पान करें। आलस्य न करते हुये हमारी रक्षा करें तथा हमे सुख प्रदान करें॥१५॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त 47
[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - अश्विनीकुमार । छन्द - बाहर्त प्रगाथ (विषमा बृहती, समासतो बृहती)।]
५५७.अयं वां मधुमत्तमः सुतः सोम ऋतावृधा ।तमश्विना पिबतं तिरोअह्न्यं धत्तं रत्नानि दाशुषे ॥१॥
हे यज्ञ कर्म का विस्तार करने वाले अश्विनीकुमारो ! अपने इस यज्ञ मे अत्यन्त मधुर तथा एक दिन पूर्व शोधित सोमरस का आप सेवन करें । यज्ञकर्ता यजमान को रत्न एवं ऐश्वर्य प्रदान करें॥१॥
५५८.त्रिवन्धुरेण त्रिवृता सुपेशसा रथेना यातमश्विना ।कण्वासो वां ब्रह्म कृण्वन्त्यध्वरे तेषां सु शृणुतं हवम् ॥२॥
हे अश्विनीकुमारो ! तीन वृत्त युक्त(त्रिकोण), तीन अवलम्बन वाले अति सुशोभित रथ से यहाँ आयें। यज्ञ मे कण्व वंशज आप दोनो के लिए मंत्र युक्त स्तुतियाँ करते हैं, उनके आवाहन को सुनें॥२॥
५५९.अश्विना मधुमत्तमं पातं सोममृतावृधा ।अथाद्य दस्रा वसु बिभ्रता रथे दाश्वांसमुप गच्छतम् ॥३॥
हे शत्रुनाशक, यज्ञ वर्द्धक अश्विनीकुमारो ! अत्यन्त मीठे सोमरस का पान करें। आज रथ मे धनो को धारण कर हविदाता यजमान के समीप आयें॥३॥
५६०.त्रिषधस्थे बर्हिषि विश्ववेदसा मध्वा यज्ञं मिमिक्षतम् ।कण्वासो वां सुतसोमा अभिद्यवो युवां हवन्ते अश्विना ॥४॥
हे सर्वज्ञ अश्विनीकुमारो ! तीन स्थानो पर रखे हुए कुश-आसन पर अधिष्ठित होकर आप यज्ञ का सिंचन करें। स्वर्ग की कामना वाले कण्व वंशज सोम को अभिषुत कर आप दोनो को बुलातें हैं॥४॥
५६१.याभिः कण्वमभिष्टिभिः प्रावतं युवमश्विना ।ताभिः ष्वस्माँ अवतं शुभस्पती पातं सोममृतावृधा ॥५॥
यज्ञ को बढ़ाने वाले शुभ कर्मो के पोषक हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनो ने जिन इच्छित रक्षण-साधनो से कण्व की भली प्रकार रक्षा की, उन साधनो से हमारी भी भली प्रकार रक्षा करें और प्रस्तुत सोम रस का पान करें॥५॥
५६२.सुदासे दस्रा वसु बिभ्रता रथे पृक्षो वहतमश्विना ।रयिं समुद्रादुत वा दिवस्पर्यस्मे धत्तं पुरुस्पृहम् ॥६॥
शत्रुओं के लिए उग्ररूप धारण करने वाले हे अश्विनीकुमारो !रथ मे धनो को धारण कर आपने सुदास को अन्न पहुँचाया। उसी प्रकार अन्तरिक्ष या सागरों से लाकर बहुतो द्वारा वाञ्छित धन हमारे लिए प्रदान करें॥६॥
५६३.यन्नासत्या परावति यद्वा स्थो अधि तुर्वशे ।अतो रथेन सुवृता न आ गतं साकं सूर्यस्य रश्मिभिः ॥७॥
