ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४
[ऋषि - मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता-इन्द्र ।छन्द - गायत्री]
३१. सुरूपकृलुमूतये सुदुघामिव गोदुहे। जुहूमसि द्यविद्यवि ॥१॥
(गो दोहन करने वाले के द्वारा) प्रतिदिन मधुर दूध प्रदान करने वाली गाय को जिस प्रकार बुलाया जाता है, उसी प्रकार हम अपने संरक्षण के लिये सौन्दर्यपूर्ण यज्ञकर्म सम्पन्न करने वाले इन्द्रदेव का आवाहन करते है ॥१॥
३२.उप न: सवना गहि सोमस्य सोमपा: पिब। गोदा इन्द्रेवतो मद: ॥२॥
सोमरस का पान करने वाले हे इन्द्रदेव! आप सोम ग्रहण करने हेतु हमारे सवन यज्ञो मे पधार कर,सोमरस पीने के बाद प्रसन्न होकर याजको को यश,वैभव और् गौंए प्रदान करें॥२॥
३३. अथ ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम्। मा नो अति ख्य आ गहि॥३॥
सोमपान कर लेने के अनन्तर हे इंद्रदेव ! हम आपके अत्यन्त समीपवर्त्ती श्रेष्ठ प्रज्ञावान पुरूषो की उपस्थिति मे रहकर आपके विषय मे अधिक ज्ञान प्राप्त करें। आप भी हमारे अतिरिक्त अन्य किसी के समक्ष अपना स्वरूप प्रकट् न करे (अर्थात् अपने विषय मे न बताएं)॥३॥
३४.परेहि विग्नमस्तृतमिन्द्रं पृच्छा विपश्चितम् । यस्ते सखिभ्य् आ वरम्॥४॥
हे ज्ञानवानो! आप उन विशिष्ट बुद्धि वाले, अपराजेय इन्द्रदेव के पास जाकर मित्रो बन्धुओ के लिये धन ऐश्वर्य के निमित्त् प्रार्थना करें॥४॥
३५। उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत। दधाना इन्द्र इद्दुव:॥५॥
इन्द्रदेव की उपासना करने वाले उपासक उन(इन्द्रदेव) के निन्दको को यहां से अन्यत्र निकल जाने हो कहें; ताकि वे यहां से दूर हो जायें ॥५॥
३६. उत न: सुभगाँ अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टय:। स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि॥६॥
हे इन्द्रदेव ! हम आपके अनुग्रह से समस्त वैभव प्राप्त करें। जिससे देखनेवाले शभी शत्रु और् मित्र हमे सौभाग्यशाली समझे॥६॥
३७ एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नृमादनम्। पतयन्मन्दयत् सखम् ॥७॥
(हे याजको !) यज्ञ को श्रीसमपन्न बनाने वाले , प्रसन्न्ता प्रदान करने वाले, मित्रो को आनन्द देने वाले इस सोमरस को शीघ्रगामी इन्द्रदेव के लिये भरें (अर्पित करें) ॥७॥
३८. अस्य पीत्वा शतक्रतो घनो वृत्राणामभव:। प्रावो वाजेषु वाजिनम्
॥८॥
हे सैकड़ो यज्ञ सम्पन्न करने वाले इन्द्रदेव! इस सोमरस को पीकर आप वृत्र-प्रमुख शत्रुओ के संहारक सिद्ध हुये है,अत: आप संग्राम-भूमि मे वीर योद्दाओ की रक्षा करे॥८॥
३९.तं त्वा वाजेषु वाजिनं वाजयाम: शतक्रतो। धनानामिन्द्र सातये॥९॥
हे शतकर्मा इन्द्रदेव ! युद्धो मे बल प्रदान करने वाले आपको हम धनि की प्राप्ति के लिये श्रेष्ठ हविष्यान्न अर्पित करते हैं॥९॥
