भीष्म और पुलस्त्य संवाद - भगवान् विष्णु की महिमा
सूतजी कहते हैं - महर्षियों! जो सृष्टिरूप मूल प्रकृति के ज्ञाता तथा इस भावात्मक पदार्थों के द्रष्टा हैं, जिन्होंने इस लोक की रचना की है, जो लोकतत्त्व के ज्ञाता तथा योगवेत्ता हैं, जिन्होंने योग का आश्रय लेकर सम्पूर्ण चराचर जीवों की सृष्टि की है और जो समस्त भूतों तथा अखिल विश्व के स्वामी हैं, उन सच्चिदानंद परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। फिर ब्रह्मा, महादेव, इंद्र, अन्य लोकपाल तथा सूर्य देव को एकाग्रचित्त से नमस्कार करके ब्रह्मस्वरूप वेदव्यास जी को प्रणाम करता हूँ। उन्हीं से इस पुराण-विद्या को प्राप्त करके मैं आपके समक्ष प्रकाशित करता हूँ। जो नित्य, सदसत्स्वरूप, अव्यक्त एवं सबका कारण है, वह ब्रह्म ही महत्तत्त्व से लेकर विशेष पर्यन्त विशाल ब्रह्माण्ड की सृष्टि करता है। यह विद्वानों का निश्चित सिंद्धांत है। सबसे पहले हिरण्यमय (तेजोमय) अंड में ब्रह्माजी का प्रादुर्भाव हुआ। वह अंड सब ओर जल से घिरा है। जल के बाहर तेज का घेरा और तेज के बाहर वायु का आवरण है। वायु आकाश से और आकाश भूतादि(तामस अहंकार) से घिरा है। अहंकार को महत्तत्त्व अव्यक्त - मूल प्रकृति से घिरा है। उक्त अण्ड को ही सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति का आश्रय बताया गया है। इसके सिवा, इस पुराण में नदियों और पर्वतों की उत्पत्ति का बारम्बार वर्णन आया है। मन्वन्तरों और कल्पों का भी संक्षेप में वर्णन है। पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने महात्मा पुलस्त्य को इस पुराण का उपदेश दिया था। फिर पुलस्त्य ने इसे गंगाद्वार में भीष्मजी को सुनाया था। इस पुराण का पठन, श्रवण तथा विशेषतः स्मरण धन, यश और आयु को बढ़ाने वाला है। जो द्विजों अंगों और उपनिषदों सहित चारों वेदों का ज्ञान रखता है, उसकी अपेक्षा वह अधिक विद्वान है जो केवल इस पुराण का ज्ञाता है। इतिहास और पुराणों के सहारे ही वेद की व्याख्या करनी चाहिए; क्योंकि वेड अल्पज्ञ विद्वान से यह सोचकर डरता रहता है कि कहीं यह मुझ पर प्रहार न कर बैठे- अर्थ का अनर्थ न कर बैठे। (तात्पर्य यह कि पुराणों का अध्ययन किये बिना वेदार्थ का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता।
यह सुनकर ऋषियों ने सूतजी से पूछा - 'मुने! भीष्म जी के साथ पुलस्त्य ऋषि का समागम कैसे हुआ? पुलस्त्यमुनि तो ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं। मनुष्यों को उनका दर्शन दुर्लभ है। महाभाग! भीष्म जी को जिस स्थान पर और जिस प्रकार पुलस्त्यजी का दर्शन हुआ, वह सब हमें बतलाईये।