हे सत्य समर्थक अश्विनीकुमारो ! आप दूर हो या पास हों, वहाँ से उत्तम गतिमान रथ से सूर्य रश्मियों के साथ हमारे पास आयें॥७॥
५६४.अर्वाञ्चा वां सप्तयोऽध्वरश्रियो वहन्तु सवनेदुप ।इषं पृञ्चन्ता सुकृते सुदानव आ बर्हिः सीदतं नरा ॥८॥
हे देवपुरुषो अश्विनीकुमारो ! यज्ञ की शोभा बढ़ाने वाले आपके अश्व आप दोनो को सोमयाग के समीप ले आयें। उत्तम कर्म करनेवाले और दान देने वाले याजको के लिये अन्नो की पूर्ति करते हुए आप दोनो कुश के आसनो पर बैठें॥८॥
५६५.तेन नासत्या गतं रथेन सूर्यत्वचा ।येन शश्वदूहथुर्दाशुषे वसु मध्वः सोमस्य पीतये ॥९॥
हे सत्य समर्थक अश्विनीकुमारो ! सूर्य सदृश तेजस्वी जिस रथ से दाता याजको के लिए सदैव धन लाकर देते रहे हैं, उसी रथ से आप मीठे सोमरस पान के लिएं पधारें ॥९॥
५६६.उक्थेभिरर्वागवसे पुरूवसू अर्कैश्च नि ह्वयामहे ।शश्वत्कण्वानां सदसि प्रिये हि कं सोमं पपथुरश्विना ॥१०॥
हे विपुल धन वाले अश्विनीकुमारो ! अपनी रक्षा के निमित्त हम स्तोत्रो और पूजा-अर्चनाओं से बार बार आपका आवाहन करते है। कण्व वंशको की यज्ञ सभा मे आप सर्वदा सोमपान करते रहे हैं॥१०॥
५५७.अयं वां मधुमत्तमः सुतः सोम ऋतावृधा ।तमश्विना पिबतं तिरोअह्न्यं धत्तं रत्नानि दाशुषे ॥१॥
हे यज्ञ कर्म का विस्तार करने वाले अश्विनीकुमारो ! अपने इस यज्ञ मे अत्यन्त मधुर तथा एक दिन पूर्व शोधित सोमरस का आप सेवन करें । यज्ञकर्ता यजमान को रत्न एवं ऐश्वर्य प्रदान करें॥१॥
५५८.त्रिवन्धुरेण त्रिवृता सुपेशसा रथेना यातमश्विना ।कण्वासो वां ब्रह्म कृण्वन्त्यध्वरे तेषां सु शृणुतं हवम् ॥२॥
हे अश्विनीकुमारो ! तीन वृत्त युक्त(त्रिकोण), तीन अवलम्बन वाले अति सुशोभित रथ से यहाँ आयें। यज्ञ मे कण्व वंशज आप दोनो के लिए मंत्र युक्त स्तुतियाँ करते हैं, उनके आवाहन को सुनें॥२॥
५५९.अश्विना मधुमत्तमं पातं सोममृतावृधा ।अथाद्य दस्रा वसु बिभ्रता रथे दाश्वांसमुप गच्छतम् ॥३॥
हे शत्रुनाशक, यज्ञ वर्द्धक अश्विनीकुमारो ! अत्यन्त मीठे सोमरस का पान करें। आज रथ मे धनो को धारण कर हविदाता यजमान के समीप आयें॥३॥
५६०.त्रिषधस्थे बर्हिषि विश्ववेदसा मध्वा यज्ञं मिमिक्षतम् ।कण्वासो वां सुतसोमा अभिद्यवो युवां हवन्ते अश्विना ॥४॥
हे सर्वज्ञ अश्विनीकुमारो ! तीन स्थानो पर रखे हुए कुश-आसन पर अधिष्ठित होकर आप यज्ञ का सिंचन करें। स्वर्ग की कामना वाले कण्व वंशज सोम को अभिषुत कर आप दोनो को बुलातें हैं॥४॥
५६१.याभिः कण्वमभिष्टिभिः प्रावतं युवमश्विना ।ताभिः ष्वस्माँ अवतं शुभस्पती पातं सोममृतावृधा ॥५॥
