Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३७
[ऋषि - कण्व धौर। देवता - मरुद्गण , छन्द-गायत्री]
४४२.क्रीळं वः शर्धो मारुतमनर्वाणं रथेशुभम् । कण्वा अभि प्र गायत ॥१॥
हे कण्व गोत्रीय ऋषियो! क्रिड़ा युक्त, बल सम्पन्न, अहिंसक वृत्तियों वाले मरुद्गण रथ पर शोभायमान हैं। आप उनके निमित्त स्तुतिगान करें ॥१॥
४४३.ये पृषतीभिरृष्टिभिः साकं वाशीभिरञ्जिभिः । अजायन्त स्वभानवः ॥२॥
हे मरुद्गण स्वदीप्ति से युक्त धब्बो वाले मृगो (वाहनो)सहित और आभूषणो से अलंकृत होकर गर्जना करते हुए प्रकट हुए हैं॥२॥
४४४.इहेव शृण्व एषां कशा हस्तेषु यद्वदान् । नि यामञ्चित्रमृञ्जते ॥३॥
मरुद्गणो के हाथो मे स्थित चाबुको से होने वाली ध्वनियां हमे सुनाई देती हैं, जैसे वे यहीं हो रही हों। वे ध्वनियां संघर्ष के समय असामान्य शक्ति प्रदर्शित करती है॥३॥
४४५.प्र वः शर्धाय घृष्वये त्वेषद्युम्नाय शुष्मिणे । देवत्तं ब्रह्म गायत ॥४॥
(हे याजको! आप)बल बढ़ाने वाले, शत्रु नाशक, दीप्तिमान मरुद्गणों की सामर्थ्य और यश का मंत्रो से विशिष्ट गान करें॥४॥
४४६.प्र शंसा गोष्वघ्न्यं क्रीळं यच्छर्धो मारुतम् । जम्भे रसस्य वावृधे ॥५॥
(हे याजको! आप) किरणो द्वारा संचरित दिव्य रसो का पर्याप्त सेवन कर बलिष्ठ हुए उन मरुद्गणों के अविनाशी बल की प्रशंसा करें॥५॥
४४७.को वो वर्षिष्ठ आ नरो दिवश्च ग्मश्च धूतयः । यत्सीमन्तं न धूनुथ ॥६॥
द्युलोक और भूलोक को कम्पित करनेवाले हे मरुतो! आप मे वरिषठ कौन है? जो सदा वृक्ष के अग्रभाग को हिलाने के समान शत्रुओ को प्रकम्पित कर दे ॥६॥
४४८.नि वो यामाय मानुषो दध्र उग्राय मन्यवे । जिहीत पर्वतो गिरिः ॥७॥
हे मरुद्गणों! आपके प्रचण्ड संघर्षल आवेश से भयभीत मनुष्य सुदृढ़ सहारा ढुंढता है, क्योंकि आप बड़े पर्वतो और टीलो को भी कंपा देते हैं॥७॥
४४९.येषामज्मेषु पृथिवी जुजुर्वाँ इव विश्पतिः । भिया यामेषु रेजते ॥८॥
उन मरुद्गणों के आक्रमणकारी बलो से यह पृथ्वी जरा-जीर्ण नृपति की भांति भयभीत होकर प्रकम्पित हो उठती है॥८॥
४५०.स्थिरं हि जानमेषां वयो मातुर्निरेतवे । यत्सीमनु द्विता शवः ॥९॥
इन वीर मरुतो की मातृभूमि आकाश स्थिर है। ये मातृभूमि से पक्षी के वेग के समान निर्बाधित होकर चलते है। उनका बल दुगुना होकर व्याप्त होता है॥९॥
४५१.उदु त्ये सूनवो गिरः काष्ठा अज्मेष्वत्नत । वाश्रा अभिज्ञु यातवे ॥१०॥
शब्द नाद करने वाले मरुतो ने यज्ञार्थ जलो को निःसृत किया। प्रवाहित जल का पान करने के लिए रंभाति हुई गौएं घुटने तक पानी मे जाने के लिए बाध्य होती हैं॥१०॥
४५२.त्यं चिद्घा दीर्घं पृथुं मिहो नपातममृध्रम् । प्र च्यावयन्ति यामभिः ॥११॥
