Akash Ganga Paying Guest (A/C) only for Girls, #1108, Sec 13, Kurukshetra-136118
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त 40
[ऋषि - कण्व धौर । देवता - ब्रह्मणस्पति । छन्द बाहर्त प्रगाध(विषमा बृहती, समासतो बृहती)।]
४८२.उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे । उप प्र यन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा ॥१॥
हे ब्रह्मणस्पते! आप उठें, देवो की कामना करने वाले हम आपकी स्तुति करते है। कल्याणकारी मरुद्गण हमारे पास आयें। हे इन्द्रदेव। आप ब्रह्मणस्पति के साथ मिलकर सोमपान करें॥१॥
४८३.त्वामिद्धि सहसस्पुत्र मर्त्य उपब्रूते धने हिते । सुवीर्यं मरुत आ स्वश्व्यं दधीत यो व आचके ॥२॥
साहसिक कार्यो के लिये समर्पित हे ब्रह्मणस्पते! युद्ध मे मनुष्य आपका आवाहन करतें है। हे मरुतो! जो धनार्थी मनुष्य ब्रह्मणस्पति सहित आपकी स्तुति करता है, वह उत्तम अश्वो के साथ श्रेष्ठ पराक्रम एवं वैभव से सम्पन्न हो॥२॥
४८४.प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृता । अच्छा वीरं नर्यं पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः ॥३॥
ब्रह्मणस्पति हमारे अनुकूल होकर यज्ञ मे आगमन करें। हमे सत्यरूप दिव्यवाणी प्राप्त हो। मनुष्यो के हितकरी देवगण हमारे यज्ञ मे पंक्तिबद्ध होकर अधिष्ठित हों तथा शत्रुओं का विनाश करें॥३॥
४८५.यो वाघते ददाति सूनरं वसु स धत्ते अक्षिति श्रवः । तस्मा इळां सुवीरामा यजामहे सुप्रतूर्तिमनेहसम् ॥४॥
जो यजमान ऋत्विजो को उत्तम धन देते है,वे अक्षय यश को पाते है, उनके निमित्त हम (ऋत्विग्गण) उत्तम पराक्रमी, शत्रु नाशक, अपराजेय, मातृभूमि की वन्दना करते हैं॥४॥
४८६.प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम् । यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिरे ॥५॥
ब्रह्मणस्पति निश्चय ही स्तुति योग्य (उन) मंत्रो को विधि से उच्चारित कराते हैं, जिन मंत्रो मे इन्द्र, वरुण, मित्र और अर्यमा आदि देवगण निवास करते हैं॥५॥
४८७.तमिद्वोचेमा विदथेषु शम्भुवं मन्त्रं देवा अनेहसम् । इमां च वाचं प्रतिहर्यथा नरो विश्वेद्वामा वो अश्नवत् ॥६॥
हे नेतृत्व करने वालो! (देवताओ!) हम सुखप्रद, विघ्ननाशक मंत्र का यज्ञ मे उच्चारण करते है। हे नेतृत्व करने वाले देवो! यदि आप इस मन्त्र रूप वाणी की कामना करते हैं,(सम्मानपूर्वक अपनाते है) तो यह सभी सुन्दर स्तोत्र आपको निश्चय ही प्राप्त हों॥६॥
४८८.को देवयन्तमश्नवज्जनं को वृक्तबर्हिषम् । प्रप्र दाश्वान्पस्त्याभिरस्थितान्तर्वावत्क्षयं दधे ॥७॥
देवत्व की कामना करनेवालो के पास भला कौन आयेंगे?(ब्रह्मणस्पति आयेंगें।) कुश-आसन बिछाने वाले के पास कौन आयेंगे ? (ब्रह्मणस्पति आयेंगें।) आपके द्वारा हविदाता याजक अपनी संतानो, पशुओ आदि के निमित्त उत्तम घर का आश्रय पाते है॥७॥
४८९.उप क्षत्रं पृञ्चीत हन्ति राजभिर्भये चित्सुक्षितिं दधे । नास्य वर्ता न तरुता महाधने नार्भे अस्ति वज्रिणः ॥८॥