यज्ञ को बढ़ाने वाले शुभ कर्मो के पोषक हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनो ने जिन इच्छित रक्षण-साधनो से कण्व की भली प्रकार रक्षा की, उन साधनो से हमारी भी भली प्रकार रक्षा करें और प्रस्तुत सोम रस का पान करें॥५॥
५६२.सुदासे दस्रा वसु बिभ्रता रथे पृक्षो वहतमश्विना ।रयिं समुद्रादुत वा दिवस्पर्यस्मे धत्तं पुरुस्पृहम् ॥६॥
शत्रुओं के लिए उग्ररूप धारण करने वाले हे अश्विनीकुमारो !रथ मे धनो को धारण कर आपने सुदास को अन्न पहुँचाया। उसी प्रकार अन्तरिक्ष या सागरों से लाकर बहुतो द्वारा वाञ्छित धन हमारे लिए प्रदान करें॥६॥
५६३.यन्नासत्या परावति यद्वा स्थो अधि तुर्वशे ।अतो रथेन सुवृता न आ गतं साकं सूर्यस्य रश्मिभिः ॥७॥
हे सत्य समर्थक अश्विनीकुमारो ! आप दूर हो या पास हों, वहाँ से उत्तम गतिमान रथ से सूर्य रश्मियों के साथ हमारे पास आयें॥७॥
५६४.अर्वाञ्चा वां सप्तयोऽध्वरश्रियो वहन्तु सवनेदुप ।इषं पृञ्चन्ता सुकृते सुदानव आ बर्हिः सीदतं नरा ॥८॥
हे देवपुरुषो अश्विनीकुमारो ! यज्ञ की शोभा बढ़ाने वाले आपके अश्व आप दोनो को सोमयाग के समीप ले आयें। उत्तम कर्म करनेवाले और दान देने वाले याजको के लिये अन्नो की पूर्ति करते हुए आप दोनो कुश के आसनो पर बैठें॥८॥
५६५.तेन नासत्या गतं रथेन सूर्यत्वचा ।येन शश्वदूहथुर्दाशुषे वसु मध्वः सोमस्य पीतये ॥९॥
हे सत्य समर्थक अश्विनीकुमारो ! सूर्य सदृश तेजस्वी जिस रथ से दाता याजको के लिए सदैव धन लाकर देते रहे हैं, उसी रथ से आप मीठे सोमरस पान के लिएं पधारें ॥९॥
५६६.उक्थेभिरर्वागवसे पुरूवसू अर्कैश्च नि ह्वयामहे ।शश्वत्कण्वानां सदसि प्रिये हि कं सोमं पपथुरश्विना ॥१०॥
हे विपुल धन वाले अश्विनीकुमारो ! अपनी रक्षा के निमित्त हम स्तोत्रो और पूजा-अर्चनाओं से बार बार आपका आवाहन करते है। कण्व वंशको की यज्ञ सभा मे आप सर्वदा सोमपान करते रहे हैं॥१०॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त 48
[ऋषि - प्रस्कण्व काण्व । देवता - उषा। छन्द - बाहर्त प्रगाथ (विषमा बृहती, समासतो बृहती)।]
५६७.सह वामेन न उषो व्युच्छा दुहितर्दिवः । सह द्युम्नेन बृहता विभावरि राया देवि दास्वती ॥१॥
हे आकाशपुत्री उषे! उत्तम तेजस्वी,दान देने वाली, धनो और महान ऐश्वर्यों से युक्त होकर आप हमारे सम्मुख प्रकट हों, अर्थात हमे आपका अनुदान- अनुग्रह होता रहे॥१॥
५६८.अश्वावतीर्गोमतीर्विश्वसुविदो भूरि च्यवन्त वस्तवे । उदीरय प्रति मा सूनृता उषश्चोद राधो मघोनाम् ॥२॥
