यजुर्वेद - प्रथम अध्याय
हे यज्ञ साधनों! अन्न की प्राप्ति के लिए सविता देव आपको आगे बढ़ाये। सृजन कर्त्ता परमात्मा आपको तेजस्वी बनने के लिए प्रेरित करें। आप सभी प्राण स्वरूप हों। सृजन कर्त्ता परमेश्वेर श्रेष्ठ कर्म करने के लिए आपको आगे बढ़ाएं। आपकी शक्तियां विनाशक न हों, अपितु उन्नतिशील हों। इंद्र (देव-प्रवृत्तियों) के लिए अपने उत्पादन का एक हिस्सा प्रदान करो। सुसन्तति युक्त एवं आरोग्य-संपन्न बनकर क्षय आदि रोगों से छुटकारा पाओ। चोरी करने वाले आपके निर्धारक न बने। दुष्ट पुरुष के संरक्षण में न रहो। मातृभूमि के रक्षक की छत्र-छाया में स्थिर बनकर निवास करो। सज्जनों की संख्या में वृद्धि करो और याजकों के पशु-धन की रक्षा करो। (1)
हे यज्ञ साधनों! आप वस्तुओं को पवित्र करने के माध्यम हो, आप द्युलोक और पृथ्वी हो। आप ही प्राणों की उष्णता हो, सबके धारक हो। महान शक्तियों को धारण कर प्रगतिशील बनो, इन्हें बिखरने मत दो। आप से संबंधित यज्ञ-पति भी कुटिल न बने। (2)
आप सैंकड़ों-सहस्त्रों धाराओं वाले, पवित्र करने वाले साधन हो। सबको पवित्र करने वाले सवितादेव, अपनी सैकड़ों धाराओं से तुम्हें पवित्र बनायें। हे मनुष्य! तुम और किस की पूर्ति चाहते हो? अर्थात किस कामधेनु को दुहना चाहते हो? (3)
हे मनुष्य! पूर्ण आयुष्य, कर्तृत्व शक्ति एवं धारक शक्ति आपके पास है। इनसे प्राप्त पोषण-क्षमताओं में से हम इंद्र के हिस्से में सोम को मिलाकर उसे स्थिर करते हैं। पोषणकर्ता इन हव्य पदार्थों को सुरक्षित रखें। (4)
हे व्रतों के पालनकर्त्ता, तेजस्वी अग्निदेव! हम व्रतशील बनने में समर्थ हों। हमारा, असत्य को त्यागकर सत्यमार्ग पर चलने का व्रत पूरा हो। (5)
हे यज्ञ साधनों! तुम्हें किसने नियुक्त किया है? किसलिए नियुक्त किया है? उसने तुम दोनों को कर्म करने के लिए नियुक्त किया है, दिव्या स्थान में संव्याप्त होने के लिए नियुक्त किया है। (6)
यज्ञ ऊर्जा के प्रभाव से, संबंधित उपकरणों में सन्निहित राक्षस एवं शत्रुगण जल-भुन चुके हैं। सताने वाले झुलस कर जल चुके हैं। अतः अन्तरिक्ष में वे यज्ञीय साधन, बिना किसी रुकावट के प्रवेश करते हैं। (7)
आप अपनी विध्वंसकारी शक्ति से दुष्टों एवं हिंसकों का विनाश करें। जो अनेक लोगों को कष्ट पहुंचाता है, उस हत्यारे को नष्ट करें। जिस दुरात्मा को सभी नष्ट करना चाहते हैं, उसे नष्ट करें। आप दैवी शक्तियों के वाहक, बलवर्द्धक, पूर्णता तक पहुँचाने वाले, सेवन-योग्य तथा देवगणों को आमंत्रित करने वाले हैं। (8)
आप देव शक्तियों को धारण करने के दृढ और सुयोग्य पात्र हैं। आप और आपके यज्ञ संचालक कुटिल न बनें। पोषक विष्णुदेव ही आप पर आरूढ़ रहें। विशाल वायुमंडल में विचरण करते हुए वायु-सेवन करें। राक्षसी वृत्तियाँ दूर करने के बाद पांचों (अंगुलियाँ अथवा पञ्चविध शक्तियां-कर्मशक्ति, ज्ञानशक्ति, मनःशक्ति, बुद्धिशक्ति और आत्मशक्ति) ईश्वरीय प्रयोजनों में लगें। (9)
सृजनकर्त्ता परमात्मा द्वारा रची गयी सृष्टि में, (मानो) अश्विनी कुमारों कि बाहुओं तथा पुषादेव के हाथों से तुझे ग्रहण करते हैं। अग्नि को जो प्रिय लगे, हम वही स्वीकार करते हैं। अग्नि तथा सोम के लिए प्रिय पदार्थ ही ग्रहण करते हैं।(10)
आपको अनुदारता के लिए नहीं, उन्नति के लिए निर्मित किया है। हमें आत्मा में विद्यमान ज्योति दिखाई दे। इस पृथ्वी पर सज्जनता का बाहुल्य हो। समस्त भूमंडल में बिना किसी बाधा के विचरण कर सकें। हे अदिति पुत्र अग्निदेव! पृथ्वी की नाभि में स्थापित इस हविष्यान्न की आप रक्षा करें। (11)