४०. यो रायो३वनिर्महान्त्सुपार: सुन्वत: सखा। तस्मा इन्द्राय गायत।।१०॥
हे याजको! आप उन इन्द्रदेव के लिये स्तोत्रो का गान करें , जो धनो के महान् रक्षक, दु:खो को दूर करने वाले और् याज्ञिको से मित्रवत् भाव रखने वाले है॥१०॥
३१. सुरूपकृलुमूतये सुदुघामिव गोदुहे। जुहूमसि द्यविद्यवि ॥१॥
(गो दोहन करने वाले के द्वारा) प्रतिदिन मधुर दूध प्रदान करने वाली गाय को जिस प्रकार बुलाया जाता है, उसी प्रकार हम अपने संरक्षण के लिये सौन्दर्यपूर्ण यज्ञकर्म सम्पन्न करने वाले इन्द्रदेव का आवाहन करते है ॥१॥
३२.उप न: सवना गहि सोमस्य सोमपा: पिब। गोदा इन्द्रेवतो मद: ॥२॥
सोमरस का पान करने वाले हे इन्द्रदेव! आप सोम ग्रहण करने हेतु हमारे सवन यज्ञो मे पधार कर,सोमरस पीने के बाद प्रसन्न होकर याजको को यश,वैभव और् गौंए प्रदान करें॥२॥
३३. अथ ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम्। मा नो अति ख्य आ गहि॥३॥
सोमपान कर लेने के अनन्तर हे इंद्रदेव ! हम आपके अत्यन्त समीपवर्त्ती श्रेष्ठ प्रज्ञावान पुरूषो की उपस्थिति मे रहकर आपके विषय मे अधिक ज्ञान प्राप्त करें। आप भी हमारे अतिरिक्त अन्य किसी के समक्ष अपना स्वरूप प्रकट् न करे (अर्थात् अपने विषय मे न बताएं)॥३॥
३४.परेहि विग्नमस्तृतमिन्द्रं पृच्छा विपश्चितम् । यस्ते सखिभ्य् आ वरम्॥४॥
हे ज्ञानवानो! आप उन विशिष्ट बुद्धि वाले, अपराजेय इन्द्रदेव के पास जाकर मित्रो बन्धुओ के लिये धन ऐश्वर्य के निमित्त् प्रार्थना करें॥४॥
३५। उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत। दधाना इन्द्र इद्दुव:॥५॥
इन्द्रदेव की उपासना करने वाले उपासक उन(इन्द्रदेव) के निन्दको को यहां से अन्यत्र निकल जाने हो कहें; ताकि वे यहां से दूर हो जायें ॥५॥
३६. उत न: सुभगाँ अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टय:। स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि॥६॥
हे इन्द्रदेव ! हम आपके अनुग्रह से समस्त वैभव प्राप्त करें। जिससे देखनेवाले शभी शत्रु और् मित्र हमे सौभाग्यशाली समझे॥६॥
३७ एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नृमादनम्। पतयन्मन्दयत् सखम् ॥७॥
(हे याजको !) यज्ञ को श्रीसमपन्न बनाने वाले , प्रसन्न्ता प्रदान करने वाले, मित्रो को आनन्द देने वाले इस सोमरस को शीघ्रगामी इन्द्रदेव के लिये भरें (अर्पित करें) ॥७॥
३८. अस्य पीत्वा शतक्रतो घनो वृत्राणामभव:। प्रावो वाजेषु वाजिनम्
॥८॥
हे सैकड़ो यज्ञ सम्पन्न करने वाले इन्द्रदेव! इस सोमरस को पीकर आप वृत्र-प्रमुख शत्रुओ के संहारक सिद्ध हुये है,अत: आप संग्राम-भूमि मे वीर योद्दाओ की रक्षा करे॥८॥
३९.तं त्वा वाजेषु वाजिनं वाजयाम: शतक्रतो। धनानामिन्द्र सातये॥९॥
हे शतकर्मा इन्द्रदेव ! युद्धो मे बल प्रदान करने वाले आपको हम धनि की प्राप्ति के लिये श्रेष्ठ हविष्यान्न अर्पित करते हैं॥९॥