अश्व, गौ आदि (पशुओं अथवा संचारित होने वाली एवं पोषक किरणों) से सम्पन्न धन्य धान्यों को प्रदान करने वाली उषाएँ प्राणिमात्र के कल्याण के लिए प्रकाशित हुई हैं। हे उषे! कल्याणकारी वचनो के साथ आप हमारे लिए उपयुक्त धन वैभव प्रदान करें॥२॥
५६९.उवासोषा उच्छाच्च नु देवी जीरा रथानाम् । ये अस्या आचरणेषु दध्रिरे समुद्रे न श्रवस्यवः ॥३॥
जो देवी उषा पहले भी निवास कर चुकी हैं, वह रथो को चलाती हुई अब भी प्रकट हो। जैसे रत्नो की कामना वाले मनुष्य समुद्र की ओर मन लगाये रहते हैं; वैसे ही हम देवी उषा के आगमन की प्रतिक्षा करते हैं॥३॥
५७०.उषो ये ते प्र यामेषु युञ्जते मनो दानाय सूरयः । अत्राह तत्कण्व एषां कण्वतमो नाम गृणाति नृणाम् ॥४॥
हे उषे! आपके आने के समय जो स्तोता अपना मन, धनादि दान करने मे लगाते है, उसी समय अत्यन्त मेधावी कण्व उन मनुष्यों के प्रशंसात्मक स्तोत्र गाते हैं॥४॥
५७१.आ घा योषेव सूनर्युषा याति प्रभुञ्जती । जरयन्ती वृजनं पद्वदीयत उत्पातयति पक्षिणः ॥५॥
उत्तम गृहिणी स्त्री के समान सभी का भलीप्रकार पालन करने वाली देवी उषा जब आयी है, तो निर्बलो को शक्तिशाली बना देती हैं, पाँव वाले जीवो को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है और पक्षियों को सक्रिय होने की प्रेरणा देती है॥५॥
५७२.वि या सृजति समनं व्यर्थिनः पदं न वेत्योदती । वयो नकिष्टे पप्तिवांस आसते व्युष्टौ वाजिनीवति ॥६॥
देवी उषा सबके मन को कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं तथा धन इच्छुको को पुरुषार्थ के लिए भी प्रेरणा देती है। ये जीवन दात्री देवी उषा निरन्तर गतिशील रहती हैं। हे अन्नदात्री उषे! आपके प्रकाशित होने पर पक्षी अपने घोसलों मे बैठे नही रहते॥६॥
५७३.एषायुक्त परावतः सूर्यस्योदयनादधि । शतं रथेभिः सुभगोषा इयं वि यात्यभि मानुषान् ॥७॥
हे देवी उषा सूर्य के उदयस्थान से दूरस्थ देशो को भी जोड़ देती हैं। ये सौभाग्यशालिनी देवी उषा मनुष्य लोक की ओर सैंकड़ो रथो द्वारा गमन करती हैं॥७॥
५७४.विश्वमस्या नानाम चक्षसे जगज्ज्योतिष्कृणोति सूनरी । अप द्वेषो मघोनी दुहिता दिव उषा उच्छदप स्रिधः ॥८॥
सम्पूर्ण जगत इन देवी उषा के दर्शन करके झुककर उन्हे नमन करता है। प्रकाशिका, उत्तम मार्गदर्शिका, ऐश्वर्य सम्पन्न आकाश पुत्री देवी उषा, पीड़ा पहुँचाने वाले हमारे बैरियों को दूर हटाती हैं॥८॥
५७५.उष आ भाहि भानुना चन्द्रेण दुहितर्दिवः । आवहन्ती भूर्यस्मभ्यं सौभगं व्युच्छन्ती दिविष्टिषु ॥९॥
हे आकाशपुत्री उषे! आप आह्लादप्रद दीप्ती से सर्वत्र प्रकाशित हों। हमारे इच्छित स्वर्ग-सुख युक्त उत्त्म सौभाग्य को ले आयें और दुर्भाग्य रूपी तमिस्त्रा को दूर करें॥९॥