सूतजी ने कहा - महात्माओ! साधुओं का हित करने वाली विश्वपावनी महाभागा गंगाजी जहाँ पर्वत मालाओं को भेदकर बड़े वेग से बाहर निकली है, वह महान तीर्थ गंगाद्वार के नाम से प्रसिद्द है। पितृभक्त भीष्म जी वहीँ निवास करते थे। वे ज्ञानोपदेश सुनने की इच्छा से बहुत दिनों से महा पुरुषों के नियम का पालन करते थे। स्वाध्याय और तर्पण के द्वारा देवताओं और पितरों की तृप्ति तथा अपने शरीर का शोषण करते हुए भीष्मजी के ऊपर भगवान् ब्रह्मा बहुत प्रसन्न हुए। वे अपने पुत्र मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजी से इस प्रकार बोले -'बेटा! तुम कुरुवंश का भार वहाँ करने वाले देवव्रत के, जिन्हे भीष्म भी कहते हैं, समीप जाओ। उन्हें तपस्या से निवृत करो और इसका कारण भी बतलाओ। महाभाग भीष्म अपनी पितृभक्ति के कारण भगवान् का ध्यान करते हुए गंगाद्वार में निवास करते हैं। उनके मन में जो-जो कामना हो, उसे शीघ्र पूर्ण करो; विलम्ब नहीं होना चाहिए।'
पितामह का वचन सुनकर मुनिवर पुलस्त्यजी गंगाद्वार में आये और भीष्म जी से इस प्रकार बोले - 'वीर! तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे मन में जो इच्छा हो, उसके अनुसार कोई वर मांगो। तुम्हारी तपस्या से साक्षात भगवान् ब्रह्माजी प्रसन्न हुए हैं। उन्होंने ही मुझे यहाँ भेजा है। मैं तुम्हें मनोवांछित वरदान दूंगा। पुलस्त्यजी का वचन मन और कानों को सुख देने वाला था। उसे सुनकर भीष्म ने आँखें खोल दी। ओरदेखा पुलस्त्यजी सामने खड़े है। उन्हें देखते ही भीष्म जी उनके चरणों पर गिर पड़े। उन्होंने अपने सम्पूर्णशरीर से पृथ्वी का स्पर्श करते हुए उन मुनिश्रेष्ठ को साष्टांग प्रणाम किया और कहा - भगवन! आज मेरा जन्म सफल हो गया। यह दिन बहुत ही सुन्दर है; क्योंकि आज आपके विश्ववंद्य चरणों का मुझे दर्शन प्राप्त हुआ है। आज आपने दर्शन दिया और विशेषतः मुझे वरदान देने के लिए गंगाजी के तट पर पदार्पण किया; इतने से ही मुझे अपनी तपस्या का सारा फल मिल गया। यह कुश की चटाई है, इसे मैंने अपने हाथों से बनाया है और (जहाँ तक हो सका है) इस बात का भी प्रयत्न किया है कि यह बैठने वाले के लिए आराम देने वाली हो; अतः आप इस पर विराजमान हों। यह पलाश के दोने में अर्घ्य प्रस्तुत किया गया है। इसमें दूब, चावल, फूल, कुश, सरसों, दहीं, शहद, जौं और दूध भी मिले हुए हैं। प्राचीन कल के ऋषियों ने यह अष्टांग अर्घ्य ही अतिथि को अर्पण करने योग्य बतलाया है।
अमित तेजस्वी भीष्म के ये वचन सुनकर ब्रह्माजी के पुत्र पुलस्त्यमुनी कुशासन पर बैठ गए। उन्होंने बड़ी प्रसन्न्ता के साथ पाद्य और अर्घ्य स्वीकार किया। भीष्म जी के शिष्टाचार से उन्हें बड़ा संतोष हुआ। वे प्रसन्न होकर बोले -'महाभाग! तुम सत्यवादी, दानशील और सत्यप्रतिज्ञ राजा हो। तुम्हारे अंदर लज्जा, मैत्री और क्षमा आदि सद्गुण शोभा पा रहे हैं। तुम अपने पराक्रम से शत्रुओं को दमन करने में समर्थ हो। साथ ही धर्मज्ञ, कृतज्ञ, दयालु, मधुरभाषी, सम्मान के योग्य पुरुषों को सम्मान देने वाले, विद्वान, ब्राह्मणभक्त तथा साधुओं पर स्नेह रखने वाले हो। वत्स! तुम प्रणामपूर्वक मेरी शरण आये हो; अतः मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जो चाहो, पूछो; मैं तुम्हारे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दूंगा।'