विशाल और व्यापक, न बिंध सकने वाले, जल वृष्टि न करने वाले मेघो को भी वीर मरुद्गण अपनी तेजगति से उड़ा ले जाते है॥११॥
४५३.मरुतो यद्ध वो बलं जनाँ अचुच्यवीतन । गिरीँरचुच्यवीतन ॥१२॥
हे मरुतो! आप अपने बल से लोगो को विचलित करते हैं, आप पर्वतो को भी विचलित करने मे समर्थ हैं॥१२॥
४५४.यद्ध यान्ति मरुतः सं ह ब्रुवतेऽध्वन्ना । शृणोति कश्चिदेषाम् ॥१३॥
जिस समय मरुद्गण गमन करते है, तब वे मध्य मार्ग मे ही परस्पर वार्ता करने लगते हैं। उनके शब्द को भला कौन नही सुन लेता है? (सभी सुन लेते है।)॥१३॥
४५५.प्र यात शीभमाशुभिः सन्ति कण्वेषु वो दुवः । तत्रो षु मादयाध्वै ॥१४॥
हे मरुतो! आप तीव्र वेग वाले वाहन से शीघ्र आएं, कण्ववंशी आपके सत्कार के लिए उपस्थित हैं। वहां आप उत्साह के साथ तृप्ति को प्राप्त हों॥१४॥
४५६.अस्ति हि ष्मा मदाय वः स्मसि ष्मा वयमेषाम् । विश्वं चिदायुर्जीवसे ॥१५॥
हे मरुतो! आपकी प्रसन्न्ता के लिए यह हवि-द्रव्य तैयार है। हम सम्पूर्ण आयु सुखद जीवन प्राप्त करने के लिए आपका स्मरण करते है॥१५॥
४४२.क्रीळं वः शर्धो मारुतमनर्वाणं रथेशुभम् । कण्वा अभि प्र गायत ॥१॥
हे कण्व गोत्रीय ऋषियो! क्रिड़ा युक्त, बल सम्पन्न, अहिंसक वृत्तियों वाले मरुद्गण रथ पर शोभायमान हैं। आप उनके निमित्त स्तुतिगान करें ॥१॥
४४३.ये पृषतीभिरृष्टिभिः साकं वाशीभिरञ्जिभिः । अजायन्त स्वभानवः ॥२॥
हे मरुद्गण स्वदीप्ति से युक्त धब्बो वाले मृगो (वाहनो)सहित और आभूषणो से अलंकृत होकर गर्जना करते हुए प्रकट हुए हैं॥२॥
४४४.इहेव शृण्व एषां कशा हस्तेषु यद्वदान् । नि यामञ्चित्रमृञ्जते ॥३॥
मरुद्गणो के हाथो मे स्थित चाबुको से होने वाली ध्वनियां हमे सुनाई देती हैं, जैसे वे यहीं हो रही हों। वे ध्वनियां संघर्ष के समय असामान्य शक्ति प्रदर्शित करती है॥३॥
४४५.प्र वः शर्धाय घृष्वये त्वेषद्युम्नाय शुष्मिणे । देवत्तं ब्रह्म गायत ॥४॥
(हे याजको! आप)बल बढ़ाने वाले, शत्रु नाशक, दीप्तिमान मरुद्गणों की सामर्थ्य और यश का मंत्रो से विशिष्ट गान करें॥४॥
४४६.प्र शंसा गोष्वघ्न्यं क्रीळं यच्छर्धो मारुतम् । जम्भे रसस्य वावृधे ॥५॥
(हे याजको! आप) किरणो द्वारा संचरित दिव्य रसो का पर्याप्त सेवन कर बलिष्ठ हुए उन मरुद्गणों के अविनाशी बल की प्रशंसा करें॥५॥
४४७.को वो वर्षिष्ठ आ नरो दिवश्च ग्मश्च धूतयः । यत्सीमन्तं न धूनुथ ॥६॥
द्युलोक और भूलोक को कम्पित करनेवाले हे मरुतो! आप मे वरिषठ कौन है? जो सदा वृक्ष के अग्रभाग को हिलाने के समान शत्रुओ को प्रकम्पित कर दे ॥६॥
४४८.नि वो यामाय मानुषो दध्र उग्राय मन्यवे । जिहीत पर्वतो गिरिः ॥७॥
हे मरुद्गणों! आपके प्रचण्ड संघर्षल आवेश से भयभीत मनुष्य सुदृढ़ सहारा ढुंढता है, क्योंकि आप बड़े पर्वतो और टीलो को भी कंपा देते हैं॥७॥