५७६.विश्वस्य हि प्राणनं जीवनं त्वे वि यदुच्छसि सूनरि । सा नो रथेन बृहता विभावरि श्रुधि चित्रामघे हवम् ॥१०॥
हे सुमार्ग प्रेरक उषे! उदित होने पर आप ही विश्व के प्राणियो का जीवन आधार बनती हैं। विलक्षण धन वाली, कान्तिमती हे उषे! आप अपने बृहत रथ से आकर हमारा आवाह्न सुनें॥१०॥
५७७.उषो वाजं हि वंस्व यश्चित्रो मानुषे जने । तेना वह सुकृतो अध्वराँ उप ये त्वा गृणन्ति वह्नयः ॥११॥
हे उषादेवि! मनुष्यो के लिये विविध अन्न-साधनो की वृद्धि करें। जो याजक आपकी स्तुतियाँ करते है, उनके इन उत्तम कर्मो से संतुष्ट होकर उन्हें यज्ञीय कर्मो की ओर प्रेरित करें॥११॥
५७८.विश्वान्देवाँ आ वह सोमपीतयेऽन्तरिक्षादुषस्त्वम् । सास्मासु धा गोमदश्वावदुक्थ्यमुषो वाजं सुवीर्यम् ॥१२॥
हे उषे! सोमपान के लिए अंतरिक्ष से सब देवों को यहाँ ले आयें। आप हमे अश्वों, गौओ से युक्त धन और पुष्टिप्रद अन्न प्रदान करें॥१२॥
५७९.यस्या रुशन्तो अर्चयः प्रति भद्रा अदृक्षत । सा नो रयिं विश्ववारं सुपेशसमुषा ददातु सुग्म्यम् ॥१३॥
जिन देवी उषा की दीप्तीमान किरणे मंगलकारी प्रतिलक्षित होती हैं, वे देवी उषा हम सबके लिए वरणीय, श्रेष्ठ, सुखप्रद धनो को प्राप्त करायें॥१३॥
५८०.ये चिद्धि त्वामृषयः पूर्व ऊतये जुहूरेऽवसे महि । सा न स्तोमाँ अभि गृणीहि राधसोषः शुक्रेण शोचिषा ॥१४॥
हे श्रेष्ठ उषादेवि! प्राचीन ऋषि आपको अन्न और संरक्षण प्राप्ति के लिये बुलाते थे। आप यश और तेजस्विता से युक्त होकर हमारे स्तोत्रो को स्वीकार करें॥१४॥
५८१.उषो यदद्य भानुना वि द्वारावृणवो दिवः । प्र नो यच्छतादवृकं पृथु च्छर्दिः प्र देवि गोमतीरिषः ॥१५॥
हे देवी उषे! आपने अपने प्रकाश से आकाश के दोनो द्वारों को खोल दिया है। अब आप हमे हिंसको से रक्षित, विशाल आवास और दुग्धादि युक्त अन्नो को प्रदान करें॥१५॥
५८२.सं नो राया बृहता विश्वपेशसा मिमिक्ष्वा समिळाभिरा । सं द्युम्नेन विश्वतुरोषो महि सं वाजैर्वाजिनीवति ॥१६॥
हे देवी उषे! आप हमें सम्पूर्ण पुष्टिप्रद महान धनो से युक्त करें, गौओं से युक्त करें। अन्न प्रदान करने वाली, श्रेष्ठ हे देवी उषे! आप हमे शत्रुओं का संहार करने वाला बल देकर अन्नो से संयुक्त करें॥१६॥
५६७.सह वामेन न उषो व्युच्छा दुहितर्दिवः । सह द्युम्नेन बृहता विभावरि राया देवि दास्वती ॥१॥
हे आकाशपुत्री उषे! उत्तम तेजस्वी,दान देने वाली, धनो और महान ऐश्वर्यों से युक्त होकर आप हमारे सम्मुख प्रकट हों, अर्थात हमे आपका अनुदान- अनुग्रह होता रहे॥१॥
