मुण्डकोपनिषद
तृतीय मुण्डक
प्रथम खंड
समान वृक्ष पर रहने वाले दो पक्षी
साथ-साथ रहने वाले तथा समान आख्यान वाले दो पक्षी एक ही वृक्ष का आश्रय करके रहते हैं। उनमें एक तो स्वादिष्ट (मधुर) पिप्पल (कर्मफल) का भोग करता है और दूसरा भोग न करके केवल देखता रहता है।
ईश्वर दर्शन से जीव की शोक निवृति
[ईश्वर के साथ] एक ही वृक्ष पर रहने वाला जीव अपने दीन स्वभाव के कारण मोहित होकर शोक करता है। वह जिस समय (ध्यान द्वारा) अपने से विलक्षण योगी सेवित ईश्वर और उसकी महिमा (संसार) दो देखता है उस समय शोक रहित हो जाता है।
जिस समय दृष्टा सुवर्ण वर्ण और ब्रह्मा के भी उत्पत्ति स्थान उस जगत्कर्ता ईश्वर पुरुष को देखता है उस समय वह विद्वान पाप-पुण्य दोनों को त्यागकर निर्मल हो अत्यंत समता को प्राप्त हो जाता है।
श्रेष्ठतम ब्रह्मज्ञ
यह, जो सम्पूर्ण भूतों के रूप में भासमान हो रहा है प्राण है। इसे जानकार विद्वान अतिवादी नहीं होता। यह आत्मा में क्रीडा करने वाला और आत्मा में ही रमण करने वाला क्रियावान पुरुष ब्रह्म वेत्ताओं में श्रेष्ठतम है।
आत्मदर्शन के साधन
यह आत्मा सर्वदा सत्य, तप, सम्यग्ज्ञान और ब्रह्मचर्य के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जिसे दोषहीन योगिजन देखते हैं वह ज्योतिर्मय शुभ्र आत्मा शरीर के भीतर रहता है।
सत्य की महिमा
सत्य ही जय को प्राप्त होता है, मिथ्या नहीं। सत्य से देवयानमार्ग का विस्तार होता है, जिसके द्वारा आत्मकाम ऋषि लोग उस पद को प्राप्त होते हैं जहाँ वह सत्य का परम निधान (भण्डार) वर्तमान है।
परम पद का स्वरूप
वह महान दिव्य और अचिन्त्य रूप है। वह सूक्षम से भी सूक्षमतर भासमान होता है तथा दूर से भी दूर और इस शरीर में अत्यंत समीप भी है। वह चेतनावान प्राणियों में इस शरीर के भीतर उनकी बुद्धिरूप गुहा में छिपा हुआ है।
आत्म साक्षात्कार का असाधारण साधन - चित्तशुद्धि
(यह आत्मा) न नेत्र से ग्रहण किया जाता है, न वाणी से, न अन्य इन्द्रियों से और न तप अथवा कर्म से ही। ज्ञान के प्रसाद से पुरुष विशुद्ध चित्त हो जाता है और तभी वह ध्यान करने पर उस निष्कल आत्म तत्त्व का साक्षात्कार करता है।
शरीर में इन्द्रियरूप से अनुप्रविष्ट हुए आत्मा का चित्त शुद्धि द्वारा साक्षात्कार
वह सूक्ष्म आत्मा, जिस (शरीर) में पांच प्रकार से प्राण प्रविष्ट है उस शरीर के भीतर ही विशुद्ध विज्ञान द्वारा जानने योग्य है। उससे इन्द्रियों द्वारा प्रजा वर्ग के सम्पूर्ण चित्त व्याप्त है, जिसके शुद्ध हो जाने पर यह आत्म स्वरूप से प्रकाशित होने लगता है।
आत्मज्ञ का वैभव और उसकी पूजा का विधान
वह विशुद्ध चित्त आत्मवेत्ता मन से जिस-जिस लोक की भावना करता है और जिन-जिन भोगों को चाहता है वह उसी-उसी लोक और उन्हीं-उन्हीं भोगों को प्राप्त कर लेता है। इसलिए एश्वर्य की इच्छा करने वाला पुरुष आत्मज्ञानी की पूजा करे।
साथ-साथ रहने वाले तथा समान आख्यान वाले दो पक्षी एक ही वृक्ष का आश्रय करके रहते हैं। उनमें एक तो स्वादिष्ट (मधुर) पिप्पल (कर्मफल) का भोग करता है और दूसरा भोग न करके केवल देखता रहता है।
ईश्वर दर्शन से जीव की शोक निवृति