४४९.येषामज्मेषु पृथिवी जुजुर्वाँ इव विश्पतिः । भिया यामेषु रेजते ॥८॥
उन मरुद्गणों के आक्रमणकारी बलो से यह पृथ्वी जरा-जीर्ण नृपति की भांति भयभीत होकर प्रकम्पित हो उठती है॥८॥
४५०.स्थिरं हि जानमेषां वयो मातुर्निरेतवे । यत्सीमनु द्विता शवः ॥९॥
इन वीर मरुतो की मातृभूमि आकाश स्थिर है। ये मातृभूमि से पक्षी के वेग के समान निर्बाधित होकर चलते है। उनका बल दुगुना होकर व्याप्त होता है॥९॥
४५१.उदु त्ये सूनवो गिरः काष्ठा अज्मेष्वत्नत । वाश्रा अभिज्ञु यातवे ॥१०॥
शब्द नाद करने वाले मरुतो ने यज्ञार्थ जलो को निःसृत किया। प्रवाहित जल का पान करने के लिए रंभाति हुई गौएं घुटने तक पानी मे जाने के लिए बाध्य होती हैं॥१०॥
४५२.त्यं चिद्घा दीर्घं पृथुं मिहो नपातममृध्रम् । प्र च्यावयन्ति यामभिः ॥११॥
विशाल और व्यापक, न बिंध सकने वाले, जल वृष्टि न करने वाले मेघो को भी वीर मरुद्गण अपनी तेजगति से उड़ा ले जाते है॥११॥
४५३.मरुतो यद्ध वो बलं जनाँ अचुच्यवीतन । गिरीँरचुच्यवीतन ॥१२॥
हे मरुतो! आप अपने बल से लोगो को विचलित करते हैं, आप पर्वतो को भी विचलित करने मे समर्थ हैं॥१२॥
४५४.यद्ध यान्ति मरुतः सं ह ब्रुवतेऽध्वन्ना । शृणोति कश्चिदेषाम् ॥१३॥
जिस समय मरुद्गण गमन करते है, तब वे मध्य मार्ग मे ही परस्पर वार्ता करने लगते हैं। उनके शब्द को भला कौन नही सुन लेता है? (सभी सुन लेते है।)॥१३॥
४५५.प्र यात शीभमाशुभिः सन्ति कण्वेषु वो दुवः । तत्रो षु मादयाध्वै ॥१४॥
हे मरुतो! आप तीव्र वेग वाले वाहन से शीघ्र आएं, कण्ववंशी आपके सत्कार के लिए उपस्थित हैं। वहां आप उत्साह के साथ तृप्ति को प्राप्त हों॥१४॥
४५६.अस्ति हि ष्मा मदाय वः स्मसि ष्मा वयमेषाम् । विश्वं चिदायुर्जीवसे ॥१५॥
हे मरुतो! आपकी प्रसन्न्ता के लिए यह हवि-द्रव्य तैयार है। हम सम्पूर्ण आयु सुखद जीवन प्राप्त करने के लिए आपका स्मरण करते है॥१५॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त 38
[ऋषि - कण्व धौर। देवता - मरुद्गण , छन्द-गायत्री]
४५७.कद्ध नूनं कधप्रियः पिता पुत्रं न हस्तयोः । दधिध्वे वृक्तबर्हिषः ॥१॥
हे स्तुति प्रिय मरुतो! आप कुश के आसनो पर विराजमान हो। पुत्र को पिता द्वारा स्नेहपूर्वक गोद मे उठाने के समान, आप हमे कब धारण करेंगे ?॥१॥
४५८.क्व नूनं कद्वो अर्थं गन्ता दिवो न पृथिव्याः । क्व वो गावो न रण्यन्ति ॥२॥
हे मरुतो आप कहां है? किस उद्देश्य से आप द्युलोक मे गमन करते हैं ? पृथ्वी मे क्यों नही घूमते? आपकी गौएं आपके लिए नही रंभाती क्या ? (अर्थात आप पृथ्वी रूपी गौ के समीप ही रहें।)॥२॥)
४५९.क्व वः सुम्ना नव्यांसि मरुतः क्व सुविता । क्वो विश्वानि सौभगा ॥३॥