भीषण ने कहा - ' भगवन! पूर्वकाल में भगवान् ब्रह्माजी ने किस स्थान पर देवताओं आदि की सृष्टि की थी, यह मुझे बतलाईये। उन महात्मा ने कैसे ऋषियों तथा देवताओं को उत्पन्न किया? कैसे पृथ्वी बनायीं? किस तरह आकाश की रचना की और किस प्रकार इन समुद्रों को प्रकट किया? भयंकर पर्वत, वन और नगर कैसे बनाये? मुनियों, प्रजापतियों, श्रेष्ठ सप्तर्षियों और भिन्न-भिन्न वर्णों को, वायु को, गन्धर्वों, यक्षों, राक्षसों, तीर्थों, नदियों, सूर्यादि ग्रहों तथा तारों को भगवान् ब्रह्मा ने किस प्रकार उत्पन्न किया? इन सब बातों का वर्णन कीजिये।
पुलस्त्यजी ने कहा - पुरुषश्रेष्ठ! भगवान् ब्रह्मा साक्षात परमात्मा है। वे परसे भी पर तथा अत्यंत श्रेष्ठ हैं। उनमें रूप और वर्ण आदि का अभाव है। वे यद्यपि सर्वत्र व्याप्त है, तथापि ब्रह्मरूप से इस विश्व की उत्पत्ति करने के कारण विद्वानों के द्वारा ब्रह्मा कहलाते हैं। उन्होंने पूर्वकाल में जिस प्रकार सृष्टि की रचना की, वह सब मैं बता रहा हूँ। सुनो, सृष्टि के प्रारंभकाल में जब जगत के स्वामी ब्रह्माजी कमल के आसान उठे, तब सबसे पहले उन्होंने महत्तत्त्व को प्रकट किया; फिर महत्तत्त्व से वैकारिक (सात्विक), तैजस (राजस) तथा भूतादिरूप तामस- तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ, जो कर्मेन्द्रियों सहित पाँचों ज्ञानेन्द्रिय तथा पञ्च भूतों का कारण है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश - ये पांच भूत हैं। इनमें से एक-एक के स्वरूप का क्रमशः वर्णन करता हूँ। (भूतादि नमक तामस अहंकार ने विकृत होकर शब्द-तन्नमात्रा को उत्पन्न किया, उससे शब्द गुण वाले आकाश का प्रादुर्भाव हुआ।) भूतादि (तामस अहंकार) ने शब्द-तन्मात्रा रूप आकाश को सब ओर से आच्छादित किया। (तब शब्द तन्मात्रा रूप आकाश ने विकृत होकर स्पर्श-तन्मात्रा की रचना की।) उससे अत्यंत बलवान वायु का प्राकट्य हुआ, जिसका गुण स्पर्श माना गया है। तदनन्तर आकाश से आच्छादित होने पर वायु-तत्त्व में विकार आया और उसने रूप-तन्मात्रा की सृष्टि की। वह वायु से अग्नि के रूप में प्रकट हुयी। रूप उसका गुण कहलाता है। तत्पश्चात स्पर्श-तन्मात्रा वाले वायु ने रूप-तन्मात्रा वाले तेज को सब और से आवृत किया। इससे अग्नि-तत्त्व ने विकार को प्राप्त होकर रस-तन्मात्रा को उत्पन्न किया। उस से जल की उत्पत्ति हुयी, जिसका गुण रस माना गया है। फिर रूप-तन्मात्रा वाले तेज ने रस-तन्मात्रा रूप जल तत्त्व को सब और से आच्छादित किया। इससे विकृत होकर जल तत्त्व ने गंध-तन्मात्रा की सृष्टि की, जिससे यह पृथ्वी उत्पन्न हुयी। पृथ्वी का गुण गंध माना गया। इन्द्रियां तैजस कहलाती है। (क्योंकि वे राजस अहंकार से प्रकट हुयी हैं।) इंद्रियों के अधिष्ठाता दस देवता वैकारिक कहे गए हैं। (क्योंकि उनकी उत्पत्ति सात्विक अहंकार से हुयी है) इस प्रकार इंद्रियों के अधिष्ठाता दस देवता और ग्यारहवां मन - ये वैकारिक माने गए हैं। त्वचा, चक्षु, नासिका, जिह्वा और श्रोत्र - ये पांच इन्द्रियां शब्दादि विषयों का अनुभव कराने के साधन है। अतः इन पांचों को बुद्धियुक्त अर्थात ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं। गुदा, उपस्थ, हाथ, पैर और वाक् - ये क्रमशः मलत्याग, मैथुनजनित सुख, शिल्प-निर्माण (हस्तकौशल), गमन और शब्दोच्चारण - इन कर्मों में सहायक हैं। इसलिए इन्हें कर्मेन्द्रिय माना गया है।