५६८.अश्वावतीर्गोमतीर्विश्वसुविदो भूरि च्यवन्त वस्तवे । उदीरय प्रति मा सूनृता उषश्चोद राधो मघोनाम् ॥२॥
अश्व, गौ आदि (पशुओं अथवा संचारित होने वाली एवं पोषक किरणों) से सम्पन्न धन्य धान्यों को प्रदान करने वाली उषाएँ प्राणिमात्र के कल्याण के लिए प्रकाशित हुई हैं। हे उषे! कल्याणकारी वचनो के साथ आप हमारे लिए उपयुक्त धन वैभव प्रदान करें॥२॥
५६९.उवासोषा उच्छाच्च नु देवी जीरा रथानाम् । ये अस्या आचरणेषु दध्रिरे समुद्रे न श्रवस्यवः ॥३॥
जो देवी उषा पहले भी निवास कर चुकी हैं, वह रथो को चलाती हुई अब भी प्रकट हो। जैसे रत्नो की कामना वाले मनुष्य समुद्र की ओर मन लगाये रहते हैं; वैसे ही हम देवी उषा के आगमन की प्रतिक्षा करते हैं॥३॥
५७०.उषो ये ते प्र यामेषु युञ्जते मनो दानाय सूरयः । अत्राह तत्कण्व एषां कण्वतमो नाम गृणाति नृणाम् ॥४॥
हे उषे! आपके आने के समय जो स्तोता अपना मन, धनादि दान करने मे लगाते है, उसी समय अत्यन्त मेधावी कण्व उन मनुष्यों के प्रशंसात्मक स्तोत्र गाते हैं॥४॥
५७१.आ घा योषेव सूनर्युषा याति प्रभुञ्जती । जरयन्ती वृजनं पद्वदीयत उत्पातयति पक्षिणः ॥५॥
उत्तम गृहिणी स्त्री के समान सभी का भलीप्रकार पालन करने वाली देवी उषा जब आयी है, तो निर्बलो को शक्तिशाली बना देती हैं, पाँव वाले जीवो को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है और पक्षियों को सक्रिय होने की प्रेरणा देती है॥५॥
५७२.वि या सृजति समनं व्यर्थिनः पदं न वेत्योदती । वयो नकिष्टे पप्तिवांस आसते व्युष्टौ वाजिनीवति ॥६॥
देवी उषा सबके मन को कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं तथा धन इच्छुको को पुरुषार्थ के लिए भी प्रेरणा देती है। ये जीवन दात्री देवी उषा निरन्तर गतिशील रहती हैं। हे अन्नदात्री उषे! आपके प्रकाशित होने पर पक्षी अपने घोसलों मे बैठे नही रहते॥६॥
५७३.एषायुक्त परावतः सूर्यस्योदयनादधि । शतं रथेभिः सुभगोषा इयं वि यात्यभि मानुषान् ॥७॥
हे देवी उषा सूर्य के उदयस्थान से दूरस्थ देशो को भी जोड़ देती हैं। ये सौभाग्यशालिनी देवी उषा मनुष्य लोक की ओर सैंकड़ो रथो द्वारा गमन करती हैं॥७॥
५७४.विश्वमस्या नानाम चक्षसे जगज्ज्योतिष्कृणोति सूनरी । अप द्वेषो मघोनी दुहिता दिव उषा उच्छदप स्रिधः ॥८॥
सम्पूर्ण जगत इन देवी उषा के दर्शन करके झुककर उन्हे नमन करता है। प्रकाशिका, उत्तम मार्गदर्शिका, ऐश्वर्य सम्पन्न आकाश पुत्री देवी उषा, पीड़ा पहुँचाने वाले हमारे बैरियों को दूर हटाती हैं॥८॥