हे मरुद्गणो ! आपके नवीन संरक्षण साधन कहां है? आपके सुख-ऐश्वर्य के साधन कहां है? आपके सौभाग्यप्रद साधन कहां है? आप अपने समस्त वैभव के साथ इस यज्ञ मे आएं॥३॥
४६०.यद्यूयं पृश्निमातरो मर्तासः स्यातन । स्तोता वो अमृतः स्यात् ॥४॥
हे मातृभूमि की सेवा करने वाले आकाशपुत्र मरुतो! यद्यपि आप मरणशील हैं, फिर भी आपकी स्तुति करने वाला अमरता को प्राप्त करता है॥४॥
४६१.मा वो मृगो न यवसे जरिता भूदजोष्यः । पथा यमस्य गादुप ॥५॥
जैसे मृग, तृण को असेव्य नही समझता, उसी प्रकार आपकी स्तुति करने वाला आपके लिए अप्रिय न हो(आप उस पर कृपालु रहें), जिससे उसे यमलोक के मार्ग पर न जाना पड़े॥५॥
४६२.मो षु णः परापरा निरृतिर्दुर्हणा वधीत् । पदीष्ट तृष्णया सह ॥६॥
अति बलिष्ठ पापवृत्तियां हमारी दुर्दशा कर हमारा विनाश न करें, प्यास(अतृप्ति) से वे ही नष्ट हो जायें॥६॥
४६३.सत्यं त्वेषा अमवन्तो धन्वञ्चिदा रुद्रियासः । मिहं कृण्वन्त्यवाताम् ॥७॥
यह सत्य ही है कि कान्तिमान, बलिष्ठ रूद्रदेव के पुत्र वे मरुद्गण, मरु भूमि मे भी अवात स्थिति से वर्षा करते हैं।
४६४.वाश्रेव विद्युन्मिमाति वत्सं न माता सिषक्ति । यदेषां वृष्टिरसर्जि ॥८॥
जब वह मरुद्गण वर्षा का सृजन करते है तो विद्युत रंभाने वाली गाय की तरह शब्द करती है,(जिस प्रकार) गाय बछड़ो को पोषण देती है, उसी प्रकार वह विद्युत सिंचन करती है॥८॥
४६५.दिवा चित्तमः कृण्वन्ति पर्जन्येनोदवाहेन । यत्पृथिवीं व्युन्दन्ति ॥९॥
मरुद्गण जल प्रवाहक मेघो द्वारा दिन मे भी अंधेरा कर देते है, तब वे वर्षा द्वारा भूमि को आद्र करते है॥९॥
४६६.अध स्वनान्मरुतां विश्वमा सद्म पार्थिवम् । अरेजन्त प्र मानुषाः ॥१०॥
मरुतो की गर्जना से पृथ्वी के निम्न भाग मे अवस्थित सम्पूर्ण स्थान प्रकम्पित हो उठते है। उस कम्पन से समस्त मानव भी प्रभावित होते है॥१०॥
४६७.मरुतो वीळुपाणिभिश्चित्रा रोधस्वतीरनु । यातेमखिद्रयामभिः ॥११॥
हे मरुतो! (अश्वो को नियन्त्रित करने वाले) आप बलशाली बाहुओ से, अविच्छिन्न गति से शुभ्र नदियो की ओर गमन करें॥११॥
४६८.स्थिरा वः सन्तु नेमयो रथा अश्वास एषाम् । सुसंस्कृता अभीशवः ॥१२॥
हे मरुतो! आपके रथ बलिष्ठ घोड़ो, उत्तम धुरी और चंचल लगाम से भली प्रकार अलंकृत हों॥१२॥
४६९.अच्छा वदा तना गिरा जरायै ब्रह्मणस्पतिम् । अग्निं मित्रं न दर्शतम् ॥१३॥
हे याजको! आप दर्शनीय मित्र के समान ज्ञान के अधिपति अग्निदेव की, स्तुति युक्त वाणियों द्वारा प्रशंसा करें॥१३॥
४७०.मिमीहि श्लोकमास्ये पर्जन्य इव ततनः । गाय गायत्रमुक्थ्यम् ॥१४॥
हे याजको! आप अपने मुख से श्लोक रचना कर मेघ के समान इसे विस्तारित करें। गायत्री छ्न्द मे रचे हुये काव्य का गायन करें॥१४॥