[ईश्वर के साथ] एक ही वृक्ष पर रहने वाला जीव अपने दीन स्वभाव के कारण मोहित होकर शोक करता है। वह जिस समय (ध्यान द्वारा) अपने से विलक्षण योगी सेवित ईश्वर और उसकी महिमा (संसार) दो देखता है उस समय शोक रहित हो जाता है।
जिस समय दृष्टा सुवर्ण वर्ण और ब्रह्मा के भी उत्पत्ति स्थान उस जगत्कर्ता ईश्वर पुरुष को देखता है उस समय वह विद्वान पाप-पुण्य दोनों को त्यागकर निर्मल हो अत्यंत समता को प्राप्त हो जाता है।
श्रेष्ठतम ब्रह्मज्ञ
यह, जो सम्पूर्ण भूतों के रूप में भासमान हो रहा है प्राण है। इसे जानकार विद्वान अतिवादी नहीं होता। यह आत्मा में क्रीडा करने वाला और आत्मा में ही रमण करने वाला क्रियावान पुरुष ब्रह्म वेत्ताओं में श्रेष्ठतम है।
आत्मदर्शन के साधन
यह आत्मा सर्वदा सत्य, तप, सम्यग्ज्ञान और ब्रह्मचर्य के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जिसे दोषहीन योगिजन देखते हैं वह ज्योतिर्मय शुभ्र आत्मा शरीर के भीतर रहता है।
सत्य की महिमा
सत्य ही जय को प्राप्त होता है, मिथ्या नहीं। सत्य से देवयानमार्ग का विस्तार होता है, जिसके द्वारा आत्मकाम ऋषि लोग उस पद को प्राप्त होते हैं जहाँ वह सत्य का परम निधान (भण्डार) वर्तमान है।
परम पद का स्वरूप
वह महान दिव्य और अचिन्त्य रूप है। वह सूक्षम से भी सूक्षमतर भासमान होता है तथा दूर से भी दूर और इस शरीर में अत्यंत समीप भी है। वह चेतनावान प्राणियों में इस शरीर के भीतर उनकी बुद्धिरूप गुहा में छिपा हुआ है।
आत्म साक्षात्कार का असाधारण साधन - चित्तशुद्धि
(यह आत्मा) न नेत्र से ग्रहण किया जाता है, न वाणी से, न अन्य इन्द्रियों से और न तप अथवा कर्म से ही। ज्ञान के प्रसाद से पुरुष विशुद्ध चित्त हो जाता है और तभी वह ध्यान करने पर उस निष्कल आत्म तत्त्व का साक्षात्कार करता है।
शरीर में इन्द्रियरूप से अनुप्रविष्ट हुए आत्मा का चित्त शुद्धि द्वारा साक्षात्कार
वह सूक्ष्म आत्मा, जिस (शरीर) में पांच प्रकार से प्राण प्रविष्ट है उस शरीर के भीतर ही विशुद्ध विज्ञान द्वारा जानने योग्य है। उससे इन्द्रियों द्वारा प्रजा वर्ग के सम्पूर्ण चित्त व्याप्त है, जिसके शुद्ध हो जाने पर यह आत्म स्वरूप से प्रकाशित होने लगता है।
आत्मज्ञ का वैभव और उसकी पूजा का विधान
वह विशुद्ध चित्त आत्मवेत्ता मन से जिस-जिस लोक की भावना करता है और जिन-जिन भोगों को चाहता है वह उसी-उसी लोक और उन्हीं-उन्हीं भोगों को प्राप्त कर लेता है। इसलिए एश्वर्य की इच्छा करने वाला पुरुष आत्मज्ञानी की पूजा करे।
द्वितीय खण्ड
आत्मवेत्ता की पूजा का फल
वह (आत्मवेत्ता) इस परम आश्रय रूप ब्रह्म को जिसमें यह समस्त जगत अर्पित है और जो स्वयं शुद्ध रूप से भासमान हो रहा है, जानता है। जो निष्काम भाव से उस आत्मज्ञ पुरुष की उपासना करते हैं, वे बुद्धिमान लोग शरीर के बीज भूत इस वीर्य का अतिक्रमण कर जाते हैं। अर्थात इसके बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
निष्कामता से पुनर्जन्म निवृत्ति