४०. यो रायो३वनिर्महान्त्सुपार: सुन्वत: सखा। तस्मा इन्द्राय गायत।।१०॥
हे याजको! आप उन इन्द्रदेव के लिये स्तोत्रो का गान करें , जो धनो के महान् रक्षक, दु:खो को दूर करने वाले और् याज्ञिको से मित्रवत् भाव रखने वाले है॥१०॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ५
[ऋषि - मधुच्छन्दा वैश्वामित्र। देवता- इन्द्र। छन्द- गायत्री]
४१. आ त्वेता नि षिदतेन्द्रमभि प्र गायत । सखाय: स्तोमवाहस: ॥१॥
हे याज्ञिक मित्रो! इन्द्रदेव को प्रसन्न करने ले लिये प्रार्थना करने हेतु शीघ्र आकर बैठो और् हर प्रकार् से उनकी स्तुति करो ॥१॥
४२. पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम् । इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥२॥
(हे याजक मित्रो! सोम् के अभिषुत होने पर) एकत्रित होकर् संयुक्तरूप से सोमयज्ञ मे शत्रुओ को पराजित् करने वाले ऐश्वर्य के स्वामी ओन्द्रदेव की अभ्यर्थना करो ॥२॥
४३. स घा नो योग आ भुवत् स राये स् पुरन्द्याम् । गमद् वाजेभिरा स न: ॥३॥
वे इन्द्रदेव हमारे पुरषार्थ को प्रखर बनाने मे सहायक हो, धन धान्य से हमे परिपूर्ण करें तथा ज्ञानप्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुये पोषक अन्न सहित हमारे निकट आयें ॥३॥
४४. यस्यं स्ंस्थे न वृण्व्ते हरी समत्सु शत्रव:। तस्मा इन्द्राय गायत॥४॥
(हे याजको!) संग्राम मे जिनके अश्वो से युक्त रथो के सम्मुख शत्रु टिक नही सकते, उन इन्द्रदेव के गुणो का आप गान करे॥४॥
४५. सुतओआव्ने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये। सोमासो दध्याशिर:॥५॥
यह निचोड़ा और शुद्ध किया हुआ दही मिश्रित सोमरस, सोमपान की इच्छा करने वाले वाले इन्द्रदेव के निमित्त प्राप्त हो ॥५॥
४६. त्वं सुतस्य पीतवे सद्यो वृद्धो अजायथा:। इन्द्र ज्यैष्ठय्याय सुक्रतो॥६॥
हे उत्तम कर्म वाले इन्द्रदेव! आप सोमरस पीने के लिये देवताओ मे सर्वश्रेष्ठ होने के लीये तत्काल वृद्ध रूप हो जाते है॥६॥
४७. आ त्वा विशन्त्वाशव: सोमास इन्द्र गिर्वण:। शं ते सन्तु प्रचेतसे॥७॥
हे इन्द्रदेव! तीनो सवनो मे व्याप्त रहने वाला यह सोम, आपके सम्मुख उपस्थित रहे एवं आपके ज्ञान को सुखपूर्वक संमृद्ध करें॥७॥
४८. त्वा स्तोमा अवीवृधन् त्वामुक्था शतक्रतो। त्वां वर्धन्तु नो गिर:॥८॥
हे सैकड़ो यज्ञ करने वाले इन्द्रदेव! स्तोत्र आपकी वृद्धी करें। यह उक्थ(स्तोत्र) वचन और हमारी वाणी आपकी महत्ता बढाये॥८॥
४९. अक्षितोति: सनेदिमं वाजामिन्द्र: सहस्त्रिणम् । यस्मिन्ं विश्वानि पौंस्या॥९॥
रक्षणीय की सर्वथा रक्षा करने वाले इन्द्रदेव बल पराक्रम प्रदान करने वाले विविध रूपो मे विद्यमान सोम रूप अन्न का सेवन करे॥९॥
५०. मा नो मर्ता अभि द्रुहन् तनूमामिन्द्र गिर्वण:। ईशानो यवया वधम् ॥१०॥
