चौदह मन्वन्तरों तथा विवस्वान की संतति का वर्णन
ऋषि बोले-महामते सूतजी! अब समस्त मन्वन्तरों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये तथा उनकी प्राथमिक सृष्टि भी बतलाइए।
लोमहर्षण(सूत) ने कहा - विप्रगण! समस्त मन्वन्तरों का विस्तृत वर्णन तो सौ वर्षों में भी नहीं हो सकता, अतः संक्षेप में सुनो। प्रथम स्वायम्भुव मनु हैं, दूसरे स्वरोचिष, तीसरे उत्तम, चौथे तामस, पांचवे रैवत, छठे चाक्षुष तथा सातवें वैवस्वत मनु कहलाते हैं। वैवस्वत मनु ही वर्त्तमान कल्प के मनु है। इसके बाद सावर्णि, भौत्य, रौच्य तथा चार मेरुसवण्यॅ नाम के मनु होंगे। ये भूत, भविष्य और वर्तमान के सब मिलकर चौदह मनु हैं। मैंने जैसा सुना है, उसके अनुसार सब मनुओं के नाम बताये। अब इनके समय में होने वाले ऋषियों, मनु-पुत्रों तथा देवताओं का वर्णन करूँगा। मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, कर्तु, पुलस्त्य तथा वशिष्ठ-ये सात ब्रह्माजी के पुत्र उत्तर दिशा में स्थित है, जो स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षि हैं। आग्नीध्र, अग्निबाहु, मेध्य, मेधातिथि, वसु, ज्योतिष्मान, द्युतिमान, हव्य, सबल, और पुत्र - ये स्वायम्भुव मनु के महाबली पुत्र थे। विप्रगण! यह प्रथम मन्वन्तर बतलाया गया। स्वरोचित मन्वन्तर में प्राण, वृहस्पति, दत्तात्रेय, अत्रि, च्यवन, वायुप्रोक्त तथा महाव्रत - ये सात सप्तर्षि थे। तुषित नाम वाले देवता थे और हविर्घ्न, सुकृति, ज्योति, आप, मूर्ति, प्रतीत, नभस्य, नभ तथा ऊर्ज-ये महात्मा स्वारोचिष मनु के पुत्र बताये गए हैं, जो महान बलवान और पराकर्मी थे। यह द्वितीय मन्वन्तर का वर्णन हुआ; अब तीसरा मन्वन्तर बताया जाता है, सुनो। वशिष्ठ के सात पुत्र तथा हिरण्यगर्भ के तेजस्वी पुत्र ऊर्ज, तनूर्ज मधु, माधव, शुचि, शुक्र, सह, नभस्य तथा नभ - ये उत्तम मनु के पराक्रमी पुत्र थे। इस मन्वन्तर में भानु नाम वाले देवता थे। इस प्रकार तीसरा मन्वन्तर बताया गया। अब चौथे का वर्णन करता हूँ। काव्य, पृथु, अग्नि, जह्नु, धाता कप्वां और अकपीवान - ये सात उस साय के सप्तर्षि थे। सत्य नाम वाले देवता थे। द्युति, तपस्य, सुतपा, तपोभूत, सनातन, तपोरति, अकल्माष, तन्वी, धन्वी और परंतप - ये दस तामस मनु के पुत्र कहे गए है। यह चौथे मन्वन्तर का वर्णन हुआ। पांचवा रैवत मन्वन्तर है। उसमे देवबाहु, यदुघ्र, वेदशिरा, हिरण्यरोमा, पर्जन्य, सोमनंदन, ऊघर्वबाहु तथा अत्रिकुमार सत्यनेत्र- ये सप्तर्षि थे। अभूतरजा और प्रकृति नाम वाले देवता थे। धृतिमान, अव्यय, युक्त, तत्त्वदर्शी, निरुत्सुक, आरण्य, प्रकाश, निर्मोह, सत्यवाक्, और कृती - ये रैवत मनु के पुत्र थे। यह पांचवा मन्वन्तर बताया गया। अब छठे चाक्षुष मन्वन्तर का वर्णन करता हूँ, सुनो। उसमे भृगु, नभ, विवस्वान, सुधामा, विरजा, अतिनामा और सहिष्णु - ये ही सप्तर्षि थे। लेख नाम वाले पांच देवता थे। नाड़्वलेय नाम से प्रसिद्द रुरु आदि चाक्षुष मनु के दस पुत्र बतलाये जाते हैं। यहाँ तक छठे मन्वन्तर का वर्णन हुआ। अब सातवें वैवस्त मन्वन्तर का वर्णन सुनो। अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप, गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र तथा जमदग्नि - ये इस वर्तमान मन्वन्तर में सप्तर्षि होकर आकाश में विराजमान है। साध्य, रूद्र, विश्वेदेव, वसु, मरुद्गण, आदित्य और अश्वनीकुमार - ये इस मन्वन्तर के देवता माने गए हैं। वैवस्वत मनु के इक्ष्वाकु आदि दस पुत्र हुए। ऊपर जिन महातेजस्वी महर्षियों के नाम बताये गए हैं, उन्हीं के पुत्र और पौत्र आदि सम्पूर्ण दिशाओं में फैले हुए हैं। प्रत्येक मन्वन्तर में धर्म की व्यवस्था तथा लोक रक्षा के लिए - जो सात सप्तर्षि रहते हैं, मन्वन्तर बीतने के बाद उनमे चार महर्षि अपना कार्य पूरा करके रोग-शोक से रहित ब्रह्मलोक में चले जाते है। तत्पश्चात