वीर! आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी- ये क्रमशः शब्दादि उत्तरोत्तर गुणों से युक्त हैं अर्थात आकास का गुण शब्द; वायु का गुण शब्द और स्पर्श; तेज का गुण शब्द, स्पर्श और रूप, जल के शब्द, स्पर्श, रूप और रस - ये सभी गुण है। उक्त पांचों भूत शांत, घोर और मूढ़ है। अर्थात सुख, दोख और मोह से युक्त हैं। अतः ये विशेष कहलाते हैं। ये पांचों भूत अलग-अलग रहने पर भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्तियों से संपन्न है। अतः परस्पर संगठित हुए बिना - पूर्णतया मिले बिना ये प्रजा की सृष्टि करने में समर्थ न हो सके। इसलिए (परम पुरुष परमात्मा ने संकल्प के द्वारा इनमे प्रवेश किया। फिर तो) महत्तत्त्व स लेकर विशेष पर्यन्त सभी तत्त्व पुरुष द्वारा अधिष्ठित होने के कारण पुन रूप से एकत्व को प्राप्त हुए। इस प्रकार परस्पर मिलकर तथा एक दूसरे का आश्रय ले उन्होंने अण्ड की उत्पत्ति की। भीष्म जी! उस अण्ड में ही पर्वत और द्वीप आदि के सहित समुद्र, ग्रहों और तारों सहित सम्पूर्ण लोक तथा देवता, असुर और मनुष्यों सहित समस्त प्राणी उत्पन्न हुए है। वह अण्ड पूर्व-पूर्व की अपेक्षा दस गुने अधिक जल, अग्नि, वायु, आकाश और भूतादि अर्थात तामस अहंकार से आवृत है। भूतादि महत्तत्त्व से घिरा है। तथा इन सबके सहित महत्तत्त्व भी अव्यक्त (प्रधान या मूल प्रकृति) के द्वारा आवृत है।
भगवान् स्वयं ही ब्रह्मा होकर संसार की सृष्टि में प्रवृत्त होते हैं तथा जब तक कल्प की स्थिति बनी रहती है, तब तक वे ही युग-युग में अवतार धारण करके समूची सृष्टि की रक्षा करते हैं। वे विष्णु सत्त्वगुण धारण किये रहते हैं; उनके प्रक्रम की कोई सीमा नहीं है। राजेन्द्र! जब कल्प का अंत होता है, तब वे ही अपना तमःप्रधान रौद्र रूप प्रकट करते हैं और अत्यंत भयानक आकार धारण करके सम्पूर्ण प्राणियों का संहार करते हैं। इस प्रकार सब भूतों का नाश करके संसार को एकार्णव के जल में निमग्न कर वे सर्वरूपधारी भगवान् स्वयं शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं। फिर जागने पर ब्रह्मा का रूप धारण करके वे नये सिरे से संसार की सृष्टि करने लगते हैं। इस तरह एक ही भगवान् जनार्दन सृष्टि, पालन और संहार करने के कारण ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव नाम धारण करते हैं। वे प्रभु स्रष्टा होकर स्वयं अपनी ही सृष्टि करते हैं, पालक होकर पालनीय रूप से अपना ही पालन करते हैं और संहारकारी होकर अपना ही संहार करते हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश - सब वे ही हैं; क्योंकि अविनाशी विष्णु ही सब भूतों के ईश्वर और विश्वरूप हैं। इसलिए प्राणियों में स्थित सर्ग आदि भी उन्हीं के सहायक है।