हे स्तुत्य इन्द्रदेव! हमारे शरीर् को कोई भी शत्रु क्षति न पहुंचाये। हमे कोई भी हिंसित न करे, आप हमारे संरक्षक रहे॥१०॥
४१. आ त्वेता नि षिदतेन्द्रमभि प्र गायत । सखाय: स्तोमवाहस: ॥१॥
हे याज्ञिक मित्रो! इन्द्रदेव को प्रसन्न करने ले लिये प्रार्थना करने हेतु शीघ्र आकर बैठो और् हर प्रकार् से उनकी स्तुति करो ॥१॥
४२. पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम् । इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥२॥
(हे याजक मित्रो! सोम् के अभिषुत होने पर) एकत्रित होकर् संयुक्तरूप से सोमयज्ञ मे शत्रुओ को पराजित् करने वाले ऐश्वर्य के स्वामी ओन्द्रदेव की अभ्यर्थना करो ॥२॥
४३. स घा नो योग आ भुवत् स राये स् पुरन्द्याम् । गमद् वाजेभिरा स न: ॥३॥
वे इन्द्रदेव हमारे पुरषार्थ को प्रखर बनाने मे सहायक हो, धन धान्य से हमे परिपूर्ण करें तथा ज्ञानप्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुये पोषक अन्न सहित हमारे निकट आयें ॥३॥
४४. यस्यं स्ंस्थे न वृण्व्ते हरी समत्सु शत्रव:। तस्मा इन्द्राय गायत॥४॥
(हे याजको!) संग्राम मे जिनके अश्वो से युक्त रथो के सम्मुख शत्रु टिक नही सकते, उन इन्द्रदेव के गुणो का आप गान करे॥४॥
४५. सुतओआव्ने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये। सोमासो दध्याशिर:॥५॥
यह निचोड़ा और शुद्ध किया हुआ दही मिश्रित सोमरस, सोमपान की इच्छा करने वाले वाले इन्द्रदेव के निमित्त प्राप्त हो ॥५॥
४६. त्वं सुतस्य पीतवे सद्यो वृद्धो अजायथा:। इन्द्र ज्यैष्ठय्याय सुक्रतो॥६॥
हे उत्तम कर्म वाले इन्द्रदेव! आप सोमरस पीने के लिये देवताओ मे सर्वश्रेष्ठ होने के लीये तत्काल वृद्ध रूप हो जाते है॥६॥
४७. आ त्वा विशन्त्वाशव: सोमास इन्द्र गिर्वण:। शं ते सन्तु प्रचेतसे॥७॥
हे इन्द्रदेव! तीनो सवनो मे व्याप्त रहने वाला यह सोम, आपके सम्मुख उपस्थित रहे एवं आपके ज्ञान को सुखपूर्वक संमृद्ध करें॥७॥
४८. त्वा स्तोमा अवीवृधन् त्वामुक्था शतक्रतो। त्वां वर्धन्तु नो गिर:॥८॥
हे सैकड़ो यज्ञ करने वाले इन्द्रदेव! स्तोत्र आपकी वृद्धी करें। यह उक्थ(स्तोत्र) वचन और हमारी वाणी आपकी महत्ता बढाये॥८॥
४९. अक्षितोति: सनेदिमं वाजामिन्द्र: सहस्त्रिणम् । यस्मिन्ं विश्वानि पौंस्या॥९॥
रक्षणीय की सर्वथा रक्षा करने वाले इन्द्रदेव बल पराक्रम प्रदान करने वाले विविध रूपो मे विद्यमान सोम रूप अन्न का सेवन करे॥९॥
५०. मा नो मर्ता अभि द्रुहन् तनूमामिन्द्र गिर्वण:। ईशानो यवया वधम् ॥१०॥
हे स्तुत्य इन्द्रदेव! हमारे शरीर् को कोई भी शत्रु क्षति न पहुंचाये। हमे कोई भी हिंसित न करे, आप हमारे संरक्षक रहे॥१०॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ६