ब्रह्मणस्पतिदेव, क्षात्रबल की अभिवृद्धि कर राजाओ की सहायता से शत्रुओं को मारते है। भय के सम्मुख वे उत्तम धैर्य को धारण करते है। ये वज्रधारी बड़े युद्धो या छोटे युद्धो मे किसी से पराजित नही होते॥८॥
४८२.उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे । उप प्र यन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा ॥१॥
हे ब्रह्मणस्पते! आप उठें, देवो की कामना करने वाले हम आपकी स्तुति करते है। कल्याणकारी मरुद्गण हमारे पास आयें। हे इन्द्रदेव। आप ब्रह्मणस्पति के साथ मिलकर सोमपान करें॥१॥
४८३.त्वामिद्धि सहसस्पुत्र मर्त्य उपब्रूते धने हिते । सुवीर्यं मरुत आ स्वश्व्यं दधीत यो व आचके ॥२॥
साहसिक कार्यो के लिये समर्पित हे ब्रह्मणस्पते! युद्ध मे मनुष्य आपका आवाहन करतें है। हे मरुतो! जो धनार्थी मनुष्य ब्रह्मणस्पति सहित आपकी स्तुति करता है, वह उत्तम अश्वो के साथ श्रेष्ठ पराक्रम एवं वैभव से सम्पन्न हो॥२॥
४८४.प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृता । अच्छा वीरं नर्यं पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः ॥३॥
ब्रह्मणस्पति हमारे अनुकूल होकर यज्ञ मे आगमन करें। हमे सत्यरूप दिव्यवाणी प्राप्त हो। मनुष्यो के हितकरी देवगण हमारे यज्ञ मे पंक्तिबद्ध होकर अधिष्ठित हों तथा शत्रुओं का विनाश करें॥३॥
४८५.यो वाघते ददाति सूनरं वसु स धत्ते अक्षिति श्रवः । तस्मा इळां सुवीरामा यजामहे सुप्रतूर्तिमनेहसम् ॥४॥
जो यजमान ऋत्विजो को उत्तम धन देते है,वे अक्षय यश को पाते है, उनके निमित्त हम (ऋत्विग्गण) उत्तम पराक्रमी, शत्रु नाशक, अपराजेय, मातृभूमि की वन्दना करते हैं॥४॥
४८६.प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम् । यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिरे ॥५॥
ब्रह्मणस्पति निश्चय ही स्तुति योग्य (उन) मंत्रो को विधि से उच्चारित कराते हैं, जिन मंत्रो मे इन्द्र, वरुण, मित्र और अर्यमा आदि देवगण निवास करते हैं॥५॥
४८७.तमिद्वोचेमा विदथेषु शम्भुवं मन्त्रं देवा अनेहसम् । इमां च वाचं प्रतिहर्यथा नरो विश्वेद्वामा वो अश्नवत् ॥६॥
हे नेतृत्व करने वालो! (देवताओ!) हम सुखप्रद, विघ्ननाशक मंत्र का यज्ञ मे उच्चारण करते है। हे नेतृत्व करने वाले देवो! यदि आप इस मन्त्र रूप वाणी की कामना करते हैं,(सम्मानपूर्वक अपनाते है) तो यह सभी सुन्दर स्तोत्र आपको निश्चय ही प्राप्त हों॥६॥
४८८.को देवयन्तमश्नवज्जनं को वृक्तबर्हिषम् । प्रप्र दाश्वान्पस्त्याभिरस्थितान्तर्वावत्क्षयं दधे ॥७॥
देवत्व की कामना करनेवालो के पास भला कौन आयेंगे?(ब्रह्मणस्पति आयेंगें।) कुश-आसन बिछाने वाले के पास कौन आयेंगे ? (ब्रह्मणस्पति आयेंगें।) आपके द्वारा हविदाता याजक अपनी संतानो, पशुओ आदि के निमित्त उत्तम घर का आश्रय पाते है॥७॥
४८९.उप क्षत्रं पृञ्चीत हन्ति राजभिर्भये चित्सुक्षितिं दधे । नास्य वर्ता न तरुता महाधने नार्भे अस्ति वज्रिणः ॥८॥