४७१.वन्दस्व मारुतं गणं त्वेषं पनस्युमर्किणम् । अस्मे वृद्धा असन्निह ॥१५॥
हे ऋत्विजो! आप कान्तिमान, स्तुत्य , अर्चन योग्य मरुद्गणो का अभिवादन करें, यहां हमारे पास इनका वास रहे॥१५॥
४५७.कद्ध नूनं कधप्रियः पिता पुत्रं न हस्तयोः । दधिध्वे वृक्तबर्हिषः ॥१॥
हे स्तुति प्रिय मरुतो! आप कुश के आसनो पर विराजमान हो। पुत्र को पिता द्वारा स्नेहपूर्वक गोद मे उठाने के समान, आप हमे कब धारण करेंगे ?॥१॥
४५८.क्व नूनं कद्वो अर्थं गन्ता दिवो न पृथिव्याः । क्व वो गावो न रण्यन्ति ॥२॥
हे मरुतो आप कहां है? किस उद्देश्य से आप द्युलोक मे गमन करते हैं ? पृथ्वी मे क्यों नही घूमते? आपकी गौएं आपके लिए नही रंभाती क्या ? (अर्थात आप पृथ्वी रूपी गौ के समीप ही रहें।)॥२॥)
४५९.क्व वः सुम्ना नव्यांसि मरुतः क्व सुविता । क्वो विश्वानि सौभगा ॥३॥
हे मरुद्गणो ! आपके नवीन संरक्षण साधन कहां है? आपके सुख-ऐश्वर्य के साधन कहां है? आपके सौभाग्यप्रद साधन कहां है? आप अपने समस्त वैभव के साथ इस यज्ञ मे आएं॥३॥
४६०.यद्यूयं पृश्निमातरो मर्तासः स्यातन । स्तोता वो अमृतः स्यात् ॥४॥
हे मातृभूमि की सेवा करने वाले आकाशपुत्र मरुतो! यद्यपि आप मरणशील हैं, फिर भी आपकी स्तुति करने वाला अमरता को प्राप्त करता है॥४॥
४६१.मा वो मृगो न यवसे जरिता भूदजोष्यः । पथा यमस्य गादुप ॥५॥
जैसे मृग, तृण को असेव्य नही समझता, उसी प्रकार आपकी स्तुति करने वाला आपके लिए अप्रिय न हो(आप उस पर कृपालु रहें), जिससे उसे यमलोक के मार्ग पर न जाना पड़े॥५॥
४६२.मो षु णः परापरा निरृतिर्दुर्हणा वधीत् । पदीष्ट तृष्णया सह ॥६॥
अति बलिष्ठ पापवृत्तियां हमारी दुर्दशा कर हमारा विनाश न करें, प्यास(अतृप्ति) से वे ही नष्ट हो जायें॥६॥
४६३.सत्यं त्वेषा अमवन्तो धन्वञ्चिदा रुद्रियासः । मिहं कृण्वन्त्यवाताम् ॥७॥
यह सत्य ही है कि कान्तिमान, बलिष्ठ रूद्रदेव के पुत्र वे मरुद्गण, मरु भूमि मे भी अवात स्थिति से वर्षा करते हैं।
४६४.वाश्रेव विद्युन्मिमाति वत्सं न माता सिषक्ति । यदेषां वृष्टिरसर्जि ॥८॥
जब वह मरुद्गण वर्षा का सृजन करते है तो विद्युत रंभाने वाली गाय की तरह शब्द करती है,(जिस प्रकार) गाय बछड़ो को पोषण देती है, उसी प्रकार वह विद्युत सिंचन करती है॥८॥
४६५.दिवा चित्तमः कृण्वन्ति पर्जन्येनोदवाहेन । यत्पृथिवीं व्युन्दन्ति ॥९॥
मरुद्गण जल प्रवाहक मेघो द्वारा दिन मे भी अंधेरा कर देते है, तब वे वर्षा द्वारा भूमि को आद्र करते है॥९॥
४६६.अध स्वनान्मरुतां विश्वमा सद्म पार्थिवम् । अरेजन्त प्र मानुषाः ॥१०॥