[ऋषि-मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता- १-३,१० इन्द्र; ४,६,८,९ मरुद् गण;५-७ मरुद् गण और् इन्द्र;१० छन्द- गायत्री]
५१। युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुश्ष:। रोचन्ते रोचना दिवि ॥१॥(वे इन्द्रदेव) द्युलोक मे आदित्य रूप मे, भूमि पर अहिंसक अग्नि रूप् मे, अंतरिक्ष मे सर्वत्र प्रसरणशील वायु रूप मे उपस्थित है। उन्हे उक्त तीनो लोको के प्राणी अपने कार्यो मे देवत्वरूप से संबद्ध मानते है। द्युलोक मे प्रकाशित होने वाले नक्षत्र-ग्रह उन्ही इन्द्र के स्वरूपांश है। अर्थात तीनो लोको की प्रकाशमयी-प्राणमयी शक्तीयो के वे ही एकमात्र संगठक है ॥१॥
५२.युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे।शोणा धृष्णू नृवाहसा॥२॥
इन्द्रदेव के रथ मे दोनो ओर रक्तवर्ण, संघर्षशील, मनुष्यो को गति देने वाले दो घोड़े नियोजित् रहते है ॥२॥
५३ केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे । समुषद्धिरजायथा:॥३॥
हे मनुष्यो! तुम रात्रि मे निद्राभिभूत होकर, संज्ञा शून्य निश्चेष्ट होकर,प्रात: पुन: सचेत और सचेष्ट होकर मानो प्रतिदिन नवजीवन प्राप्त करते हो। प्रति दिन् अजन्म लेते हो ॥३॥
५४. आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे।दधाना नाम यज्ञियम् ॥४॥
यज्ञीय नाम वाले, धारण करने मे समर्थ मरुत् वास्तव मे अन्न की (वृद्धि की) कामना से बार बार (मेघ आदि) गर्भ को प्राप्त होते है॥४॥
५५. वीळु चिदारुजत्नुभिर्गुहा चिदिन्द्र वह्रिभि: । अविन्द उस्त्रिया अनु ॥५॥
हे इन्द्रदेव। सुदृढ़ किले मे बन्दी को ध्वस्त करने मे समर्थ, तेजस्वी मरुद् गणो के सहयोग से आपने गुफा मे अवरुद्ध गौओं (किरणो) को खोजकर प्राप्त किया ॥५॥
५६. देवयन्तो यथा मतिमिच्छा विदद्वसुं गिर:। महानूषत् श्रुतम् ॥६॥
देवत्व प्राप्ति की कामना वाले ज्ञानी ऋत्विज् ,महान यशस्वी, ऐश्वर्यवान वीर् मरुद्गणो की बुद्धिपूर्वक स्तुति करते है ॥६॥
५७.इन्द्रेण सं हि दृक्षसे सञ्जग्मानो अबिभ्युषा । मन्दू समानवर्चसा॥७॥
सदा प्रसन्न रहने वाले, समान् तेज वाले मरुद् गण निर्भय रहने वाले इन्द्रदेव के साथ संगठित अच्छे लगते है ॥७॥
५८. अनवद्यैरभिद्युभिर्मख: सहस्वदर्चति । गणैरिन्द्रस्य काम्यै: ॥८॥
इस यज्ञ मे निर्दोष, दीप्तिमान् , इष्ट प्रदायक, सामर्थ्यवान मरुद् गणो के साथी इन्द्रदेव के सामर्थ्य की पूजा की जाती है ॥८॥
५९. अत: परिज्मन्ना गहि दिवो वा रोचनादधि। समस्मिन्नृञ्जते गिर: ॥९॥
हे सर्वत्र गमनशील मरुद् गणो ! आप अंतरिक्ष से, आकाश से, अथवा प्रकाशमान द्युलोक से यहां पर आयें क्योंकि इस यज्ञ मे हमारी वाणियां आपकि स्तुति कर रही हैं ॥९॥
इतो वा सातिमीमहे दिवो वा पार्थिवादधि । इन्द्र महो वा रजस: ॥१०॥
इस पृथ्वी लोक, अन्तरिक्ष लोक अथवा द्युलोक से कहीं से भी प्रभूत धन प्राप्त कराने के लिये, हम इन्द्रदेव की प्रार्थना करते हैं ॥१०॥