ब्रह्मणस्पतिदेव, क्षात्रबल की अभिवृद्धि कर राजाओ की सहायता से शत्रुओं को मारते है। भय के सम्मुख वे उत्तम धैर्य को धारण करते है। ये वज्रधारी बड़े युद्धो या छोटे युद्धो मे किसी से पराजित नही होते॥८॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त 41
[ऋषि - कण्व धौर । देवता - वरुण, मित्र एवं अर्यमा; ४-६ आदित्यगण । छन्द- गायत्री।]
४९०.यं रक्षन्ति प्रचेतसो वरुणो मित्रो अर्यमा । नू चित्स दभ्यते जनः ॥१॥
जिस याजक को, ज्ञान सम्पन्न वरुण,मित्र और अर्यमा आदि देवो का संरक्षण प्राप्त है, उसे कोई भी नहीं दबा सकता॥१॥
४९१.यं बाहुतेव पिप्रति पान्ति मर्त्यं रिषः । अरिष्टः सर्व एधते ॥२॥
अपने बाहुओं से विविध धनो को देते हुए, वरुणादि देवगण जिस मनुष्य की रक्षा करते हैं, शत्रुओ से अंहिसित होता हुआ वह वृद्धि पाता है॥२॥
४९२.वि दुर्गा वि द्विषः पुरो घ्नन्ति राजान एषाम् । नयन्ति दुरिता तिरः ॥३॥
राजा के सदृश वरुणादि देवगण, शत्रुओ के नगरो और किलो को विशेष रूप से नष्ट करते है। वे याजकों को दुःख के मूलभूत कारणो (पापो) से दूरे ले जाते हैं॥३॥
४९३.सुगः पन्था अनृक्षर आदित्यास ऋतं यते । नात्रावखादो अस्ति वः ॥४॥
हे आदित्यो! आप के यज्ञ मे आने के मार्ग अति सुगम और कण्टकहीन हैं। इस यज्ञ मे आपके लिए श्रेष्ठ हविष्यान समर्पित हैं॥४॥
४९४.यं यज्ञं नयथा नर आदित्या ऋजुना पथा । प्र वः स धीतये नशत् ॥५॥
हे आदित्यो! जिस यज्ञ को आप सरल मार्ग से सम्पादित करते है, वह यज्ञ आपके ध्यान मे विशेष रूप से रहता है। वह भला कैसे विस्मृत हो सकता है?॥५॥
४९५.स रत्नं मर्त्यो वसु विश्वं तोकमुत त्मना । अच्छा गच्छत्यस्तृतः ॥६॥
हे आदित्यो! आपका याजक किसी से पराजित नही होता। वह धनादि रत्न और सन्तानो को प्राप्त करता हुआ प्रगति करता है॥६॥
४९६.कथा राधाम सखाय स्तोमं मित्रस्यार्यम्णः । महि प्सरो वरुणस्य ॥७॥
हे मित्रो! मित्र, अर्यमा और वरुण देवो के महान ऐश्वर्य साधनो का किस प्रकार वर्णन करें ? अर्थात इनकी महिमा अपार है॥७॥
४९७.मा वो घ्नन्तं मा शपन्तं प्रति वोचे देवयन्तम् । सुम्नैरिद्व आ विवासे ॥८॥
हे देवो! देवत्व प्राप्ति की कामना वाले साधको को कोई कटुवचनो से और क्रोधयुक्त वचनो से प्रताड़ित न करने पाये। हम स्तुति वचनो द्वारा आपको प्रसन्न करते हैं॥८॥
४९८.चतुरश्चिद्ददमानाद्बिभीयादा निधातोः । न दुरुक्ताय स्पृहयेत् ॥९॥
जैसे जुआ खेलने मे चार पांसे गिरने तक भय रहता है, उसी प्रकार बुरे वचन कहने से भी डरना चाहिये। उससे स्नेह नहीं करना चाहिए॥९॥
४९०.यं रक्षन्ति प्रचेतसो वरुणो मित्रो अर्यमा । नू चित्स दभ्यते जनः ॥१॥
जिस याजक को, ज्ञान सम्पन्न वरुण,मित्र और अर्यमा आदि देवो का संरक्षण प्राप्त है, उसे कोई भी नहीं दबा सकता॥१॥
४९१.यं बाहुतेव पिप्रति पान्ति मर्त्यं रिषः । अरिष्टः सर्व एधते ॥२॥
अपने बाहुओं से विविध धनो को देते हुए, वरुणादि देवगण जिस मनुष्य की रक्षा करते हैं, शत्रुओ से अंहिसित होता हुआ वह वृद्धि पाता है॥२॥
४९२.वि दुर्गा वि द्विषः पुरो घ्नन्ति राजान एषाम् । नयन्ति दुरिता तिरः ॥३॥