यज्ञार्थ प्रयुक्त आप दोनों को पवित्र कर्त्ता वायु एवं सूर्य-रश्मियों से दोषरहित तथा पवित्र किया जाता है। हे दिव्य जल-समूह! आप अग्रगामी एवं पवित्रता प्रदान करने वालों में श्रेष्ठ हैं। यज्ञकर्त्ता को आगे बढ़ाएं और भली प्रकार यज्ञ को सँभालने वाले याज्ञिक को, देव शक्तियों से युक्त करें। (12)
हे जल! इन्द्रदेव ने वृत्र को नष्ट करते समय आपकी मदद ली थी और आपने सहयोग दिया था। अग्नि और सोम के प्रिय आपको, हम शुद्ध करते हैं। आप शुद्ध हों। अशुद्धता के कारण आप ग्राह्य नहीं है, अतः यज्ञीय कर्म तथा देवों की पूजा के लिए हम आपको शुद्ध करते हैं। (13)
इस सुखकारक आसन से राक्षस एवं अनुदार वृत्ति वाले हटाये गए हैं। यह पृथ्वी का आवरण हैं। यह पृथ्वी द्वारा स्वीकृत हो। आप वनस्पतियों से निर्मित नींव के पत्थर की तरह दृढ हो। पृथ्वी का आवरण आपको प्राप्त हो। (14)
(हविष्यान्न के प्रति कथन) आपका वाणी के साथ विसर्जित होने वाला शरीर अग्नि का बाह्य आवरण है। सुदृढ़ पत्थर के समान वनस्पतियों से निर्मित, देवी शक्तियों कि कीर्ति बढ़ने के उद्देश्य से हम आपको ग्रहण करते हैं। अतः देव प्रयोजन के लिए इस हविष्यान्न को उत्तम ढंग से पवित्र बनाकर हमें प्रदान करें। हे हविष्यान्न को तैयार करने वाले (मूसल) आप पधारें। (15)
हे शम्ये! आप कुक्कुट (सदृश असुरों को खोजकर मारने वाले) और (देवताओं के प्रति मधुर वाणी बोलने वाले होने से) मधुजिह्व हैं। आप अन्न एवं बल प्रदायक ध्वनि करें। आपके सहयोग से हम संघात में पशुओं पर विजय प्राप्त करें। (हे शूर्प और हविष्यान्न!) आप वर्ष से (प्रतिवर्ष) बढ़ने वाले हैं। (शूर्प जिस सरकंडे की सींक से बनता है, वह तथा हविष्यान्न रूप वनस्पतियाँ वर्ष से बढती हैं।) वर्ष को बढ़ने वाला (यज्ञ) आप को स्वीकारें। राक्षसी एवं अनुदार तत्त्व हटा दिए गए हैं- नष्ट हो गए हैं, अब वायु आपको शुद्ध करे और सविता देवता (जिसमें से गिर न सके- ऐसे) स्वर्णिम हाथों से आपको धारण करें। (16)
हे उपवेष! आप दृढ हैं। कच्चे पदार्थों को पकाने वाली(लौकिक) अग्नि और मांस जलने वाली (चिताग्नि) का निषेध करें और देवपूजन योग्य गार्हपत्य अग्नि को धारण करें। हे यज्ञाग्नि! आप पृथ्वी को दृढ करके कपल में स्थिर रहें। ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं सजातियों का हित करने वाले आपको, हम शत्रु के विनास के लिए धारण करते हैं। (17)
ज्ञानीजनों, शौर्यवानों तथा मानव जाति की उन्नति में सहयोगी जनों का हित करने वाले हे अग्निदेव! आप ज्ञान को धारण करने वाले हैं। द्युलोक तथा अन्तरिक्ष को दृढ करके बलशाली करें। ब्रह्मण, क्षत्रिय तथा सजातियों को आप चेतना देने वाले हैं। अतः आपको अपने निकट स्थापित करते हैं। भृगु और अंगिरस के ताप से तेजस्वी बनकर हमें ऊर्घ्वगामी चेतना प्रदान करें। (18)
इस सुखकारक आधार मृगचर्म से राक्षस एवं अनुदार वृति वाले हटाये गए हैं। यह पृथ्वी का आवरण है। यह पृथ्वी द्वारा स्वीकृत हो। आप पर्वत से उत्पन्न हुई कर्मशक्ति हैं। पृथ्वी के आवरण अपने आधार से परिचित रहें। जिस तरह अन्तरिक्ष ने द्युलोक को धारण किया है, उसी प्रकार शिलाखंड को धारण करने वाली आप उसे जाने। आप उस पर्वत पुत्री को कर्म शक्ति देने वाली हैं। (19)
हे हविष्यान्न! आप देवगणों को तुष्ट करें। प्राण, उदान, व्यान, आदि प्राणों के संवर्धन एवं पात्रता से आपको धारण करते हैं। आप पृथ्वी के 'पय' हैं। सविता देव आपको छिद्ररहित स्वर्णमय हाथों से धारण करें। (20)