दूसरे चार तपस्वी आकर उनके स्थान की पूर्ति करते हैं। भूत और वर्तमान काल के सप्तर्षिगण इसी क्रम से होते आये हैं। सावर्णि मन्वन्तर में होने वाले सप्तर्षि ये हैं - परशुराम, व्यास, आत्रेय, भारद्वाज कुल में उत्पन्न द्रोणकुमार, अश्वत्थामा, गोतमवंशी शरद्वान, कौशिक कुल में उत्पन्न गालव तथा कश्यप नंदन और्व। वैरी, अध्वरीवान,शमन, धृतिमान, वसु, अरिष्ट, अघृष्ट, वाजी तथा सुमति - ये भविष्य में सावर्णिक मनु के पुत्र होंगे। प्रातःकाल उठकर इनका नाम लेने से मनुष्य सुखी, यशस्वी तथा दीर्घायु होता है।
भविष्य में होने वाले अन्य मन्वन्तरों का संक्षेप में वर्णन किया जाता है, सुनो। सावर्ण नाम के पाँच मनु होंगे; उनमें से एक तो सूर्य के पुत्र हैं और शेष चार प्रजापति के। ये चरों मेरुगिरि के शिखर पर भारी तपस्या करने के कारण 'मेरु सावर्ण्य' के नाम से विख्यात होंगे। ये दक्ष के धेवते और प्रिया के पुत्र हैं। इन पांच मनुओं के अतिरिक्त भविष्य में रौच्य और भौत्य नाम के दो मनु और होंगे। प्रजापति रूचि के पुत्र ही 'रौच्य' कहे गए हैं। रूचि के दूसरे पुत्र, जो भूति के गर्भ से उत्पन्न होंगे 'भौत्य मनु' कहलायेंगे। इस कल्प में होने वाले ये सात भावी मनु हैं। इन सब के द्वारा द्वीपों और नगरों सहित सम्पूर्ण पृथिवी का एक सहस्त्र युगों तक पालन होगा। सत्ययुग, त्रेता आदि चारों युग इकहत्तर बार बीत कर जब कुछ अधिक काल हो जाये, तब वह एक मन्वन्तर कहलाता है। इस प्रकार ये चौदह मनु बतलाये गए हैं। ये यश की वृद्धि करने वाले हैं। समस्त वेदों और पुराणों में भी इनका प्रभुत्व वर्णित है। ये प्रजाओं के पालक है। इनके यश का कीर्तन श्रेयस्कर है। मन्वन्तरों में कितने ही संहार होते हैं और संहार के बाद कितनी ही सृष्टियाँ होती रहती है; इन सबका पूरा-पूरा वर्णन सैंकड़ों वर्षों में भी नहीं हो सकता। मन्वन्तरों के बाद जो संहार होता है, उसमें तपस्या, ब्रह्मचर्य और शास्त्रज्ञान से संपन्न कुछ देवता और सप्तर्षि शेष रह जाते हैं। एक हज़ार चतुर्युग पूर्ण होने पर कल्प समाप्त हो जाता है। उस समय सूर्य की प्रचंड किरणों से समस्त प्राणी दग्ध हो जाते हैं। तब देवता आदित्यगणों के साथ ब्रह्माजी को आगे करके सुरश्रेष्ठ भगवान नारायण में लीन हो जाते हैं। वे भगवन ही कल्प के अंत में पुनः सब भूतों की सृष्टि करते हैं वे अव्यक्त सनातन देवता हैं। यह सम्पूर्ण जगत उन्हीं का है।
मुनिवरों! अब मैं इस समय वर्तमान महातेजस्वी वैवस्वत मनु की सृष्टि का वर्णन करूँगा। महर्षि कश्यप से उनकी भार्या दक्षकन्या अदिति के गर्भ से विवस्वान (सूर्य) का जन्म हुआ। विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा विवस्वान् की पत्नी हुई। उसके गर्भ से सूर्य ने तीन संताने उत्पन्न की। जिनमे एक कन्या और दो पुत्र थे। सबसे पहले प्रजापति श्राद्धदेव, जिन्हें वैवस्वत मनु कहते हैं, उत्पन्न हुए। तत्पश्चात यम और यमुना - ये जुड़वीं संताने हुयीं। भगवान् सूर्य के तेजस्वी स्वरूप को देखकर संज्ञा उसे सह न सकी। उसने अपने ही सामान वर्णवाली अपनी छाया प्रकट की। वह छाया संज्ञा अथवा स्वर्णा नाम से विख्यात हुयी। उसको भी संज्ञा ही समझ कर सूर्य ने उसके गर्भ से अपने ही सामान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न किया। वह अपने बड़े भाई मनु के ही समान था। इसलिए सावर्ण मनु के नाम से प्रसिद्द हुआ। छाया-संज्ञा से जो दूसरा पुत्र हुआ, उसकी शनैश्चर के नाम से प्रसिद्धि हुयी। यम धर्मराज के पद पर प्रतिष्ठित हुए और उन्होंने समस्त प्रजा को धर्म से संतुष्ट किया। इस शुभकर्म के कारण उन्हें पितरों का आधिपत्य और लोकपाल का पद प्राप्त हुआ। सावर्ण मनु प्रजापति हुए। आने वाले सावर्णिक मन्वन्तर के वे ही स्वामी होंगे। वे आज भी मेरुगिरि के शिखर पर नित्य तपस्या करते हैं। उनके भाई शनैश्चर ने ग्रह की पदवी प्राप्त की।