राजा के सदृश वरुणादि देवगण, शत्रुओ के नगरो और किलो को विशेष रूप से नष्ट करते है। वे याजकों को दुःख के मूलभूत कारणो (पापो) से दूरे ले जाते हैं॥३॥
४९३.सुगः पन्था अनृक्षर आदित्यास ऋतं यते । नात्रावखादो अस्ति वः ॥४॥
हे आदित्यो! आप के यज्ञ मे आने के मार्ग अति सुगम और कण्टकहीन हैं। इस यज्ञ मे आपके लिए श्रेष्ठ हविष्यान समर्पित हैं॥४॥
४९४.यं यज्ञं नयथा नर आदित्या ऋजुना पथा । प्र वः स धीतये नशत् ॥५॥
हे आदित्यो! जिस यज्ञ को आप सरल मार्ग से सम्पादित करते है, वह यज्ञ आपके ध्यान मे विशेष रूप से रहता है। वह भला कैसे विस्मृत हो सकता है?॥५॥
४९५.स रत्नं मर्त्यो वसु विश्वं तोकमुत त्मना । अच्छा गच्छत्यस्तृतः ॥६॥
हे आदित्यो! आपका याजक किसी से पराजित नही होता। वह धनादि रत्न और सन्तानो को प्राप्त करता हुआ प्रगति करता है॥६॥
४९६.कथा राधाम सखाय स्तोमं मित्रस्यार्यम्णः । महि प्सरो वरुणस्य ॥७॥
हे मित्रो! मित्र, अर्यमा और वरुण देवो के महान ऐश्वर्य साधनो का किस प्रकार वर्णन करें ? अर्थात इनकी महिमा अपार है॥७॥
४९७.मा वो घ्नन्तं मा शपन्तं प्रति वोचे देवयन्तम् । सुम्नैरिद्व आ विवासे ॥८॥
हे देवो! देवत्व प्राप्ति की कामना वाले साधको को कोई कटुवचनो से और क्रोधयुक्त वचनो से प्रताड़ित न करने पाये। हम स्तुति वचनो द्वारा आपको प्रसन्न करते हैं॥८॥
४९८.चतुरश्चिद्ददमानाद्बिभीयादा निधातोः । न दुरुक्ताय स्पृहयेत् ॥९॥
जैसे जुआ खेलने मे चार पांसे गिरने तक भय रहता है, उसी प्रकार बुरे वचन कहने से भी डरना चाहिये। उससे स्नेह नहीं करना चाहिए॥९॥
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त 42
[ऋषि - कण्व धौर । देवता- पूषा । छन्द - गायत्री]
४९९.सं पूषन्नध्वनस्तिर व्यंहो विमुचो नपात् । सक्ष्वा देव प्र णस्पुरः ॥१॥
हे पूषादेव ! हम पर सुखो को न्योछावर करें। पाप मार्गो से हमे पार लगाएं। हे देव ! हमे आगे बढा़ए॥१॥
५००.यो नः पूषन्नघो वृको दुःशेव आदिदेशति । अप स्म तं पथो जहि ॥२॥
हे पूषादेव ! जो हिंसक, चोर जुआ खेलने वाले हम पर शासन करना चाहते है, उन्हे हम से दूर करें॥२॥
५०१.अप त्यं परिपन्थिनं मुषीवाणं हुरश्चितम् । दूरमधि स्रुतेरज ॥३॥
हे पूषादेव ! मार्ग मे घात लगानेवाले तथा लूटनेवाले कुटिल चोर को हमारे मार्ग से दूर करके विनष्ट करें॥३॥
५०२.त्वं तस्य द्वयाविनोऽघशंसस्य कस्य चित् । पदाभि तिष्ठ तपुषिम् ॥४॥
आप हर किसी दुहरी चाल चलने वाले कुटिल हिंसको के शरीर को पैरो से कुचलकर खड़े हों, अर्थात इन्हे दबाकर रखें, उन्हे बढने न दे॥४ ॥
५०३.आ तत्ते दस्र मन्तुमः पूषन्नवो वृणीमहे । येन पितॄनचोदयः ॥५॥
हे दुष्ट नाशक, मनीषी पूषादेव ! हम अपनी रक्षा के निमित्त आपकी स्तुति करते हैं। आपके संरक्षण ने ही हमारे पितरों को प्रवृद्ध किया था॥५॥
५०४.अधा नो विश्वसौभग हिरण्यवाशीमत्तम । धनानि सुषणा कृधि ॥६॥
हे सम्पूर्ण सौभाग्ययुक्त और स्वर्ण आभूषणो से युक्त पूषादेव! हमारे लिए सभी उत्तम धन एवं सामर्थ्यो को प्रदान करें॥६॥
५०५.अति नः सश्चतो नय सुगा नः सुपथा कृणु । पूषन्निह क्रतुं विदः ॥७॥