सविता द्वारा उत्पन्न प्रकाश में अश्विनी देव कि बाहुओं एवं पोषणकर्त्ता देव शक्तियों के हाथों से आपको विस्तार दिया जाता है। ओषधियों को जल-प्राप्त हो, वे रस से पुष्ट हों। गुण-सम्पन्न ओषधियाँ प्रवाहमान जलों से मिलें। मधुरता युक्त तत्त्व परस्पर मिल जाएँ। (21)
याजकों के उत्पादक क्षमता और पूर्णायुष्य की वृद्धि के लिए तुम्हें संयुक्त करते हैं। यह अग्नि प्रयोग के लिए, अग्नि-सोम के लिए है। (हे पुरोडाश!) आप विस्तार-क्षमता से युक्त हों, विस्तृत बने, जिससे यग्य-कर्ताओं के यश का विस्तार हो। अग्निदेव आपको क्षति न पहुंचाएं, सवितादेव आपको देवलोक की अग्नि से परिपक्व करें। (22)
भयभीत मत होवो, पीछे मत हटो। तीन, दो अथवा एक किसी के लिए भी किया गया यज्ञ कर्म क्लेश रहित होता है। यज्ञकर्त्ताओं की प्रज्ञा क्लेश रहित हो। (23)
(हे सफ्य!) सृजन करने वाले परमात्मा की सृष्टि में अश्विनीदेवों की बाहुओं तथा पूषादेव के हाथों से; अर्थात देवों को तृप्त करने वाले यज्ञ कर्म के निमित्त हम आपको धारण करते हैं। आप इन्द्रदेव के दाहिने हाथ हैं। हजारों विकारों को जला देने वाले, अत्यधिक प्रकाशमान, तीक्ष्णयुक्त अग्नि को प्रदीप्त करने वाले वायु के समान आप की क्षमता है। आप यज्ञ में बाधा पहुँचाने वालों को नष्ट करने में समर्थ हैं। (24)
हे पृथ्वी। आप पर देवों के लिए हवन किया जा रहा है। (भूमि के उपचार की प्रक्रिया में) आप पर उगने वाली ओषधियों के मूल को हमारे द्वारा क्षति न पहुंचे। हे मृत्तिके! आप गायों के निवास स्थान में जाएँ। द्युलोक आप पर यथेष्ट वर्षा करें। हे सृजनकर्त्ता सविता देव! जो दुष्ट, हम सभी को कष्ट पहुंचाते हैं, जिससे सभी द्वेष करते हैं, उसे विशाल पृथ्वी में अपने सैकड़ों बन्धनों से बांध दें; उसे कभी मुक्त न करें। (25)
हमने दुष्ट अररु को यहाँ से निष्कासित कर दिया है। हे विस्थापित मिट्टी! तुम गायों के निवास स्थान पर जाओ। द्युलोक आप पर वर्षा करें। हे सृजनकर्त्ता देव! आप द्वेष करने वालों को सैकड़ों फंडों से बांध दें; ताकि वे कभी छूट न पायें। (26)
हे यज्ञ वेदिके! हम गायत्री छंद, त्रिष्टुप छंद एवं जगती छंद वाले मन्त्रों से आपको प्राप्त करते हैं। आप कल्याणकारिणी, आनंददायिनी, पोषक-खाद्य एवं पेय से युक्त, बैठने के लिए श्रेष्ठ स्थान देने वाली और सुन्दर भूभाग है। (27)
हे विष्णो! वीर पुरुष क्रूर युद्धों के लिए अपना सर्वस्व होमे, इसके पहले ही विवेकवान लोग उन को यज्ञ के लिए प्रयुक्त करते हैं; मानो वे स्वधा शक्तियों के माध्यम से भूमि को चंद्रमा कि और प्रेरित करते हैं। हे विज्ञानवेत्ता साधको! पवित्र करने वाले यज्ञकर्त्ताओं को समीप रखो। तुम द्वेषकर्त्ताओं के विनाशक हो। (28)
राक्षसी एवं अनुदार वृत्ति वाले जलकर नष्ट हो गए हैं; अतः हम व्यापक क्षेत्र में यज्ञार्थ में समर्थ हों। तुम्हें अन्न-बल प्राप्ति के लिए पवित्र करते हैं। (29)
तुम पृथ्वी के रस हो। तुम अग्नि की जिह्वा हो। हमारे प्रत्येक यज्ञ में तथा घर-घर में देवों का आवाहन करने वाले बनो। तुम सर्वव्यापी परमात्मा के निवास स्थल हो। हम अपलक दृष्टि से अन्न और बल कि प्राप्ति के लिए तुम्हें देखते है। (30)
हम याजक सविता देव की प्रेरणा से, तेजस्वी सूर्य रश्मियों के माध्यम से, तुम्हें शुद्ध करते हैं। तुम तेजरूप हो, प्रकाश रूप हो, अमृत रूप हो, दिव्य आवास हो तथा किसी दबाव में न रहने वाले देवताओं के प्रिय, यज्ञ के साधन रूप हो। (31)