मरुतो की गर्जना से पृथ्वी के निम्न भाग मे अवस्थित सम्पूर्ण स्थान प्रकम्पित हो उठते है। उस कम्पन से समस्त मानव भी प्रभावित होते है॥१०॥
४६७.मरुतो वीळुपाणिभिश्चित्रा रोधस्वतीरनु । यातेमखिद्रयामभिः ॥११॥
हे मरुतो! (अश्वो को नियन्त्रित करने वाले) आप बलशाली बाहुओ से, अविच्छिन्न गति से शुभ्र नदियो की ओर गमन करें॥११॥
४६८.स्थिरा वः सन्तु नेमयो रथा अश्वास एषाम् । सुसंस्कृता अभीशवः ॥१२॥
हे मरुतो! आपके रथ बलिष्ठ घोड़ो, उत्तम धुरी और चंचल लगाम से भली प्रकार अलंकृत हों॥१२॥
४६९.अच्छा वदा तना गिरा जरायै ब्रह्मणस्पतिम् । अग्निं मित्रं न दर्शतम् ॥१३॥
हे याजको! आप दर्शनीय मित्र के समान ज्ञान के अधिपति अग्निदेव की, स्तुति युक्त वाणियों द्वारा प्रशंसा करें॥१३॥
४७०.मिमीहि श्लोकमास्ये पर्जन्य इव ततनः । गाय गायत्रमुक्थ्यम् ॥१४॥
हे याजको! आप अपने मुख से श्लोक रचना कर मेघ के समान इसे विस्तारित करें। गायत्री छ्न्द मे रचे हुये काव्य का गायन करें॥१४॥
४७१.वन्दस्व मारुतं गणं त्वेषं पनस्युमर्किणम् । अस्मे वृद्धा असन्निह ॥१५॥
हे ऋत्विजो! आप कान्तिमान, स्तुत्य , अर्चन योग्य मरुद्गणो का अभिवादन करें, यहां हमारे पास इनका वास रहे॥१५॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त 39
[ऋषि - कण्व धौर । देवता- मरुद्गण । छन्द - बाहर्त प्रगाथ(विषमा बृहती, समासतो बृहती)]
४७२.प्र यदित्था परावतः शोचिर्न मानमस्यथ । कस्य क्रत्वा मरुतः कस्य वर्पसा कं याथ कं ह धूतयः ॥१॥
हे कंपाने वाले मरुतो! आप अपना बल दूरस्थ स्थान से विद्युत के समान यहां पर फेंकते हैं, तो आप (किसके यज्ञ की ओर) किसके पास जाते हैं? किस उद्देश्य से आप कहां जाना चाहते हैं? उस समय आपका लक्ष्य क्या होता है?॥१॥
४७३.स्थिरा वः सन्त्वायुधा पराणुदे वीळू उत प्रतिष्कभे । युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मर्त्यस्य मायिनः ॥२॥
आपके हथियार शत्रु को हटाने मे नियोजित हों। आप अपनी दृढ़ शक्ति से उनका प्रतिरोध करें। आपकी शक्ति प्रशंसनीय हो। आप छद्म वेषधारी मनुष्यो को आगे न बढ़ायें ॥२॥
४७४.परा ह यत्स्थिरं हथ नरो वर्तयथा गुरु । वि याथन वनिनः पृथिव्या व्याशाः पर्वतानाम् ॥३॥
हे मरुतो! आप स्थिर वृक्षो को गिराते, दृढ़ चट्टानो को प्रकम्पित करते, भूमि के वनो को जड़ विहीन करते हुए पर्वतो के पार निकल जाते हैं॥३॥
४७५.नहि वः शत्रुर्विविदे अधि द्यवि न भूम्यां रिशादसः । युष्माकमस्तु तविषी तना युजा रुद्रासो नू चिदाधृषे ॥४॥
हे शत्रुनाशक मरुतो! न द्युलोक मे और न पृथ्वी पर ही, आपके शत्रुओं का आस्तित्व है। हे रूद्र पुत्रो! शत्रुओ को क्षत-विक्षत करने के लिए आप सब मिलकर अपनी शक्ति विस्तृत करें॥४॥