५७५.उष आ भाहि भानुना चन्द्रेण दुहितर्दिवः । आवहन्ती भूर्यस्मभ्यं सौभगं व्युच्छन्ती दिविष्टिषु ॥९॥
हे आकाशपुत्री उषे! आप आह्लादप्रद दीप्ती से सर्वत्र प्रकाशित हों। हमारे इच्छित स्वर्ग-सुख युक्त उत्त्म सौभाग्य को ले आयें और दुर्भाग्य रूपी तमिस्त्रा को दूर करें॥९॥
५७६.विश्वस्य हि प्राणनं जीवनं त्वे वि यदुच्छसि सूनरि । सा नो रथेन बृहता विभावरि श्रुधि चित्रामघे हवम् ॥१०॥
हे सुमार्ग प्रेरक उषे! उदित होने पर आप ही विश्व के प्राणियो का जीवन आधार बनती हैं। विलक्षण धन वाली, कान्तिमती हे उषे! आप अपने बृहत रथ से आकर हमारा आवाह्न सुनें॥१०॥
५७७.उषो वाजं हि वंस्व यश्चित्रो मानुषे जने । तेना वह सुकृतो अध्वराँ उप ये त्वा गृणन्ति वह्नयः ॥११॥
हे उषादेवि! मनुष्यो के लिये विविध अन्न-साधनो की वृद्धि करें। जो याजक आपकी स्तुतियाँ करते है, उनके इन उत्तम कर्मो से संतुष्ट होकर उन्हें यज्ञीय कर्मो की ओर प्रेरित करें॥११॥
५७८.विश्वान्देवाँ आ वह सोमपीतयेऽन्तरिक्षादुषस्त्वम् । सास्मासु धा गोमदश्वावदुक्थ्यमुषो वाजं सुवीर्यम् ॥१२॥
हे उषे! सोमपान के लिए अंतरिक्ष से सब देवों को यहाँ ले आयें। आप हमे अश्वों, गौओ से युक्त धन और पुष्टिप्रद अन्न प्रदान करें॥१२॥
५७९.यस्या रुशन्तो अर्चयः प्रति भद्रा अदृक्षत । सा नो रयिं विश्ववारं सुपेशसमुषा ददातु सुग्म्यम् ॥१३॥
जिन देवी उषा की दीप्तीमान किरणे मंगलकारी प्रतिलक्षित होती हैं, वे देवी उषा हम सबके लिए वरणीय, श्रेष्ठ, सुखप्रद धनो को प्राप्त करायें॥१३॥
५८०.ये चिद्धि त्वामृषयः पूर्व ऊतये जुहूरेऽवसे महि । सा न स्तोमाँ अभि गृणीहि राधसोषः शुक्रेण शोचिषा ॥१४॥
हे श्रेष्ठ उषादेवि! प्राचीन ऋषि आपको अन्न और संरक्षण प्राप्ति के लिये बुलाते थे। आप यश और तेजस्विता से युक्त होकर हमारे स्तोत्रो को स्वीकार करें॥१४॥
५८१.उषो यदद्य भानुना वि द्वारावृणवो दिवः । प्र नो यच्छतादवृकं पृथु च्छर्दिः प्र देवि गोमतीरिषः ॥१५॥
हे देवी उषे! आपने अपने प्रकाश से आकाश के दोनो द्वारों को खोल दिया है। अब आप हमे हिंसको से रक्षित, विशाल आवास और दुग्धादि युक्त अन्नो को प्रदान करें॥१५॥
५८२.सं नो राया बृहता विश्वपेशसा मिमिक्ष्वा समिळाभिरा । सं द्युम्नेन विश्वतुरोषो महि सं वाजैर्वाजिनीवति ॥१६॥
हे देवी उषे! आप हमें सम्पूर्ण पुष्टिप्रद महान धनो से युक्त करें, गौओं से युक्त करें। अन्न प्रदान करने वाली, श्रेष्ठ हे देवी उषे! आप हमे शत्रुओं का संहार करने वाला बल देकर अन्नो से संयुक्त करें॥१६॥