(भोगों के गुणों का) चिंतन करने वाला जो पुरुष भोगों की इच्छा करता है वह उन कामनाओं के योग से तहां-तहां (उनकी प्राप्ति के स्थानों मे) उत्पन्न होता रहता है। परंतु जिसकी कामनाएं पूर्ण हो गयी हैं उस कृतकृत्य पुरुष की तो सभी कामनाएं इस लोक मे ही लीन हो जाती हैं।
आत्मदर्शन का प्रधान साधन-जिज्ञासा
यह आत्मा ना तो प्रवचन से प्राप्त होने योग्य है और न मेधा (धारणशक्ति) तथा अधिक श्रवण करने से ही मिलने वाला है। यह(विद्वान) जिस परमात्मा की प्राप्ति की इच्छा करता है उस (इच्छा) के द्वारा ही इसकी प्राप्ति हो सकती है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को व्यक्त कर देता है।
आत्मदर्शन मे अन्य साधन
यह आत्मा बलहीन पुरुष को प्राप्त नहीं हो सकता और न प्रमाद अथवा लिंग (सन्यास) रहित तपस्या से ही(मिल सकता है)। परंतु जो विद्वान इन उपायों से (उसे प्राप्त करने के लिये) प्रयत्न करता है उसका यह आत्मा ब्रह्मधाम मे प्रविष्ट हो जाता है।
आत्मदर्शी की ब्रह्मप्राप्ति का प्रकार
इस आत्मा को प्राप्त कर ऋषिगण ज्ञानतृप्त, कृतकृत्य, विरक्त और प्रशांत हो जाते हैं। वे धीर पुरुष उस सर्वगत ब्रह्म को सब और प्राप्त कर (मरणकाल में) समाहितचित्त हो सर्वरूप ब्रह्म मे ही प्रवेश कर जाते हैं।
ज्ञातज्ञेय की मोक्षप्राप्ति
जिन्होने वेदांतजनित विज्ञान से ज्ञेय अर्थ का अच्छी तरह निश्चय कर लिया है वे सन्यासयोग से यत्न करने वाले समस्त शुद्धचित्त पुरुष ब्रह्मलोक मे देहत्याग करते समय परम अमरभाव को प्राप्त हो सब ओर से मुक्त हो जाते हैं।
मोक्ष का स्वरूप
(प्राणादि) पंद्रह कलाएं अपने आश्रयों मे स्थित हो जाती है, (चक्षु आदि इन्द्रियों के अधिष्ठाता) समस्त देवगण अपने प्रति देवता (आदित्यादि) मे लीन हो जाते हैं तथा उसके (संचितादि) कर्म और विज्ञानमय आत्मा आदि सब-के-सब पर अव्यय देव मे एकीभाव को प्राप्त हो जाते हैं।
ब्रह्म प्राप्ति मे नदी आदि का दृष्टांत
जिस प्रकार निरंतर बहती हुई नदियाँ अपने नाम-रूप को त्यागकर समुद्र मे अस्त हो जाती हैं उसी प्रकार विद्वान नाम-रूप से मुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही है
जो कोई उस परब्रह्म को जान लेता है वह ब्रह्म ही हो जाता है। उसके कुल मे कोई अब्रह्मवित नहीं होता। वह शोक को तर जाता है, पाप को पार कर लेता है और हृदय ग्रंथियों से विमुक्त होकर अमरत्व प्राप्त कर लेता है।
विद्याप्रदान की विधि
जो अधिकारी क्रियावान, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ और स्वयं श्रधापूर्वक एकर्षि नमक अग्नि मे हवन करने वाले हैं तथा जिन्होने विधिपूर्वक शिरोव्रत का अनुष्ठान किया है उन्हीं से यह ब्रह्म विद्या कहनी चाहिये।
उपसंहार
उस इस सत्य का पुरकाल मे अंगिरा ऋषि ने (शौनकजी को) उपदेश किया था। जिसने शिरोव्रत का अनुष्ठान नहीं किया वह इसका अध्ययन नहीं कर सकता। परमर्षियों को नमस्कार है, परमर्षियों को नमस्कार है।
ॐ भद्रं कर्णेभी श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवा सस्तनूभि र्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्ताक्ष् र्योऽरिष्टनेमी: स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
ॐ शान्ति! शान्ति! शान्ति!