४७६.प्र वेपयन्ति पर्वतान्वि विञ्चन्ति वनस्पतीन् । प्रो आरत मरुतो दुर्मदा इव देवासः सर्वया विशा ॥५॥
हे मरुतो! मदमत्त हुए लोगो के समान आप पर्वतो को प्रकम्पित करते है और पेड़ो को उखाड़ कर फेंकते है, अतः आप प्रजाओ के आगे आगे उन्नति करते हुए चलें॥५॥
४७७.उपो रथेषु पृषतीरयुग्ध्वं प्रष्टिर्वहति रोहितः । आ वो यामाय पृथिवी चिदश्रोदबीभयन्त मानुषाः ॥६॥
हे मरुतो! आपके रथ को चित्र-विचित्र चिह्नो युक्त(पशु आदि) गति देते हैं, उनमे लाल रंग वाला अश्व धुरी को खींचता है। तुम्हारी गति से उत्पन्न शब्द भूमि सुनती है, मनुष्यगण उस ध्वनि से भयभीत हो जातें हैं॥६॥
४७८.आ वो मक्षू तनाय कं रुद्रा अवो वृणीमहे । गन्ता नूनं नोऽवसा यथा पुरेत्था कण्वाय बिभ्युषे ॥७॥
हे रूद्रपुत्रो! अपनी संतानो की रक्षा के लिए हम आपकी स्तुति करते हैं। जैसे पूर्व समय मे आप भययुक्त कण्वो की रक्षा के निमित्त शीघ्र गये थे, उसी प्रकार आप हमारी रक्षा के निमित्त शीघ्र पधांरे॥७॥
४७९.युष्मेषितो मरुतो मर्त्येषित आ यो नो अभ्व ईषते । वि तं युयोत शवसा व्योजसा वि युष्माकाभिरूतिभिः ॥८॥
हे मरुतो! आपके द्वारा प्रेरित या अन्य किसी मनुष्य द्वारा प्रेरित शत्रु हम पर प्रभुत्व जमाने आयें, तो आप अपने बल से, अपने तेज से और रक्षण साधनो से उन्हे दूर हटा दें॥८॥
४८०.असामि हि प्रयज्यवः कण्वं दद प्रचेतसः । असामिभिर्मरुत आ न ऊतिभिर्गन्ता वृष्टिं न विद्युतः ॥९॥
हे विशिष्ट पूज्य,ज्ञाता मरुतो! कण्व को जैसे आपने सम्पूर्ण आश्रय दिया था, वैसे ही चमकने वाली बिजलियों के साथ वेग से आने वाली वृष्टि की तरह आप सम्पूर्न रक्षा साधनो को लेकर हमारे पास आयें॥९॥
४८१.असाम्योजो बिभृथा सुदानवोऽसामि धूतयः शवः । ऋषिद्विषे मरुतः परिमन्यव इषुं न सृजत द्विषम् ॥१०॥
हे उत्तम दानशील मरुतो! आप सम्पूर्ण पराक्रम और सम्पूर्ण बलो को धारण करते हैं। हे शत्रु को प्रकम्पित करने वाले मरुदगणो, ऋषियो से द्वेश करने वाले शत्रुओं को नष्ट करने वाले बाण के समान आप शत्रुघातक (शक्ति) का सृजन करें॥१०॥
४७२.प्र यदित्था परावतः शोचिर्न मानमस्यथ । कस्य क्रत्वा मरुतः कस्य वर्पसा कं याथ कं ह धूतयः ॥१॥
हे कंपाने वाले मरुतो! आप अपना बल दूरस्थ स्थान से विद्युत के समान यहां पर फेंकते हैं, तो आप (किसके यज्ञ की ओर) किसके पास जाते हैं? किस उद्देश्य से आप कहां जाना चाहते हैं? उस समय आपका लक्ष्य क्या होता है?॥१॥
४७३.स्थिरा वः सन्त्वायुधा पराणुदे वीळू उत प्रतिष्कभे । युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मर्त्यस्य मायिनः ॥२॥
आपके हथियार शत्रु को हटाने मे नियोजित हों। आप अपनी दृढ़ शक्ति से उनका प्रतिरोध करें। आपकी शक्ति प्रशंसनीय हो। आप छद्म वेषधारी मनुष्यो को आगे न बढ़ायें ॥२॥
