प्रथम प्रश्न
२ सम्बन्ध भाष्य
३ सुकेश आदि की गुरुपसत्ति भारद्वाजनंदन सुकेशा, शिबिकुमार सत्यकाम, गर्गगोत्र में उत्पन्न हुआ सौर्यायणी (सूर्य का पोता), अश्वलकुमार कौसल्य, विदर्भदेशीय भार्गव और कत्य के पोते का पुत्र कबन्धी-ये अपर ब्रह्म की उपासना करने वाले और तदनुकूल अनुष्ठान में तत्पर छः ऋषिगण परब्रह्म के जिज्ञासु होकर भगवान पिप्पलाद के पास, यह सोचकर कि हमें उसके विषय में सब कुछ बतला देंगे, हाथ में समिधा लेकर गए। कहते हैं, उस ऋषि ने उनसे कहा-'तपस्या, ब्रह्मचर्य और श्रद्धा से युक्त होकर एक वर्ष और निवास करो; फिर अपने इच्छानुसार प्रश्न करना, यदि मैं जानता होऊंगा तो तुम्हें सब बतला दूंगा। ४ कबन्धी का प्रश्न-प्रजा किससे उत्पन्न होती है ? तदनन्तर (एक वर्षगुरुकुल्वास करने के पश्चात्) कात्यायन कबन्धी ने गुरूजी के पास जाकर पूछा - 'भगवन्! यह साडी प्रजा किससे उत्पन्न होती है? ५ रवि और प्राण की उत्पत्ति उस से उस पिप्पलाद मुने ने कहा-'प्रसिद्द है कि प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा वाले प्रजापति ने तप किया। उसने ताप करके रयि और प्राण यह जोड़ा उत्पन्न किया (और सोचा) ये दोनों ही मेरी अनेक प्रकार की प्रजा उत्पन्न करेंगे। ६ आदित्य और चंद्रमा में प्राण और रयि दृष्टि निश्चय आदित्य ही प्राण है और रयि ही चंद्रमा है। यह जो कुछ मूर्त (स्थूल) और अमूर्त (सूक्षम)है सब रयि ही है; अतः मूर्ती ही रयि है। जिस समय सूर्य उदित होकर पूर्व दिशा में प्रवेश करता है तो उसके द्वारा वह पुर्व दिशा के प्राणों को अपनी किरणों में धारण करता है। इसी प्रकार जिस समय वह दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, नीचे, ऊपर और अवांतर दिशाओं को प्रकाशित करता है उससे भी वह उन सबके प्राणों को अपनी किरणों में धारण करता है। वह यह (भोक्ता) वैश्वानर विश्वरूप प्राण अग्नि ही प्रकट होता है। यही बात ऋक ने भी कही है। सर्व रूप, रश्मिवान, ज्ञानसम्पन्न, सबके आश्रय, ज्योतिर्मय, अद्वितीय और तपते हुए सूर्य को (विद्वानों ने अपनी आत्मा रूप से जाना है) यह सूर्य सहस्त्रों किरणों वाला, सैकड़ों प्रकार से वर्तमान और प्रजाओं के प्राण रूप से उदित होता है। |
७ संवात्सरादी में प्रजापति आदि दृष्टि
संवत्सर ही प्रजापति है; उसके दक्षिण और उत्तर दो अयन है। जो लोग इष्टापूर्तरूप कर्ममार्ग का अवलंबन करते हैं वे चंद्रलोक पर ही विजय पते हैं और वे ही पुनः आवागमन को प्राप्त होते है, अतः ये संतानेच्छु ऋषि लोग दक्षिण मार्ग को ही प्राप्त करते हैं। (इस प्रकार) जो पितृयाण है वही रयि है। तथा ताप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा और विद्या द्वारा आत्मा की खोज करते हुए वे उत्तरमार्ग द्वारा सूर्य लोक को प्राप्त करते हैं। यही प्राणों का आश्रय है; यही अमृत है, यही अभय है और यही परा गति है। इससे फिर नहीं लौटते; अतः यही निरोधस्थान है। इस विषय में यह (अगला) मन्त्र है। ८ आदित्य का सर्वाधिष्ठानत्व अन्य काल्वेत्तागण इस आदित्य को पांच पैरों वाला, सबका पिता, बारह आकृतियों वाला, पुरीषी (जलवाला) और द्युलोक के परार्द्ध में स्थित बतलाते हैं तथा ये अन्य लोग उसे सर्वज्ञ और उस सात चक्र और छः अरेवाले में ही इस जगत को अर्पित बतलाते हैं। ९ मासादि में प्रजापति आदि दृष्टि मास ही प्रजापति है। उसका कृष्णपक्ष ही रयि है और शुक्लपक्ष प्राण है। इसलिए ये (प्राणोंपासक) ऋषिगण शुक्लपक्ष में ही यज्ञ करते हैं। १० दिन-रात का प्रजापतित्व दिन रात भी प्रजापति है। उनमें दिन ही प्राण है और रात्रि ही रयि है। जो लोग दिन के समय रति के लिए (स्त्री से) संयुक्त होते हैं वे प्राण की ही हानि करते हैं और जो रात्रि के समय रति के लिए (स्त्री से) संयोग करते हैं वह तो ब्रह्मचर्य ही है। ११ अन्न का प्रजापतित्व अन्न ही प्रजापति है; उसी से वह वीर्य होता है और उस वीर्य ही से यह सम्पूर्ण प्रजा उत्पन्न होती है। १२ प्रजापतित्व का फल इस प्रकार जो भी उस प्रजापति व्रत का आचरण करते हैं वे (कन्या पुत्र रूप) मिथुन को उत्पन्न करते हैं। जिनमें कि तप और ब्रह्मचर्य है तथा जिनमें सत्य स्थित है उन्हीं को यह ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। १३ उत्तरमार्गावलम्बियों की गति जिनमें कुटिलता, अनृत और माया(कपट)नहीं है उन्हें यह विशुद्ध ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। |