हे पूषादेव ! कुटिल दुष्टो से हमे दूर ले चलें। हमे सुगम-सुपथ का अवलम्बन प्रदान करें एवं अपने कर्तव्यो का बोध कराएं॥७॥
५०६.अभि सूयवसं नय न नवज्वारो अध्वने । पूषन्निह क्रतुं विदः ॥८॥
हे पूषादेव ! हमए उत्तम जौ (अन्न) वाले देश की ओर के चले। मार्ग मे नवीन संकट न आने पायें। हमे अपने कर्तव्यो का ज्ञान करायें।(हम इन कर्तव्यो को जाने।)॥८॥
५०७.शग्धि पूर्धि प्र यंसि च शिशीहि प्रास्युदरम् । पूषन्निह क्रतुं विदः ॥९॥
हे पूषादेव! हमरे सामर्थ्य दें। हमे धनो से युक्त करें। हमे साधनो से सम्पन्न करें। हमे तेजस्वी बनाएं। हमारी उदरपूर्ति करें। हम अपने इन कर्तव्यो को जाने॥९॥
५०८.न पूषणं मेथामसि सूक्तैरभि गृणीमसि । वसूनि दस्ममीमहे ॥१०॥
हम पूषादेव को नहीं भूलते ! सुक्तो मे उनकी स्तुति करते है। प्रकाशमान सम्पदा हम उनसे मागंते है॥१०॥
४९९.सं पूषन्नध्वनस्तिर व्यंहो विमुचो नपात् । सक्ष्वा देव प्र णस्पुरः ॥१॥
हे पूषादेव ! हम पर सुखो को न्योछावर करें। पाप मार्गो से हमे पार लगाएं। हे देव ! हमे आगे बढा़ए॥१॥
५००.यो नः पूषन्नघो वृको दुःशेव आदिदेशति । अप स्म तं पथो जहि ॥२॥
हे पूषादेव ! जो हिंसक, चोर जुआ खेलने वाले हम पर शासन करना चाहते है, उन्हे हम से दूर करें॥२॥
५०१.अप त्यं परिपन्थिनं मुषीवाणं हुरश्चितम् । दूरमधि स्रुतेरज ॥३॥
हे पूषादेव ! मार्ग मे घात लगानेवाले तथा लूटनेवाले कुटिल चोर को हमारे मार्ग से दूर करके विनष्ट करें॥३॥
५०२.त्वं तस्य द्वयाविनोऽघशंसस्य कस्य चित् । पदाभि तिष्ठ तपुषिम् ॥४॥
आप हर किसी दुहरी चाल चलने वाले कुटिल हिंसको के शरीर को पैरो से कुचलकर खड़े हों, अर्थात इन्हे दबाकर रखें, उन्हे बढने न दे॥४ ॥
५०३.आ तत्ते दस्र मन्तुमः पूषन्नवो वृणीमहे । येन पितॄनचोदयः ॥५॥
हे दुष्ट नाशक, मनीषी पूषादेव ! हम अपनी रक्षा के निमित्त आपकी स्तुति करते हैं। आपके संरक्षण ने ही हमारे पितरों को प्रवृद्ध किया था॥५॥
५०४.अधा नो विश्वसौभग हिरण्यवाशीमत्तम । धनानि सुषणा कृधि ॥६॥
हे सम्पूर्ण सौभाग्ययुक्त और स्वर्ण आभूषणो से युक्त पूषादेव! हमारे लिए सभी उत्तम धन एवं सामर्थ्यो को प्रदान करें॥६॥
५०५.अति नः सश्चतो नय सुगा नः सुपथा कृणु । पूषन्निह क्रतुं विदः ॥७॥
हे पूषादेव ! कुटिल दुष्टो से हमे दूर ले चलें। हमे सुगम-सुपथ का अवलम्बन प्रदान करें एवं अपने कर्तव्यो का बोध कराएं॥७॥
५०६.अभि सूयवसं नय न नवज्वारो अध्वने । पूषन्निह क्रतुं विदः ॥८॥
हे पूषादेव ! हमए उत्तम जौ (अन्न) वाले देश की ओर के चले। मार्ग मे नवीन संकट न आने पायें। हमे अपने कर्तव्यो का ज्ञान करायें।(हम इन कर्तव्यो को जाने।)॥८॥
५०७.शग्धि पूर्धि प्र यंसि च शिशीहि प्रास्युदरम् । पूषन्निह क्रतुं विदः ॥९॥
हे पूषादेव! हमरे सामर्थ्य दें। हमे धनो से युक्त करें। हमे साधनो से सम्पन्न करें। हमे तेजस्वी बनाएं। हमारी उदरपूर्ति करें। हम अपने इन कर्तव्यो को जाने॥९॥
५०८.न पूषणं मेथामसि सूक्तैरभि गृणीमसि । वसूनि दस्ममीमहे ॥१०॥
हम पूषादेव को नहीं भूलते ! सुक्तो मे उनकी स्तुति करते है। प्रकाशमान सम्पदा हम उनसे मागंते है॥१०॥