४७४.परा ह यत्स्थिरं हथ नरो वर्तयथा गुरु । वि याथन वनिनः पृथिव्या व्याशाः पर्वतानाम् ॥३॥
हे मरुतो! आप स्थिर वृक्षो को गिराते, दृढ़ चट्टानो को प्रकम्पित करते, भूमि के वनो को जड़ विहीन करते हुए पर्वतो के पार निकल जाते हैं॥३॥
४७५.नहि वः शत्रुर्विविदे अधि द्यवि न भूम्यां रिशादसः । युष्माकमस्तु तविषी तना युजा रुद्रासो नू चिदाधृषे ॥४॥
हे शत्रुनाशक मरुतो! न द्युलोक मे और न पृथ्वी पर ही, आपके शत्रुओं का आस्तित्व है। हे रूद्र पुत्रो! शत्रुओ को क्षत-विक्षत करने के लिए आप सब मिलकर अपनी शक्ति विस्तृत करें॥४॥
४७६.प्र वेपयन्ति पर्वतान्वि विञ्चन्ति वनस्पतीन् । प्रो आरत मरुतो दुर्मदा इव देवासः सर्वया विशा ॥५॥
हे मरुतो! मदमत्त हुए लोगो के समान आप पर्वतो को प्रकम्पित करते है और पेड़ो को उखाड़ कर फेंकते है, अतः आप प्रजाओ के आगे आगे उन्नति करते हुए चलें॥५॥
४७७.उपो रथेषु पृषतीरयुग्ध्वं प्रष्टिर्वहति रोहितः । आ वो यामाय पृथिवी चिदश्रोदबीभयन्त मानुषाः ॥६॥
हे मरुतो! आपके रथ को चित्र-विचित्र चिह्नो युक्त(पशु आदि) गति देते हैं, उनमे लाल रंग वाला अश्व धुरी को खींचता है। तुम्हारी गति से उत्पन्न शब्द भूमि सुनती है, मनुष्यगण उस ध्वनि से भयभीत हो जातें हैं॥६॥
४७८.आ वो मक्षू तनाय कं रुद्रा अवो वृणीमहे । गन्ता नूनं नोऽवसा यथा पुरेत्था कण्वाय बिभ्युषे ॥७॥
हे रूद्रपुत्रो! अपनी संतानो की रक्षा के लिए हम आपकी स्तुति करते हैं। जैसे पूर्व समय मे आप भययुक्त कण्वो की रक्षा के निमित्त शीघ्र गये थे, उसी प्रकार आप हमारी रक्षा के निमित्त शीघ्र पधांरे॥७॥
४७९.युष्मेषितो मरुतो मर्त्येषित आ यो नो अभ्व ईषते । वि तं युयोत शवसा व्योजसा वि युष्माकाभिरूतिभिः ॥८॥
हे मरुतो! आपके द्वारा प्रेरित या अन्य किसी मनुष्य द्वारा प्रेरित शत्रु हम पर प्रभुत्व जमाने आयें, तो आप अपने बल से, अपने तेज से और रक्षण साधनो से उन्हे दूर हटा दें॥८॥
४८०.असामि हि प्रयज्यवः कण्वं दद प्रचेतसः । असामिभिर्मरुत आ न ऊतिभिर्गन्ता वृष्टिं न विद्युतः ॥९॥
हे विशिष्ट पूज्य,ज्ञाता मरुतो! कण्व को जैसे आपने सम्पूर्ण आश्रय दिया था, वैसे ही चमकने वाली बिजलियों के साथ वेग से आने वाली वृष्टि की तरह आप सम्पूर्न रक्षा साधनो को लेकर हमारे पास आयें॥९॥
४८१.असाम्योजो बिभृथा सुदानवोऽसामि धूतयः शवः । ऋषिद्विषे मरुतः परिमन्यव इषुं न सृजत द्विषम् ॥१०॥
हे उत्तम दानशील मरुतो! आप सम्पूर्ण पराक्रम और सम्पूर्ण बलो को धारण करते हैं। हे शत्रु को प्रकम्पित करने वाले मरुदगणो, ऋषियो से द्वेश करने वाले शत्रुओं को नष्ट करने वाले बाण के समान आप शत्रुघातक (शक्ति) का सृजन करें॥१०॥