आत्मवेत्ता की पूजा का फल
वह (आत्मवेत्ता) इस परम आश्रय रूप ब्रह्म को जिसमें यह समस्त जगत अर्पित है और जो स्वयं शुद्ध रूप से भासमान हो रहा है, जानता है। जो निष्काम भाव से उस आत्मज्ञ पुरुष की उपासना करते हैं, वे बुद्धिमान लोग शरीर के बीज भूत इस वीर्य का अतिक्रमण कर जाते हैं। अर्थात इसके बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
निष्कामता से पुनर्जन्म निवृत्ति
(भोगों के गुणों का) चिंतन करने वाला जो पुरुष भोगों की इच्छा करता है वह उन कामनाओं के योग से तहां-तहां (उनकी प्राप्ति के स्थानों मे) उत्पन्न होता रहता है। परंतु जिसकी कामनाएं पूर्ण हो गयी हैं उस कृतकृत्य पुरुष की तो सभी कामनाएं इस लोक मे ही लीन हो जाती हैं।
आत्मदर्शन का प्रधान साधन-जिज्ञासा
यह आत्मा ना तो प्रवचन से प्राप्त होने योग्य है और न मेधा (धारणशक्ति) तथा अधिक श्रवण करने से ही मिलने वाला है। यह(विद्वान) जिस परमात्मा की प्राप्ति की इच्छा करता है उस (इच्छा) के द्वारा ही इसकी प्राप्ति हो सकती है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को व्यक्त कर देता है।
आत्मदर्शन मे अन्य साधन
यह आत्मा बलहीन पुरुष को प्राप्त नहीं हो सकता और न प्रमाद अथवा लिंग (सन्यास) रहित तपस्या से ही(मिल सकता है)। परंतु जो विद्वान इन उपायों से (उसे प्राप्त करने के लिये) प्रयत्न करता है उसका यह आत्मा ब्रह्मधाम मे प्रविष्ट हो जाता है।
आत्मदर्शी की ब्रह्मप्राप्ति का प्रकार
इस आत्मा को प्राप्त कर ऋषिगण ज्ञानतृप्त, कृतकृत्य, विरक्त और प्रशांत हो जाते हैं। वे धीर पुरुष उस सर्वगत ब्रह्म को सब और प्राप्त कर (मरणकाल में) समाहितचित्त हो सर्वरूप ब्रह्म मे ही प्रवेश कर जाते हैं।
ज्ञातज्ञेय की मोक्षप्राप्ति
जिन्होने वेदांतजनित विज्ञान से ज्ञेय अर्थ का अच्छी तरह निश्चय कर लिया है वे सन्यासयोग से यत्न करने वाले समस्त शुद्धचित्त पुरुष ब्रह्मलोक मे देहत्याग करते समय परम अमरभाव को प्राप्त हो सब ओर से मुक्त हो जाते हैं।
मोक्ष का स्वरूप
(प्राणादि) पंद्रह कलाएं अपने आश्रयों मे स्थित हो जाती है, (चक्षु आदि इन्द्रियों के अधिष्ठाता) समस्त देवगण अपने प्रति देवता (आदित्यादि) मे लीन हो जाते हैं तथा उसके (संचितादि) कर्म और विज्ञानमय आत्मा आदि सब-के-सब पर अव्यय देव मे एकीभाव को प्राप्त हो जाते हैं।
ब्रह्म प्राप्ति मे नदी आदि का दृष्टांत
जिस प्रकार निरंतर बहती हुई नदियाँ अपने नाम-रूप को त्यागकर समुद्र मे अस्त हो जाती हैं उसी प्रकार विद्वान नाम-रूप से मुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही है
जो कोई उस परब्रह्म को जान लेता है वह ब्रह्म ही हो जाता है। उसके कुल मे कोई अब्रह्मवित नहीं होता। वह शोक को तर जाता है, पाप को पार कर लेता है और हृदय ग्रंथियों से विमुक्त होकर अमरत्व प्राप्त कर लेता है।
विद्याप्रदान की विधि
जो अधिकारी क्रियावान, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ और स्वयं श्रधापूर्वक एकर्षि नमक अग्नि मे हवन करने वाले हैं तथा जिन्होने विधिपूर्वक शिरोव्रत का अनुष्ठान किया है उन्हीं से यह ब्रह्म विद्या कहनी चाहिये।
उपसंहार
उस इस सत्य का पुरकाल मे अंगिरा ऋषि ने (शौनकजी को) उपदेश किया था। जिसने शिरोव्रत का अनुष्ठान नहीं किया वह इसका अध्ययन नहीं कर सकता। परमर्षियों को नमस्कार है, परमर्षियों को नमस्कार है।
ॐ भद्रं कर्णेभी श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवा सस्तनूभि र्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्ताक्ष् र्योऽरिष्टनेमी: स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
ॐ शान्ति! शान्ति! शान्ति!