५१। युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुश्ष:। रोचन्ते रोचना दिवि ॥१॥(वे इन्द्रदेव) द्युलोक मे आदित्य रूप मे, भूमि पर अहिंसक अग्नि रूप् मे, अंतरिक्ष मे सर्वत्र प्रसरणशील वायु रूप मे उपस्थित है। उन्हे उक्त तीनो लोको के प्राणी अपने कार्यो मे देवत्वरूप से संबद्ध मानते है। द्युलोक मे प्रकाशित होने वाले नक्षत्र-ग्रह उन्ही इन्द्र के स्वरूपांश है। अर्थात तीनो लोको की प्रकाशमयी-प्राणमयी शक्तीयो के वे ही एकमात्र संगठक है ॥१॥
५२.युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे।शोणा धृष्णू नृवाहसा॥२॥
इन्द्रदेव के रथ मे दोनो ओर रक्तवर्ण, संघर्षशील, मनुष्यो को गति देने वाले दो घोड़े नियोजित् रहते है ॥२॥
५३ केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे । समुषद्धिरजायथा:॥३॥
हे मनुष्यो! तुम रात्रि मे निद्राभिभूत होकर, संज्ञा शून्य निश्चेष्ट होकर,प्रात: पुन: सचेत और सचेष्ट होकर मानो प्रतिदिन नवजीवन प्राप्त करते हो। प्रति दिन् अजन्म लेते हो ॥३॥
५४. आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे।दधाना नाम यज्ञियम् ॥४॥
यज्ञीय नाम वाले, धारण करने मे समर्थ मरुत् वास्तव मे अन्न की (वृद्धि की) कामना से बार बार (मेघ आदि) गर्भ को प्राप्त होते है॥४॥
५५. वीळु चिदारुजत्नुभिर्गुहा चिदिन्द्र वह्रिभि: । अविन्द उस्त्रिया अनु ॥५॥
हे इन्द्रदेव। सुदृढ़ किले मे बन्दी को ध्वस्त करने मे समर्थ, तेजस्वी मरुद् गणो के सहयोग से आपने गुफा मे अवरुद्ध गौओं (किरणो) को खोजकर प्राप्त किया ॥५॥
५६. देवयन्तो यथा मतिमिच्छा विदद्वसुं गिर:। महानूषत् श्रुतम् ॥६॥
देवत्व प्राप्ति की कामना वाले ज्ञानी ऋत्विज् ,महान यशस्वी, ऐश्वर्यवान वीर् मरुद्गणो की बुद्धिपूर्वक स्तुति करते है ॥६॥
५७.इन्द्रेण सं हि दृक्षसे सञ्जग्मानो अबिभ्युषा । मन्दू समानवर्चसा॥७॥
सदा प्रसन्न रहने वाले, समान् तेज वाले मरुद् गण निर्भय रहने वाले इन्द्रदेव के साथ संगठित अच्छे लगते है ॥७॥
५८. अनवद्यैरभिद्युभिर्मख: सहस्वदर्चति । गणैरिन्द्रस्य काम्यै: ॥८॥
इस यज्ञ मे निर्दोष, दीप्तिमान् , इष्ट प्रदायक, सामर्थ्यवान मरुद् गणो के साथी इन्द्रदेव के सामर्थ्य की पूजा की जाती है ॥८॥
५९. अत: परिज्मन्ना गहि दिवो वा रोचनादधि। समस्मिन्नृञ्जते गिर: ॥९॥
हे सर्वत्र गमनशील मरुद् गणो ! आप अंतरिक्ष से, आकाश से, अथवा प्रकाशमान द्युलोक से यहां पर आयें क्योंकि इस यज्ञ मे हमारी वाणियां आपकि स्तुति कर रही हैं ॥९॥
इतो वा सातिमीमहे दिवो वा पार्थिवादधि । इन्द्र महो वा रजस: ॥१०॥
इस पृथ्वी लोक, अन्तरिक्ष लोक अथवा द्युलोक से कहीं से भी प्रभूत धन प्राप्त कराने के लिये, हम इन्द्रदेव की प्रार्थना करते हैं ॥१०॥